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________________ शंका- ज्योतिष शास्त्र आदि का जितना कार्य है,। शेष रहने पर प्रथम सम्यक्त्व के ग्रहण करने के योग्य ग्रह, नक्षत्र आदि इस मुहूर्त में होना चाहिए। इस मुहूर्त | होता है। इससे अधिक काल शेष रहने पर नहीं होता, में गमन करना चाहिए, काल को देखकर ही सारा कार्य | यह एक काल लब्धि है। किया जाता है, यदि इनको न मानें तो ज्योतिष की क्या दूसरी काल लब्धि का सम्बन्ध कर्मस्थिति से है। उपयोगिता रहेगी? उत्कृष्ट स्थितिवाले कर्मों के शेष रहने पर या जघन्य समाधान- सुनो, हमने काल का निषेध तो नहीं स्थितिवाले कर्मों के शेष रहने पर प्रथम सम्यक्त्व का किया। हमने पहले बताया था कि चाक की कील की| लाभ नहीं होता। तो फिर किस अवस्था में होता है? भाँति काल है। जब बँधने वाले कर्मों की स्थिति अन्तः कोडाकोड़ी कील को काल की उपमा दी गई है या चाक | सागरोपम पड़ती है और विशुद्ध परिणामों के वश से को या कुंभकार को या कुंभकार के हाथ को, किसको सत्ता में स्थित कर्मों की स्थिति संख्यात हजार सागरोपम काल की उपमा दी है बताओ, सुनो, समयसार तो सभी | कम अन्तः कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्राप्त होती है, तब यह लोग पढ़ते हैं। लेकिन कारण कार्य की व्यवस्था में उनका | जीव प्रथम सम्यक्त्व के योग्य होता है। बिल्कुल ढीला काम है। यह काल की देन नहीं है, तीसरी काललब्धि भव की अपेक्षा है। यह ध्यान रखना, हमारी बुद्धि की देन है। ये तीन प्रकार की काल लब्धियाँ हैं। उनमें यह काललब्धि काल को नापने की अपेक्षा से आरोपवाली काललब्धि धवला जी का वाचन हो रहा था। प्रश्न हुआ | अलग है और कर्मस्थिति को लेकर के जो परिवर्तन कि उपशम सम्यग्दर्शन कब प्राप्त होता है? अनादि | होते हैं भाव इत्यादि के, वह अलग है और भवस्थिति मिथ्यादृष्टि को कब होता है? जिस समय अर्धपुद्गल- को लेकर के काललब्धि अलग है। ऐसी तीन काल परावर्तन-काल अवशिष्ट रहता है, तब वह उपशम | लब्धियाँ बताईं। सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है। ज्यादा अवशिष्ट हो तो नहीं। | सम्यग्दर्शन कैसे होता है? तो उत्तर हेतु 'अर्धयह एक नाप-तौल काल के माध्यम से कह दिया। किन्तु | पुद्गलपरावर्तन काल शेष रहने पर होता है', यह रटा काललब्धि कितने प्रकार की होती है? आप लोगों ने | हुआ है। अर्धपुद्गलपरावर्तन काल क्या वस्तु है, यह कभी सुना, पंडित जी! आप बताओ, काललब्धि कितने निर्णय बहुत महत्त्वपूर्ण है। स्वाध्याय तो हम करते हैं। प्रकार की होती है? हमें पता नहीं, हर व्यक्ति कहता लेकिन आज तक निर्णय नहीं हुआ। वर्षों हो गये काल है। काल लब्धि, सर्वार्थसिद्धि आप पढ़िये, उसमें लिखा लब्धि के बारे में चर्चा करते। लेकिन यह चर्चा धवला हुआ है जी आदि के अलावा अन्यत्र कहीं नहीं आती है। यदि 'तत्र काललब्धिस्तावत्- कर्माविष्ट आत्मा भव्यः | आती भी है तो कोई भी रुचिपूर्वक सुनना नहीं चाहता। कालेऽर्द्धपद्गलपरिवर्तनाख्येऽवशिष्टे प्रथम-सम्यक्त्व- धवला ग्रन्थ में यह बात आती है कि यह जीव ग्रहणस्य योग्यो भवति नाधिके इति इयमेका काललब्धिः।' | तीन करणपूर्वक सम्यग्दर्शन को प्राप्त कर लेता है और अपरा कर्मस्थितिका काललब्धिः । उत्कृष्ट- सम्यग्दर्शन के प्राप्त होते ही "अपरीत-संसारो अनन्तो स्थितिकेषु कर्मसु जघन्यस्थितिकेषु च प्रथमसम्यक्त्व- सम्मत्तस्स उवलद्धे" "अनन्तसंसारो छेत्तूण अद्धं लाभो न भवति। क्व तर्हि भवति? अन्तः कोटाकोटी- पुग्गलपरिमेत्तं कदा" ये पंक्तियाँ धवलाजी में अनेक बार सागरोपमस्थितिकेषु कर्मसु बन्धमापद्यमानेषु विशुद्ध- आई हैं। इनका अर्थ यह है कि यह कार्य काल के परिणामवशात् सत्कर्मसु च ततः संख्येयसागरोपम द्वारा नहीं हो रहा है। सहस्त्रोनायामन्तःकोटाकोटीसागरोपमस्थितौ स्थापितेष एक प्वाइन्ट रखा है- अनन्तकाल है संसार का प्रथमसम्यक्त्वयोग्यो भवति।अपरा काललब्धिर्भवापेक्षया। जिसका 'अपरीतो संसारो' 'अनन्तसंसारो' अब वह भव्य (स. सि. २/३) जीव, तीन करणों के माध्यम से अनन्त संसार को अब यहाँ काललब्धि बतलाते हैं- कर्मयुक्त कोई | सम्यग्दर्शन की महिमा से अर्द्धपुद्गल परावर्तन मात्र कर भी भव्य आत्मा अर्धपुद्गल परिवर्तन नाम के काल के | देता है। जून 2009 जिनभाषित ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524340
Book TitleJinabhashita 2009 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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