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जैनधर्म में सरस्वती उपासना?
प्रो० सागरमल जैन हम अपने पूर्व आलेख- "अर्धमागधी आगम | ही मिलते हैं। तीसरी-चौथी शती से लेकर सातवीं तक साहित्य में श्रुतदेवी सरस्वती" में स्पष्ट रूप से यह | हमें सरस्वती के उल्लेख नहीं मिले। पंचकल्पभाष्य की देख चुके हैं कि श्वेताम्बर परम्परा में मान्य अर्धमागधी | टीका में, उसे व्यन्तर देवी के रूप में उपस्थित किया आगमों में तथा उनकी नियुक्तियों और भाष्यों तक में | गया, जो अधिक सम्मानप्रद नहीं था, किन्तु हरिभद्र ने भी एक देवी के रूप में सरस्वती की अवधारणा अनुपस्थित | उसकी उपासना विधि में उसे वैराट्या, रोहिणी, अम्बा, है। भगवतीसूत्र में सरस्वती (स+रस+वती) पद का प्रयोग | सिद्धायिका, काली आदि शासनदेवियों के समकक्ष दर्जा मात्र जिनवाणी के विशेषण के रूप में हुआ है और | देकर उसका महत्त्व स्थापित किया है, क्योंकि काली, उस जिनवाणी को रस से युक्त मानकर यह विशेषण | अम्बा, सिद्धायिका आदि को जैनधर्म में शासनदेवता का दिया गया है। यद्यपि उसमें भगवती श्रुतदेवता (सुयदेवयाए सम्मान प्राप्त है। श्वेताम्बर परम्परा में श्रृतदेवी सरस्वती भगवइए) के कुछ प्रयोग मिले हैं, परन्तु वे भी जिनवाणी
की उपासना-विधि के साहित्यिक प्रमाण लगभग ८वीं के अर्थ में ही हैं। जिनवाणी के साथ देवता और भगवती | शती से मिलने लगते हैं। शब्दों का प्रयोग मात्र आदरसूचक है, किसी 'देवी' की जहाँ तक सरस्वती की प्रतिमा के पुरातात्विक कल्पना के रूप में नहीं है। श्रुतदेवता (श्रुतदेवी) की | प्रमाणों का प्रश्न है, वे प्रथमतया तो मथुरा से उपलब्ध कल्पना प्राचीन स्तर के आगमों की अपेक्षा कछ परवर्ती | सरस्वती की प्रतिमा के आधार पर ईसा की द्वितीय शती है। सर्वप्रथम पउमचरियं (ई० २री शती) में ह्री, श्री, | से मिलने लगते हैं, किन्तु जैन परम्परा में बहुत ही सुन्दर धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी को देवी कहा गया है, | सरस्वती प्रतिमाएँ पल्लू (बिकानेर) और लाडन आदि जो इन्द्र के आदेश से तीर्थंकर माता की सेवा करती | से उपलब्ध हैं, जो ९वीं, १०वीं शती के बाद की हैं। हैं (३/५९)। इसके साथ ही अंगविज्जा (लगभग २री जहाँ तक अचेल दिगम्बर परम्परा का प्रश्न है, शती) में भी बुद्धि की देवता के रूप में 'सरस्वती' | उसमें श्री श्रुतदेवी सरस्वती के उल्लेख पर्याप्त परवर्ती का उल्लेख है। (अध्याय ५८/ पृ. २२३) जबकि जैन हैं। कसायपाहुड, षट्खण्डागम, मूलाचार, भगवती-आराधना, देवमण्डल, जिसमें सोलह विद्यादेवियाँ, चौबीस यक्ष, | तिलोयपण्णत्ती, द्वादशअनुप्रेक्षा, (बारसअणुवेक्खा) एवं चौबीस यक्षियाँ (शासनदेवता), अष्ट या नौ दिक्पाल, | कुन्दकुन्द के ग्रन्थ समयसार, नियमसार, पंचास्तिकायसार, चौंसठ इन्द्र, लोकान्तिकदेव, नवग्रह, क्षेत्रपाल (भैरव) और प्रवचनसार आदि में हमें कहीं भी आद्यमंगल में श्रुतदेवता चौंसठ योगनियाँ भी सम्मिलित हैं, कहीं भी सरस्वती सरस्वती का उल्लेख नहीं मिला है। यहाँ तक कि तत्त्वार्थ का उल्लेख नहीं है। यह आश्चर्यजनक इसलिए है, अनेक | की टीकाओं जैसे सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक, श्लोकवार्तिक हिन्दू देव-देवियों को समाहित करके जैनों ने जिस में तथा षटखण्डागम की धवलाटीका और महाबंधटीका देवमण्डल का विकास किया था, उसमें श्रुतदेवी सरस्वती | में भी मंगलरूप में श्रुतदेवी सरस्वती का उल्लेख नहीं को क्यों स्थान नहीं दिया गया? जब कि मथुरा से उपलब्ध | है। महाबन्ध और उसकी टीका में मंगलरूप में जिन जैन स्तूप की पुरातात्त्विक सामग्री में विश्व की अभिलेखयुक्त | ४४ लब्धिपदों का उल्लेख है, उनमें भी कहीं सरस्वती प्राचीनतम जैन श्रुतदेवी या सरस्वती की प्रतिमा प्राप्त | या श्रुतदेवता का नाम नहीं है। ज्ञातव्य है ये ही लब्धिपद, हुई है, जिससे इतना तो सिद्ध हो ही जाता है कि ईसा | श्वेताम्बरपरम्परा में सूरिमंत्र के रूप में तथा प्रश्नव्याकरण की द्वितीय शताब्दी से जैनों में सरस्वती की आराधना | नामक अंग-आगम में भी उपलब्ध हैं, जिनमें अनेक प्रचलित रही होगी. क्योंकि इस प्रतिमा की प्रतिष्ठा | प्रकार के लब्धिधरों एवं प्रज्ञाश्रमणों कोटिकगण की वज्रीशाखा के जैनाचार्य द्वारा हुई है और | उनमें भी श्रुतदेवी सरस्वती का कोई उल्लेख नहीं है। 'सरस्वती' शब्द का भी उल्लेख है। इसके बाद श्वेताम्बर विद्वद्वर्ग के लिए यह विचारणीय और शोध का विषय परम्परा में श्रुतदेवी के रूप में सरस्वती के उल्लेख हरिभद्र (८वीं शती) और उनके बाद के आचार्यों के काल से । जहाँ तक मेरी जानकारी है, दिगम्बरपरम्परा में 22 जून 2009 जिनभाषित
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