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________________ सर्वप्रथम पं० आशाधर (१३वीं शती) ने अपने ग्रन्थ । पूर्णतः प्रभावित प्रतीत होती है। इस लेख में उल्लेखित सागारधर्मामृत में श्रुतदेवता की पूजा को जिनपूजा के | सभी स्तोत्र हमने क्रमशः परिशिष्ट में दिये हैं। समतुल्य बताया है। वे लिखते हैं | जहाँ तक सरस्वती के प्रतिमा लक्षणों का प्रश्न ये यजन्ते श्रुतं भक्त्या ते यजन्तेऽजसा जिनं। । है। सर्वप्रथम खरतरगच्छ के वर्धमानसूरि (१४वीं शती) तं किंचिदन्तरं प्राहुराप्ता हि श्रुतदेवयो॥ २/४४॥ | द्वारा रचित 'आचार दिनकर' नामक ग्रन्थ की प्रतिष्ठिाविधि मेरी जहाँ तक जानकारी है, दिगम्बर परम्परा में में निम्न दो श्लोक मिलते हैंकुन्दकुन्द प्रणीत मानी जानेवाली दस भक्तियों में श्रुतभक्ति | ॐ ह्रीं नमो भगवती ब्रह्माणि वीणा पुस्तक। तो है, किन्तु वह श्रुतदेवी सरस्वती की भक्ति है, यह | पद्माक्षसूये हंसवाहने श्वेतवर्णे इह षष्ठि पूजने आगच्छ॥ नहीं माना जा सकता है। श्रुतदेवयो' यह पद भी सर्वप्रथम पुनःसागारधर्मामृत में ही प्राप्त हो रहा है। मेरी दृष्टि से आचार्य श्वेतवर्णा श्वेतवस्त्रधारिणी हंसवाहना मल्लिषेण विरचित 'सरस्वती मन्त्रकल्प' उस परम्परा में श्वेतसिंहासनासीना चतुर्भुजा। सरस्वती उपासना का प्रथम ग्रन्थ है। मेरी दृष्टि में यह श्वेताब्जवीणालङ्कृता वामकरा ग्रन्थ बारहवीं शती के पश्चात् का ही है। पुस्तकमुक्ताक्षमालालडकृतदक्षिणकरो॥ जहाँ तक श्वेताम्बर परम्परा का प्रश्न है, मेरी (आचार्य दिनकर प्रतिष्ठाविधि) जानकारी में उसमें सर्वप्रथम 'सरस्वतीकल्प' की रचना जहाँ तक दिगम्बर परम्परा का प्रश्न है, उस परम्परा आचार्य बप्पभट्टीसरि (लगभग १० वीं शती) ने की है। के ग्रन्थ 'प्रतिष्ठासारोद्धार' में सरस्वती के सम्बन्ध में यह कल्प विस्तार से सरस्वती की उपासनाविधि तथा | निम्न श्लोक उपलब्ध हैतत्सम्बंधी मंत्रों को प्रस्तुत करता है। आचार्य बप्पभट्टीसूरि वाग्वादिनी भगवति सरस्वती ह्रीं नमः, इत्यनेन का काल लगभग १०वीं शती माना जाता है। श्वेताम्बर | मूलमन्त्रेण वेष्टयेत। ओं ह्रीं मयूरवाहिन्यै नमः इति परम्परा में सरस्वती का एक अन्य स्तोत्र साध्वी शिवार्या | वाग्देवता स्थापयेत॥ (प्रतिष्ठासारोद्धार) का मिलता है, इसका नाम 'पठितसिद्ध सारस्वतस्तव' | दोनों परम्पराओं में मूलभूत अन्तर यह है कि है। साध्वी शिवार्या का काल क्या है? यह निश्चित रूप | श्वेताम्बर परम्परा में सरस्वती का वाहन हंस माना गया से ज्ञात नहीं है। इसके पश्चात् श्वेताम्बर परम्परा में | है, जबकि दिगम्बर परम्परा में मयूर। हंस विवेक का जिनप्रभसूरि (लगभग १३ वीं-१४ वीं शती) का श्री | प्रतीक है सम्भवतः इसीलिए श्वेताम्बर आचार्यों ने उसे शारदास्तवन मिलता है, यह आकार में संक्षिप्त है, इसमें | चुना हो। फिर भी इतना निश्चित है कि सरस्वती इन मात्र ९ श्लोक हैं। इसके अतिरिक्त एक अन्य श्री सरस्वती प्रतिमालक्षणों पर वैदिक परम्परा का प्रभाव है। साथ ही स्तोत्र उपलब्ध होता है, इसमें मात्र १७ श्लोक हैं। इसके | उससे समरूपता भी है। मथुरा से प्राप्त जैनसरस्वती की कर्ता भी अज्ञात हैं। इनमें बप्पभट्टीसूरि का 'सरस्वती | प्रतिमा में मात्र एक हाथ में पुस्तक है, जबकि परवर्ती कल्प' ही ऐसा है, जिसमें सरस्वती उपासना की समग्र | जैनसरस्वती मूर्तियों में वीणा प्रदर्शित है। पद्धति दी गई है। यद्यपि यह पद्धति वैदिक परम्परा से प्राच्य विद्यापीठ दुपाडा रोड, शाजापुर, म०प्र० जिनेन्द्र-कला-केन्द्र ३६५ नैत्र लेंस निशुल्क प्रदान करेगा जिनेन्द्र कला केन्द्र, भीलवाड़ा ने अपनी 'म्यूजिक फॉर मेन काइण्ड' योजना में निर्धन व्यक्तियों को ३६५ नैत्र लेंस, चश्मा व आवश्यक औषधियाँ भी निशुल्क देने का निर्णय लिया है, जिसके अंतर्गत मार्च, अप्रैल २००९ में लॉयन नेत्र चिकित्सालय व गणेश उत्सव सेवा समिति को १०० नेत्र लेंस आदि प्रदान किये गये हैं। इस योजना में संस्था सचिव श्री निहाल अजमेरा, श्री वीरेन्द्र कुमार झांझरी (नीमच), डॉ० श्रीमती कुसुम व डॉ० सुमन जैन ने २५ हजार रूपया भेंट देकर सेवा का अवसर प्राप्त किया। निहाल अजमेरा, सचिव जून 2009 जिनभाषित 23 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524340
Book TitleJinabhashita 2009 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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