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________________ आशावादिता - डॉ० सुरेन्द्र कुमार जैन 'भारती' मैंने बचपन में सुना था कि आशा पर आसमान । आशा जीवन का संदेश देती है, नयी संरचना के लिए टिका होता है। यह बात बहुत हद तक सही प्रतीत | वातावरण सृजित करती है और संतोष को परम धन होती है। हमारे सुख का कारण आज तो है ही, लेकिन | माना गया है क्योंकि संतोषी प्राणी कदाचित् हानि भी बेहतर कल की आशा भी इसमें सहायक होती है। जिसके | हो जाय, तो दुःखी नहीं होता, बल्कि जिससे उसे हानि मन में आशा की डोर टूट जाती है वह निराश, हताश | | ना हो, ऐसा चिन्तन एवं कार्य करता है। हो विकास के पथ से विरत हो जाता है। ऐसा स्थिति आशा सामान्य भाव है, जिसमें आकर्षण है, जबकि में वह कभी विकास के पथ पर आ ही नहीं सकता | तृष्णा में विकर्षण है क्योंकि तृष्णा और तृष्णा को बढ़ाती अतः भारतीय मनीषियों का चिन्तन है कि सब कुछ। है। वह न स्वयं खाने देती है और जिन्हें जरूरत है छूट जाये, तो कुछ नहीं बिगड़ेगा किन्तु आशा नहीं टूटना | | उन्हें सहयोग भी नहीं करने देती। वास्तव में सुनियोजित चाहिए। तरीकों से पदार्थों का संचय ही उचित नहीं कहा, बल्कि आज के संसार में दु:ख अधिक दिखाई देते हैं, उन संचित पदार्थों का सुनियोजित तरीके से व्यय करना इसके लिए कहीं न कहीं हमारी सोच भी दोषी हो सकती | भी आना चाहिए। आय और व्यय दोनों ही स्थितियों है। जब सुख की समस्त सामग्रियाँ हमारे आसपास विद्यमान | में शुभ का योग होना चाहिए, हमारे पास जो आय हो हैं, तो प्रश्न उठता है कि यह दु:ख क्यों? तो यही उत्तर | वह भी शुभ तरीकों से हो, न्यायोपात्त हो और जो व्यय . मिलता है कि हमारी समस्याओं का प्रमुख कारण वस्तु हो वह भी शुभ कार्यों में हो, तो सोने में सोहागा जैसी या पदार्थों का अभाव नहीं बल्कि उनके संचय करने स्थिति बनती है। आनन्द का अक्षय स्रोत हमारे अंदर की प्रवृत्ति और तृष्णाभाव है। जहाँ तृष्णा है, वहाँ अतृप्ति छिपी प्रबल, किन्तु सहज आशावादिता में है। सुप्रभात स्वाभाविक है, ऐसा मानना चाहिए। | होते ही चिड़ियाँ चहचहाती हुईं, प्रभाती गातीं हुईं अपने हमारे सामने तीन स्थितियाँ होती हैं एक आशा | लिए भोजन की तलाश में निकल पड़ती हैं। उन्हें पता की जिसमें हम मन से चाहते हैं और मुख से माँगते | भी नहीं होता कि भोजन कहाँ है, किन्तु वे यह जानती हैं, दूसरी वह जिसमें हम मन से तो चाहते हैं, किन्तु | हैं कि आगे बढ़ो, तो भोजन अवश्य मिलेगा। आशा का मुख से नहीं माँगते। यह स्थिति संतोष की होती है। यह आंतरिक प्रवाह उन्हें ही आनन्दित नहीं करता अपितु नीतिकार कहते भी हैं कि उनके आनंद को सुनकर और देखकर दूसरे भी आनन्दित गोधन गजधन वाजिधन और रतन धन खानि।। होते हैं। इससे सिद्ध होता है कि आशावादिता ही आनंद जब आवै संतोष धन, सब धन धूरि समानि॥ | की कुंजी है। क्यों न इससे हम निराशा के ताले को तीसरी स्थिति वह होती है, जिसमें व्यक्ति न मन | खोलें और लक्ष्य प्राप्तिरूपी महल में प्रवेश करें। क्या से माँगता है और न मुख से चाहता है, यह स्थिति | आप ऐसी आशावादिता के लिए तैयार हैं? तृप्त व्यक्ति की होती है, जिन्हें हम महापुरुषों की कोटि एल-६५, न्यू इंदिरा नगर, में रखते हैं। प्रथम आशावादी एवं द्वितीय संतोषी प्राणी बुरहानपुर, म०प्र० हम और आप होते हैं। हमें ऐसा होना भी चाहिए क्योंकि । यह मुमकिन है कि लिक्खी हो कलम ने फ़तह आखिर में। जो हैं अहबाबे-हिम्मत, गम नहीं करते शिकस्तों में। -शाद अजीमाबादी हाँ, हाँ मगर ये दोस्त, तु तदबीर किये जा। यह भी तेरी तकदीर के दफ्तर में लिखा है। -दत्तात्रिय कैफ़ी जून 2009 जिनभाषित 29 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524340
Book TitleJinabhashita 2009 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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