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________________ जिज्ञासा-समाधान पं० रतनलाल बैनाड़ा १. प्रश्न- विकलत्रय जीव म्लेच्छ खण्डों में तथा । अयर्याप्तकों की उत्पत्ति होती है। अर्थात् कोई बैरी देव भोगभूमियों में पाये जाते हैं अथवा नहीं? | किसी पंचेन्द्रिय तिर्यंच को भोगभूमि में ले जाकर पटक समाधान- सभी भोगभूमियों में विकलत्रय जीव नहीं | दे, तो उसके शरीर में विकलेन्द्रिय जीवों की उत्पत्ति होती पाये जाते हैं, जैसा श्री धवला पु०४, पृष्ठ-३ पर इस प्रकार | हुई देखी जाती है। कहा है जिज्ञासा- विक्रियाऋद्धिधारी मुनि महाराज पृथक् मानुषोत्तरपर्यन्ता जन्तवो विकलेन्द्रियाः। विक्रिया कर सकते हैं या नहीं? अन्त्यद्वीपार्द्धतः सन्ति परस्तात्ते यथा परे॥ ६३३॥ समाधान- टोडरमल स्मारक जयपुर द्वारा प्रकाशित इस ओर विकलेन्द्रिय जीव मानुषोत्तर पर्वत तक ही | सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका, प्रथम खण्ड, पृष्ठ ३९८ पर गाथा नं० रहते हैं। उस ओर स्वयम्भरमण द्वीप के अर्ध भाग से लेकर | २६० की टीका में कहा गया है- 'भोगभूमि विर्षे उपजे अन्त तक पाये जाते हैं। अर्थात् बीच के असंख्यात द्वीप | तिर्यंच व मनुष्य अर कर्मभूमि विर्षे चक्रवर्ती पृथक विक्रिया समुद्रों में विकलत्रय जीव नहीं पाये जाते। | को भी करें है। इन बिना सर्व कर्म भूमियानि के अपृथक २. सिद्धान्तसारदीपक, (भट्टारक सकलकीर्ति | विक्रिया ही है।' इस कथन के अनुसार चक्रवर्ती के अलावा विरचित) के अधिकार-१० श्लोक नं० ४०४ में इस प्रकार | पृथक् विक्रिया अन्य कोई कर्मभूमि का मनुष्य नहीं कर कहा है सकता अर्थात् विक्रिया ऋद्धिधारी मुनि भी पृथक् विक्रिया शेषासंख्यसमुद्रेषु मत्स्याद्या जातु सन्ति न। नहीं कर सकते हैं। परन्तु यह कथन आगमसम्मत नहीं भोगक्ष्मामध्यभागे स्थितेषु द्वयक्षादयो न वा॥ अर्थ- शेष असंख्यात समुद्रों में मत्स्य आदि जीव | विक्रियाऋद्धिधारी मनिराज एक साथ अनेक आकार कभी भी नहीं पाये जाते। भोगभूमि क्षेत्रों में द्वीन्द्रिय आदि बनाने की सामर्थ्य रखते हैं। राजवार्तिक ३/३६ की टीका जीव पैदा नहीं होते हैं। में, कामरूपित्व ऋद्धि का स्वरूप इस प्रकार कहा है३. कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा १४२ में इसप्रकार कहा | 'युगपदनेकाकाररूपविकरणशक्तिः कामरूपित्वहै मिति' वि-ति-चउक्खा जीवा हवंति णियमेण कम्म-भूमीसु। अर्थ- एक साथ अनेक आकाररूप विक्रिया करने चरिमे दीवे अद्धे चरमसमुद्दे वि सव्वेसु॥ १४२॥ | की शक्ति का नाम कामरूपित्व ऋद्धि है। अर्थ- दो इन्द्रिय, ते इन्द्रिय और चौ इन्द्रिय जीव | तिलोयपण्णत्ति ४/१०३२ में इस प्रकार कहा हैनियम से कर्मभमि में ही होते हैं। तथा अन्त के आधे द्वीप | जं हवदि अद्विसत्तं अंतदधा में और अन्त के सारे समुद्र में होते हैं। जुगवें बहुरूवाणि जं विरयदि कामरूवरिद्धी सा॥१०३२॥ उपर्युक्त सभी प्रमाणों के अनुसार विकलेन्द्रिय जीव अर्थ- जिस ऋद्धि से अदृश्यता प्राप्त होती है, वह ढाई द्वीप की समस्त कर्मभूमियों में तथा अन्तिम स्वयं | अन्तर्धान नामक ऋद्धि है और जिससे युगपद बहुत से रूपों भूरमण द्वीप के अर्ध भाग से लेकर स्वयंभूरममण समुद्र | को रचता (बनाता) है, वह कामरूप ऋद्धि है। पर्यन्त तक पाये जाते हैं। म्लेच्छ खण्ड कर्मभूमि के अन्तर्गत उपर्युक्त आगम प्रमाणों से स्पष्ट है कि विक्रियाऋद्धिही आते हैं। अतः समस्त आर्यखण्डों में, म्लेच्छ खण्डों | धारी मुनि महाराज पृथक् विक्रिया करने की और एक साथ में, विजया पर्वत की नगरियों में तथा विदेहक्षेत्र आदि | अनेक रूप बनाने की सामर्थ्य रखते हैं। में विकलत्रय जीव पाये जाते हैं। प्रश्नकर्ता- सौ० ज्योति लुहाड़े, कोपरगाँव। मानुषोत्तर पर्वत के पर भाग से लेकर स्वयंभूरमण जिज्ञासा- उद्वेलना किसे कहते है? उद्वेलना द्वीप के अर्ध भाग तक जघन्य भोगभूमि है, उससे यद्यपि | किन-किन कर्म प्रकृतियों की तथा किन जीवों के द्वारा विकलत्रय जीव नहीं पाये जाते हैं, परन्तु श्री धवला पु० | की जाती है? ७, पृष्ठ ३९७ के अनुसार पूर्व वैरी के प्रयोग से भोगभूमि समाधान- उद्वेलना-संक्रमण की परिभाषा इसप्रकार प्रतिभाग रूप द्वीपसमुद्रों में पड़े हुए तिर्यंच शरीरों में त्रस | है- 'जिस प्रकार रस्सी को बल देकर बँटा था, पुन: बँट 30 जून 2009 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524340
Book TitleJinabhashita 2009 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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