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________________ सम्पादकीय 'दृष्टिवाद' में वर्णित लौकिकशास्त्र परसमय (अजैन शास्त्र) हैं भगवान् की दिव्यध्वनि से निःसृत द्वादशांगश्रुत के बारहवें अंग दृष्टिवाद में मन्त्रतन्त्रशास्त्र, निमित्तशास्त्र, ज्योति:शास्त्र, चिकित्साशास्त्र (आयुर्वेद), कलाशास्त्र, शिल्पशास्त्र, वास्तुशास्त्र, कामशास्त्र, नृत्यशास्त्र, गीतशास्त्र, गणितशास्त्र आदि लौकिकशास्त्रों का वर्णन है। यथा- दृष्टिवाद में पाँच अधिकार हैं : परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका। इनमें चूलिका पाँच प्रकार की है- जलगता, स्थलगता, मायागता, रूपगता और आकाशगता इनके लक्षण इस प्रकार हैंजलगता चूलिका १. "---जलगता--- जलगमण-जलत्थंभणकारण-मंततंत-तवच्छरणाणि वण्णेदि।" (धवला / पु० १/१,१,२/ पृ० ११४)। अनुवाद- जलगता चूलिका में जल में गमन और जलस्तम्भन के कारणभूत मन्त्र, तन्त्र और तपश्चर्यारूप अतिशय का वर्णन है। २. "तत्थ जलगया जलत्थंभण-जलगमणहेतुभूदमंत-तंत-तवचछरणाणं अग्गित्थंभण-भक्खणासणपवणादिकारणपओए च वण्णेदि।" (जयधवला / भाग १/ पृ. १२७)। अनुवाद- जलगता चूलिका जलस्तम्भन और जल में गमन के कारणभूत मंत्र, तंत्र और तपश्चरण का तथा अग्नि का स्तंभन, अग्नि का भक्षण, अग्नि पर बैठना और अग्नि पर तैरना इत्यादि क्रियाओं के कारणभूत प्रयोगों का वर्णन करती है।। ३. "तत्र जलगतायां--- जलगमनहेतवो मन्त्रौषध-तपोविशेषा निरूप्यन्ते।" (धवला / पु०९/४,१,४५/ पृ०२०९)। अनुवाद- जलगता चूलिका में जलगमन के हेतुभूत मन्त्र, औषध और तपोविशेष का निरूपण है। ४."तत्र जलस्तम्भन-जलवर्षणादिहेतुभूतमन्त्र-तन्त्रादिप्रतिपादिका--- जलगता चूलिका।" (तत्त्वार्थवृत्ति/ १/२०/ पृ. १४९ आ० सुपार्श्वमती जी)। अनुवाद- जल को रोकने, जल को वर्षाने आदि के हेतुभूत मन्त्रतन्त्रादि का जो प्रतिपादन करती है, वह जलगता चूलिका है। स्थलगता चूलिका १. "थलगया णाम--- भूमिगमण-कारणमंततंततवच्छरणाणि, वत्थुविजं, भूमिसंबंधमण्णं पि सुहासुहकारणं वण्णेदि।" (धवला / ष.खं०/पु०१/१,१,२/ पृ० ११४)। अनुवाद- स्थलगता चूलिका---पृथ्वी के भीतर गमन करने के कारणभूत मन्त्र, तन्त्र और तपश्चरणरूप आश्चर्य आदि का, वास्तुविद्या का और भूमि सम्बन्धी अन्य शुभाशुभ कारणों का वर्णन करती है। २. "स्थलगतायां---योजनसहस्त्रादिगतिहेतवो विद्या-मंत्र-तंत्रतपोविशेषा निरूप्यन्ते।" (धवला / ष. खं./ पु.९/४,१, ४५ / पृ.२१०)। अनुवाद- स्थलगता चूलिका में हजारों योजन जाने की कारणभूत विद्या, मंत्र, तंत्र और तपविशेषों का निरूपण किया जाता है। .. ३. "थलगया कुलसेलमेरु-महीहर-गिरि-वसुंधरादिसु चटुलगमणकारण-मंत-तंत-तवच्छरणाणं वण्णणं कणड़।" (जयधवला / क. पा./ भा.१ / पृ. १२७)। अनुवाद- स्थलगता नाम की चूलिका कुलाचल, मेरु, महीधर, गिरि और पृथ्वी आदि पर चपलतापूर्वक (शीघ्र) गमन के कारणभूत मंत्र, तंत्र और तपश्चरण का वर्णन करती है। 2 जून 2009 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524340
Book TitleJinabhashita 2009 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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