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________________ गाथा ३६६ / पू. ६११) । उपर्युक्त सभी शास्त्र परसमय (अजैन शास्त्र ) हैं यहाँ प्रश्न उठता है कि उपर्युक्त शास्त्र जिनेन्द्रदेव के मुख से निकले हैं, तो क्या ये जैनों के लिए मान्य हैं, क्या ये जैनसिद्धान्त (षड्द्रव्यों, सात तत्त्वों और कर्मसिद्धान्त के जिनोपदिष्ट स्वरूप) पर आधारित हैं? क्या उनमें वर्णित विषय जैनों के लिए श्रद्धा के योग्य है, क्या उनमें वर्णित मंत्र-तंत्र के प्रयोग तथा उनके प्रभाव से जलस्तंभन भूमिप्रवेश, आकाशगमन, इन्द्रजाल (जादू), मारण, उच्चाटन, वशीकरण आदि के प्रयोग जैनधर्मसम्मत और मनुष्य के लिए हितकर हैं? तीर्थंकर केवल तीर्थ (मोक्षमार्ग) का उपदेश देते हैं, अतः उनके द्वारा प्रणीत शास्त्र केवल वही होते हैं, जिनके अध्ययन, चिन्तन, मनन और तदुक्त आचरण से कर्मों का क्षय होता है। वे कहते भी हैं कि ज्ञानियों को केवल उसी शास्त्र के विषय का ध्यान करना चाहिए, उसी के अनुसार आचरण करना चाहिए और उसी का चिन्तन करना चाहिए, जिससे जीव ओर कर्मों के सम्बन्ध का विच्छेद होता है तद्धेयं तदनुष्ठेयं तद्विचिन्त्यं मनीषिभिः । यज्जीवकर्मसम्बन्धविश्लेषायैव जायते ॥ ४० / ११ / ज्ञानार्णव । । तीर्थंकरों को मन्त्रतन्त्र, ज्योतिष, अष्टांगनिमित्त, आयुर्वेद, संगीत, नृत्य, काम आदि विषयक लौकिक शास्त्रों के प्रणयन की आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि प्रथम तो वे मोक्ष के हेतु नहीं हैं, दूसरे वे लोक में लौकिक जनों के द्वारा ही प्रणीत होते हैं और सदा प्रचलित रहते हैं, जैसा कि श्री ब्रह्मदेवसूरि ने कहा 庚 "वीतरागसर्वज्ञप्रणीतागमार्थाद्वहिर्भूतैः कुदृष्टिभिर्यत्प्रणीतं धातुवाद- खन्यवाद - हरमेखल-क्षुद्रविद्याव्यन्तरविकुर्वाणादिकमज्ञानिजनचित्तचमत्कारोत्पादकं दृष्ट्वा --- ।” (द्रव्यसंग्रहटीका / गा. ४१ / पृ. १५६ ) । यहाँ 'दृष्टिवाद' की रूपगता चूलिका में वर्णित धातुवाद, रसवाद, खन्यवाद आदि सम्बन्धी मंत्रतंत्र को मिथ्यादृष्टियों द्वारा प्रणीत जिनागमबाह्य शास्त्र कहा गया है। इसलिए प्रश्न उठता है कि चूंकि उपर्युक्त मन्त्रतन्त्रादि शास्त्र भगवान् की दिव्यध्वनि से उद्भूत हुए हैं और द्वादशांगश्रुत में उन्हें स्थान भी मिला है, तो क्या उनका अध्ययन और तदुक्त आचरण जीव और कर्मों के विश्लेष का कारण है? यदि नहीं है, तो भगवान् ने उनका प्ररूपण क्यों किया और द्वादशांग श्रुत में उन्हें स्थान क्यों मिला? इस प्रश्न का समाधान आचार्य वीरसेन ने वक्तव्यता के तीन भेद बतलाकर किया है। वक्तव्यता के तीन भेद आचार्य वीरसेन ने धवला (पु. १ / १, १, १ / पृ. ८३) एवं जयधवला टीका (भाग १ / गा. १ / पृ. ८८८९) में कहा है कि " वक्तव्यता (कथन) तीन प्रकार की होती है- स्वसमयवक्तव्यता, परसमयवक्तव्यता और तदुभयवक्तव्यता जिस शास्त्र में स्वसमय (स्वमत) का ही वर्णन किया जाता है, प्ररूपण किया जाता है अथवा विशेषरूप से ज्ञान कराया जाता है, उसे स्वसमयवक्तव्य कहते हैं और उसके भाव को स्वसमयवक्तव्यता । परसमय (परमत ) मिथ्यात्व को कहते हैं- "परमसयो मिच्छत्तं।" (धवला / प खं. / पु. १ / पृ. ८३) । उसका जिस प्राभृत या अनुयोग में वर्णन किया जाता है, प्ररूपण किया जाता है या विशेषज्ञान कराया जाता है, वह परसमयवक्तव्य कहलाता है और उसका भाव परसमयवक्तव्यता । जहाँ स्वसमय और परसमय दोनों का निरूपण करके परसमय को दोषयुक्त दिखलाया जाता है और स्वसमय की स्थापना की जाती है, उसे तदुभयवक्तव्य कहते हैं और उसके भाव को तदुभयवक्तव्यता" (धवला / ष. ख. / पु. १ / १, १, १ / पृ. ८३ ) । वीरसेन स्वामी कसायाहुड (भाग १ ) की जयधवला टीका में श्रुत के ग्यारह अंगों को तो स्वसमय घोषित करते हैं- "जेणेवं तेणेक्कारसण्हमंगाणं वत्तव्वं ससमओ" (ज.ध. /क.पा./ भा. १ / पृ. १२० ), किन्तु बारहवें अंग दृष्टिवाद को 'तदुभय' अर्थात् स्वसमय और परसमय दोनों बतलाते हैं- "तदो दिट्टिवादस्स जून 2009 जिनभाषित 5 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524340
Book TitleJinabhashita 2009 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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