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________________ कल्याणवादपूर्व "कल्लाण-णामधेयं णाम पुव्वं---रविशशिनक्षत्रतारागणानां चारोपपादगतिविपर्यय-फलानि शकुनिव्याहृतमहद्बलदेव-वासुदेव-चक्रधरादीनां गर्भावतरणादि महाकल्याणानि च कथयति।" (धवला/ष.खं./ पु.१ / १,१,२ / पृ. १२२)। अनुवाद- कल्याणवादपूर्व में--- सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्र और तारागणों के चारक्षेत्र (भ्रमणक्षेत्र), उपपादस्थान गति, वक्रगति तथा उनके फलों का, पक्षियों के शब्दों का और अरहंत (तीर्थंकर) बलदेव, वासुदेव तथा चक्रवर्ती आदि के गर्भावतार आदि महाकल्याण का वर्णन है। आचार्य वीरसेन ने धवला (ष.खं./ पु.१ / पृ. १२२ एवं पु. ९/ पृ. २२२) में आठ महानिमित्तों को विद्यानुवादपूर्व के अन्तर्गत बतलाया है, किन्तु जयधवला (भाग १ / पृ. १३२) में कल्याणवादपूर्व के अन्तर्गत निरूपित किया है। प्राणावायपूर्व १. "पाणावायं णाम पुव्वं--- कायचिकित्साद्यष्टाङ्गमायुर्वेदं, भूतिकर्म जाङ्गलिप्रक्रमं प्राणापानविभागं च विस्तरेण कथयति।" (धवला / ष.खं./ पु.१/१,१,२/पृ. १२३)। अनुवाद- प्राणावायपूर्व----शरीरचिकित्सा आदि अष्टांग आयुर्वेद, भतिकर्म (शरीर आदि की रक्षा के लिए किये गये भस्मलेपन, सूत्रबन्धनादि कर्म), जांगुलिप्रकम (विषविद्या) और प्राणायाम के भेद-प्रभेदों का विस्तार से वर्णन करता है। “शरीरभाण्डकरक्षार्थं भस्मसूत्रादिना यत्परिवेष्टनकरणं तद् भूतिकर्म।" (प्र. सा. पू. पृ. १८१ / धवला/ ष. खं./ पु.१ / पृ.१२३ / पा.टि.)। २. "प्राणानामावादः प्ररूपणमस्मिन्निति प्राणावादं द्वादशं पूर्वं, तच्च कायचिकित्साद्यष्टाङ्गमायुर्वेद भूतिकर्म जाङ्गलिकप्रक्रमम् इला-पिङ्गला-सुषुम्नादि-बहुप्रकारप्राणापानविभागं दशप्राणानाम् उपकारकापकारकद्रव्याणि गत्याद्यनुसारेण वर्णयति।" (गो. जी. / भा. २ / गा. ३६५-३६६ / पृ. ६११)। अनुवाद- प्राणों का आवाद (कथन) जिसमें हैं, वह प्राणावाद नामक बारहवाँ पूर्व है। वह कायचिकित्सा आदि अष्टांग आयुर्वेद, जननकर्म, जांगुलिप्रक्रम, गणित, इला, पिंगला, सुषुम्ना आदि अनेक प्रकार के श्वासोच्छ्वास के विभाग का तथा दस प्राणों के उपकारक-अपकारक द्रव्य का गति आदि के अनुसार वर्णन करता है। आयुर्वेद के आठ अंग- 'शालाक्यं कायचिकित्सा, भूततन्त्रं, शल्यम् अगदतन्त्रं रसायनतन्त्रं बालरक्षा, बीजबर्द्धनमिति आयुर्वेदस्य अष्टाङ्गानि।' (जयधवला / क.पा./ भाग १ / पृष्ठ १३५)। "भूत, यक्ष, राक्षस और पिशाच आदि से जन्य बाधा के निवारण का कथन करनेवाला शास्त्र भूततन्त्र कहा जाता है। इसमें सभी प्रकार के देवों आदि को शान्त करने की विधि बतलाई गई है।" (विशेषार्थ। जयधवला / क.पा./ भाग १ / पृ.१३५)। क्रियाविशालपूर्व १. "किरियाविसालं णाम पुव्वं--- लेखादिका द्वासप्ततिकलाः स्त्रैणाश्चतुःषष्टिगुणान् शिल्पानि काव्यगणदोषक्रियां छन्दोविचिति-क्रियां च कथयति।" (धवला / ष.ख./ पु. १/१,१,२ / पृ.१२३)। अनुवाद- क्रियाविशाल नाम का पूर्व--- लेखन आदि ७२ कलाओं का, स्त्रीसम्बन्धी ६४ गुणों का, शिल्पकला का, काव्य-सम्बन्धी गुणदोषविधि का और छन्दनिर्माणकला का वर्णन करता है। २. "किरियाविसालो णट्ट-गेय-लक्खण-छंदालंकार-संढिस्थिपुरिसलक्खणादीणं वण्णणं कुणइ।" (जयधवला / क.पा./ भा.१ / पृ. १३५)। अनुवाद- क्रियाविशाल नामक पूर्व में नृत्यशास्त्र, गीतशास्त्र, लक्षणशास्त्र, छन्दशास्त्र, अलंकारशास्त्र और नपुंसक, स्त्री तथा पुरुष के लक्षण आदि का वर्णन है। (संगीतशास्त्र, शिल्पादिविज्ञान-गो.जी./जी.त.प्र./ 4 जून 2009 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524340
Book TitleJinabhashita 2009 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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