Book Title: Jinabhashita 2009 03
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra
Catalog link: https://jainqq.org/explore/524337/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनभाषित चैत्र, वि.सं. 2066 (2) भगवान् बाहुबली श्री दिगम्बर जैन सिद्धक्षेत्र सिद्धवरकूट (खण्डवा ) म.प्र. वीर निर्वाण सं. 2535 मार्च, 2009 • awww.janelbrary.org Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बदले का भाव दलदल है आचार्य श्री विद्यासागर जी माटी का काँटे को उपदेश ) मन वैर-भाव का निधान होता ही है। मन की छाँव में ही मान पनपता है मन का माथा नमता नहीं न-'मन' हो, तब कहीं नमन हो 'समण' को इसलिए मन यही कहता है सदानमन ! नमन !! नमन!!! बादल-दल पिघल जाये, किसी भाँति ! काँटे का बदले का भाव बदल जाये इसी आशय से माटी कुछ कहती है उससे : "बदले का भाव वह दल-दल है कि जिसमें बड़े-बड़े बैल ही क्या, बल-शाली गज-दल तक बुरी तरह फँस जाते हैं और गल-कपोल तक पूरी तरह धंस जाते हैं। बदले का भाव वह अनल है जलाता है तन को भी, चेतन को भी भव-भव तक! बदले का भाव वह राहु है जिसके सुदीर्घ विकराल गाल में छोटा-सा कवल बन चेतनरूप भास्वत भानु भी अपने अस्तित्व को खो देता है और सुनो! बाली से बदला लेना ठान लिया था दशानन ने फिर क्या मिला फल? तन का बल मथित हुआ मन का बल व्यथित हुआ और यश का बल पतित हुआ यही हुआ ना! त्राहि मां! त्राहि मां!! त्राहि मां!!! यों चिल्लाता हुआ राक्षस की ध्वनि में रो पड़ा तभी उसका नाम रावण पड़ा। मूकमाटी (पृष्ठ ९७-९८) से साभार Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रजि. नं. UPHIN/2006/16750 मार्च 2009 वर्ष 8, अङ्क 3 मासिक जिनभाषित सम्पादक प्रो. रतनचन्द्र जैन अन्तस्तत्त्व लेख ||. काव्य : बदले का भाव दलदल है कार्यालय : आचार्य श्री विद्यासागर जी आ.पृ.2 ए/2, मानसरोवर, शाहपुरा भोपाल-462 039 (म.प्र.) | - मुनि श्री क्षमासागर जी की कविताएँ आ.पृ. 3 फोन नं. 0755-2424666 . मुनि श्री योगसागर जी की कविताएँ आ.पृ. 4 . सम्पादकीय : ग्वालियर की पुरासम्पदा और हम सहयोगी सम्पादक पं. मूलचन्द्र लुहाड़िया, मदनगंज किशनगढ़ पं. रतनलाल बैनाड़ा, आगरा • वादिराज एवं उनकी भक्ति डॉ. शीतलचन्द्र जैन, जयपुर : आर्यिका प्रशान्तमती जी डॉ. श्रेयांस कुमार जैन, बड़ौत आचार्य श्री विद्यासागर जी का निजामतपान प्रो. वृषभ प्रसाद जैन, लखनऊ डॉ. सुरेन्द्र जैन 'भारती', बुरहानपुर : पं० शिवचरणलाल जैन • कर्मवीरता : डॉ० सुरेन्द्र कुमार जैन 'भारती' । शिरोमणि संरक्षक • 'भरतेशवैभव' की अप्रामाणिकता श्री रतनलाल कँवरलाल पाटनी : डॉ० शीतलचन्द्र जैन (मे. आर.के.मार्बल) किशनगढ़ (राज.) तत्त्वार्थसूत्र में प्रयुक्त 'च' शब्द का विश्लेषणात्मक श्री गणेश कुमार राणा, जयपुर विवेचन : पं० महेशकुमार जैन, व्याख्याता • णमोकारमन्त्र का शुद्ध उच्चारण एवं जाप्यविधि प्रकाशक : पं० आशीष जैन शास्त्री सर्वोदय जैन विद्यापीठ 1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी, महावीर होने के मायने : कैलाश मडबैया आगरा-282 002 (उ.प्र.) • चाँदी के वर्क की हकीकत : श्रीमती मेनका गाँधी फोन : 0562-2851428, 28522781 • वर्तमान परिवेश में युवाशक्ति का दिशा-निर्धारण : सुरेश जैन 'सरल' सदस्यता शुल्क शिरोमणि संरक्षक 5,00,000 रु. |. जिज्ञासा-समाधान : पं. रतनलाल बैनाड़ा परम संरक्षक 51,000 रु. . भारतवर्षीय दि० जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी मध्यांचल संरक्षक 5,000 रु. समिति के अध्यक्ष एवं महामंत्री का निवेदन आजीवन 1100 रु. वार्षिक 150 रु. समाचार 16, 20, 22, 24, 26, 28 एक प्रति 15 रु. सदस्यता शुल्क प्रकाशक को भेजें। लेखक के विचारों से सम्पादक का सहमत होना आवश्यक नहीं है। 'जिनभाषित' से सम्बन्धित समस्त विवादों के लिये न्यायक्षेत्र भोपाल ही मान्य होगा। Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय - ग्वालियर की पुरा सम्पदा और हम गोपाचल पर्वत के विश्व प्रसिद्ध जैन पुरा वैभव के अतिरिक्त ग्वालियर के किले में उपलब्ध जैन पुरातत्त्व की अद्वितीय सामग्री आज भी तत्कालीन दिगम्बर जैन संस्कृति के उत्कर्ष का उद्घोष कर रही है। किले के पहुँच मार्ग पर चढ़ाई के प्रारंभ से ही पहाड़ में उत्कीर्ण जैन तीर्थङ्करों की कलात्मक मूर्तियाँ दिखाई देने लगती हैं। ये पहाड़ में उत्कीर्ण मूर्तियाँ पहाड़ के ऊपर भी दि० जैन पुरातत्त्व के अस्तित्व की सूचक हैं। दि० जैन समाज का प्रमाद कहें या दुर्भाग्य कि वह अपनी पुरतात्त्विक सम्पत्ति की सँभाल एवं सुरक्षा में तनिक भी जागरूक नहीं रहा। फलस्वरूप पहाड़ के ऊपर के दि० जैनमंदिर या तो ध्वंस हो गए या अतिक्रमण के शिकार हो गए। दि० जैन समाज गहरी नींद में सोया रहा और अपने पूर्वजों द्वारा निर्मित महान् धार्मिक आयतनों की सुरक्षा करने में पूर्णतः असफल रहा। ग्वालियर के महाराजा सिंधिया ने पर्वत पर एक स्कूल व छात्रावास चला रखा है, जिसके लिए बहुत लम्बी चौड़ी भूमि अधिगृहीत कर रखी है। पर्वत पर पूर्वकाल में रहे दि० जैन मंदिरों की भूमि को भी उन्होंने अपने कब्जे में ले लिया और वहाँ मंदिरों का मात्र नाम शेष रह गया। अभी कुछ समय पूर्व तक अस्तित्व में रहे तीन मंजिले श्रीवर्द्धमानमंदिर को भी महाराजा सिंधिया ने अपने अतिक्रमण का शिकार बना लिया। मंदिर में से जैन प्रतिमाएँ हटाकर कुछ स्कूल के प्रिंसिपल के बगीचे में रखवा दीं, कुछ गायब करवा दीं। ऐतिहासिक प्रमाणों के अनुसार मंदिर में भगवान् महावीर के उत्सेध की ठोस स्वर्ण से निर्मित प्रतिमा स्थापित थी. उसको गायब कर दिया गया। मंदिर की प्रतिमाएँ तो हटायीं. किंत वे मंदिर के सामने के द्वारों पर ऊपर उत्कीर्ण जैन प्रतिमाओं को हटा नहीं सके, जो उस भवन के जैनमंदिर होने के सत्य को प्रमाणित कर रही हैं। इसके अतिरिक्त ग्वालियर स्टेट के गजैटीयर में, जो सन् १९०८ में प्रकाशित हुआ था, इस वर्द्धमानजैनमंदिर के अस्तित्व का उल्लेख है। अन्य प्रमाण भी इस जैनमंदिर के अस्तित्व को सिद्ध करते हैं। इस मंदिर के बाहर अंग्रेजों के द्वारा 'JAIN TEMPLE' की पाषाण पट्टिका लगाई गई थी, जिसका फोटो उपलब्ध है, किंतु उस पट्टिका को गायब कर दिया गया है। श्री ज्योतिरादित्य सिंधिया ने इस मंदिर के चारों ओर दीवार व फैंसिंग लगा कर गार्ड बैठा दिए हैं और जैनियों को मंदिर में जाने से पूरी तरह रोक दिया है। मंदिर के पीछे स्कूल का भोजनालय चल रहा है, जिसमें नित्य अनेक प्राणियों की हत्या कर मांस पकाया जाता है। जैनमंदिर के अस्तित्व को सिद्ध करनेवाले सभी सशक्त प्रमाणों की अनदेखी कर जनता को भ्रमित करने के लिए उस जैनमंदिर के पवित्र भवन को कुतिया-महल के नाम से प्रचारित किया जा रहा है। जिनके पूर्वज प्रजा का पालन एवं उसकी धार्मिक आस्थाओं का आदर करते हुए धार्मिक स्थानों का संरक्षण करते थे, उन्हीं महाराजा सिंधिया की संतान आज जैन समाज के मंदिर उस पर अतिक्रमण कर बल प्रयोग द्वारा जैनों को अपने मंदिर में आने से और दर्शन-पूजन करने से रोक रही है और इस तरह उनकी धार्मिक भावनाओं को निष्ठुरतापूर्वक पैरों तले रौंद रही है। सभी धर्मों के अनुयायिओं को अपनी धार्मिक क्रियाओं का संपादन करने की स्वतंत्रता देने एवं धार्मिक आयतनों की सुरक्षा का भरोसा देनेवाली प्रजातांत्रिक सरकार मूकदर्शक बन कर यह अन्याय देखते हुए भी सो रही प.पू. मुनिराज आर्जवसागर जी महाराज ने जब इन पूजनीय प्रतिमाओं और जैन संस्कृति की इस 2 मार्च 2009 जिनभाषित Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिशय मूल्यवान् पुरासंपत्ति की यह दुर्दशा देखी, तो उन्हें भारी वेदना का अनुभव हुआ। उन्होंने दि० जैन समाज का ध्यान इस दुर्दशा की ओर आकर्षित किया। आततायी सिंधिया के इस आतंककारी अत्याचार से पीड़ित होने पर भी दि० जैन समाज अभी पूरी तरह जागी नहीं है। तथापि पू. मुनिश्री के संबोधन से समाज ने आँखे मलते हुए एक करवट भर ली है। उसने सिंधिया द्वारा श्रीवर्द्धमानमंदिर के चारों ओर निर्मित दीवार के बाहर एक टैंट लगाकर उसके नीचे जिनेन्द्र भगवान् की एक प्रतिमा स्थापित कर वहाँ प्रतिदिन अभिषेक पजन प्रारंभ किया है। प. मनि श्री के सान्निध्य में मण्डलविधान का भी । गया। इस आयोजन में समाज के लोग अच्छी संख्या में एकत्र हुए थे। किंतु सिंधिया के द्वारा दि० जैन समाज के धार्मिक श्रद्धास्थल पर अतिक्रमण कर समाज की अस्मिता पर किए गए आक्रमण का अभी प्रभावी विरोध नहीं किया गया है। हे दि० जैन बंधुओ! जागो! उठो! और योजनाबद्ध तरीके से आततायी अतिक्रमणकारी के प्रति विरोध प्रकट कर आंदोलन प्रारंभ करो। संकल्प करो कि जब तक हमारे पूजा आराधना के केन्द्र भगवान् महावीर के मंदिर और मूर्तियों को हम अतिक्रमण से मुक्त नहीं करा लेंगे तब तक चैन से नहीं बैठेंगे। इसके लिए ग्वालियर जैन समाज को तीर्थक्षेत्र कमेटी एवं अन्य सभी प्रतिनिधि संस्थाओं के पदाधिकारियों एवं अन्य प्रमुख व्यक्तियों की एक बैठक ग्वालियर में आयोजित कर भविष्य की योजना की रूपरेखा तय करना चाहिए। अभी तक हमने न तो जिलाधीश आदि प्रशासनिक अधिकारियों तथा जनप्रतिनिधियों के समक्ष इस अन्याय के प्रति समाज का विरोध प्रकट किया है और न सभाओं एवं जुलूसों द्वारा जनता के सामने सिंधिया का यह आतंककारी कृत्य उजागर किया है। हमारी उदासीनता व निष्क्रियता अत्यंत खेदजनक है। वस्तुतः इस युग में असंगठित और अजागरूक समाज को जीने का अधिकार नहीं है। क्या हमारा स्वाभिमान जागेगा और हम अपने पूर्वजों द्वारा निर्मित हमारी महत्त्वपूर्ण पवित्र पुरासंपदा की सुरक्षा के लिए संगठित और सचेत होकर तुरंत ही ठोस कदम उठायेंगे? मूलचन्द लुहाड़िया 'जिनभाषित' (हिन्दी मासिक) के सम्बन्ध में तथ्यविषयक घोषणा प्रकाशन स्थान 1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी, आगरा - 282002 (उ.प्र.) प्रकाशन अवधि मासिक मुद्रक-प्रकाशक रतनलाल बैनाड़ा राष्ट्रीयता भारतीय पता 1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी, आगरा - 282_002 (उ.प्र.) सम्पादक प्रो. रतनचन्द्र जैन पता ए/2, मानसरोवर, शाहपुरा, भोपाल - 462 039 (म.प्र.) स्वामित्व सर्वोदय जैन विद्यापीठ, 1/205. प्रोफेसर्स कॉलोनी, आगरा - 282002 (उ.प्र.) से मैं, रतनलाल बैनाड़ा एतद् द्वारा घोषित करता हूँ कि मेरी अधिकतम जानकारी एवं विश्वास के अनुसार उपर्युक्त विवरण सत्य है। रतनलाल बैनाड़ा, प्रकाशक -मार्च 2009 जिनभाषित 3 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वादिराज एवं उनकी भक्ति __ आर्यिका प्रशान्तमती जी संघस्था आ० विशुद्धमती जी जिने भक्तिर्जिने भक्तिर्जिने भक्तिर्दिने दिने। । किसी को कपड़ा खरीदना है, तो उस व्यक्ति को कपड़े सदा मेऽस्तु सदा मेऽस्तु सदा मेऽस्तु भवे भवे॥ के व्यापारी के यहाँ जाना पड़ेगा। इसी प्रकार जिसको -हे भगवन् ! मेरी भक्ति प्रतिदिन श्री जिनेन्द्र देव | जिस चीज की आवश्यकता है, वह वस्तु जिसके पास में ही रहे, श्री जिनेन्द्रदेव में ही रहे, श्री जिनेन्द्रदेव में | है उसके पास उसे जाना पड़ेगा। वैसे ही हमें वीतरागभाव रहे तथा जिनेन्द्र के चरणकमलों की भक्ति भव-भव में की आवश्यकता है, तो हमें वीतरागी के पास जाना पड़ेगा, मुझे सदा प्राप्त हो, सदा प्राप्त हो, सदा प्राप्त हो। वीतरागी देव एवं गुरुओं की शरण लेनी पड़ेगी। वीतराग जैसे घर में नेता का चित्र देखकर नेता बनने की, | प्रभु के बताये हुए मार्ग पर स्वयं चलनेवाले एवं वीतराग कवि का चित्र देखकर कवि बनने की इच्छा होती है, धर्म का उपदेश देनेवाले निर्ग्रन्थ गुरुओं की शरण लेनी क्षत्रिय-वीर का चित्र देखते ही क्षत्रियत्व जाग उठता है | पड़ेगी। जो वीतराग प्रभु के बताये हुए मार्ग पर चलने और सिनेमा, टेलीवीज़न आदि में तरह-तरह के रागरञ्जित | एवं वीतरागधर्म का उपदेश देने से रहित हैं, वे अपनी चित्रों को देखकर जीवन इन्द्रियसुखों के लिए छटपटा शरण में आनेवाले को रागरहित कैसे बना सकते हैं? जाता है, ठीक इसी प्रकार वीतराग प्रभु के दर्शन से, | कदापि नहीं। जैसे कोई विद्यार्थी डॉक्टरी पास करके उनकी छवि देखने से, निर्ग्रन्थ वीतरागी सन्तों के दर्शन | आया है, उसे प्रेक्टिस करनी है, यदि वह बड़े से बड़े करने से वीतराग भाव प्रगट होते हैं, शांति मिलती है। | वकील के पास जायेगा, तो वह डॉक्टरी के अनुभव वीतराग भगवान की निर्विकार शांत मद्रा निर्मल दर्पण | प्राप्त नहीं कर सकता है. उसे तो किसी पराने-अनभवी के समान है। जैसे दर्पण में अपना मुख देखने से मुख | डॉक्टर के पास ही काम करना पड़ेगा। वैसे ही जो की स्वच्छता और मलिनता एक साथ सामने आ जाती | स्वयं दुःखी है, स्वयं भयभीत है, स्वयं राग-रञ्जित है, है, उसी प्रकार श्रद्धापूर्वक भगवान् के गुणगान करने से | स्वयं परिग्रही है, वह दूसरों को सुखी, निर्भय, वीतरागी, तथा तन्मय होकर भक्ति-उपासना और दर्शन करने से अपरिग्रही कैसे बना सकता है। अतः मिट है कि तीनगी अपने शद्ध स्वरूप का और अपनी मलिन दशा का बोध | की शरण से ही वीतरागता की प्राप्ति होगी। सहज ही हो जाता है। अतः अध्यात्मवादी जैनदर्शन में कोई रोगी व्यक्ति बीमारी से मुक्त होने के लिए भगवान क. भक्ति-उपासना करने का समुचित एवं | अच्छे चिकित्सक के पास जाता है। वहाँ जाकर वह सयुक्तिक विवेचन दर्शाया गया है। प्रवचनसार में | चिकित्सक से कहता है कि, आप मुझे कोई ऐसी औषधि भगवत्कुन्दकुन्द स्वामी लिखते हैं दीजिए कि मेरा रोग शीघ्र शांत हो जाय। वहाँ जाकर जो जादि अरहंतं, दव्वत्त गुणत्त पज्जयत्तेहिं। | वह रोगी और कोई पूँछताछ नहीं करता है कि आपका सो जाणदि अप्पाणं, मोहो खलु जादि तस्स लयं॥ | नाम क्या है? आप कौन सी यूनिवर्सिटी में और कहाँ जो व्यक्ति अरहंत भगवान् को गुणपर्यायसहित | तक पढ़े हो। वह तो मात्र एक ही बात कहता है कि भली-भाँति जान लेता है, उसे अपने आत्मस्वरूप की आप मुझे शीघ्र औषधि देकर रोगमुक्त कीजिए, किन्तु पहचान हो जाती है, क्योंकि अपने स्वरूप और शुद्ध | वह रोग से मुक्त तभी हो सकता है, जबकि उसको दशा के ज्ञान से उसका आत्म विषयक मोह निश्चय | चिकित्सक के गुणों के प्रति दृढ़ विश्वास हो। उसी ही नष्ट हो जाता है। प्रकार वीतरागी देव एवं गुरुरूपी वैद्य के प्रति होनेवाली जैसे किसी व्यक्ति को हीरा, पन्ना, मोती आदि अटल श्रद्धा ही हमारे रागद्वेष रूपी रोग को दूर करने जवाहरात खरीदना है, तो उसे सर्वप्रथम जौहरी के यहाँ | में समर्थ है। जाना पड़ेगा। यदि वह कपड़े के व्यापारी के पास जाता अब प्रश्न होता है कि 'भक्ति' क्या है? भक्ति है, तो वह रत्नों को प्राप्त नहीं कर सकता है। दूसरे, I का क्या अर्थ है? आचार्य भगवन्तों ने इसका समाधान 4 मार्च 2009 जिनभाषित Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देते हुए कहा कि 'गुणेष्वनुरागः भक्तिः' अर्थात् अपने | जैसे काष्ठ के एक सिरे में अग्नि लगने से धीरे आराध्य के गुणों में अनुराग होना भक्ति है। 'भक्ति' का | धीरे सारा काष्ठ. भस्म हो जाता है, वैसे जिनभक्ति से अर्थ 'गुणों में तन्मयता' भी है। अथवा सिद्धि को प्राप्त | पूर्वसंचित कर्मों का नाश होता है। जिनभक्ति से आत्मीय हुए शुद्धात्माओं की भक्ति द्वारा आत्मोत्कर्ष का नाम ही | गुणों के अवरोधक कर्मों का अनुभागखण्डन, स्थिति'भक्ति योग' अथवा 'भक्ति मार्ग' है और उनके गुणों खण्डन और बन्धोपशमन हो जाता है, जिससे आत्मीक में अनुराग को, तदनुकूल वर्तन को अथवा उनके प्रति | गुणों का विकास होता है, इसलिए जिनभक्ति आत्मगुणों गुणानुरागपवूक आदर-सत्कार रूप प्रवृत्ति को भक्ति कहते | के विकास में कारण हैहैं, जो कि शुद्धात्मवृत्ति की उत्पत्ति एवं रक्षा का साधन स्ततिः पण्यगणोत्कीर्तिः स्तोता भव्य-प्रसन्नधीः। है। अपने उपास्य के स्वरूप में एकाकार होना भक्ति निष्ठितार्थो भवात्स्तुत्यः फलं नैश्रेयसं सुखम्॥ की साधना है। जब तक अपने स्वभाव को अपने आराध्य - इस प्रकार जिनसेनाचार्य ने स्तुति का फल मोक्षके साथ तन्मय नहीं बनायेंगे, तब तक हम वास्तविक | सुख कहा है। इसलिए भक्ति मोक्ष का कारण है। जैसे भक्तिरस के मूल को नहीं पा सकते हैं। उमास्वामी आचार्य | बाँस के आश्रय से नट ऊँचा चढ़ने में सफल हो जाता ने तत्त्वार्थसूत्र के मंगलाचरण में कहा है, 'वन्दे तद्गुण- | है, उसी प्रकार भक्तिरूपी सोपान के द्वारा यह आत्मा लब्धये' अर्थात् मैं आपके जैसे गुणों की प्राप्ति के लिए | उन्नत अवस्था को प्राप्त हो जाता है। यदि वास्तविक वन्दना, नमस्कार, भक्ति करता हूँ। यदि वर्षों पूजाप्रक्षाल | दृष्टि से देखा जाय, तो वीतरागता के प्रति उत्पन्न हुई कर, घण्टानाद कर, दीप जलाकर जयजयकार करने के श्रद्धा-भक्ति एवं गुणानुराग ही आगे चलकर भक्त के गुणों उपरान्त भी तद्गुणलब्धि नहीं हुई तो समझो कि 'भक्ति' | का विकास करता है और उसका पुरुषार्थ उसे भगवान् का शाब्दिक अर्थ भी पल्ले नहीं पड़ा, उसके भावात्मक बना देता है। सौधर्म इन्द्र भगवान् के पंच-कल्याणकों अधिग्रहण का तो प्रश्न ही दूर है। के अवसर पर गुणानुरागपूर्वक विभोर होकर की गई भक्ति 'भावविशद्धियक्तो ह्यनरागो भक्तिः '। अर्थात् भावों के प्रसाद से ही अपने पूर्व भवांतरों में बद्ध कर्म-बधंनों की विशुद्धि के साथ अनुराग रखना भक्ति है (स. सि. | को शिथिल व जीर्ण-शीर्ण करता है, तथा इस भक्ति ६/२४) की प्रक्रिया से ही वह एक-भवावतारी बन जाता है। 'अर्हदादिगुणानुरागो भक्तिः।' अर्हदादि के गुणों | आचार्यप्रवर वादीभसिंह सूरि ने अपने 'क्षत्रचूड़ामणि' से प्रेम करना भक्ति है (भ० आ० / वि०/४७ / १५९ / | ग्रंथ में भक्ति का माहात्म्य प्रकट करते हुए भक्ति को २०) मुक्ति का साधन निरूपित किया है। 'जिनभक्तिः सती स्तुति, प्रार्थना, वंदना, उपासना, पूजा, श्रद्धा, सेवा | मुक्त्यै क्षुदं किं वा न साधयेत्।' अर्थात् सही रूप में और आराधना ये सब भक्ति के ही नामन्तर हैं। जिनागम | की गई जिन-भक्ति जब कि मुक्ति-प्राप्ति का कारण हुआ में स्तुति, पूजा, वंदना, उपासना आदि के रूप में इस | करती है, तब वह अन्य छोटे कार्यों को क्या सिद्ध न भक्तिक्रिया को सम्यक्त्व-वर्द्धिनी क्रिया बतलाया है। | करेगी? अर्थात अवश्य करेगी। स्वामी मानताचार्य के सद्भक्ति के अहंकार के त्यागपूर्वक गुणानुराग बढ़ने | अनुसारमें प्रशस्त अध्यवसाय की उपलब्धि होती है और उन त्वत्संस्तवेन भव संतति सन्निबद्धं, प्रशस्तपरिणामों की विशुद्धि से अनादिकाल से संचित पापं क्षणात्क्षयमुपैति शरीरभाजाम्। कर्म एक क्षण में नष्ट हो जाते हैं। जयधवला टीका आक्रांतलोकमलिनीलमशेषमाशु, में जिनभक्ति अथवा जिनदेव को किये गये नमस्कार सूर्यांशुभिन्नमिव शार्वरमंधकारम्।। को कर्मक्षय का हेतु कहा है- 'अरहंतणमोक्कारो संपहि- अर्थात् हे भगवन्! आपके गुणों का संस्तवन करने यबंधादो असंखेज्जगुणकम्मक्खयकारओ त्ति तत्थ वि | से प्राणियों के भव-भवान्तरों में संचित पाप क्षणभर में मुणीणं पवुत्तिप्पसंगादो' (ज.ध. पु. १ । पृ.९)। अर्थात् | उसी तरह नष्ट हो जाते हैं, जैसे रात्रि का भौंरों के समान अरहंत भगवान् को किया गया नमस्कार तत्कालबंध की | काला लोकव्यापी अंधकार प्रात:काल सूर्य की किरणों अपेक्षा असंख्यातगणी कर्मनिर्जरा का कारण है। | से तुरन्त ही विलय को प्राप्त हो जाता है। आगे चलकर -मार्च 2009 जिनभाषित 5 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वे कहते हैं आस्तां तव स्तवनमस्तसमस्तदोषं, त्वत्संकथापि जगतां दुरितानि हन्ति । दूरे सहस्रकिरणः कुरुते प्रभैव, पद्माकरेषु जलजानि विकासभाञ्जि ॥ अर्थात् हे भगवन्! आपका निर्दोष स्तवन करना तो दूर, आपका नामस्मरण या कथा करने मात्र से ही जगत् के जनों के पाप नष्ट हो जाते हैं। जैसे सूर्य के दूर रहने पर भी उसकी प्रभामात्र से सरोवरों मे कमल खिल जाते हैं। इसलिए कहा है कि भक्ति और मुक्ति के लिए जिन चरणारविन्द का मधुप होना अनिवार्य है क्योंकि जिनेन्द्र-चरण-कमलों का भ्रमर जन्म, जरा और मरण की बाधा से मुक्त हो जाता है। जैन साहित्य में भक्तिरस की अविरल धारा प्रवाहित करनेवाली अनेक पुनीत एवं आत्मकल्याणकारी रचनाएँ हैं, जिनके शब्द - शब्द से भक्तिरस की कल-कलनिनादकारिणी शत-शत धारायें प्रवाहित होती हैं । समन्तभद्रस्वामी, मानतुङ्गाचार्य, कुमुदचन्द्रचार्य, वादिराज आदि महर्षियों ने सकंट के समय भक्तिरस से भरे हुए अनेक स्तोत्र रचे हैं, तथा उनके बल पर धर्म की महती प्रभावना की है। आचार्य वादिराज का समय प्रायः विक्रम की ११वीं शताब्दी माना गया है । श्रवणबेलगोल के 'मल्लिषेणप्रशस्ति' शिलालेख में (जो शक. सं. १०५० में उत्कीर्ण हुआ है) लिखे हुए प्रशंसात्मक पद्यों से स्पष्ट ज्ञान होता है कि वादिराज अपने समय के एक प्रसिद्ध तार्किक और वाद- विजेता विद्वान् थे । उनके सामने प्रवादियों का गर्व चूर हो जाता था। राजा जयसिंह की राजधानी सिंहपुर में उनका विशेष प्रभाव एवं महत्त्व विद्यमान था। वे उस समय के प्रायः सभी विद्वानों में शिरोमणि गिने जाते थे । 'मल्लिषेणप्रशस्ति' के प्रशंसात्मक पद्यों में से एक पद्य द्रष्टव्य है आरुद्धाम्बरमिन्दुबिम्ब-रचितौत्सुक्यं सदा यद्यशश्छत्रं वाक्चमरीजराजि - रुचयोऽभ्यर्णं च यत्कर्णयोः । सेव्यः सिंहसमर्च्य पीठ-विभवः सर्व-प्रवादि-प्रजादत्तोच्चैर्यकार-सार- महिमा श्रीवादिराजो विदाम् ॥ अर्थात् जिनका यशरूपी छत्र आकाश में व्याप्त था और जिसने चन्द्रमा में उत्सुकता उत्पन्न कर दी थी 5 मार्च 2009 जिनभाषित अर्थात् उनका यश चन्द्रमा से भी अधिक समुज्ज्वल था, स्तुतिवाक्यरूपी चमर - समूह की किरणें जिनके कानों के समीप पड़ती थीं, तथा जयसिंह नरेश से जिनका सिंहासन पूजित था और सर्वप्रवादि प्रजा उच्च स्वर से, जिनका जयजयकार गाया करती थी, ऐसे आचार्य वादिराज विद्वानों के द्वारा सेवनीय हैं। सिद्धान्तशास्त्र के मर्मज्ञ विद्वान् होते हुए भी आचार्य वादिराज की व्याकरण, काव्य, कोश और अलंकारादि विषयों में अच्छी गति थी । आप एक साहित्यिक कवि और प्रतिभासंपन्न व्यक्ति थे। आपकी षट्तर्कषण्मुख, स्याद्वादविद्यापति, जगदेकमल्लवादि आदि अनेक उपाधियाँ थीं जैसा, कि निम्न शिलावाक्य से प्रकट है 'षट्तर्कषण्मुखरं स्याद्वादविद्यापतिगलुं जगदेकमल्ल - वादिगलुं एनिसिद श्री वादिराजदेवरुम्।' वादिराजसूरि की प्रशंसा में अन्यत्र लिखा हैवादिराजसूरि सभा में बोलने के लिए अकलंकदेव के समान हैं और कीर्ति में न्यायबिन्दु आदि प्रसिद्ध ग्रंथों के कर्त्ता, बौद्ध विद्वान् धर्मकीर्ति के समान हैं। वचनों में बृहस्पति के समान हैं और न्यायवाद में अक्षपाद के समान हैं। इस तरह से वादिराज इन भिन्न-भिन्न धर्म-गुरुओं के एकीभूत प्रतिनिधित्व के समान शोभित होते हैं। आचार्य वादिराज की इस समय तक छह कृतियों का पता चलता है। एकीभावस्तोत्र, पार्श्वनाथचरित, काकुत्थ्यचरित, यशोधरचरित, न्यायनिविश्चियविवरण और प्रमाणनिर्णय । एकीभावस्तोत्र सरस और भक्तिरसरूप-माधुर्य से ओत-प्रोत है। इसकी श्लोक संख्या २५ है, छन्द मन्दाक्रान्ता | स्तोत्र की रचना संस्कृत भाषा में मृदु, सरस और पद - लालित्य को लिये हुए हैं। जैनधर्म की मान्यता के अनुसार इस स्तोत्र में सच्चे देव के स्वरूप का अच्छी तरह से प्रतिपादन किया गया है। इस स्तोत्र की विशेषता यह है कि 'भक्तामर', 'कल्याणमन्दिर' आदि अन्य स्तवनों की तरह इसमें किसी एक तीर्थंकरविशेष की स्तुति नहीं की गई है। एकीभावस्तोत्र के प्रथम श्लोक में भक्ति का माहात्म्य प्रकट करते हुए वादिराज मुनिराज कहते हैंएकीभावं गत इव मया यः स्वयं कर्मबन्धो घोरं दुःखं भवभवगतो दुर्निवारः करोति । तस्याप्यस्य त्वयि जिनरवौ भक्तिरुन्मुक्तये चेजेतुं शक्यो भवति न तया कोऽवरस्तापहेतुः । Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थात् हे जिनेन्द्र! जब कि आपकी समीचीन भक्ति | ताले से युक्त मोक्ष का कपाट किस तरह खोला जा द्वारा चिरपरिचित और अत्यंत दुःखदायी एवं आत्मा के | सकता है? अर्थात् नहीं खोला जा सकता है। साथ दूध-पानी की तरह मिले हुए कर्मबन्धन भी दूर | वादिराज मुनिराज के जीवन से संबंधित एक किये जाते हैं, तब दूसरा ऐसा कौनसा सन्ताप का कारण | किंवदन्ती है। एक समय आचार्य वादिराज को कुष्ठ है जो कि इस भक्ति के द्वारा दूर नहीं किया जा सकता | रोग हो गया। राजा जयसिंह के दरबार में चर्चा चली अर्थात् दुःख के सभी कारण नष्ट किये जा सकते हैं। कि 'दिगम्बर साधु कोढ़ी होते है'। तब गुरुभक्त श्रावक जिनेन्द्र भगवान् रूपी सूर्य जन्म-जन्मान्तर के पापरूपी | ने कहा कि हमारे गुरु कोढ़ी नहीं होते हैं। चर्चा के अन्धकार का नाश करनेवाला है। भक्तिपूर्वक किये हुए | अंत में निर्णय हुआ कि महाराज स्वयं चलकर देखेंगे। भगवान् के स्तवन मात्र से पुरातन विषम रोग दूर होकर | गुरुभक्त श्रावक चिंतित होता हुआ आचार्यश्री के पास शरीर निरोग बन जाता है। भगवान् के गर्भ में आने के | गया और कहने लगा कि अब जिनशासन की, जिनधर्म पहले ही जब पृथ्वी सुवर्णमयी बन गई, तो अन्त:करण- | की लाज रखना आपके हाथ में है। आचार्यश्री ने कहारूप मंदिर में आपको विराजमान करने से कुष्ठ जैसे भयंकर | चिन्ता की कोई बात नहीं है, धर्म के प्रसाद से सब रोग भी नष्ट हो जाएँ, इसमें कौन सी बड़ी बात है? ठीक होगा। आचार्यश्री को स्वयं शरीर के प्रति राग नहीं भक्ति-विभोर वादिराज मुनिराज कहते हैं कि | था। अर्थात् अपना शरीर स्वर्णमयी बनाने की कोई अरिहंत भगवान् जब केवली अवस्था में विहार करते अभिलाषा नहीं थी, पर सारे दिगम्बर साधुओं के ऊपर हैं, तब देवगण उनके पवित्र चरणों के नीचे कमलों की | | जो लांछन आ रहा था, उन गुरुओं की रक्षा के लिए रचना करते हैं। चरणकमल से बिना स्पर्शित कमल भी | ही आचार्यश्री ने जिनेन्द्र भगवान् के गुणों में एकाग्रचित्त सुवर्ण-सी कान्तिवाले सुगन्धित एवं लक्ष्मी के निवास | होकर एकीभाव स्तोत्र की रचना की। स्तवन के माहात्म्य बन जाते हैं फिर तो मेरे मन-मंदिर में जिनप्रतिमा का | से कुष्ट रोग दूर होकर शरीर सुवर्ण जैसी कान्तिवाला सर्वांग रूप से स्पर्श हो रहा है जिससे मुझे सर्व सख दूसरे दिन राजा ने स्वयं वादिराज मुनिराज के की प्राप्ति हो जायगी। भक्तिरूपी पात्र से आपके अमृतरूपी | सुवर्ण समान कान्तिमय शरीर को देखा और दरबार में वचनों को पीनेवाले भव्य पुरुषों को रोगमयी काँटे कभी जिसने निंदा की थी उसकी तरफ रोषभरी दृष्टि से देखा। पीड़ा नहीं दे सकते। आपके शरीर के पास से बहनेवाली | मुनिराज ने कहा- राजन्, गुस्सा न कीजिये, उसने जरा वायु भी लोगों के तरह-तरह के रोग दूर कर देती है। भी असत्य नहीं कहा है, उस समय मैं सचमुच कोढ़ी जिनके हृदय में भक्ति के झरने झर रहे हैं, ऐसे | था। धर्म के प्रभाव से आज ही मेरा कुष्ठ रोग दूर वादिराज मुनिराज बता रहे हैं कि बिना भक्ति के, शुद्ध | हुआ है। रोग का कुछ अंश अब भी इस कनिष्ठा अँगुली ज्ञान-चारित्र के रहते हुए भी, मोक्ष के कपाट नहीं खोले जा सकते। इस कथानक से, मनुष्यों को जैनधर्म की 'भक्ति शुद्धे ज्ञाने शुचिनि चरिते सत्यपि त्वय्यनीचा, | से शक्ति' का परिज्ञान कर, निरन्तर जिनेन्द्र-भक्ति में तत्पर भक्ति! चेदनवधिसुखावंचिका कुंचिकेयम्। | रहते हुए, अपने कर्म-बंधनों को शिथिल करना चाहिए। शक्योद्घाटं भवति हि कथं मुक्तिकामस्य पुंसो, | __भक्ति से शक्ति, शक्ति से युक्ति और युक्ति से मुक्तिद्वारं परिदृढ-महामोह-मुद्रा-कपाटम्॥ | मुक्ति मिलती है। अतः प्रत्येक भव्यात्मा को भक्ति के अर्थात् हे नाथ! शुद्ध ज्ञान और चरित्र के रहते | माध्यम से शाश्वत सुख की प्राप्ति का समीचीन पुरुषार्थ हुए भी यदि आपके विषय में होनेवाली उत्कृष्ट भक्ति- | करना चाहिए। रूपी कुंजी नहीं हो, तो अत्यन्त मजबूत महामोहरूपी | वात्सल्यरत्नाकर (द्वितीय खण्ड) से साभार जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग। चन्दन विष व्यापत नहीं, लिपटे रहत भुजंग ।। जो रहीम मन हाथ है, तो तन कितहि न जाहि। जल में ज्यों छाया परे, काया भीजत नाहि ॥ मार्च 2009 जिनभाषित 7 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री विद्यासागर - कृत निजामृतपान 4 विश्ववन्द्य आ० कुन्दकुन्दस्वामी रचित अध्यात्म की महान् कृति 'समयप्राभृत' पर व्याख्याकार आ० अमृचन्द्र जी ने आत्म ख्याति' टीका का प्रणयन किया है । प्रस्तुत टीकारूपी भवन के शिखर- समान मध्य-मध्य में 'कलश' काव्यों को समाहित किया है । इन कलशकाव्यों से समयसार की आध्यात्मिकता मुखरित हुई सी जान पड़ती है । अध्यात्म- अमृत का स्थायी भाव इनमें उद्दीपित होता हुआ, विशेष मधुरिम गति से, संचरण करता हुआ, छलकता हुआ, उत्कृष्टता को प्राप्त दृष्टिगोचर होता है। इसी हेतु मनीषियों ने इस कलश काव्य को 'अध्यात्म- अमृत कलश' सार्थक संज्ञा प्रदान की है। पण्डितप्रवर बनारसीदास के शब्दों में 'नाटक सुनत हिय फाटक खुलत हैं' यह सार्थक है, अत्यन्त उपयोगी है। वर्तमान में सन्त शिरोमणि प० पू० आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ज्ञान-ध्यान- तपोलीन होकर अध्यात्म क्षेत्र में अग्रणी हैं। सम्मतियुग के ऋषितुल्य उनका जीवन स्व के साथ परहित में सदैव व्यतीत हो रहा है। वे जिनवाणी की सेवा में अपने गुरु स्व० प० पू० आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज की परम्परा को अग्रेषित कर रहे हैं। उन्होंने अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग द्वारा जो अनुभव प्राप्त किया है, उसे निरन्तर लेखन, वाचन और प्रवचन के माध्यम से प्रसारित कर रहे हैं। उन्होंने अध्यात्मी विविध विधाओं में अनेकों ग्रन्थों की रचना की है। इस प्रकार वे निर्ग्रन्थ होकर भी सग्रन्थ हैं। धर्मप्रभावना ही उनका परम एवं चरम लक्ष्य है। वे इस हेतु उत्कृष्ट मानदण्ड सिद्ध हुए हैं। आ० श्री विद्यासागर जी महाराज ने वीरनिर्वाण संवत् २५०४ में उपर्युक्त समयसार - कलश का रोचक पद्यानुवाद किया था। निम्न दोहे से यह प्रकट है, देव-गगन-गति-गन्ध की वीर जयन्ती आज पूर्ण किया इस ग्रन्थ को निजानन्द के काज ॥ प्रस्तुत ग्रन्थ का अन्तिम छंद देव (४ भेद), गगन (०), गति (५ भेद, सिद्धगति युक्त), गन्ध ( २ भेद) अभीष्ट हैं। 'अंकानां वामतो गतिः' के आधार पर वीर निर्वाण संवत् २५०४ में महावीर जयन्ती के दिन ( दमोह नगर में ) 'स्वान्तः सुखाय' यह 8 मार्च 2009 जिनभाषित पं० शिवचरणलाल जैन ग्रन्थ पूर्ण किया गया। निजामृतपान नाम की सार्थकता 'निजानन्द के काज' उद्देश्य के अतिरिक्त इस ग्रन्थ में सभी जीवों को निजात्मामृत (अनुभव) पान करने की प्रेरणा है। तीसरे, यह ग्रन्थ निजानन्द रूप अमृत (पानक) से परिपूर्ण है, अतः नामकरण यथोचित ही है । आ० श्री ने इस ग्रन्थ का प्रयोजन निम्न दोहे में प्रकट किया है। अमृत कलश का मैं करूँ पद्यमयी अनुवाद | मात्र कामना मम रही, मोह मिटे परमाद ॥ ७ ॥ ग्रन्थ- परिमाण - आचार्य अमृतचन्द्र - कृत समयसार कलश के पद्यों की संख्या २७८ है । तद्नुसार ही हिन्दी पद्यानुवाद के रूप में पदों की संख्या भी उतनी है । अर्थात् प्रत्येक कलश का अनुवाद एक ही छन्द में किया गया है। छन्द की 'ज्ञानोदय' संज्ञा प्रकट करती है कि ज्ञान इनमें निरन्तर उदित रहकर अनुभव के रूप में विद्यमान है । अमृतचन्द्र जी के कलश काव्यों में गूढ़ रहस्यपूर्ण क्लिष्ट शब्दावली का प्रयोग भी है एवं वे कलश गम्भीर विस्तृत अर्थ को लिए हुए हैं। परवर्ती आचार्यों एवं विद्वानों ने इस कृति को 'गागर में सागर' माना है। ऐसे विशिष्ट एक कलश काव्य का अनुवाद एक ही छन्द में रचकर उसका भाव हृदयग्राही एवं बोधगम्य बना देना ज्ञान एवं काव्यकौशल ही माना जावेगा । २७८ पद्यों के साथ ही ४२ दोहों एवं १ वसंततिलका छन्द को भी समाविष्ट कर सौन्दर्यछटा को द्विगुणित कर दिया है। ग्रन्थ में प्रथम ही आद्य मंगलाचरण रूप ७ दोहा छन्द हैं। तीन दोहों में वर्तमान तीर्थशासक भगवान् महावीर देव और शास्त्र एवं गुरु का स्तवन है । पुनः एक दोहे में आचार्य कुन्दकुन्द आचार्य अमृतचन्द्र तथा दीक्षागुरु आचार्य ज्ञानसागर जी को नमस्कार किया गया है एवं एक दोहे में प्रयोजन व्यक्त किया है। तत्पश्चात् प्रत्येक अधिकार के अन्त में अधिकार के प्रतीकार्थ रूप में दो-दो दोहे प्रकट किये हैं । ये दोहे अधिकार के सार ही हैं । ग्रन्थ के अन्त में समापन संज्ञा से दो दोहे ग्रन्थरचना की फलकामना रूप में सुशोभित हैं। पुनश्च अन्तिम मंगलरूप तीन दोहे, सुफलरूप एक दोहा है एवं मंगलकामना हेतु ७ दोहे रचित हैं । लघुता एवं मूल क्षम्यता Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - रूप एक दोहा है। अन्त में स्थान एवं रचना-समय परिचय। है, अतः वह श्रोता पर उज्ज्वल, अमिट प्रभाव छोड़ती हेतु दो दोहे सुशोभित हैं। ये दोहे तो कलश पर कलश | है। एवंविध ही 'निजामृत पान' का पाठक भी अध्यात्म ही प्रतीत होते हैं। एवं शान्तरस से सराबोर हो जाता है। पुनः पुनः पारायण आचार्यश्री ने 'निजामृतपान' में समयसारकलश के | करने व कंठस्थ करने से उसका आनन्द कई गुना बढ़ स्याद्वाद अधिकार को दो भागों-'स्यावाद अधिकार' | | जाता है। यथार्थ है और 'साध्यसाधक अधिकार' में विभाजित किया है। कुल | सन्त की भाषा, विषय कषाय के अन्त की भाषा। मिलाकर निम्न अधिकार हैं आत्मानुभव बसन्त की भाषा, सविकल्प पर्यन्त की भाषा॥ १. जीवाजीवाधिकार, २. कर्तृकर्माधिकार, ३. भाषा का निम्न उदाहरण द्रष्टव्य हैपुण्यपापाधिकार, ४. आस्रवाधिकार, ५. संवराधिकार, ६.। सहज ज्ञान से स्वपर भेद को परमहंस यह मुनि नेता। निर्जराधिकार, ७. बन्धाधिकार, ८. मोक्षाधिकार, ९.| दूध दूध को नीर नीर को जैसे हंसा लख लेता। सर्वविशद्धज्ञानाधिकार. १०. स्यादवादाधिकार, ११.| केवल अलोल चेतन गुण को अपना विषय बनाता है। साध्यसाधकाधिकार। आचार्य श्री ने पं० बनारसीदास के | कुछ भी फिर करता मुनि बन मुनिपन यहीं निभाता है। 59॥ समयार नाटक की भाँति ही स्याद्वाद अधिकार के १७| कदापि मिलकर परिणमते नहिं दो पदार्थ नहिं, सम्भव हो। कलशों को स्याद्वाद अधिकार में तथा १५ कलशों को | तथा एक परिणाम न भाता दो पदार्थ में उद्भव हो॥ साध्यसाधक अधिकार में अनूदित किया है। शेष यथावत् उभय वस्तु में उसी तरह ही कभी न परिणति इक होती। हैं। यथास्थान ४२ [(अथवा ४५) तीन दोहे पुनरावृत्ति भिन्न-भिन्न जो अनेक रहती एकमेक ना इक होती॥५३॥ सहित)] दोहों की समष्टि से ग्रन्थ बहुत सुन्दर रूप लोकहित एवं अध्यात्म क्षेत्र में जितना महत्त्व भाव में गठित है। एतदतिरिक्त १ वसंततिलका छन्द समापन का होता है, उतना भाषा एवं शब्द रचना का नहीं होता। रूप में है। कुल ३२४ पद्यों की समष्टि है। .. यही कारण है कि कबीर की निरी गँवारू, खिचड़ी भाषा, शैली एवं काव्यगत विशेषताएँ- आचार्य फक्कड़ी एवं धुमक्कड़ी रचनायें आज भी आमजनों की कण्ठहार बनी हुयीं हैं। एवं पं० बनारसीदास के समयसार निजामतपान के रचनाकाल से पूर्व उत्तर भारत में अल्प| कलश की ही व्याख्या रूप लिखे 'समयसार नाटक' समय के प्रवास में हिन्दी भाषा के लेखन. प्रवचन में की भाषा स्खलित होने पर भी हृदय का स्पर्श करती उन्होंने जो निपणता प्राप्त की. वह श्लाघ्य है। 'निजामतपान'| है। आचार्यश्री की भाषा तो पर्याप्त सुधार को लिए हए के पाठक यह अनुभव नहीं कर पाते कि वे मूलतः है एवं भावों का प्रकाशन पर्याप्त रूप से सहज स्वाभाविक कन्नडभाषी हैं। मातभाषा से अन्य भाषा को बोल लेना| है। यतः समयसार अन्तःकरण से विरक्त गृही अथवा अन्य बात है, किन्तु अनुवाद रूप में काव्यरचना दुःसाध्य सन्तों का अध्येय है, अत: आज भी उनके संघस्थ जनों ही होती है। आचार्यश्री की इस काव्यकृति में भले ही | में एवं प्रौढ़ स्वाध्यायशीलवर्ग में निजामृतपान निरन्तर पाथेय भाषा-परिमार्जितता पूर्ण रूप में प्रकट न होती हो, पर | बना हुआ है। उसका उत्तम प्रभाव स्थापित है। भाव व्यक्त करने में यह समर्थ है। वाक्यविन्यास में भी आचार्यश्री की काव्य शैली समयसार के विषयानुरूप अपेक्षाकृत सुगठन कहीं-कहीं कम दृष्टिगोचर होता है. ही कुछ गम्भीर एवं अलौकिक है। ऐसा होना स्वाभाविक एवं किन्हीं-किन्हीं स्थलों पर व्याकरण-सम्मतता की न्यूनता ही है। सरसता, सरलता, खलापन उसमें समाविष्ट है। प्रतीत होती है। वर्ण्य विषय के हार्द को खोलने हेतु उसमें रूक्षता न होने से रोचक है। कतिपय स्थलों पर एवं छन्द की मात्रिकता बनाये रखने हेतु शब्दों में तोड़ प्रवाह की कुछ न्यूनता काव्य रस के रसिकों को अवश्य मरोड़ भी दृष्टिगोचर होता है, तथापि वह बाधक नहीं खटकेगी, किन्तु आत्महितगवेषी जनों को तो मानो इस है। कहा भी है, शान्तरसदर्पण में परमात्मा के दर्शन होते हैं। जैसे सरिता शब्द यदि हो समीचीन मार्ग से सटे के तीव्र प्रवाह से नुकीले पाषाणखण्ड भी लुढ़कते-लुढ़कते मिथ्यात्व से नटे, गोल मनभावन आकार धारण कर लेते हैं, ठीक उसी पारायण से कर्म भार अवश्य घटे, अवश्य घटे।| तरह आचार्यश्री की काव्यधारा से विषय-कषायों का सन्त की भाषा विशद्ध हृदय का प्रकटीकरण होती तीव्रतारूप नुकीलापन समाप्त होकर ऋजुता एवं आनन्द - मार्च 2009 जिनभाषित 9 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को प्राप्त होता है यही है शैली की सफलता। उनकी शान्त और सरल शैली अवश्य ही विरसता (वैराग्य) को जन्म देती है। प्रवाह पूर्ण, सरल, सुबोध शैली के दर्शन प्रस्तुत ग्रन्थ की निम्न पंक्तियों के माध्यम से करेंज्ञान बिना रट निश्चय निश्चय निश्चयवादी भी डूबे। क्रियाकलापी भी ये डूबे डूबे संयम से ऊबे ॥ डूबे संयम से ऊबे ॥ प्रमत्त बनके कर्म न करते अकंप निश्चल शैल रहे । आत्मध्यान में लीन, किन्तु मुनि तीन लोक पै तैर रहे ।। १११ ।। अनुवाद की प्रामाणिकता एवं प्रतिरूपता के दर्शन हेतु यहाँ मूल संस्कृत कलश प्रस्तुत है मग्ना कर्मनयावलम्बनपरा ज्ञानं न जानन्ति ये । मग्ना, ज्ञाननयैषिणोऽपि यदतिस्वच्छन्दमन्दोद्यमाः ॥ विश्वस्योपरि ते तरन्ति सततं ज्ञानं भवन्तः स्वयं । ये कुर्वन्ति न कर्म जातु न वशं यान्ति प्रमादस्य च ॥ १११ ॥ सम्पूर्ण 'निजामृतपान' ही संस्कृत कलशों का सीधा व मधुर अनुवाद है। अधिकांशतः भाव अभिव्यक्ती-करण, शब्दानुवाद और वाक्यानुवाद रूप ही ज्ञात होता है। यतः पूर्व की 'समयसार नाटक' हिन्दी पद्यमय टीका उपलब्ध है, जो विस्तृत व्याख्यायुक्त है, अतः एक संक्षिप्त एवं सरलता से आम्नाय एवं कण्ठस्थ करने हेतु एक सादा अनुवाद की आवश्यकता आचार्यश्री को अनुभव हुई होगी, इसी का परिणाम है 'निजामृतपान'। , 'निजामृतपान' काव्य-गुणों से सम्पन्न काव्य है । उसमें ओज, माधुर्य प्रसाद गुण भी विद्यमान हैं गेयता की दृष्टि से उपयोगी है। कवित्त छन्द के समान ही आकर्षकता से गेय है। आचार्य विद्यासागर जी महाराज संस्कृत एवं हिन्दी दोनों में काव्यलेखन में सिद्धहस्त हैं । प्रस्तुत कृति छन्द, रस, अलंकार के गुणों से सुशोभित है। इसमें अलंकारों की छटा पग-पग पर दृष्टिगत होकर पाठक का मन मोह लेती है। शब्दालंकार एवं शब्दचयन दोनों ही अद्वितीय प्रतीत होते हैं। अनुप्रास की छटा द्रष्टव्य है, निम्न पंक्तियों में रग-रग में चिति रस भरा खरा निरा यह जीव तनधारी दुःख सहत, सुख तन बिन सिद्ध सदीव ॥ (जीवाजीवाधिकारपुष्पिका - १ ) बन्ध किये बिन बन्ध का बन्धन टूटे आप। महिमा यह सब साम्य की विरागद्ग की छाप ॥ (निर्जराधिकारपुष्पिका-२ ) विश्वसार है सर्वसार है समयसार कां सार सुधा । चेतन रस आपूरित आतम शत शत वन्दन बार सदा ॥ 10 मार्च 2009 जिनभाषित असारमय संसार क्षेत्र में निज चेतन से रहे परे । पदार्थ जो भी जहाँ तहाँ हैं, मुझसे पर हैं निरे निरे ।। ३६ ।। आत्मतत्त्वमय चित्रित दिखता कभी चित्र बिन लसता है । चित्राचित्री कभी - कभी वह विस्मित सस्मित हँसता है ॥ तथापि निर्मल बोध धारि के करे न मन को मोहित है। चूँकि परस्पर बहुविधि बहुगुण - चूँकि परस्पर बहुविधि बहुगुण मिले आत्म में शोभित है। - २७२ ॥ आचार्यश्री के पद्य काव्यों में सहजता और प्रवाहपूर्ण काव्यरस का रसास्वादन करणीय है, स्यादवादअधिकार पुष्पिका के निम्न दोहे पर दृष्टिपात करेंमेटे वाद-विवाद को निर्विवाद स्यादवाद | सब वादों को खुश रखे पुनि पुनि कर संवाद ॥ वर्ण्य विषय की अभिव्यक्ति- प० पू० आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज उत्कृष्ट रूप से ज्ञान-ध्यानलीन साधक हैं। त्याग तपस्या के प्रभाव से उनके ज्ञानावरण कर्म का विशेष क्षयोपशम हुआ है। वे आगम और अध्यात्म के प्रवर मनीषी हैं। चारों अनुयोगों के अभ्यासी एवं अपार पाण्डित्य के धनी हैं। वे प्रवचन वात्सल्य और प्रभावना की प्रतिमूर्ति हैं विषय प्रतिपादन की कला में निष्णात । हैं। उनका 'समग्र साहित्य इसका ज्वलन्त प्रमाण है। समयसार कलश में जीव, अजीव आत्रव, पुण्य, पाप बन्ध, संवर निर्जरा और मोक्ष तत्त्वों का विवेचन है । तदनुरूप ही आचार्यश्री ने इन तत्त्वों का वर्णन बड़ी रोचक शैली में किया है। उनकी विषयानुकूल एवं सीमित शब्दों में प्रकट अभिव्यक्ति प्रशंसनीय है। हृदय से लेकर शब्द तक आते-आते उनका अनुभव मानो प्रकृत विषय का सांगोपांग चित्र प्रस्तुत करता है । निजामृतपान में भी 'अमृतकलश' के भाव का कोई अंश अनुवाद से छूटा नहीं है। यथा , एकमेव हि तत्स्वाद्यं विपदामपदं अपदान्येव भासन्ते पदान्यन्यानि पदम् । यत्पुरः ॥ कलश १३९ पद पद पर बहुपद मिलते हैं पर वे दुःखपद परपद हैं। सब पद में बस पद ही वह पद सुखद निरापद निजपद है। जिसके सम्मुख सब पद दिखते अपद दलित पद आपद हैं। अतः स्वाद्य है पेय निजी पद संकल गुणों का आस्पद है। निजामृतपान १३९ प्रस्तुत निजामृतपान में विषय तो आचार्यश्री का स्वयं का नहीं है, वह तो कुन्दकुन्द एवं अमृतचन्द्र जी का ही है परन्तु वर्ण्य विषय को रोचक, पाचक एवं Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रागविरेचक बनाकर आचार्यश्री ने भव्य जीवों के हिताय इसमें संजोकर प्रस्तुत किया है। इससे श्रोताओं को सरलता से भाव समझ में आने के कारण अवश्य ही सुखानुभूति होती है I समयसारकलश का विषय निश्चयनय प्रधान होकर भी अनेकान्तमय है। इसमें जीव के कर्त्ता, अकर्ता, बद्ध, अबद्ध आदि भावों का वर्णन अविरोधी नयदृष्टियों से किया गया है, निजामृतपान में उन विषयों का विवेचन बड़ी सुन्दर पंक्तियों में सर्वत्र किया गया है। आनन्द लेंएकस्य मूढो न तथा परस्य चितिद्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ । यस्वत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ॥ कलश ७१ भिन्न-भिन्न नय क्रमशः कहते आत्मा मोही निर्मोही । इस विध दृढ़तम करते रहते अपने-अपने मत को ही ॥ पक्षपात से रहित बना है मुनिमन निश्चल केतन है । स्वानुभवी का शुद्ध ज्ञान-धन केवल चेतन-चेतन है। जिनामृतपान ७१ आचार्यश्री ने नयाभासों पर प्रहार कर सर्वत्र स्याद्वादात्मक अनेकान्त की पुष्टि की है। सम्पूर्ण ग्रन्थ पर दृष्टिपात करने से ज्ञात होता है कि आचार्य श्री भी प्रकरणों पर निर्बाध गति से गमन करते हैं, कहीं भी स्खलन नहीं है। 'निजामृतपान' सन्तों को आत्मानुभवरूपी आनन्द में डुबोने में समर्थ है। कर्मनिर्जरा का हेतु एवं मोक्षमार्ग में अग्रसर होने हेतु सफल कारण सिद्ध हो सकता है। आचार्यश्री ने स्वयं भी कहा है , मुनि बन मन से जो सुधी करे निजामृतपान । मोक्ष ओर अविरल बड़े चढ़े मोक्ष सोपान ॥ (समापन ५) निजामृतपान विशुद्ध भावना एवं ध्यान अथवा आत्मानुभूति मूलक ग्रन्थ है । निजात्मा के कल्याण हेतु सार रूप में यह सुधासिंधु ही है। मंगल कामना में दोहों में यह भाव ग्रहणीय है. विस्मृत मम हो विगत सर्व विगलित हो मदमान । ध्यान निजातम का करूँ करूँ निजी गुण-गान ॥ सादर शाश्वत सारमय समयसार को जान। गट गट झटपट चाव से करूँ निजामृतपान ॥२॥ आचार्य श्री द्वारा रचित दोहे तो इस 'निजामृतपान' रूपी भवन के शिखर पर मानो कलश रूप ही हैं। वैसे तो ग्रन्थ ही मौलिक सा लगता है, परन्तु ये ४५ दोहे तो उनकी निजी मौलिक काव्यनिधि की शोभा हैं। इन दोहों में कबीर, तुलसी, भूधर, बिहारी एवं बुधजन के सम्मिलित रूप के दर्शन होते हैं। यदि इन दोहों को कृति में स्थान न मिला होता, तो वस्तुतः यह आत्मानन्दरसिकजनों का उत्कृष्ट कण्ठहार सम्भवतः न बन पाती, जैसे रसपूर्ण कलश यदि छलकता नहीं, तो उसका गौरव प्रसिद्ध नहीं हो पाता, उसी प्रकार निजामृतपान कलश रसपूर्ण होने पर भी दोहों की समष्टि से छलकता हुआ न होता, तो सम्भवतः अध्यात्मरसिकों को पर्याप्त आल्हादित न कर पाता। यह इस कृति की सफलता का मानक है एकादि दोहों का रसास्वादन करें। दृग व्रत चिति की एकता मुनिपन साधक भाव । साध्य सिद्ध शिव सत्य है, विगलित बाधक भाव ॥ साध्यसाधक अधिकार पु. १ ॥ साध्य साधक ये सभी सचमुच में व्यवहार । निश्चयनय मय नयन में समय समय का सार ॥ २ ॥ निजामृत के दोहों को भक्ति रस का पुट देकर आचार्यश्री ने उपयोगी बनाया है, ठीक ही है। भक्ति ही समयसार प्राप्ति का प्रथम सोपान होती है। हृदयकमल - को विकसित करने हेतु एवं उसे परम आध्यात्मिक सुगन्ध युक्त करने हेतु यह अनिवार्य कारण है। यही भाव निम्न पद्य में प्रकट किया गया है कुन्दकुन्द को नित नयूँ हृदयकुन्द खिल जाय । परम सुगन्धित महक में जीवन मम घुल जाय ॥ प्रारम्भ ४, समापन - ३ ॥ आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने प्रारम्भिक मंगलाचरण के रूप में ३ दोहे रचे हैं, पुनः अन्तिम मंगल के रूप में भी उनकी पुनरावृत्ति की है। वे तीन दोहे वर्तमान में आबालवृद्ध को कंठस्थ हैं, जन-जन में उनका प्रचार है। उन तीन में से 'कुन्दकुन्द को ......' आदि ऊपर दोहा लिखा है। अग्रिम दोहे भी उद्धृत किये हैं, ये भक्तिक्षेत्र के अलंकार बने हुए हैं । अमृतचन्द से अमृत है झरता जग अपरूप । पी पी मन मन मृतक भी अमर बना सुख रूप तरणि ज्ञानसागर ज्ञानसागर गुरो गुरो तारो तारो मुझे ऋषीश । करुणा कर करुणा करो कर से दो आशीष ॥ समयसार शुद्ध अध्यात्म एवं द्रव्यानुयोग का ग्रन्थराज है, किन्तु प्रस्तुत अध्यात्म में नीति का समावेश 'निजामृत पान' की शोभा में चार चाँद लगा रहा है, - मार्च 2009 जिनभाषित 11 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रष्टव्य है मृदुता तन-मन-वचन में धारो बन नवनीत तब जप तप सार्थक बने प्रथम बनो भव-भीत समापन-८ ॥ पापी से मत पाप से घृणा करो अयि आर्य । नर वह ही बस पतित हो पावन कर शुभ कार्य ॥ ७ ॥ ॥ जैनधर्म की एक प्रसिद्ध उक्ति है 'जे कम्मे शूरा' 'ते धम्मे शूरा' अर्थात् जो कर्म में वीर होता है, वही धर्म में वीर होता है। हमारा धर्म और हमारी नीति कहती है कि, तुम जिस अवस्था में जागे हो, उससे आगे बढ़ो। अपने जीवन के लिए कोई बड़ा लक्ष्य निर्धारित करो और उसकी पूर्ति में संलग्न हो जाओ। इससे भले ही तुम्हें वह लक्ष्य प्राप्त न भी हो पाये, किन्तु तुम अपने विचार एवं व्यवहार से भटकोगे नहीं । बया पक्षी पूरे मनोयोग से अपना घोंसला जिस तरह बनाता है, उसे कोई बड़े से बड़ा इंजीनियर भी नहीं बना सकता। इसकी विशेषता यह होती है कि इसे चारों ओर से बन्द किया जा सकता है, फिर भी हवा का प्रवेश अविरुद्ध नहीं होता, किन्तु उस पर बरसात का पानी गिरे तो वह अन्दर नहीं आ पाता। यह कर्मकुशलता बया पक्षी ने किससे सीखी? अपने आप से अपनी रक्षा के लिए, फिर तुम तो मनुष्य हो, अतः कर्म को ही अपना धर्म बनाओ। 2 12 मार्च 2009 जिनभाषित हमारे कर्म तभी अच्छे हो सकते हैं, जब उनका लक्ष्य अच्छा हो । कर्मशीलता हमारे अन्दर सकारात्मक ऊर्जा का प्रवेश कराती है, क्योंकि हमारी अन्त: चेतना जिस ओर जागृत होगी, चिन्तन भी तदनुसार होगा । जैसा चिन्तन होगा, शरीर भी वैसा कार्य करेगा। जिस तरह आप सुबह उठते ही सर्वप्रथम जिसे ध्यान में लाते हैं, उसका चित्र अपनी आँखों में सहज ही दिखाई देने लगता है । हमने प्रकाश का साक्षात्कार जड़ता के लिए नहीं किया है बल्कि क्रियाशीलता के लिए किया है। यदि आप के साथ क्रियाशीलता है, तो व्यसन, बुरी आदतें बुरे विचार साथ- साथ नहीं चल सकते। जो आगे बढ़ना चाहता है उसे काम, क्रोध, मोह, लोभ, अहंकार का त्याग करना ही होगा। जब मनुष्य मोह तिमिर को काट देता है, तब कर्मवीरता निजामृतपान विषयक उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि यह सर्वांगीण रूप से श्रेष्ठ एवं अत्यन्त उपयोगी कृति है। हम तो सन्तों के भक्त हैं, उनकी कृपा के अभिलाषी हैं। उनका जो भी आशीर्वादात्मक शब्दप्रयोग है, हम सभी के लिए मोक्षमार्ग का संकेतक है। श्याम भवन, बजाजा मैनपुरी- २०५००१ (उ.प्र.) डॉ० सुरेन्द्र कुमार जैन 'भारती' उसे निजता के दर्शन होते हैं और जब वह निजता को पा लेता है, तब उसे समस्त सृष्टि भली प्रतीत होने लगती है तो हमारी प्रकृति, हमारा पर्यावरण, हमारी सृष्टि सुरक्षित रहती है और हमारे मनोवांछित कार्य पूरे होते हैं । 1 हमारे जीवन का प्रस्थान बिन्दु है हमारी चेतना का जागरण, चेतना का विकास। इससे अच्छा लक्ष्य और कोई हो नहीं सकता। जिसे करनी में रस या आनन्द आने लगता है, वह सब ओर से सुरक्षित हो जाता है। निष्क्रियता का नाम ही असुरक्षा है, जिससे बचाव का एक मात्र मार्ग कर्मशीलता है। हम जो भी कार्य करें वह हमारी रुचि का होना चाहिए जो रुचिपूर्वक लक्ष्य बनाकर कार्य करते हैं, उनके कार्य सर्जनात्मक, सकारात्मक एवं सार्थक होते हैं। सकारात्मक सक्रियता मानवजीवन के लिए ऐसा वरदान है, जिससे मन को तो शान्ति मिलती ही है, शरीर भी नीरोग एवं सक्रिय बना रहता है। हमें ऐसा जीवन जीना चाहिए, जिसमें करने के लिए कुछ हो, जिसमें पाने के लिए कुछ हो, जिसमें खोने के लिए प्रतिशत कम और पाने के लिए प्रतिशत अधिक हो । वास्तव में कर्म ही पूजा है, प्रार्थना है, आस्था है, भक्ति है। इसी से जागरण का स्वर मुखरित होता है। जिस व्यक्ति ने सूर्योदय के बाद भी अपने मुँह के ऊपर से मोटी चादर नहीं हटायी है, आँख खोलकर प्रकृति का लालिमायुक्त नजारा नहीं देखा है, वह अपने जीवन में ना सुप्रभात की कल्पना कर सकता है, ना ही उसके जीवन का कभी कायाकल्प हो सकता है। हमारी परम्परा हमें कर्मरत होने का संदेश देती है और हम से अपेक्षा करती है कि बनना ही है, तो कर्मवीर बनो । एल - ६५, न्यू इंदिरा नगर, बुरहानुपर, म.प्र. Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'भरतेश-वैभव' की अप्रामाणिकता डॉ० शीतलचन्द्र जैन ता 'भरतेश-वैभव' काव्यग्रन्थ रत्नाकर वर्णी द्वारा । कह सकते हैं। वीतरागी पूर्वाचार्यों द्वारा लिखित शास्त्र रचित है। यह ग्रन्थ भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत् परिषद | ही जैनागम कहे जाते हैं। ऐसे रागी-द्वेषी कवि की रचना द्वारा सन् १९९८ में द्वितीय संस्करण के रूप में प्रकाशित | प्रामाणिक नहीं हो सकती। हुआ था। यही संस्करण वर्तमान में उपलब्ध होता है। ३. प्रस्तावना में कहा है कि रत्नाकर ने अपने इस ग्रन्थ का आद्योपान्त अध्ययन करने पर इसमें बहुत से ऐसे प्रसंग देखने में आये, जो भरत चक्रवर्ती | | निकालने के लिए भट्टारक जी से प्रार्थना की। तब भट्टारक के चरित्रचित्रणवाले मुख्यतया आचार्य जिनसेन द्वारा रचित | जी ने कहा कि उसमें दो-तीन शास्त्रविरुद्ध दोष हैं। आदिपुराण या अन्य किसी भी ग्रन्थ में उल्लिखित नहीं | | इसलिए वैसा नहीं कर सकते हैं। तब रत्नाकर ने इस हैं। इस सम्बन्ध में कुछ बिन्दुओं पर विचार किया जाता | विषय पर उनसे आग्रह किया एवं कुछ अनबन सी हुई। तो उन्होंने सात सौ घर के श्रावकों को कड़ी आज्ञा दे १. ग्रन्थ की प्रस्तावना में कहा गया है कि इस | दी कि इस रत्नाकर को कहीं भी आहार नहीं दिया ग्रन्थ में कवि ने कर्नाटक-कविताओं में भरत चक्रवर्ती जाय। तब रत्नाकर अपनी बहन के घर भोजन करते का स्वतंत्र जीवनचरित्र चित्रित किया है। इससे यह स्पष्ट | हुए, जिनधर्म से रूसकर आत्मज्ञानी को सभी जाति, कुल है कि जैनशासन में जो आगमपरम्परा है, उसके अनुसार बराबर हैं, ऐसा समझकर गले में लिंग बाँधकर लिंगायत यह ग्रन्थ नहीं लिखा गया। आचार्यों के द्वारा जो भी | बन गया और वहाँ पर वीरशैवपुराण, वसवपुराण, सोमेश्वरग्रन्थ रचे जाते हैं, उनके प्रारम्भ में यह कहा जाता है| शतक आदि की रचना की। कि जैसा तीर्थंकर प्रभु ने अथवा गणधर भगवान् ने अथवा पाठक स्वयं निर्णय करें कि क्या ऐसे विकृतचरित्र विभिन्न आचार्यों ने कथन किया है, वैसा ही मैं कथन | वाला व्यक्ति आगम-सम्मत काव्य का रचयिता हो सकता कर रहा हूँ। परन्तु इसमें ऐसा कुछ भी नहीं कहा है। है? जिस लेखक की जैनधर्म पर श्रद्धा ही न हो, उसका अतः 'स्वतंत्र जीवन चरित्र' होने से यह ग्रन्थ कवि की लिखा ग्रन्थ कभी प्रामाणिक नहीं हो सकता। अपनी कल्पना मात्र है, इसे हम आगम की श्रेणी में ४. प्रस्तावना के द्वितीय कथानक के अनुसार एक या प्रथमानुयोग के रूप में नहीं मान सकते। बार रत्नाकर अपने को अपमानित समझकर चला गया। २. इसके रचयिता रत्नाकर को शृंगारकवि उपाधि | जाते-जाते एक नदी को पार कर रहा था, तब भक्तों प्राप्त थी। इसकी विद्वत्ता को देखकर राजकन्या मोहित | ने शपथपूर्वक प्रार्थना की तो भी 'मुझे ऐसे दुष्टों का हो गई, रत्नाकर भी उसके मोह पाश में आ गया। वह | संसर्ग नहीं चाहिये। मैं आज ही इस जैनधर्म को तिलांजलि उस पर आसक्त होकर शरीर के वायुओं को वश में | देता हूँ।' यह कहकर नदी में डूब गया और एक पर्वत करके वायुनिरोधयोग के बल से महल में अदृश्य | पर चला गया। बाद में राजा के आग्रह पर काव्य में पहुँचकर उस राजपुत्री के साथ प्रेम करता था। यह बात | रस दिखाने के लिए 'भरतेशवैभव' की रचना की। धीरे-धीरे राजा को मालूम होने पर राजा ने उसे पकड़ने | | इस कथन से यह स्पष्ट है कि रत्नाकर ने जैनधर्म का प्रयत्न किया। उस दिन रत्नाकर ने अपने गुरु | को तिलांजलि देकर मात्र राजा को प्रसन्न करने के लिए महेन्द्रकीर्ति से पंचाणुव्रत लेकर अध्यात्मतत्त्व में अपने अपनी मर्जी के अनुसार इस ग्रन्थ की रचना की थी। आप को लगाना प्रारम्भ किया। अतः ऐसा ग्रन्थ कभी प्रामाणिक हो ही नहीं सकता। उपर्युक्त प्रकरण से स्पष्ट है कि रत्नाकर वर्णी | | ५. प्रस्तावना पृ. १९ पर कहा है कि इस ग्रन्थ श्रृंगार रस का कवि था और उसका चाल-चलन सही| की रचना में कवि ने अन्य कवियों का अनुकरण नहीं नहीं था। ऐसे व्यक्ति की रचना को हम आगम कैसे | किया है। जो वर्णन उसे स्वयं को पसन्द नहीं आया -मार्च 2009 जिनभाषित 13 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ था, उसे और ढंग से जहाँ वर्णन करना चाहता था, वहाँ | उसके हाथ से विजयाद्ध के वज्रकुमार का स्फोटन कराया। तत्क्षण उसे बदलकर पाठकों को अरुचि उत्पन्न नहीं | परन्तु यह ठीक नहीं है। हो, इस ढंग से वर्णन किया है। इस सम्बन्ध में जब हम आदिपुराण पर्व ३१ श्लोक इस प्रकरण से स्पष्ट है कि रत्नाकर ने इस ग्रन्थ १२२ को देखते हैं, तो उसमें लिखा है 'अश्वरत्न पर को मात्र लोकप्रसिद्धि के लिए रचा था, तथ्यप्रकाशन | बैठ हुए सेनापति ने 'चक्रवर्ती की जय हो' इस प्रकार के लिए नहीं। कहकर दण्डरत्न से गुफाद्वार का ताड़न किया, जिससे यहाँ तक रचयिता कवि का अप्रामाणिकता का बड़ा भारी शब्द हुआ।' इस आदिपुराण के कथन को वर्णन किया गया, अब ग्रन्थ के उन प्रसंगों का वर्णन | जो महान् आचार्य द्वारा लिखित है, रत्नाकर कवि ने किया जाता है, जो आगम सम्मत नहीं हैं गलत बताया है। १. भाग १ पृ. १४१ पर कहा है कि भरतेश की ८. भाग १ पृ. ३०१ पर लिखा है कि व्यन्तरों रानियों की संख्या ९६ हजार है, जब कि अभी महाराजा | ने भरतेश्वर की आज्ञा पाते ही शासन के रक्षक शासकभरत चक्रवर्ती नहीं बने थे। यह प्रकरण बिल्कुल | देवों को खूब ठोका, जिससे उनके सब दाँत टूट गये। आगमसम्मत नहीं है। ९. भाग १ पृ. २८८ पर लिखा है कि जब जयकुमार २. पृ. १७ भाग १ पर लिखा है कि महाराजा ने आवर्तक राजा को भरतेश्वर के सामने पेश किया, भरत ने 'आत्मप्रवाद' नाम के ग्रन्थ की रचना की थी। तो सम्राट ने अपने पादत्राण को सँभालने वाले चपरासी यह प्रकरण किसी भी पुराण से मेल नहीं खाता। से कहा कि तुम इसमें लात दो और चपरासी ने बाँये ३. भाग १, पृ. १६८ पर लिखा है कि वे रानियाँ | पैर लात मारी। भरतेश के द्वारा निर्मित 'अध्यात्मसार' को पढ़ रही हैं। १०. भरत और बाहुबलि के मध्य में जो दृष्टियुद्ध, अर्थात् इस ग्रन्थ की रचना भी महाराजा भरत ने की | जलयुद्ध और मल्लयुद्ध हुए थे, उनका इसमें वर्णन ही थी। यह प्रकरण भी बिल्कुल गलत है। नहीं है। पृ. ४१४ पर कहा है कि भरतेश ने बाहुबलि ४. भाग १ पृ. १६९ पर लिखा है कि कभी वे से कहा- भाई! अब अपने मुख से मैंने कहा कि मैं शुद्धोपयोग में मगन होते थे, तो कभी शुद्धोपयोग के | हार गया और तुम जीत गये, इस प्रकार भरतेश्वर ने साधनभूत शुभोपयोग का अवलंबन लेते थे। अर्थात् | अपनी हार बताई। रत्नाकर कवि को इतना भी आगमज्ञान नहीं था कि क्या | यह प्रकरण आदिपुराण से बिल्कुल मेल नहीं खाता कोई राजा राज्य को करते हुए शुद्धोपयोग में मग्न हो | है। आदिपुराण पर्व ३६ में लिखा है कि भारत और सकता है? बाहबलि के बीच दृष्टियुद्ध, जलयुद्ध और मल्लयुद्ध हुए ५. भाग १ पृ. १७१ पर कहा है कि भरतेश ने | और तीनों में बाहबलि ने विजय प्राप्त की। रत्नाकर सबसे पहले मंदिर में शासनदेवताओं को अर्घ्य प्रदान | कवि ने पूरा 'भरतेशवैभव' अपनी इच्छानुसार लिखा है, कर श्री भगवन्त का स्तोत्र व जप किया। यह कथन | अतः अप्रामाणिक है। किसी भी शास्त्र से मेल नहीं खाता। भरतेश के काल | ११. भाग १ पृ. ४१५ पर लिखा है कि भरतेश्वर में शासनदेवताओं की कल्पना ही नहीं थी। ने चक्ररत्न को बुलाकर कहा कि 'चक्ररत्न! जाओ।' ६. भाग १ पृ. १७९ पर लिखा है कि सम्राट | तुम्हारी मुझे जरूरत नहीं, तुम्हारा अधिपति यह बाहुबलि भरत ने जल, चन्दन आदि अष्ट द्रव्यों से अपनी माता है। जब चक्ररत्न आगे नहीं गया, तब भरतेश्वर क्रोध की पूजा की । यह कथन एकदम आगमविरुद्ध है। से कहने लगे अरे चक्रपिशाच! मैं अपने भाई के पास ७. भाग १ पृ. २५० पर लिखा है कि चक्रवर्ती | जाने लिए बोलता हूँ, तो भी नहीं जाता है, इस प्रकार के रत्नों का उपभोग वे स्वतः ही कर सकते हैं। यह | कहते हुए उसे धक्का देकर आगे सरकाया, परन्तु वह भी लिखा है कि कुछ लोग ऐसा वर्णन करते हैं कि | आगे नहीं बढ़ा। भरतेश्वर ने जयकुमार, जो सेनापति रत्न है, उसे भेजकर । इस प्रसंग के सम्बन्ध में आदिपुराण पर्व ३६ श्लोक 14 मार्च 2009 जिनभाषित Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ में इस प्रकार कहा है 'स्मरण करते ही वह चक्ररत्न भरत के समीप आया, भरत ने बाहुबलि पर चलाया, परन्तु उनके अवध्य होने से वह उनकी प्रदक्षिणा देकर तेजरहित हो उन्हीं के पास जा ठहरा। अतः रत्नाकर कवि का प्रसंग बिल्कुल आगम विरुद्ध है। १२. भाग १ पृ. १४१ पर लिखा है कि भरतेश्वर की ९६ हजार रानियाँ हैं । परन्तु इसके बाद भी पृ. २६५ पर ३०० कन्याओं से, पृ. २७१ पर ३२० कन्याओं से, पृ. २७२ पर ४०० कन्याओं से तथा पृ. ३३० पर २००० कन्याओं से शादी की चर्चा है । इससे ध्वनित होता है कि भरतेश्वर की ९६ हजार से भी अधिक रानियाँ थीं, जो आगमसम्मत नहीं है। १३. भाग २, पृ. ४ पर लिखा है कि बाहुबलि मुनिराज के मन में शल्य थी कि यह क्षेत्र चक्रवर्ती का है। मैं इस क्षेत्र में अन्न-पान ग्रहण नहीं करूँगा। इस गर्व के कारण उनको ध्यान की सिद्धि नहीं हो रही थी जब कि आदिपुराण पर्व ३६ में श्लोक १८६ में स्पष्ट लिखा है कि बाहुबलि के हृदय में यह विचार था कि वह भरतेश्वर मुझसे संक्लेश को प्राप्त हुआ है। इन दोनों प्रकरणों में इतना अन्तर क्यों ? १४. भाग २ पृ. ३० पर लिखा है कि जयकुमार और सुलोचना के विवाह के अवसर पर भरतेश्वर के पुत्र अर्ककीर्ति और जयकुमार का युद्ध नहीं हुआ। जब कि आदिपुराण पर्व ४४ में अर्ककीर्ति और जयकुमार के बीच घनघोर युद्ध का वर्णन है। १५. भाग २, पृ. ५३ पर लिखा है कि भरत की माँ यशस्वती के नीहार नहीं होता था। जबकि तीर्थंकर की माता के नीहार होता है, ऐसा आगम में उल्लेख है, चक्रवर्ती की माँ को नीहार नहीं होता हो, ऐसा उचित नहीं । १६. दीक्षा के समय भरतेश्वर की माँ को मुनिराजों ने पिच्छी और 'आत्मसार' नामक पुस्तक दिलवाई, ऐसा वर्णन भाग २, पृ. ५३ पर है। जबकि उस अवसर्पिणी के तृतीय काल में ग्रन्थ होने का कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता। १७. भाग २, पृ. ८३ पर सम्राट भरत द्वारा ७२ जिनमंदिरों का निर्माण एवं उनकी पंचकल्याणकपूजा का उल्लेख है। यह प्रकरण भी आगमसम्मत नहीं है। तृतीय एवं चतुर्थ काल में पंचकल्याणक होने का कोई प्रसंग प्राप्त नहीं होता और न ही ७२ जिनालयों का कोई प्रमाण मिलता है। १८. भाग २, पृ. १४३ पर अणु और परमाणु की परिभाषा गलत दी गई है। सबसे सूक्ष्म पुद्गल को परमाणु कहा है और अनन्त परमाणुओं के मिलने से अणु बनता है ऐसा कहा है। यह परिभाषा आगमविरुद्ध है । १९. भाग २ पृ. १५५ पर लिखा है कि कोईकोई आत्मा पहले घातिया कर्मों का नाश करती है, बाद में अघातिया कर्मों का और कोई घातिया और अघातिया कर्मों को एक साथ नाश कर मुक्ति को जाती है। यह जिनोपदेश के विपरीत है। २०. भाग २ पृ. १५१ पर प्रकरण दिया है कि कर्म, आत्मा व काल ये तीन पदार्थ अनादि हैं और उनके ही निमित्त से धर्म, अधर्म व आकाश कार्यकारी हुए । इसलिए वे आदि वस्तु हैं, ऐसा भी कोई कहते हैं। यह प्रकरण भी बिल्कुल आगमविरुद्ध है। ऐसा उल्लेख कहीं नहीं मिलता। २१. भाग २ पृ. १८१ पर कहा गया है कि भगवान् आदिनाथ ने १०० पुत्रों से कहा- 'अब अधिक उपदेश की जरूरत नहीं है। अब अपने शरीर के अलंकारों का त्याग कीजिए । राजवेष को छोड़कर तापसी वेष धारण कीजिए । बाद में दीक्षा होने के बाद भगवान् आदिनाथ ने 'आत्मसिद्धिरेवास्तु' इस प्रकार आशीर्वाद भी दिया । यह सारा वर्णन आगमसम्मत नहीं है। तीर्थंकर केवली इस प्रकार आशीर्वाद या दीक्षा नहीं देते हैं। २२. भाग २ पू. १७७ पर लिखा है कि जिनेन्द्र भगवान् के सिंहासन के चारों ओर हजारों केवली विराजमान थे। यह प्रकरण भी आगमसम्मत नहीं है। २३. भाग २ पृ. २१४ पर तीर्थंकर प्रभु के अंतिम संस्कार के समय तीन कुण्डों को तीन शरीर की सूचना देने वाला बताया है। यह प्रकरण बिल्कुल गलत है। २४. भाग २ पृ. २१५ पर भगवान आदिनाथ का माघ वदी चतुर्दशी को निर्वाण होने से शिवरात्रि के प्रचलन का सम्बन्ध जोड़ा गया है। यह प्रकरण आगमसम्मत नहीं है । २५. भाग २ पृ. २१७ पर अष्टापद की किस प्रकार रचना की गई यह प्रकरण लिखा है, जो किसी मार्च 2009 जिनभाषित 15 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी आगम से मेल नहीं खाता। ३०. इस ग्रन्थ में गुरु हंसनाथ की बहुत चर्चा २६. भाग २ पृ. २२० पर भरतेश्वर की काली | है। ऐसा प्रतीत होता है कि रत्नाकर वर्णी के गुरु हंसनाथ मूंछो का वर्णन है, जबकि आगम के अनुसार ६३ शलाका | नाम के जैनेतर कवि होंगे। पुरुषों के दाढ़ी-मूंछ नहीं होते हैं। ३१. भाग २ पृ. २३७ पर लिखा है- 'ज्ञानावरणीय २७. भाग २ पृ. २२० पर भरतेश्वर को महान् | की ४ प्रकृतियों का अंत पहले से हो चुका है, अब कामी और भोगी बताया है। लिखा है-'जिन स्त्रियों पर | बचे हुए धूर्तकर्मों को भी मार गिराऊँगा। तदुपरान्त ध्यान बुढ़ापे का असर हुआ, उनको मंदिर में ले जाकर खड्ग के बल से प्रचला व निद्रा का नाश किया, साथ आर्यिकाओं से व्रत दिलाते थे और उनके पास ही छोड़कर | में अन्तराय व दर्शनावरण की शेष प्रकृतियों को नष्ट नवीन जवान स्त्रियों से विवाह कर लेते थे। ऐसे भोगी | किया। यह प्रकरण बिल्कुल आगमविरुद्ध है।' राजा को रत्नाकर कवि ने भाग १ पृ. १६९ पर शुद्धोपयोगी | ३२. महाराजा भरत के निगोद से निकलकर, मनुष्य कैसे कह दिया, बड़े आश्चर्य की बात है। पर्याय धारणकर, मोक्ष प्राप्त करनेवाले ९२३ पुत्रों की २८. भाग २ प. २२१ पर लिखा है कि भरतेश्वर | इसमें कोई चर्चा नहीं है। की रोज नई-नई शादियाँ होती रहती थीं। लिखा है 'देश- उपर्युक्त प्रसंगों के आधार पर यह निष्कर्ष निकलता देश से प्रतिदिन कन्याएँ आती रहती हैं। रोज भरतेश्वर | है कि इस ग्रन्थ का रचयिता प्रामाणिक नहीं हैं, उसने का विवाह चल रहा है। इस प्रकार वे नित्य दूल्हा ही | | राजा आदि को प्रसन्न करने के लिए अपने मन के बने रहते हैं।' अनुसार कल्पित कथा गढ़कर लोक में सम्मान प्राप्त कने २९. भाग २ पृ. २२० पर लिखा है कि भरतेश्वर | के लिए इसे ग्रन्थ की रचना की थी। इस ग्रन्थ की अर्ककीर्ति कुमार को बुलाकर बोले-'इधर आओ, इस | रचना १६वीं शताब्दी में हुई। उसके सामने भरतेश्वर राज्य को तुम ले लो, मुझे दीक्षा के लिए भेजो।' अर्ककीर्ति | के चरित्र का निरूपण करनेवाले आचार्य-प्रणीत शास्त्र के आनाकानी करने पर उन्होंने कहा- 'मैं घर में रह | उपलब्ध थे, परन्तु उसने उनका आधार न लेकर, लोक तो सकता हूँ, परन्तु आयुष्यकर्म तो बिल्कुल समीप आ | को रंजायमान करनेवाला यह अप्रामाणिक ग्रन्थ रच डाला। पहुँचा है। आज ही घातिया कर्मों को नाश करूँगा और | उसकी जैनधर्म में कोई आस्था नहीं थी और न उसको कल सूर्योदय होते ही मुक्ति प्राप्त करने का योग है। | सैद्धान्तिक ज्ञान ही था। उसका जीवन कामवासना से भरतेश्वर ने पहले दिन दीक्षा ली, शाम को केवलज्ञान पूरित रहा। भरतेश्वर को क्षायिक सम्यक्त्व था, अत: हुआ और अगले दिन मोक्ष प्राप्त किया। यह प्रकरण | उसको सांसारिक भोगों में आसक्ति का अभाव था, परन्तु बिल्कुल गलत है। आदिपुराण पर्व ४७ के अनुसार रत्नाकर कवि ने अपनी प्रवृत्ति एवं वासना के अनुसार केवलज्ञान प्राप्त होने के बाद भगवान् भरत ने समस्त भरतेश्वर को महान भोगी प्रदर्शित किया है। वास्तविकता देशों में चिरकाल तक विहार किया। (श्लोक ३९७- | यह है कि यह ग्रन्थ कथावस्तु तथा सिद्धान्त की दृष्टि ३९८)। | से एकदम अप्रामाणिक है। आवश्यकता है श्रमण ज्ञान भारती छात्रावास जैन चौरासी सिद्ध क्षेत्र मथुरा के लिये योग्य एवं अनुभवी मैनेजर की, जो छात्रावास की व्यवस्था देख सके एवं छात्रों को जैनधर्म एवं दर्शन की शिक्षा प्रदान कर सके। वेतन एवं सुविधायें योग्यतानुसार। सम्पर्क करेंनिरंजनलाल बैनाड़ा (अधिष्ठाता) मो. 09927091970 आनन्द प्रकाश जैन (मंत्री) मो. 09412722429 16 मार्च 2009 जिनभाषित Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अंश तत्त्वार्थसूत्र में प्रयुक्त 'च' शब्द का विश्लेषणात्मक विवेचन पं० महेशकुमार जैन व्याख्याता द्वितीय अध्याय तत्त्वार्थवृत्ति में इस सूत्र में आये 'च' शब्द का विशेष नहीं लिखा है । औपशमिक क्षायिकौ भावौ मिश्रश्च जीवस्य । कि 'औपशमिकक्षायिकमिश्रौदयिकपारिणामिका:' इस प्रकार स्वतत्त्वमौदयिकपारिणामिकौ च ॥ १ ॥ सूत्र में द्वन्द्व समास का निर्देश करना चाहिये, जिससे इस सूत्र के अर्थ में दो बार 'च' शब्द नहीं करना पड़ता ? उत्तर- ऐसा नहीं है क्योंकि द्वन्द्वसमास करने से मिश्र शब्द से औपशमिक और क्षायिक से भिन्न तीसरे भी भाव के ग्रहण का प्रसंग आयेगा । इसलिए द्वन्द्व समास नहीं किया गया है। क्योंकि पुनः 'च' शब्द के ग्रहण करने पर पूर्वोक्त दोषों का निराकरण हो जाता है। श्लोकवार्तिक न चैषां द्वन्द्वनिर्देशः सर्वेषां सूरिणा कृतः । क्षायोपशमिकस्यैव मिश्रस्य प्रतिपत्तये ॥ १२ ॥ नानर्थकश्च शब्दौ तौ मध्ये सूत्रस्य लक्ष्यते । नाप्यते व्यादिसंयोग जन्म भावोपसंग्रहात् ॥ १३ ॥ क्षायोपशमिकं चांते नोक्तं मध्येत्र युज्यते । ग्रन्थस्य गौरवाभावादन्यथा तत्प्रसंगतः ॥ १४ ॥ अर्थ- शंका- यहाँ प्रथम 'च' शब्द न देकर आचार्य उमास्वामी को द्वन्द्वसमास का निर्देश करना चाहिये, जिससे " औपशमिकक्षायिकौदयिकपारिणामिका:" इस प्रकार सूत्र हो जाता। समाधान - सूत्र में मिश्र पद का ग्रहण क्षायोपशमिक के ज्ञान के लिए ही है, जिससे औपशमिक और क्षायिक इन दोनों का ही मिश्र यह क्षायोपशमिक भाव है। अतः 'च' शब्द अनर्थक नहीं है। अन्त में 'च' शब्द २ आदि के संयोग से उत्पन्न भाव का संग्रह करने के लिए है। प्रथम 'च' शब्द को नहीं कहकर क्षायोपशमिक पद के कहने से ग्रन्थ का गौरव हो जाता ( अर्थात् मिश्रश्च इन ३ वर्णों के स्थान पर क्षायोपशमिक ये ६ सस्वर वर्ण कहने पड़ते ) अतः ग्रन्थ के गौरव दोष का अभाव हो जाने से औपशमिक और क्षायिक के बाद तथा इस सूत्र के मध्य में क्षायोपशमिक शब्द कहना युक्त नहीं था । सर्वार्थसिद्धि - औपशमिकक्षायिकमिश्रौदयिकपारिणामिका इति । तथा सति द्विः 'च' शब्दो न कर्त्तव्यो भवति । नैवं शक्यम्, अन्यगुणापेक्षया इति प्रतीयेत । वाक्ये पुनः सति 'च' शब्देन प्रकृतोभयानुकर्षः कृतो भवति । तर्हि क्षायोपशमिकग्रहणमिति चेत् । न गौरवात् । मिश्रग्रहणं मध्ये क्रियते उभयापेक्षार्थम् । (यहाँ प्रथम 'च' शब्द की व्याख्या की गई है ।) अर्थ- शंका- यहाँ औपशमिकक्षायिकमिश्रौदयिकपारिणामिकाः इस प्रकार द्वन्द्व समास करना चाहिये, ऐसा करने से में दो 'च' शब्द नहीं रखने पड़ते । सूत्र समाधान- ऐसी शंका नहीं करनी चाहिये क्योंकि सूत्र में यदि 'च' शब्द न रखकर द्वन्द्वसमास करते, तो मिश्र की प्रतीति अन्य गुण की अपेक्षा होती । किन्तु वाक्य में 'च' शब्द रहने पर उससे प्रकरण में आये हुए औपशमिक और क्षायिक भाव का अनुकर्षण हो जाता है। शंका- तो फिर सूत्र में क्षायोपशमिक पद का ही ग्रहण करना चाहिये ! समाधान- नहीं, क्योंकि क्षायोपशमिक पद के ग्रहण करने में गौरव है, अतः इस दोष को दूर करने के लिए क्षायोपशमिक पद का ग्रहण न करके मिश्र पद रखा है। राजवार्तिक- द्वन्द्वनिर्देशो युक्त इति चेत् न, उभयधर्मव्यतिरेकेणान्यभावप्रसङ्गात् । स्यान्मतम् - द्वन्द्वनिर्देशोऽत्र युक्तः औपशमिक क्षायिकमिश्रौदयिकपारिणामिकाः इति । तत्रायमप्यर्थी द्विश्चशब्दो न कर्त्तव्यो भवतीति, तन्न किं कारणम् ? उभयधर्मव्यतिरेकेणान्यभावप्रसंगात् । उभाभ्यां व्यतिरेकेणान्यो भावः प्राप्नोति, 'च' शब्दे पुनः सति पूर्वोक्तानुकर्षणार्थी युक्तो भवति । ( २/१/१९)। अर्थ - इस सूत्र में द्वन्द्व समास करना चाहिये? उत्तर- ऐसा नहीं है, क्योंकि उभयधर्म के व्यतिरेक से अन्य भाव का प्रसंग आता है। शंकाकार का कहना है 1 सुखबोधतत्त्वार्थवृत्ति- 'च' शब्देन षष्ठः सान्निपातिकः समुच्चियते । स च पूर्वोत्तरभावसंयोगादिद्वित्रिचतुःपंचसंयोगजो ज्ञेयः । (यहाँ द्वितीय 'च' शब्द की व्याख्या की गई है ।) अर्थ- सूत्र में आये 'च' शब्द से छठे सान्निपातिक मार्च 2009 जिनभाषित 17 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव का ग्रहण होता है। वह सान्निपातिक भाव इन । वृत्ति में 'च' शब्द की व्याख्या नहीं की है। औपशमिक आदि भावों को पूर्वोत्तर रूप से संयोग करने | राजवार्तिक- संज्ञित्वसम्यमिथ्यात्वयोगोपसंख्यापर बनता है। इनके संयोग से द्विसंयोगी, त्रिसंगोयी, | नमिति चेत्, न, ज्ञानसम्यक्त्वलब्धिग्रहणे गृहीतत्वात्॥९॥ चतु:संयोगी और पंचसंयोगी ऐसे भेद होते हैं। भावार्थ- | स्यादेतत्-संज्ञित्वसम्यमिथ्यात्व-योगोपसंख्यानं कर्तव्यम्, सूत्र में आया प्रथम 'च' औपशमिक भाव और क्षायिक | तेऽपि हि क्षायोपशमिका इति, तन्न, किं कारणम्? भाव का मिश्र पद ग्रहण करने के लिए है, अर्थात | ज्ञानसम्यक्त्वलब्धिग्रहणेन गृहीतत्वात्। संज्ञित्वं हि मतिक्षायोपशमिक भाव का वाचक है। एवं द्वितीय 'च' छठे | ज्ञानेन गृहीतं सम्यमिथ्यात्वं सम्यक्त्वग्रहणेन, नोइन्द्रियासान्निपातिक भाव का ग्रहण करने के लिए है, जिससे | वरणक्षयोपशमापेक्षत्वात्, उभयात्मकस्य एकात्म-परिद्विसंयोगी, त्रिसंयोगी, चतु:संयोगी और पंचसंयोगी भावों ग्रहाच्च उदकव्यतिमिश्रक्षीरव्यपदेशवत्। योगश्च वीर्यका ग्रहण हो जाता है। जैसे- द्विसंयोगी-औदयिक लब्धिग्रहणेन गृहीत इति। अथवा 'च' शब्देन समुच्चयो औपशमिक जैसे- मनुष्य ओर उपशान्तक्रोध। त्रिसंयोगी वेदितव्यः । (२/५/९)। औदयिक-औपशमिक-क्षायिक जैसे-मनुष्य, उपशान्तमोह अर्थ- शंका- संज्ञित्व, सम्यग्मिथ्यात्व और योग और क्षायिक सम्यग्दृष्टि। चतुःसंयोगी-औपशमिक-क्षायिक भी क्षायोशमिक हैं। उनका भी ग्रहण करना चाहिये? क्षायोपशमिक-पारिणामिक, जैसे-उपशान्तलोभ, क्षायिक समाधान- नहीं। शंका- किस कारण से? समाधानसम्यग्दृष्टि, पंचेन्द्रिय और जीव। पंचसंयोगी-औदयिक ज्ञान, सम्यक्त्व और लब्धि के ग्रहण से उन तीनों का औपशमिक-क्षायिक-क्षायोपशमिक-पारिणामिक, जैसे- | गहण हो जाता है। अर्थात् क्षायोपशमिक संज्ञित्वभाव मनुष्य, उपशान्तमोह, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, पंचेन्द्रिय और | नोइन्द्रियावरणकर्म के क्षयोपशम की अपेक्षा रखने के कारण जीव। मतिज्ञान में अन्तर्भूत हो जाता है। सम्यग्मिथ्यात्व यद्यपि ज्ञानदर्शनदानलाभभोगोपभोगवीर्याणि च॥ ४॥ दूध-पानी की तरह उभयात्मक है, फिर भी सम्यक्पना सर्वार्थसिद्धि- 'च' शब्दः सम्यक्त्वचारित्रानुकर्षणार्थः । उसमें विद्यमान होने से सम्यक्त्व में अन्तर्भूत हो जाता अर्थ- सूत्र में 'च' शब्द सम्यक्त्व और चारित्र है। वीर्यलब्धि के ग्रहण से योग का ग्रहण हो जाता है। के ग्रहण करने के लिए आया है। अथवा 'च' शब्द से इन भावों का संग्रह हो जाता है। राजवार्तिक एवं श्लोकवार्तिक- 'च' शब्देन तत्त्वार्थवृत्ति- चकारात् संज्ञित्वं सम्यग्मिथ्यात्वं च सम्यक्त्व-चारित्रे समुच्चीयेते। (४/०) मिश्रौ भावौ ज्ञातव्यौ। अर्थ- 'च' शब्द से सम्यक्त्व और चारित्र का अर्थ- सूत्र में आये हुए च शब्द से संज्ञित्व और समुच्चय हो जाता है। सम्यग्मिथ्यात्व इन दोनों को भी मिश्र (क्षायोपशमिक) सुखबोधतत्त्वार्थवृत्ति- 'च' शब्देन सम्यक्त्वचारित्रयोः | भाव जानना चाहिये। परिग्रहः। भावार्थ- सूत्र में आये 'च' शब्द से सम्यग्मिथ्यात्व, अर्थ- सूत्र में 'च' शब्द से क्षायिकसम्यक्त्व संज्ञीपना एवं योग ये तीनों भी क्षायोपशमिक भाव होते क्षायिकचारित्र भावों का ग्रहण होता है। हैं, इस प्रकार जानना चाहिये। तत्त्वार्थवृत्ति- चकारात् सम्यक्त्वारित्रे च द्वे। जीवभव्याभव्यत्वानि च ॥ ७॥ अर्थ- 'च' शब्द से सम्यक्त्व और चारित्र का सर्वार्थसिद्धि- ननु चास्तित्वनित्यत्वप्रदेशत्वादयोऽपि ग्रहण हो जाता है। भावाः पारिणामिकाः सन्ति। तेषामेव ग्रहणं कर्तव्यम्। न भावार्थ- सूत्र में आये 'च' शब्द से सभी आचार्यो कर्तव्यम्। कृतमेव। कथम्? 'च' शब्देन समुच्चितत्वात्। ने क्षायिक सम्यक्त्व और क्षायिक चारित्र का ग्रहण किया यद्येवं त्रय इति संख्या विरुध्यते। न विरुध्यते, असाधारणाः है, जिससे क्षायिक भाव के ९ भेद हो जाते हैं। जीवस्य भावाः पारिणामिकास्त्रय एव। अस्तित्वादयः ज्ञानाज्ञानदर्शनलब्धयश्चतुस्त्रित्रिपंचभेदाः सम्यक्त्व पुनर्जीवाजीवविषयत्वात् साधारण इति। 'च' शब्देन चारित्रसंयमासंयमाश्च॥ ५॥ पृथग्गृह्यन्ते। सर्वार्थसिद्धि, श्लोकवार्तिक एवं संखबोधतत्त्वार्थ अर्थ- शंका- अस्तित्व, नित्यत्व और प्रदेशत्व | आदि भी भाव हैं, उनका इस सूत्र में ग्रहण करना चाहिये। 18 मार्च 2009 जिनभाषित Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधान- अलग से उनके ग्रहण करने का कोई काम सखबोधतत्त्वार्थवृत्ति-'च' शब्दादद्रव्यान्तरसाधारणाः नहीं, क्योंकि उनका ग्रहण किया है। शंका- कैसे? | सत्वद्रव्यत्वासंख्येयप्रदेशत्वामूर्तत्वादयाऽप्राधान्येनोक्ता गृह्यन्ते। समाधान- क्योंकि सूत्र में आये हुए 'च' शब्द से उनका अर्थ- सूत्र में आये 'च' शब्द से अन्य द्रव्यों समुच्चय हो जाता है। शंका- यदि ऐसा है, तो तीन | में पाये जानेवाले साधारणरूप सत्व, द्रव्यत्व, अंसख्येयसंख्या विरोध को प्राप्त होती है, क्योंकि इस प्रकार तीन | प्रदेशत्व, अमूर्तत्व आदि भाव अप्रधानता से ग्रहण किये से अधिक पारिणामिकभाव हो जाते हैं। समाधान- तब भी तीन संख्या विरोध को प्राप्त नहीं होती, क्योंकि जीव तत्त्वार्थवृत्ति- चकारादस्तित्वं वस्तुत्वं द्रव्यत्वं के असाधारण भाव तीन ही हैं। अस्तित्व आदि तो जीव प्रमेयत्वमगुरुलघुत्वं नित्यप्रदेशत्वममूर्तत्वं चेतनमचेतनत्वं और अजीव दोनों के साधारण हैं। इसलिए उनका 'च' । च। एतेऽपि दशभावाः पारिणामिका अन्यद्रव्यसाधारणा शब्द के द्वारा अलग से ग्रहण किया है। वेदितव्याः । राजवार्तिक- 'च' शब्दः किमर्थ:? अस्तित्वान्यत्व- अर्थ- सूत्र में आये 'च' शब्द से अस्तित्त्व, वस्तुत्व, कर्तत्वभोक्तृत्व-पर्यायवत्वाऽसर्वगतत्वाऽनादि सन्ततिबन्धन- | द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, अगुरुलघुत्व, प्रदेशवत्व, मूर्तत्व अमूर्ततत्व, बद्धत्वप्रदेशवत्वारूपत्वनित्यत्वादिसमुच्चयार्थश्च शब्दः। चेतनत्व और अचेतनत्व भावों का ग्रहण किया गया है। अस्तित्वादयोऽपि पारिणामिका भावाः सन्ति। (७/१२)। अर्थात् ये दस भी पारिणामिक भाव हैं। ये भाव अन्य अर्थ- शंका- सूत्र में 'च' शब्द किसलिए है? द्रव्यों में भी पाये जाते हैं (इसलिये जीव के असाधारण समाधान- अस्तित्व, अन्यत्व, कर्तृत्व, भोक्तृत्व, पर्यायवत्व, | भाव न होने से सूत्र में इन भावों को नहीं कहा है।) असर्वगतत्व, अनादिसन्ततिबन्धनबद्धत्व, प्रदेशवत्व, अरूपत्व, भावार्थ- सूत्र में आये 'च' शब्द से अस्तित्व, नित्यत्व आदि के समुच्चय के लिए सूत्र में 'च' शब्द | वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रदेशवत्व आदि सभी द्रव्यों में पाये का ग्रहण किया गया है। क्योंकि अस्तित्त्व आदि भाव | जानेवाले साधारण भावों का ग्रहण किया गया है। ये भी परिणामिक हैं। | भी पारिणामिक भाव हैं। श्लोकवार्तिक-'च' शब्दसमुच्चितास्तु साधारणाः | संसारिणो मुक्ताश्च॥ १०॥ असाधारणाश्चास्तित्वान्यत्वान्यत्वकर्तृत्व-हरत्व-पर्यायव- सर्वार्थसिद्धि एवं सुखबोधतत्त्वार्थवृत्ति में 'च' शब्द त्वासवर्गगतत्वानादिसंततिबंधनबद्धत्वप्रदेशवत्वारूपत्व- | की व्याख्या नहीं है। नित्यत्वादयः। तादिग्रहणमत्र न्याय्यमिति चेन्न, त्रिविध- | | राजवार्तिक-समुच्चयाभिव्यक्त्यर्थं 'च' शब्दोऽनर्थक पारिणामिकभावप्रतिज्ञाहानिप्रसंगात् । समुच्चयार्थेपि'च' शब्दे | इति चेत्, न, उपयोगस्य गुणभावप्रदर्शनत्वात्॥४॥स्यान्मतम्सति तुल्यो दोष इति चेन्न, प्रधानापेक्षत्वात्त्रित्वप्रतिज्ञायाः| 'च' शब्दोऽनर्थकः। कुतः? अर्थभेदात् समुच्चयसिद्धेः। समुच्चीयमानास्तु 'च' शब्देनाप्रधानभूता एवास्तित्वादय इति | भिन्ना हि संसारिणो मुक्ताश्च ततो विशेषणविशेष्यत्वानुपपत्तेः न दोषः। समुच्चयः सिद्धः यथा “पृथिव्यापस्तेजोवायुः" इति, तन्न अर्थ- 'च' शब्द में साधारण और असाधारण भाव | किं कारणं? उपयोगस्य गुणभावप्रदर्शनार्थत्वात्। नायं 'च' समुच्चित हैं। जैसे- अस्तित्त्व, अन्यत्व, कर्तृत्व, भोक्तृत्व, शब्दः समुच्यते, क्व तर्हि? अन्वाचये। तत्र ह्येकः प्रधानभूतः पर्यायवत्व, असर्वगतत्त्व, अनादिसंततिबंधनबद्धत्व, इतरो गुणभूतः यथा 'भैक्षं चर देवदत्तं चानय।' इति प्रदेशवत्त्व, अरूपत्व, नित्यत्व आदि। तो फिर यहाँ 'आदि' प्रधानशिष्टं भैक्षचरणं देवदत्तानयनमप्रधानशिष्टम्। तथा शब्द का ग्रहण करना चाहिये? नहीं, ऐसा करने से ली| संसारिणः प्राधान्येनोपयोगिनो मुक्त्वा गुणभावेनेत्येतस्य गई तीन प्रकार के भावों की प्रतिज्ञा नष्ट होगी। शंका- | प्रदर्शनार्थः। कथं संसारिषु मुख्य उपयोगः कथं वा मुक्तेषु 'च' शब्द को समुच्चयार्थक ग्रहण करने पर भी वही | दोष होगा? समाधान- नहीं, तीन की प्रतिज्ञा तो प्रधानता परिणामान्तरसंक्रमाभावाद् ध्यानवद्॥ ५॥ यथा की अपेक्षा से है, किन्तु अप्राप्तप्रतिज्ञावाले समुच्चीयमान एकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानमिति छद्मस्थे ध्यानशब्दार्थो अस्तित्वादि को अप्रधान की अपेक्षा से 'च' शब्द से मुख्यश्चिन्ताविक्षेपवतः तन्निरोधोपपत्तेः, तदभावात् केवलिग्रहण करने में कोई दोष नहीं है। न्युपचरितः फलदर्शनात्, तथा उपयोगशब्दार्थोऽपि संसारिषु -मार्च 2009 जिनभाषित 19 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुख्यः परिणामान्तरसंक्रमात्, मुक्तेषु तदभावात् गौणः कल्प्यते । संसारिणो संसार्य संसारित्वव्यपेतास्त्वयोगकेवलिनोऽभीष्टास्ते उपलब्धिसामान्यात्। (२/१०/५) | येन समुच्चीयन्ते। अर्थ- ससुच्चय अर्थ होने से 'च' शब्द को प्रयोग | अर्थ- शंका- सूत्र में आया 'च' शब्द अनर्थक करना व्यर्थ है, ऐसा भी कहना उचित नहीं है, क्योंकि | है! सामधान- नहीं, इष्टभेद का समुच्चय करने के लिए 'च' शब्द उपयोग के गुणभाव का प्रदर्शन कराने के | 'च' शब्द दिया गया है, जिससे सयोगकेवली नो-संसारी लिए दिया गया है॥ ४॥ अर्थ भिन्न-भिन्न होने से 'च | जीव हैं, शेष सभी संसारी जीव हैं, किन्तु अयोगकेवली शब्द के बिना ही समुच्चय का ज्ञान हो जाता है, क्योंकि | असंसारी जीव हैं, इस अभीष्ट अर्थ का समुच्चय हो संसारी भिन्न है और मुक्त भिन्न है- यथा पृथ्वी, अप्, | जाता है। अग्नि, वायु आदि का संसारी कहा है, इसलिए विशेषण- तत्त्वार्थवृत्ति- चकारः परस्परसमुच्चये वर्तते। विशेष्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती, ऐसा भी कहना | संसारिणश्च जीवा भवन्ति, मुक्ताश्च जीवा भवन्तीति उचित नहीं है, क्योंकि सूत्र में 'च' शब्द समुच्चयार्थक | समुच्चस्यार्थः। नहीं है, किन्तु अन्वाचय अर्थ में है। संसारी जीवों में | अर्थ- चकार शब्द परस्पर समुच्चय के लिए है। उपयोंग की मुख्यता और मुक्त जीवों में उपयोग की | संसारी जीव होते हैं और सिद्ध जीव होते हैं। दोनों के गौणता बताने के लिए 'च' शब्द दिया है, जैसे- देवदत्त समुच्चय के लिए 'च' शब्द दिया है। को लाओ भिक्षा कराओ। इसमें भिक्षा कराओ यह पद आचार्य श्री विद्यासागर जी- मुक्त भी कई प्रकार . प्रधान है ओर देवदत्त को लाओ यह गौण है। प्रश्न- के होते हैं जैसे- संसारमुक्त, जीवनमुक्त आदि एवं संसारी संसारी जीवों में उपयोग की मुख्यता और मुक्त जीवों | भी कई प्रकार के होते हैं जैसे-त्रस, स्थावर आदि। इन में गौणता क्यों है? सबके समुच्चय के लिए सूत्र में 'च' पद दिया है। उत्तर- परिणामान्तर के संक्रमण का अभाव होने | भावार्थ- सत्र में आये 'च' शब्द से संसारी जीवों से ध्यान के समान, जैसे- एकाग्रचिन्तानिरोधरूप ध्यान | के तीन भेद किए हैं- १. बारहवें गुणस्थान तक के छद्मस्थों के मुख्य है, क्योंकि चित्त के विक्षेपवाले | संसारी जीव २. तेरहवें गुणस्थान वाले नोसंसारी जीव छद्मस्थों के चिन्तानिरोध की उत्पत्ति होती है, परन्तु केवली | ३. चौदहवें गुणस्थानवर्ती असंसारी जीव हैं। उपयोग की भगवान् के मानसिक विक्षेप नहीं है, सिर्फ ध्यान का | मुख्यता और गौणता के लिए भी 'च' शब्द प्रयुक्त है, फल कर्म- ध्वंस देखकर उनमें उपचार से ध्यान कहा जिससे संसारी जीवों में उपयोग की मुख्यता है और जाता है, उसी प्रकार संसारियों में उपयोग बदलता रहता | मक्त जीवों में उपयोग की गौणता है, यह बात फलित है, इसलिए मुख्य है और मुक्तात्माओं में सतत एकसी | हो जाती है। संसारी भी जीव होते हैं तथा मुक्त भी धारा रहने के कारण गौण है। जीव होते हैं तथा ये कई प्रकार के होते हैं। इन सबके श्लोकवार्तिक- 'च' शब्दोऽनर्थक इति चेन्न | समच्चय के लिए 'च' शब्द दिया है। इष्टविशेषसमुच्चयार्थत्वात्। नो- संसारिणः सयोगकेवलिनः | ___ काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के जैन-बौद्धदर्शन विभाग में संगोष्ठी सम्पन्न संस्कृतविद्या धर्मविज्ञान संकाय द्वारा आयोजित अखिल । जैन-बौद्ध की तत्त्वव्यवस्था की मौलिक विशेषताओं पर भारतीय शास्त्रसंगोष्ठी के अन्तर्गत जैन-बौद्ध दर्शन विभाग | प्रकाश डाला तथा अनेकान्तात्मक पद्धति से वस्तु विश्लेषण द्वारा 'जैन-बौद्ध शास्त्रेषु तत्त्वविमर्शः' विषय पर विचार | पर बल दिया। गोष्ठी का आयोजन दिनांक १८.१.०९ को पूर्व कलासंकाय सत्र की सम्पूर्ति में विभागाध्यक्ष प्रो० कमलेशप्रमुख प्रो० सुदर्शनलाल जैन की अध्यक्षता तथा चण्डीगढ़ | कुमार जैन ने अतिथियों के प्रति आभार व्यक्त किया। विश्वविद्यालय के पूर्व संस्कृत विभागाध्यक्ष प्रो० धनराज | कार्यक्रम का कुशल संयोजन विभाग के शोधच्छात्र श्री शर्मा के मुख्यातिथ्य में किया गया। पंकजकुमार जैन ने किया। __ अध्यक्षीय वक्तव्य में प्रो० सुदर्शनलाल जैन ने विभिन्न डॉ० कमलेशकुमार जैन भारतीय दर्शनों में तात्त्विक व्यवस्था का वर्णन करत हुए 20 मार्च 2009 जिनभाषित - Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार मन्त्र का शुद्ध उच्चारण एवं जाप्यविधि __पं० आशीष जैन शास्त्री णमोकारमन्त्र के वर्तमान में तीन प्रकार के उच्चारण | षटखण्डागम के अनुसार मूल उच्चारण णमो आइरियाणं देखने में आते हैं। उनमें अन्य पद तो समान हैं, केवल | है। प्रथम पद में अंतर है। इसका एक कारण यह भी है कि णमोकारमंत्र प्रथम पद के तीन उच्चारण में ३० व्यंजन होते हैं। यदि हम 'आयरियाणं' बोलते णमो अरिहंताणं, हैं तो ३१ व्यंजन हो जाते हैं और 'णमो आइरियाणं' णमो अरहंताणं, बोलते हैं तो ३० व्यंजन ही होते हैं, अतः ‘णमो णमो अरुहंताणं। आइरियाणं' ही शुद्ध है। अर्थ की दृष्टि से देखा जाय तो तीनों ही उच्चारण इस प्रकार मूल उच्चारण यह हैउचित हैं। णमो अरिहंताणं का अर्थ है- घातिया कर्म- णमो अरिहंताणं,णमो सिद्धाणं,णमो आइरियाणं। रूपी शत्रओं को नाश करनेवाले को नमस्कार हो। णमो णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं॥ अरहंताणं का अर्थ होता है- इन्द्रादि द्वारा पूज्य अर्थात् आजकल बहुत से जैनी भाइयों के घर में तथा पाँच महाकल्याणकों से पूजित को नमस्कार हो। णमो | तीर्थक्षेत्र एवं मंदिरों में, णमोकारमंत्र के कैसेट बजते हुये अरुहंताणं का अर्थ होता है- कर्म नष्ट हो जाने से | सुनने में आते हैं। ये श्वेताम्बरों द्वारा बनाये हुये हैं। पुनर्जन्म से रहित को नमस्कार हो। यद्यपि ये तीनों ही | इनमें णमो के स्थान पर नमो तथा आइरियाणं के स्थान हमारे अर्थ की सिद्धि करनेवाले हैं, परन्तु इनमें मूल | पर आयरियाणं सुनने में आ रहा है। यह उचित नहीं पाठ तो णमो अरिहंताणं ही है, क्योंकि इस महामंत्र | है। 'ण' का 'न' रूप से परिवर्तन करने से शब्दों की के रचनाकार आचार्य पुष्पदंत महाराज (ईसापूर्व प्रथम | शक्ति घट जाती है। इससे मंत्रशास्त्र के रूप और मण्डल शताब्दी) हैं। और उन्होंने श्री षट्खण्डागम के मंगलाचरण | में विकृति हो जाती है। फल की पूर्ण प्राप्ति नहीं हो के रूप में इसकी रचना की थी। वहाँ इसका लेखन | पाती। णमो के उच्चारण, मनन तथा चिन्तन में आत्मा णमो अरिहंताणं रूप ही है, अतः णमोकार महामन्त्र के | की अधिक शक्ति लगने से, फल अतिशीघ्र मिलता है प्रथम पद का मूल उच्चारण णमो अरिहंताणं ही मानना | तथा प्राणवायु एवं विद्युत् का अत्यधिक संचार होता है। चाहिए। अपने शरीर, स्वास्थ्य तथा अन्य पदार्थ पर भी 'णमो' इस संबंध में मुझे पू० आ० विद्यासागर जी महाराज शब्द अधिक फलदायी है। अतः शुद्ध मंत्र का भावसहित द्वारा कहा गया यह संस्मरण भी याद आता है- 'मेरे उच्चारण सर्वश्रेष्ठ फल का देनेवाला तथा महापुण्यबंध दीक्षागुरु आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज को जब कभी | का कारण है। तीन बार णमोकारमंत्र बोलना होता था, तो वे सर्वप्रथम . जप-विधि 'णमो अरिहंताणं'--- उसके बाद 'णमो अरहंताणं' - श्री धवलाग्रंथ में इस मंत्र के जप की मुख्यतया -- तथा अन्त में णमो अरुहंताणं' बोलते थे।' इसका | तीन विधियाँ बताई गई हैंभी यही तात्पर्य होता है कि समान अर्थ होने से तीनों | 1. पूर्वानुपूर्वीउच्चारण उचित हैं, पर मूल तो ‘णमो अरिहंताणं' ही | णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं है। णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं॥ इस मंत्र के तीसरे पद के भी दो उच्चारण दृष्टिगोचर 2. पश्चातानुपूर्वीहोते हैं- णमो आइरियाणं तथा णमो आयरियाणं। इनमें | णमो लोए सव्व साहूणं, णमो उवज्झायाणं। भी यद्यपि अर्थ की अपेक्षा अंतर नहीं है, परन्तु श्री । णमो आइरियाणं, णमोसिद्धाणं णमो अरिहंताणं ।। -मार्च 2009 जिनभाषित 21 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3. याथातथ्यानुपूर्वी मंत्रजाप के तीन अन्य प्रकार और भी हैंणमो सिद्धाणं,णमो अरिहंताणं, णमो उवज्झायाणं। १. कमल जाप्य- हृदय स्थान पर १२ दलवाले णमो आइरियाणं, णमो लोए सव्व साहूणं॥ | कमल की रचनाकर उसके आधार से जाप करना। अथवा २. हस्तांगुली जाप्य- हाथ की अंगुलियों के आधार णमो आइरियाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं। से जाप करना। णमोअरिहंताणं, णमो सिद्धांण, णमो उवज्झायाणं। ३. मालाजाप्य- माला के आधार से जाप करना। अथवा इसी विधि से किसी भी पद को आगे- उपर्युक्त तीनों प्रकारों में कमलजाप्य को उत्कृष्ट पीछे लेकर इस मंत्र का जाप किया जा सकता है। इतना अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि न तो कोई पद दोबारा वर्तमान में जाप देने का प्रचलन तो बहुत से धर्मप्रेमी आये और न कोई पद छूटे। लड्डू की तरह इस मंत्र | भाइयों-बहिनों में है, परन्तु सबका एक ही प्रश्न रहता का कैसा भी जाप सुख प्रदान करनेवाला है। है कि मन तो लगता नहीं, फिर जाप देने से क्या लाभ • जाप भी तीन प्रकार से किया जाता है- है? उन सबसे मेरा नम्र निवेदन है कि यदि उचित स्थान १. जब जाप करते समय न तो उंगली-अंगूठा | पर, उचित काल में जाप दी जायेगी, तो अवश्य मन आदि का प्रयोग किया जाय और न जिह्वाचालन या उच्चारण | लगेगा। साथ ही मन लगाने के लिये, ऊपर कही गयी हो। मात्र मन में जाप हो। यह सर्वश्रेष्ठ फलदायी है। पूर्वानुपूर्वी आदि रूप से जाप देंगे, तो अवश्य ही मन २. जब मंत्र का उच्चारण तो न हो, पर अंगुली | लगेगा। आशा है पाठकगण, शुद्ध मंत्र का, मन लगाते या ओंठ, जिह्वा आदि क्रियाशील हों। यह मध्यम फलदायी हुये जाप देकर मंत्र का उत्कृष्ट फल प्राप्त करेंगे। यही इस लेख का आशय है। ३. जब उच्चारणसहित मंत्रजाप किया जाय। यह श्रमण संस्कृति संस्थान, सांगानेर जघन्य फलदायी है। (जयपुर, राज.) म.प्र. के मुख्यमंत्री द्वारा डॉ० सागरमल जी जैन सम्मानित दिनांक १९ फरवरी २००९ गुरुवार को भारतीय साहित्य, कला एवं संस्कृति को समर्पित शाजापुर नगर की 'पहचान' संस्था द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त जैन विद्वान् डॉ. सागरमल जी जैन के 'अमृत महोत्सव' समारोह का आयोजन किया गया। समारोह प.पू. पुष्पा जी म.सा., प.पू. ज्योत्सना जी म.सा. प.पू. प्रतिभा जी म.सा. आदि ठाणा-७ की निश्रा एवं म.प्र. के मुख्यमंत्री श्री शिवराजसिंह चौहान के मुख्य आतिथ्य तथा श्री पारस जी जैन खाद्य आपर्ति मंत्री. म.प्र. शासन की अध्यक्षता में स्थानीय प्रहलाद जीन परिसर में उपस्थित विशाल जनसमदाय के बीच सम्पन्न हुआ। मुख्यमंत्री व डॉ० सागरमलजी के बीच गुरु-शिष्य का नाता है। इसी बात से प्रेरित होकर 'गुरुगोविंद दोनों खड़े, काके लागू पाँय, बलिहारी गुरु आपकी गोविंद दियो बताय' के दोहे से अपनी बात आरंभ करते हुए मुख्यमंत्री श्री चौहान ने अपने मार्गदर्शक प्रेरणास्रोत डॉ० सागरमल जी जैन के इस अमृतमहोत्सव समारोह में अपने गुरु का गुणानुवाद करते हुए जब गुरु-शिष्य के मधुर संबंधी व इस रिश्ते की पवित्रता पर मुखरित होकर बोले, तो उपस्थित जन समुदाय स्वतः ही तालियाँ बजाकर इस प्रसंग पर अपनी आत्मीय उपस्थिति का प्रमाण देता दिखाई दिया। उन्होंने कहा-संसार में माता-पिता के बाद वंदनीय स्थान गुरु का होता है। मुझे गर्व है कि इस गहराई को मैं स्वयं के जीवन में भी महसूस करता हूँ। मैं अपने वंदनीय गुरु डॉ० जैन सा० को विश्वास दिलाता हूँ कि मेरे द्वारा भी इस जीवन संग्राम में किए जा रहे प्रत्येक कार्य से आप सदैव गौरवान्वित होते रहेंगे। इस अवसर पर उपस्थित साध्वी-मण्डल ने डॉ० सागरमल जी जैन को 'ज्ञान महोदधि' की उपाधि से अलंकृत किया। 22 मार्च 2009 जिनभाषित - Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर होने के मायने महावीर की प्रासंगिकता या महावीर का महत्त्व जैसे शीर्षकों से अब सामान्यतः अरुचि होने लगी है, क्योंकि प्राय: इस तरह के शब्द हर सामान्य पुरुष / महापुरुष के लिये, उनके स्मरण किये जाते समय प्रयोग केये जाते हैं। कभी-कभी तो अपूज्यों के लिये भी बड़े बड़े ऐसे ही शब्द विशेषण बतौर लगा दिये जाते हैं, इसीलिये कहा जाता है कि इन दिनों शब्द अपने मूल अर्थ खोने लगे हैं। वे अपना सटीक प्रभाव नहीं छोड़ पाते हैं, चलताउ हो गये हैं। उदाहरण के लिये मीडिया ने इन दिनों, राजनीतिक गुण्डों के लिये एक आध्यात्मिक और पारम्परिक प्रचलित शब्द 'बाहुबलि' का दुरुपयोग करना शुरू कर दिया है। एक युग से बाहुबलि शब्द, प्रथम जैन तीर्थंकर आदिनाथ प्रभु के कनिष्ठ और महान् आत्मसाधक पुत्र बाहुबलि के लिये ही प्रयोग किया जाता रहा है, जिन की विश्वप्रसिद्ध विशालतम सुन्दर मूर्ति श्रवणबेलगोला (कर्नाटक) में मानवाकर्षण का एक ऐतिहासिक अद्वितीय कलाविम्ब है । इन्हीं बाहुबलि के बड़े भाई महाराज भरत के नाम पर इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा है, यह एक ऐतिहासिक तथ्य है। अब मीडिया के लोगों को कौन समझाये कि जिन गुण्डों को आप बाहुबलि कह रहे हैं, उनमें एक भी गुण तो दूर वे उन भगवान् बाहुबलिस्वामी के चरणरज बरावर भी नहीं हैं, न ही उनमें शाब्दिक ही अर्थ शेष है। यदि यह शाब्दिक दुरुपयोग जारी रहा तो कोई आश्चर्य नहीं कि भगवान् बाहुबलि में ही अतीत को नहीं समझने वाली नई पीढ़ी, आज के राजनैतिक गुण्डों की छवि देखने लगे। क्योंकि ऋणात्मक प्रभाव ही मनोवैज्ञानिकरूप से जल्दी पड़ता है। एक और जैन प्रचलित शब्द है 'सल्लेखना', जिसका आध्यात्मिक अर्थ समझे बिना लोग इसे आत्महत्या मनवाने पर उतारू हैं, क्योंकि ये लोग तो सामान्य मौत या कुत्ते की मौत भर जानते हैं। दूर क्यों जाते हैं, मीडिया में क्रिकेट मैचों को युद्ध का रूप देने में शब्दों के दुरुपयोग पर कोई कसर नहीं छोड़ी जाती है । कमेण्ट्री में कहा जाता है... कुचल दो पाकिस्तान को..., लूट लो श्रीलंका को,... गेंद डालो आस्ट्रेलिया कैलाश मड़बैया को, बचने न पायें अफ्रीकन... इत्यादि । क्या कोई टीम दुश्मन देश होती है या क्रिकेट खेल नहीं, युद्ध होता है ? आखिर बाजारवाद कहाँ ले जायेगा हमें...? मीडियाकर्मी साहित्य की गहराई में जाना ही नहीं चाहते? विज्ञापनों में शब्दों के दुरुपयोग और द्विअर्थी संवादों ने साहित्य, समाज और संस्कृति की ऐसी-तैसी कर रखी है। इसलिये महावीर जैसे युगप्रवर्तक तीर्थंकर के लिये शब्दों का उपयोग करने में सतर्कता आवश्यक है, क्योंकि महावीर स्वयं में ही बाह्य शत्रुओं को जीतकर नहीं, अन्तः के दुश्मनों को जीतकर आत्मसाधना से महान् बनने का नाम है। महावीर स्वामी ने लगभग २६०० वर्ष पूर्व स्व में उतरने के जो वैज्ञानिक प्रयोग किये थे, उन्हें विज्ञान भले आज सिद्ध न कर पाया हो, पर वह क्रान्तिकारी महावीर ही थे, जिन्होंने मानव / पशु बलि के पाखण्डवाले उस पतित युग में कहा था कि मुक्ति / मोक्ष के लिये किसी ईश्वर की भक्ति की आवश्यकता नहीं हैं, वरन् स्वयं को पर्त दर पर्त उघाड़ कर आत्मस्थ होने की आवश्यकता है। पर तब तो इसको गहराई से समझे बिना जैनधर्म पर ही नास्तिक होने का आरोप लगा दिया गया था। वह तो महावीर को तब समझ गया जब आइन्सटीन जैसे वैज्ञानिक ने सापेक्षवाद का सिद्धान्त प्रतिपादित कर दिया । इसलिये आइये, तीर्थंकर महावीर ने जिन प्रमुख जैनसिद्धान्तों को अनावृत किया था, उन्हें संक्षेप में व्याख्यायित करने की विनम्र कोशिश करें । अनेकान्त दर्शन- महावीर के काल अर्थात् ईसा से ५९९ ई० पूर्व तक लोगों में अरस्तू का ही यह सिद्धान्त प्रमुखता प्रचलित था कि क, क है और ख, ख है । क, ख नहीं हो सकता और ख, क नहीं। पर महावीर ने समझाया कि एक व्यक्ति पुत्र के लिये पिता, पत्नी के लिये पति, पिता के लिये पुत्र बहिन के लिये भाई अर्थात् अलग-अलग रूप हो सकता है। इसलिये वस्तु का स्वरूप सापेक्ष होता है, ठीक पाँच अंधों के अलगअलग रूप में हाथी को देखने के अनुभवों की तरह । पर भिन्न-भिन्न अनुभव होने के बावजूद हाथी तो सभी को देखा हुआ समग्र अनुभव ही होता है न कि किसी मार्च 2009 जिनभाषित 23 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक का। एक व्यक्ति की दृष्टि तो एक समय में एक | को दिखलानेवाला सर्वज्ञ पुरुष है। इसी के आधार पर कोण तक ही जा सकती है, एक साथ सभी कोंणों तक | तीर्थंकर के अनुयायियों को एक शब्द दिया गया है नहीं, इसलिये एक व्यक्ति की दृष्टि एकांगी होगी, सम्पूर्ण | 'श्रावक।' यह साधारण शब्द नहीं है। यों इसका सामान्य सत्य तो सभी कोंणों को मिलाकर ही दिखायी देगा। अर्थ सुननेवाला है। पर श्रोता और श्रावक में बहत फर्क इसलिये आप जो कह रहे हैं, वही सही नहीं है, वरन् | है। श्रोता एक कान से सुनता है और संभव है दूसरे दूसरा जो कहता है, वह भी सत्य है। सत्य एकांगी से निकाल भी दे, पर श्रावक का अर्थ सम्यक सुनने नहीं विराट होता है, समग्र होता है। संक्षेप में यही महावीर | से है, जो प्राणों से सुनता है। यह क्रिया दो तरह से की अनेकान्त दृष्टि है। 'ही' एकांगी है, अतः सब कुछ | होती है, एक तो प्रतिक्रमण, जो आक्रमण के विपरीत नहीं, 'भी' को सम्मान दीजिये। क्योंकि अन्य का देखा | होती है। जहाँ-जहाँ मन की एकाग्रता पर आक्रमण हुआ भी सत्य है। दूसरों की भी सुनिये और उसे महत्त्व है अर्थात् मन भटका है, पहले प्रतिक्रमण से वहाँ से दीजिये। अनेकान्त का अर्थ है- जीवन में सभी देखे, | समेटना केन्द्रीभूत करना अर्थात् चित्त को स्थिर करना। अनदेखे पहलुओं की एक साथ स्वीकृति। दूसरे चरण में प्रतिक्रमण से लौटे चित्त को तुरन्त आत्मस्थ आइंस्टीन के पहले, परमाणु को कण यानी बिन्दु | करना। चित्त खाली नहीं रह सकता। तुरंत काम दो। माना जाता था पर आइंस्टीन ने कहा कि यह बिन्दु भी | जब वक्ता और श्रोता की एक फ्रिक्वेंसी, आवृत्ति की है और तरंग भी। इसके लिये महावीर ने एक शब्द एक मानसिकता हो जाती है, तभी दिव्यध्वनि सुनी जा दिया 'स्यात्'। इसका अर्थ शायद नहीं है। 'स्यात्' शब्द | सकती है। भाषा इसमें वाधक नहीं होती। ऐसे समझ किसी शंका का द्योतक नहीं हैं। यह किसी की संतुष्टि लीजिये कि इन दिनों जैसे संसद में ऐसा श्रवण उपकरण के लिये अपने को दबाना भी नहीं है। वरन जो मैं | सांसदों के कानों में लगाया जाता है कि किसी भी भाषा नहीं देख सका, उसे यदि किसी अन्य ने देखा है, तो में संसद में दिया गया वक्तव्य प्रत्येक सांसद अपनी सत्य के लिये, वह भी स्वीकार कर लेना। विज्ञान में | भाषा में समझ लेता है, क्योंकि वह कानों में लगा उपकरण एक शब्द इसके लिये दिया गया है 'क्वाण्टा।' | | अनुवाद कर उसकी ही भाषा में संप्रेषण कर देता है। महावीर के काल तक इस व्याख्या की त्रिभंगी | इसलिये समवशरण में तीर्थकर की दिव्यध्वनि प्रत्येक दृष्टि थी, अर्थात् कोई वस्तु है, नहीं है या है भी और | प्राणी यदि अपनी भाषा में उन दिनों समझ सकता था, नहीं भी, पर महावीर के अनेकान्तदर्शन के बाद यह | तो विश्वास नहीं करने का कोई कारण नहीं रह जाता। दृष्टि सप्तभंगी हो गई। यह मौलिक परिवर्तन था। | पर प्रतिक्रमण से लौटे ध्यान को तत्काल आत्मरत करना श्रावक- तीर्थंकर का सामान्य अर्थ भवसागर तरने | अनिवार्य है। का यानी जन्म मृत्यु के बंधनों से मुक्ति दिलाने के मार्ग | ७५, चित्रगुप्तनगर, कोटरा, भोपाल-३ धार्मिक शिक्षण शिविरों हेतु आमंत्रण शीघ्र भेजें श्री दिगम्बर जैन श्रमण संस्कृति संस्थान, सांगानेर से विगत १२ वर्षों से जैनधर्म का शिक्षण कार्य ग्रीष्मकालीन शिविरों के माध्यम से संपूर्ण भारत में अनवरत चल रहा है। ग्रीष्मकालीन अवकाश के अवसर पर अप्रैल, मई एवं जून माह में 'सर्वोदय आध्यात्मिक शिक्षण शिविर' का आयोजन कर समाज में धार्मिक चेतना का जागरण संभव है। इन शिविरों में संस्थान के योग्य विद्वानों द्वारा जैन धर्म शिक्षा भाग १, २, छहढाला, भक्तामर स्तोत्र, इष्टोपदेश, भावनाद्वात्रिंशतिका, द्रव्यसंग्रह, तत्त्वार्थसूत्र, करणानुयोग दीपक भाग १, २, ३ आदि ग्रन्थों का स्वाध्याय कराया जाएगा। इच्छुक महानुभाव संस्थान कार्यालय में पत्र व्यवहार करें जिससे शिविर आयोजन हेतु समुचित व्यवस्था की जा सके। सम्पर्क सूत्र अधिष्ठाता- श्री दिगम्बर जैन श्रमण संस्कृति संस्थान - वीरोदय नगर, जैन नसियां रोड सांगानेर जयपुर (राज.) ३०२०२९ ०१४१-२७३०५५२, ३२४१२२२, ०९४१२२६४४५, ०९४१४७८३७०७ __ 24 मार्च 2009 जिनभाषित - Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाँदी के वर्क की हकीकत श्रीमती मेनका गाँधी (लेखिका पूर्व केन्द्रीय मंत्री हैं) पूरे देश में या इस पृथ्वी पर वर्क का ऐसा कोई टुकड़ा नहीं है, जो मशीन से बना हो बाजार में उपलब्ध चाँदी के वर्क जहरीले ही नहीं, बल्कि कैंसर-कारक भी हैं जिसमें सीसा, क्रोमियम, निकिल और कैडमियम जैसी धातुएँ भी मिली हुई हैं। जब ऐसी धातुएँ शरीर में खाद्य पदार्थ के रूप में जाएँगी, तो निश्चित ही ये कैंसर का कारण बनेंगी। भारत में कानून है कि हर शाकाहारी खाद्यपदार्थ | एक बार सूख जाने के बाद मजदूर इसे 19x15 को हरे चिह्न से तथा मांसाहारी खाद्यपदार्थ को मैरून वर्ग से.मी. के टुकड़ों में काटते हैं। इन्हीं टुकड़ों से चिह्न से चिह्नित किया जाए। यदि कोई निर्माता अपने | थैली बनाते हैं. जिसे 'औजार' कहते हैं और उनका उत्पाद में गलत लेबल लगाकर हेराफेरी करता है, तो | ढेर बनाया जाता है। बाद में यही ढेर एक बड़े चमड़े उसे कई साल की सजा हो सकती है। तो फिर मिठाई- के थैले में भर दिया जाता है, जिसे खोल कहते हैं। निर्माता कानून बनने के बाद से अभी तक गिरफ्तार कैसे अब इस खोल में चाँदी या सोने की बिल्कुल झीनी नहीं किये गए? दूध को शाकाहारी माना जाता है, ताकि | पत्तियाँ रखी जाती हैं। 'औजार' में रखी जानेवाली चाँदी शक्तिशाली डेयरी लॉबी को खुश किया जा सके। लेकिन | की बारीक पत्तियों को 'अलगा' कहते हैं। अब इस हर मिठाई पर लगे वर्क (सिल्वर फॉयल) को हटाए | 'अलगा' को औजार में रखकर फिर खोल में भरा जाता बिना मिठाई को शाकाहारी नहीं कहा जा सकता। । | है। फिर घंटों तक कारीगर लकड़ी के हथौड़े से पीटते व्यूटी विदाउट क्रूअल्टी' नामक पुणे के एक | हैं, जिससे चाँदी के वर्क तैयार होते हैं। इसी वर्क को स्वयंसेवी संगठन ने खाद्य उत्पादों में मिलाए जानेवाले | मिठाई की दकानों पर भेजा जाता है। अवयवों पर एक विशिष्ट पुस्तिका प्रकाशित की है, जो आपको कछ आँकडों की जानकारी होनी चाहिए। पूरे वर्क उद्योग के बारे में बताती है। इस रिपोर्ट में | एक पशु की खाल से केवल 20-25 टुकड़े या एक बताया गया है कि वर्क कैसे बनाया जाता है। वर्क निर्माता | थैली तैयार होती है। हर ढेर में 360 थैली होती हैं। वधशालाओं में जाकर पशुओं का चयन करते हैं। चाहे | एक ढेर से लगभग 30 हजार वर्क के टुकड़े बनते पशु नर हो या मादा, उसका बध करने से पहले यह | हैं, जो एक बड़ी मिठाई की दुकान में आपूर्ति के लिए देखने के लिये उसकी खाल टटोली जाती है कि वह कम ही हैं। एक किलोग्राम वर्क तैयार करने के लिए मुलायम है या नहीं। | 12.500 पशओं की हत्या की जाती है। इसका सीधा अर्थ यह है कि विशेष रूप से इसी हर साल 30 हजार किलो (30 टन) वर्क की उद्योग के काम में लाने के लिये भारी संख्या में भेड़ | खपत केवल मिठाइयों में होती है। यही मिठाई हम सब बकरी और मवेशियों की हत्या की जाती है। हत्या के | खाते हैं। वर्क कम्पनियों द्वारा 2.5 करोड़ ढेरनुमा बुकलेट बाद पशुओं की खाल की गंदगी साफ करने के लिए | बनाई जाती हैं। ये कम्पनियाँ वधशालाओं से अपने बारह दिन तक टंकी में डुबाए रखा जाता है। इसके | सम्पर्कों को गुप्त रखती हैं, लेकिन सच्चाई यह है कि बाद मजदूर इस खाल को छीलते हैं, जिसे वे 'झिल्ली' इस उद्योग से जुड़े लोग उन्मुक्त तरीके से पशुओं की कह कर पुकारते हैं। खाल की निचली पर्त केवल एक | हत्याओं में लिप्त हैं। हृदय से हर धर्मावलम्बी यह जानता टकडे में ही उतारी जाती है। इन्हीं पर्तों को मुलायम | है कि वर्क मांसाहारी है, लेकिन वह लगातार निर्भीकता करने के लिये एक प्रक्रिया के तहत 30 मिनट तक | से इसका सेवन करता है। विस्मयकारी है कि सभी उबाला जाता है, बाद में सूखने के लिए उसे लकड़ी | प्राणियों पर सभी प्रकार की हिंसा और अमानवीय कृत्यों के तख्तों पर डाल दिया जाता है। का विरोध करनेवाले कत्लखानों से निकली चमड़ी की -मार्च 2009 जिनभाषित 25 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परत में बने वर्कों का धड़ल्ले से इस्तेमाल करते हैं ।। होता है। दिल्ली, लखनऊ, आगरा और रतलाम की वधशालाओं में वर्क बनाने के लिए पशुओं की नरम खाल से बनी थैलियाँ इन शहरों में भेजी जाती हैं। 7 अनेक लोग झाँसा देकर खुद को यह समझाने का प्रयास करते हैं कि यह मशीन से बना हुआ है। बिना क्रूरता, सुन्दरता एक श्रमसाध्य कार्य है। पूरे देश में या इस पृथ्वी पर वर्क का ऐसा कोई टुकड़ा नहीं है, जो मशीन से बना हो। इन्टरनेट पर मुझे जालंधर से एक व्यक्ति ने पत्र भेजा, जिसमें दावा किया गया था कि उसके पास जर्मनी के सहयोग से बनी एक ऐसी स्वचालित मशीन है, जो विशेषरूप से भारत में बने पूर्ण शुद्ध और वातावरण-नियंत्रित कागज में चाँदी के टुकड़ों को पीटकर वर्क बनाती है और इसका संचालन अनुभवी और प्रशिक्षित इंजीनियरों का दल करता है। मैंने इसका पता लगवाया। इस तरह की कोई फैक्ट्री नहीं मिली यहाँ तक कि । नाम भी नहीं। यह सरासर झूठ था । वर्क का उत्पादन मुख्यतः उत्तरी भारत में होता है पटना भागलपुर, मुजफ्फरपुर और गया (बिहार में बौद्धों के पवित्र केन्द्र), कानुपर मेरठ और वाराणसी (उत्तर प्रदेश में हिन्दुओं के पवित्र शहर), जयपुर, इन्दौर, अहमदाबाद और मुम्बई ऐसे मुख्य नगर हैं, जहाँ वर्क का बड़े पैमाने पर उत्पादन वर्क केवल मांसाहारी खाद्य पदार्थ ही नहीं है, वरन यह मानवशरीर के लिए काफी हानिकारक भी है। चाहे शाकाहारी हो या मांसाहारी इंसान चाँदी हजम नहीं कर सकता और इसके खाने से कोई लाभ भी नहीं है। नवम्बर 2005 में लखनऊ में वर्क पर इंडस्ट्रियल टॉक्सीकोलोजी रिसर्च सेन्टर द्वारा किए गए अध्ययन में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि बाजार में उपलब्ध चाँदी के वर्क जहरीले ही नहीं, बल्कि कैंसर कारक भी हैं जिसमें सीसा, क्रोमियम, निकिल और कैडमियम जैसी धातुएँ भी मिली हुई हैं जब ऐसी धातुएँ शरीर में खाद्य पदार्थ के रूप में जाएँगीं, तो निश्चित ही वे कैंसर का कारण बनेंगी। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि इस उद्योग में काम करनेवालों के स्वास्थ्य पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है। वर्क से लपेटी गईं मिठाइयों, फल और पान को सेवन मत कीजिए। मिठाई दुकानदार वर्कवाली मिठाइयों पर मांसाहार का लेबल क्यों नहीं लगाते ? श्रुत महोत्सव 09 अनेकान्त ज्ञान मंदिर, बीना प्रतिवर्ष की भाँति अनेकान्त ज्ञान मंदिर शोध संस्थान का 17 वाँ स्थापनावर्ष समारोह त्रिदिवसीय 'श्रुत महोत्सव' (20 फरवरी से 22 फरवरी 09) के रूप में विविध धार्मिक आयोजनों के साथ श्रुतधारा परिसर में सोत्साह संपन्न हुआ । कोठिया कृति 'नमन' बीना हरदा (म.प्र.) में निःशुल्क लैंस प्रत्यारोपण नेत्र शिविर सम्पन्न दयोदय पशुधन संरक्षक समिति हरदा (म.प्र.) के द्वारा विगत् 5 वर्षों से निःशुल्क लैंस प्रत्यारोपण नेत्र शिविर का आयोजन होता आ रहा है। इस वर्ष दिनांक 9 फरवरी 09 से 13 फरवरी 09 तक नेत्र शिविर का आयोजन डॉक्टर श्री ऋषभ सिंघई के द्वारा किया गया, जिसमें 45 रोगियों का आपरेशन सानंद सम्पन्न हुआ। दिनांक 13 फरवरी 09 को समिति के अध्यक्ष श्री बी. एल. जैन के द्वारा रोगियों को चश्मा एवं दवाई का वितरण किया गया। समिति के सचिव श्री सत्यनारायण जी शर्मा, कोषाध्यक्ष महेन्द्र अजमेरा, उपाध्यक्ष प्रदीप अजमेरा, संयोजक अनूप बजाज व श्री ज्ञानेश चौबे, सोहनलाल उन्हाले, एवं रमेश पाटनी का पूरा सहयोग रहा। महिला मण्डल व वैश्यसमाज महिलाओं द्वारा दूध, चाय, फलों का वितरण किया गया। श्री मोहम्मद सलीम नूरी द्वारा रोगियों को निःशुल्क खिचड़ी का वितरण व श्री सत्यनारायण जी शर्मा द्वारा तीनों दिन दलिया दूध का वितरण किया गया, जिसके लिए समिति सभी के प्रति आभार प्रकट करती है। 26 मार्च 2009 जिनभाषित महेन्द्र अजमेरा, कोषाध्यक्ष श्री दयोदय पशुधन संरक्षण समिति, हरदा (म. प्र. ) Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्तमान परिवेश में युवाशक्ति का दिशा-निर्धारण सुरेश जैन 'सरल' मैं पहले युवकों पर, जिनमें छात्र और छात्राएँ । मान बैठते हैं। सम्मिलित हैं, एक छोटा सा विचार दे रहा हूँ सच युवा शक्ति का उपयोग हम कुछ इसी तरह धवाती सिगरेट से युवक / सूखे गुल- कर रहे हैं, अतः कोई यह पूछे कि युवक और युवादस्ते से छात्र / और दियासलाई की सीती हुई तीलियों | शक्ति किस दिशा में जा रही है, तो कहना पड़ेगा- जहाँ सी छात्राएँ। शरीर के शुन्य अंग लग रहे हैं। जिन्हें देखा | हम ले जा रहे हैं। भर जा सकता है, उपयोग कुछ नहीं/ सभ्यता भ्रमित | अब जब योग्यता की कसौटी ही हमने बदल पशु सी कोलाहल में रम गई है । व्यवस्था- छात्र से पिटे | दी है, तो किस मुँह से हम योग्य युवक का वर्णन शिक्षक सी, सुबक कर रह गई है । आदर्श फैशन में | करें, सोच नहीं पाते! अनुशासनहीनता? बेरोजगारी? दब गया है। मेरे देश को कुछ हो गया है।' क्या हो | कपटपूर्ण व्यवहार? स्वार्थ? अवसरवादिता? आदि अनेक गया है? यह अभी आगे खुलासा हो जायेगा। | वजनदार शब्दों से हमने उसे लाद दिया है। फैशन । अब मैं दूसरा विचार रखने के लिए अपनी दृष्टि | बलात् वृत्ति/ कामचोरी वगैरह उसने खुद सीख ली, बस महात्मा गाँधी की मूर्ति पर ले जाता हूँ। मूर्ति के पार्श्व | समझिये- करेला नीम चढ़ गया। में देश के ३२ करोड़ वे लोग भी खड़े हैं, जो कहीं/ मैं युवकों की बुराई करना नहीं चाहता, पर क्या किसी के माता-पिता भी हैं। उन्हें सम्बोधित करते हुए | करें। उनके समर्थन में कहने के लिए भी तो कुछ नहीं कहता हूँ। वे मेरी बात सुन रहे हैं है। ११० करोड़ के देश में, प्रतिवर्ष ८० युवक वैज्ञानिक बापू / तेरे पुत्रों के वे ओंठ / जिन्हें माँ-बाप के | बन भी जावें, तो उनसे देश में प्रगति चरण चूमने थे/चमते चमते हैं झठे जाम/वे हाथ, जो दरिद्र- | स्वतः अपनी प्रगति के चक्कर में पडे देखे गये हैं। नारायण की सेवा में लगे। उनसे अब जघन्य अपराध | हाँ वैज्ञानिक, डाक्टर, इंजीनियर, वकील, सरकारीहोने लगे/वे शीष जिन्हें झुकना था देशसेवार्थ / झुक गये अधिकारी-कर्मचारी, नेता और बड़े व्यापारी। पहले हैं दो पैसे की नौकरी से अभागे / वे पैर, जो आजादी | अत्यधिक ऊँचाई तक पढ़ाई करने का अर्थ यह नहीं तक थे पहुँचे/रुक गये हैं- रोटी के आगे और वे चितवनें// होता था कि अधिक पढ़कर अधिक धनोपार्जन करें, जो कभी झपी न थीं, झुकी रहती हैं कर्ज के मारे।। तब अधिक अच्छे स्तर की मानवता / नागरिकता की बंधु, ये विचार बन चुके हैं युवा शक्ति को लेकर। संरचना में पढ़ाई का/डिग्री का, उपयोग होता था। अबयदि ये सत्य लगते हैं, तो दोषी कौन है? युवक कि | -- अब पढ़ लिखकर हर युवक पहले दिन से ही उनके गार्जियन / पालकगण/माता-पिता कौन? सत्य यहाँ आर्थिक लाभ लेना चाहता है। आर्दश, देश-सेवा, • हैं। उसकी द्वितीय छवि भी मैं लाया सामाजिकता, स्वस्थ नागरिकता पर उसका ध्यान जा ही हूँ, उसे भी देख लीजिए, निर्णय अपने आप सामने आ | नहीं पाता। जावेगा कि युवा शक्ति किसी दिशा में खुद जा रही | आठवीं फेल आदमी किसी व्यवसाय में लग कर है या पहुँचाई जा रही है। छः हजार रुपये प्रतिमाह की आय पाता है, तो वह दो -आज सबसे अच्छा युवक वह लगता है, जो ब्लेक हजार पा रहे बी० ए० पास को छोटा मान बैठता है। से गैस का सिलेन्डर लाकर घर देता है माँ के सामने। | बंधु हमने शिक्षा को नहीं, धन को मानदण्ड मान लिया -वह जो फिल्म की टिकट खड़े-खड़े दिला देता | है। धन के इस मान को पाने के लिए युवा शक्ति अध्ययन छोड़कर, अथवा अध्ययन के बाद, केवल धन की धुन __-वह जो मिट्टी का तेल प्राप्त करा देता है। में लगी नजर आ रही है। -एक युवक कटा-फटा नोट कहीं किसी दुकान | एक शिक्षक ४ हजार वेतन लेकर भी दुखी है पर अँधेरे-उजाले में चला आता है, तो वह घर जाकर | कि उसके पड़ोस का पनवाड़ी ६ हजार कमा लेता है। अपना गौरव बखान करता है और हम उसे समझदार | अतः शिक्षक महोदय पनवाड़ी से बड़ा बनने के लिए -मार्च 2009 जिनभाषित 27 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ट्यूशनों का धंधा अपने जीवन में ले आते हैं, फिर । चुनाव कर बैठते हैं। अब हम किस से पूछे कि युवाशक्ति परीक्षा के अवसर पर पेपर आउट कराकर धन बटोरते | किधर जा रही है? युवाशक्ति को जब सही दिशा चाहिए हैं, फिर कापी जाँचते समय भी। इसी मनसा को लेकर | थी, तब हम उसे वह न दे सके, और जब कु-दिशा डॉक्टर, इंजीनियर और वकील आदि भी चल रहे हैं। में चली जाने लगी, तो कोसने बैठ गये। हम दोनों स्थान सत्य तो यह है कि अधिक पढ़-लिखकर अधिक | पर गलत सिद्ध हुए। युवाशक्ति तो ज्यों की त्यों रही कमाई करने का मन न बने, तो युवा शक्ति कभी विचलित | आई। उपयोग बदल गये। नहीं हो सकती। आज के एक सामान्य-युवक के भीतर भी, कहीं हमें मनुष्य के धंधे की सात्विकता देखकर उसे | गहराई में एक संत बैठा है, यह पृथक् बात है कि सम्मान देना चाहिए, पर हम वह नहीं कर रहे हैं। एक | युवक या हम, उसे देख-समझ ही नहीं पाते। युवा शक्ति गणिका साल भर में पाँच लाख रूपये अर्जित करती | | के सम्मान में मेरे पास एक विचार हैहै, तो क्या हम उसे आदर दें? एक तस्कर वर्ष भर परख अग्नि में तपचुक कर वह, जिस पल सम्मुख आयेगा, में दस लाख का दान देता है, तो क्या वह पूज्य कहलाएगा? | जैसा स्वर्ण निखरता तप कर, वह कुन्दन बन जावेगा। . एक मास्टर को दो हजार मिलते है, पर एक | अभी समय के चंद हथोड़े, तो सह लेने दो उसको, बाबू को दो हजार के साथ-साथ ऊपरी कमाई भी है, | स्वेद तलक फिर चंदन बनकर, मधुर गंध महकायेगा। तब हम अपनी बिटिया के लिए मास्टर नहीं, बाबू का ४०५ सरल कुटी, गढ़ाफाटक जबलपुर साहित्याचार्य डॉ० (पं०) पन्नालाल जी जैन की स्मृति में निःशुल्क स्वास्थ्य परीक्षण शिविर जैन जगत् के सुप्रसिद्ध साहित्य मनीषी एवं शिक्षाविद् साहित्याचार्य डॉ० (पं०) पन्नालाल जी जैन की ९८ वीं जन्मजयंती पर सागर नगर में भाग्योदय तीर्थ चिकित्साल्य एवं रोटरी क्लब, सागर द्वारा दिनांक ५ मार्च २००९ को बृहद् स्वास्थ्य परीक्षण एवं रक्तदान शिविर का आयोजन किया गया। प्रारंभ में साहित्याचार्य जी की प्रतिमा पर शहर के गणमान्य नागरिकों ने माल्यार्पण कर श्रृद्धासुमन अर्पित किये। तत्पश्चात् कुंडलपुर के बाबा व आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के चित्रों के समक्ष दीप प्रज्ज्वलन जैन पंचायत सभा, सागर के अध्यक्ष श्री महेश बिलहरा नगरपालिक निगम, सागर के लोक निर्माण विभाग सभापति श्री राजेश केशरवानी भाग्योदय तीर्थ चिकित्सालय, सागर के निदेशक डॉ. अमरनाथ एवं कवि श्री नेमीचन्द्र जी 'विनम्र' ने किया। शिविर में ४०० लोगों की ब्लडशुगर, १८५ लोगों का ब्लड ग्रुप परीक्षण एवं २२५ लोगों का ब्लडप्रेशर व हृदय-परीक्षण किया गया। ५० लोगों की ई सी जी की गई। इसी क्रम में १७ युवाओं ने जनकल्याण की भावना से प्रेरित होकर रक्तदान किया। आभार श्री डॉ० राजेश, शिशु विशेषज्ञ ने माना। प्रेषक- राकेश कुमार जैन, बरगी हिल्स, जबलपुर (म.प्र.) __ जबलपुर नगर के चार प्रबुद्ध सम्मानित संस्कारधानी के उन्नत संस्कार स्पष्ट करनेवाली लेखनी के धनी, वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश जैन सरल को, उनके द्वारा लिखित आचार्य विशुद्धसागर जी का जीवन-चारित्रग्रन्थ 'आदर्श श्रमण' के लिए गजरथ समिति टीकमगढ़ एवं भक्तमंडल जबलपुर के अवधान में प्रतिष्ठासमिति के प्रधान श्री कोमलचंद सुनवाहा सहित श्री मनोज मड़वैया एवं श्री चक्रेश टया ने तिलक, श्रीफल, माला आदि से सम्मानित करते हुए प्रतीकचिन्ह एवं इकतीस हजार की राशि भेंट की। ज्ञात हो कि गत ढाई दशक में यह सरल जी का नौवाँ 'संत चरित्र' है। इस अवसर पर नगर के पं० नेमीचंद जैन, डॉ० एल० सी० जैन एवं डॉ० श्रेयांश बडकल को भी, उनके बौद्धिक अवदान के लिये, सम्मानित किया गया। आचार्य श्री विशुद्धसागर जी ने सरल जी को आशीर्वाद देते हुए दो ग्रन्थ प्रदान किये। भारतभूषण जैन, ४०५, गढ़ाफाटक, जबलपुर (म.प्र.)) 28 मार्च 2009 जिनभाषित Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिज्ञासा-समाधान पं० रतनलाल बैनाड़ा प्रश्नकर्ता- पं० संजीव जी जैन, जयपुर। । ज्ञानादि-चतुष्टय की अभिव्यक्तिरूप कार्यसमयसार का जिज्ञासा- मोक्षमार्ग प्रकाशक अध्याय-९, पृष्ठ | उत्पादक है, ऐसे निश्चय कारणसमयसार के हुए बिना ३२१ (जयपर प्रकाशन) पर मिथ्यादृष्टि के भी व्यवहार- | यह अज्ञानी जीव रोष करता है और संतुष्ट होता है। सम्यक्त्व कहा गया है, क्या यह आगमसम्मत है? | २. श्री अमृतचन्द्राचार्य ने पंचास्तिकाय गाथा १०७ समाधान- जैन शास्त्रों में सम्यक्त्व दो प्रकार का | की टीका में इस प्रकार कहा हैकहा गया है, बृहद्रव्यसंग्रह गाथा-४१ की टीका में इस भावाः खल कालकलितपंचास्तिकायविकल्पप्रकार कहा है,- "शुद्धजीवादितत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणम् | रूपा नवपदार्थास्तेषां मिथ्यादर्शनोदयापादिताश्रद्धानासरागसम्यक्त्वाभिधानम् व्यवहारसम्यक्त्वं विज्ञेयं।--- | भावस्वभावं भावांतरं श्रद्धानं सम्यग्दर्शनं शुद्धचैतन्यवीतराग - चारित्राविनाभूतं वीतरागसम्यक्त्वाभिधानं रूपात्मतत्त्वविनिश्चयबीजम्। निश्चयसम्यक्त्वं च ज्ञातव्यमिति। अर्थ- कालसहित पंचास्तिकाय और विकल्परूप अर्थ- शुद्ध जीवादि तत्वार्थों का श्रद्धानरूप सराग- | नव पदार्थ इनको भाव कहते हैं। मिथ्यादर्शन के उदय सम्यक्त्व नाम से कहा जाने वाला व्यवहार-सम्यक्त्व जानना | से उत्पन्न हुआ जो अश्रद्धान, उसका अभाव होने पर चाहिए। वीतरागचारित्र के बिना नहीं होनेवाला, वीतराग- पंचास्तिकाय और नवपदार्थ का श्रद्धान. वह व्यवहारसम्यक्त्व नामक निश्चयसम्यक्त्व जानना चाहिए। सम्यग्दर्शन है और यह शुद्ध आत्मतत्व के निश्चय का अब प्रश्नकर्ता के प्रश्न पर विचार करते हैं। प्रश्न | बीज है। यह है कि उपर्युक्त सरागसम्यक्त्व अथवा व्यवहार- सारांश- उपर्युक्त प्रमाण नं० १ में यह स्पष्ट कहा सम्यक्त्व प्रथम गुणस्थान में होता है, या नहीं? इस संबंध है कि व्यवहारसम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप व्यवहारमें समयसार गाथा ३७३ की टीका में इस प्रकार कहा | मोक्षमार्ग में मिथ्यात्व आदि सात प्रकृतियों का (दर्शनगया है मोहनीय की तीन तथा अनन्तानुबंधी की चार = सात) मिथ्यात्वादिसप्तप्रकृतीनां तथैव चारित्रमोहनीयस्य | उपशम. क्षय अथवा क्षयोपशम होता ही है। अर्थात् सात चोपशमक्षयोपशमक्षये सति षद्रव्यपंचास्तिकाय- प्रकृतियों के उपशम आदि न होने पर व्यवहारसम्यक्त्व सप्ततत्त्वनवपदार्थादिश्रद्धानज्ञानरागद्वेषपरिहाररूपेण | नहीं होता। उपर्युक्त दूसरे प्रमाण से भी स्पष्ट है कि भेदरत्नत्रयात्मकव्यवहारमोक्षमार्गसंज्ञेन व्यवहारकारण- व्यवहारसम्यग्दर्शन में मिथ्यादर्शन का उदय नहीं रहता समयसारेण साध्येन विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावशुद्धात्म- है। अत: यह स्पष्ट है कि व्यवहारसम्यक्त्व मिथ्यादृष्टि तत्त्वसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुचरणरूपाभेदरत्नत्रयात्मक जीव के नहीं होता। किसी भी आचार्य ने, किसी भी निर्विकल्पसमाधिरूपेणानंतकेवलज्ञानादिचतुष्टयव्यक्ति शास्त्र में ऐसा नहीं कहा है कि मिथ्यादृष्टि के व्यवहाररूपस्य कार्यसमयसारस्योत्पादकेन निश्चयकारणसमय सम्यक्त्व होता है। यदि हम गुणस्थान की अपेक्षा विचार सारेण विना खल्वज्ञानिजीवो रुष्यति तुष्यति च। करें, तो चौथे से सातवें गुणस्थान तक शुभोपयोग अवस्था अर्थ- मिथ्यात्वादि सात प्रकृतियों के तथा चारित्र में व्यवहार सम्यग्दर्शन होता है, तथा निश्चयचारित्ररूप मोहनीय के उपशम, क्षयोशम व क्षय होने से छह द्रव्य, | शुद्धोपयोग के साथ होनेवाला निश्चयसम्यग्दर्शन सप्तम पंचास्तिकाय, सात तत्त्व, नौ पदार्थ आदि का श्रद्धान और गुणस्थान से आगे तक रहता है। ज्ञान के साथ-साथ रागद्वेष के त्यागरूप ऐसा भेदरत्नत्रय आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज ने सम्यक्त्वसार तदात्मक व्यवहारमोक्षमार्ग ही है नाम जिसका, ऐसे शतकम् गाथा-८१ के विशेषार्थ में इस प्रकार कहा हैव्यवहार-कारणसमयसार के द्वारा जो साध्य है और विशुद्ध | 'दर्शनमोह के उपशमादि द्वारा तत्त्वार्थश्रद्धान प्राप्त करते ज्ञान-दर्शन-स्वाभाव जो शुद्धात्मतत्त्व, उसका समीचीन हुए चतुर्थ गुणस्थान में जो सम्यग्दर्शन होता है, वह व्यवहारश्रद्धान-ज्ञान और आचरण रूप, ऐसा जो अभेदरत्नत्रय सम्यग्दर्शन और तत्पूर्वक अणुव्रत-महाव्रतादि का पालन तदात्मक जो निर्विकल्पसमाधि-स्वरूप है तथा जो अनंतकेवल | करना सो व्यवहार सम्यक्चारित्र एवं उनके साथ जो सचेष्ट -मार्च 2009 जिनभाषित 29 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यकुरुझान हो वह व्यवहार सम्यग्ज्ञान होता है। बृहद्रव्यसंग्रह में भरतचक्रवर्ती के क्षायिक सम्यग्दर्शन को व्यवहार सम्यग्दर्शन कहा है यथा 'एषाम् भरतादीनाम् यत् सम्यग्दर्शनम् तत्तु व्यवहार सम्यग्दर्शनम्।' अर्थ इस प्रकार इन भरतादिकों के जो सम्यग्दर्शन है, वह व्यवहारसम्यग्दर्शन है। यहाँ यह भी जानना चाहिए कि कुछ स्वाध्यायी लोगों की ऐसी धारणा है कि प्रथम नरक में स्थित राजा श्रेणिक के जीव के निश्चय सम्यग्दर्शन है अथवा निश्चय-व्यवहार दोनों सम्यग्दर्शन हैं। ऐसे जीवों की धारणा आगम सम्मत नहीं है, गलत है। क्योंकि निश्चय सम्यक्त्व, निश्चय चारित्र के बिना कभी नहीं होता। नरक में निश्चय सम्यक्चारित्र का नितान्त अभाव है। अतः राजा श्रेणिक के जीव के मात्र क्षायिक सम्यक्त्वरूप व्यवहारसम्यग्दर्शन मानना ही आगमसम्मत है। इस प्रकार मिध्यादृष्टि के व्यवहारसम्यक्त्व मानना आगमसम्मत नहीं है। प्रश्नकर्त्ता - सौ० कुसुमकुमारी, जयपुर । जिज्ञासा- प्रातः काल आहार बनाना कब प्रारंभ करना चाहिए। समाधान- वर्तमान में देखा जाता है कि जिन स्थानों पर मुनिराज आदि का चातुर्मास चल रहा होता हैं, वहाँ भक्तगण सूर्योदय से पूर्व ही भोजन बनाने की प्रक्रिया प्रारम्भ कर देते है, अर्थात् उनकी रसोई में गैस का जलना प्रारम्भ हो जाता है और कुकर की सीटी बोलने लगती है। यह प्रयास उचित नहीं है। श्रावकाचारों के अनुसार सूर्योदय के पश्चात् ही कूटना - पीसना, आग जलाना आदि कार्य होना चाहिए। अन्यथा सूर्योदय से पूर्व उपर्युक्त क्रियाओं से उत्पन्न आहार में रात्रिभोजन का दोष लगता है। घर में भी यदि कोई सदस्य सूर्योदय से पूर्व ही देशान्तर जा रहा हो, तो उसके लिए पहले दिन ही शाम को भोजन बनाकर रखना उचित है। सूर्योदय से पूर्व भोजन बनाकर देना रात्रि भोजन सदृश दोषपूर्ण कहलाएगा। हमको चामुर्मास आदि के दौरान या अन्य समयों में सर्वप्रथम सूर्योदय के बाद भक्ति-भाव से जिनेन्द्रपूजा करनी चाहिए। तदुपरान्त आहार आदि बनाने की क्रिया या कूटना - पीसना आदि प्रारम्भ करना चाहिए । कुछ दाताओं का ऐसा भी कहना है कि यदि इतनी जल्दी आहार बनाना प्रारम्भ न करें, तो आहार की इतनी सारी वैरायटी 30 मार्च 2009 जिनभाषित कैसे बनेंगी? ऐसे महानुभावों से निवेदन है कि साधु को वही सात्त्विक आहार देना चाहिए, जो वे स्वयं करते हों। पूरे दक्षिण भारत में यही परम्परा है। रात्रि में भोजन बनाना प्रारम्भ करके अधिक वैरायटी बनाना किसी भी प्रकार उचित नहीं । - प्रश्नकर्त्ता पं० मनीष शास्त्री, जबलपुर। जिज्ञासा- क्या मुनिराज पेड़-पौधे उखाड़ने का जमीन खोदने का, धर्मशाला आदि बनाने का निर्देश दे सकते हैं? चरणानुयोग के ग्रन्थों के अनुसार सप्रमाण उत्तर दीजिए । समाधान- उपर्युक्त क्रियाओं का निर्देश तो आरम्भत्याग प्रतिमा नामक आठवीं प्रतिमाधारी श्रावक भी नहीं दे सकता, फिर अहिंसामहाव्रतधारी मुनियों का तो प्रश्न ही नहीं है। कुछ आगमप्रमाण इस प्रकार हैं १. श्री मूलाचार गाथा ३५ की टीका में इस प्रकार कहा है- 'सावद्ययोगेभ्यः आत्मनो गोपनं गुप्तिः । सा च मनोवाक्कायक्रियाभेदात्त्रिप्रकाराः ।' अर्थ- सावद्य अर्थात् पापयोग से आत्मा का गोपन अर्थात् रक्षण करना गुप्ति है। इसके मन-वचन और काय का क्रिया के भेद से तीन भेद हो जाते हैं। अर्थात् सावद्य परिणामों से मन को रोकना मनोगुप्ति है, सावद्य वचनों को नहीं बोलना वचन- गुप्ति है और सावद्य काययोग से बचना कायगुप्ति है। २. श्रीमूलाचारप्रदीप में इस प्रकार कहा हैशिलादि'शिलादि --- योगैराद्यव्रताप्तये।' (श्लोक नं. ५६ से ६० ) अर्थ - शिला, पर्वत, धातु, रत्न आदि में बहुत से कठिन पृथ्वीकायिक जीव रहते हैं तथा मिट्टी आदि में बहुत से कोमल पृथ्वीकायिक जीव रहते हैं तथा उनके स्थूल सूक्ष्मादि अनेक भेद हैं। इसलिए मुनिराज अपने हाथ से, पैर से ऊँगली से लकड़ी से सलाई से या खप्पर से पृथ्वीकायिक जीवसहित पृथ्वी को न खोदते हैं, न खुदवाते है, न उस पर लकीरें करते हैं न कराते हैं, न उसे तोड़ते हैं, न तुड़वाते हैं, न उस पर चोट पहुँचाते हैं, न चोट पहुँचवाते हैं तथा अपने हृदय में दयाबुद्धि धारण कर न उस पृथ्वी को परस्पर रगड़ते हैं, न उसको किसी प्रकार की पीड़ा देते हैं। यदि कोई अन्य भक्त पुरुष उस पृथ्वी को खोदता है, या उस पर लकीरें करवाता है, उस पर चोट मारता है, रगड़ता है या अन्य किसी प्रकार से उन जीवों को | - Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीड़ा पहुँचाता है, तो वे योगी उसकी अनुमोदना भी। अपने मन-वचन और काय को शुद्ध करके जीवनपर्यन्त नहीं करते। इस प्रकार वे मुनिराज अहिंसा महाव्रत को | के लिए सावधयोग का त्याग कर देते हैं। तथा मुनि प्राप्त करने के लिए उन पृथ्वीकायिक जीवों की विराधना | हरिततृण-वृक्ष-छाल-पत्र-कोंपल-कन्दमूल-फल-पुष्प और कभी नहीं करते। बीज वगैरह का छेदन-भेदन न स्वयं करते हैं और इसी प्रकार वनस्पतिकायिक जीवों के संबंध में | न दूसरों से कराते हैं। तथा मुनि पृथ्वी को खोदना, जल 'हरितांकुर--- पापधी:' (श्लोक नं. ८५ से ९०) में | से सींचना, अग्नि को जलाना, वायु को उत्पन्न करना इस प्रकार कहा है और त्रसों का घात न स्वयं करते है, न दूसरों से कराते चन-काय की शुद्धता धारण करने | हैं और यदि कोई करता हो, तो उसकी अनुमोदना भी के कारण हरित-अंकुर, बीज, पत्र, पुष्प आदि के आश्रित | नहीं करते। रहनेवाले वनस्पतिकायिक जीवों का छेदन, भेदन, पीड़न, 'देवगुरुण णिमित्तं --- अलियं' (गाथा-४०७) वध, बाधा, स्पर्श और विराधना आदि न तो स्वयं करते | की टीका में इस प्रकार कहा है, भावार्थ- गृहस्थी बिना से कराते हैं। मुनियों को गमन-आगमन | आरम्भ किये नहीं चल सकती और ऐसा कोई आरम्भ आदि के करने में काई और फलन आदि में रहनेवाले नहीं है. जिसमें हिंसा न होती हो. अतः गहस्थ के लिए अनन्तकायजीवों की हिंसा भी कभी नहीं करनी चाहिए। आरम्भी हिंसा का त्याग करना शक्य नहीं है। किन्त वनस्पति का समारम्भ करने से, वनस्पतिकायिक जीव | मुनि गृहवासी नहीं होते, अतः वे आरम्भी हिंसा का भी और वनस्पतिकाय के आश्रित रहनेवाले जीवों की हिंसा त्याग कर देते हैं। वे केवल अपने लिए ही आरम्भ अवश्य होती है। इसलिए अर्हन्-मुद्रा अथवा जिनलिंग नहीं करते, बल्कि देव और गुरु के निमित्त से भी न को स्वीकार करनेवाले मुनियों को अपने जीवनपर्यन्त | कोई आरम्भ स्वयं करते हैं. न दूसरों से कराते हैं और मन-वचन-काय से उन दोनों प्रकार की वनस्पति का न ऐसे आरम्भ की अनुमोदना ही करते हैं। समारम्भ नहीं करना चाहिए। जो मुनि वनस्पति में प्राप्त । ४. प्रश्नोत्तर-श्रावकाचार श्लोक नं. १०४ से १०६ हए इन जीवों को नहीं मानता, उसे जिनधर्म से बाहर | में आरम्भत्याग नामक अष्टम प्रतिमा के धारी का स्वरूप मिथ्यादृष्टि और पापी समझना चाहिए। बताते हुए इस प्रकार कहा है- "आरम्भत्यागप्रतिमा को इसी प्रकार जलकायिक, वायुकायिक और धारण करनेवाले धीर-वीर व्रती पुरुषों को अपने आरम्भ अग्निकायिक जीवों की विराधना से मन-वचन-काय का त्याग करने के लिए मन-वचन-काय और कृतऔर कृत-कारित-अनुमोदना से दूर रहना अहिंसा महाव्रत | कारित-अनुमोदना से पृथ्वी खोदना, कपड़े धोना, दीपक में आता है। मसाल आदि का जलाना, वायु करना, वनस्पतियों को ३. कार्तिकेयानुप्रेक्षा में हिंसारम्भो --- धम्मो। | तोड़ना, काटना, छेदना, गेहूँ, जौ आदि बीजों को, कूटना(गाथा नं० ४०६) की टीका का अर्थ इस प्रकार कहा | पीसना--- आदि निन्द्य आरम्भों का बहुत शीघ्र त्याग है- 'देवपूजा, चैत्यालय, संघ और यात्रा वगैरह के लिए | कर देना चाहिए। मुनियों का आरम्भ करना ठीक नहीं है। तथा गुरुओं | उपर्युक्त प्रमाणों से यह स्पष्ट है कि मुनिराज के लिए वसतिका बनवाना, भोजन बनाना, सचित्त जल- | अहिंसा महाव्रत के पालन के लिए पाँचों प्रकार के स्थावर फल-धान्य वगैरह का प्रासुक करना आदि आरम्भ भी | जीवों की हिंसा के मन-वचन-काय एवं कृत-कारितमुनियों के लिए उचित नहीं हैं, क्योंकि ये सब आरम्भ, | अनुमोदना से त्यागी होते हैं। हिंसा के कारण हैं। वसुनन्दी आचार्य ने मुनि के आचार १/२०५, प्रोफेसर्स कॉलोनी बतलाते हुए लिखा है- 'निर्ग्रन्थ मुनि पाप के भय से आगरा-२८२ ००२, उ० प्र० रहिमन ओछे नरन सों, बैर भली न प्रीत। काटे चाटे श्वान के, दुहूँ भाँति विपरीत ॥ ओछे को सतसंग, रहिमन तजहु अँगार ज्यों। तातो बारे अंग, सीरे पै कारो करै ।। - - मार्च 2009 जिनभाषित 31 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतवर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी मध्यांचल समिति के अध्यक्ष एवं महामंत्री का निवेदन मध्यांचल समिति के नवनिर्वाचित अध्यक्ष स० सि० सुधीर जैन, कटनी (म० प्र०), एवं महामन्त्री श्री संजय जैन 'मेक्स', इन्दौर (म० प्र०) ने दिगम्बर जैन समाज के समक्ष कुछ सुझाव प्रस्तुत किये है, जो इस प्रकार हैं१. भगवान ऋषभनाथ की जन्म जयंती एवं निर्वाणदिवस सभी गाँवों, कस्बों, शहरों और में पूरे धूमधाम से मनाया जाय। जैन समाज का हर व्यक्ति अपने नाम के बाद 'जैन' अवश्य लिखे और उपनाम जैसे बाझल, गोहिल, शाह, मेहता, कासलीवाल, पटेरिया आदि शब्द बाद में लिखें, जिससे जनगणना में जैनों की संख्या आंकी जा सके। जैन मूर्तियों की सुरक्षा हेतु जैन मंदिरों की वेदियों की फोटो तथा मूर्तियों की संख्या निश्चितरूप से रेकॉर्ड में रखें तथा मंदिर के गर्भगृह एवं बाहरी दरवाजों को मजबूती देकर सुरक्षित बनाएँ। मार्च २००९ में होने वाली जनगणना में प्रत्येक गाँव, शहर में जैन परिवार के सदस्यों की संख्या सनिश्चित करें तथा उसकी सूचना हमें भी देवें। अल्पसंख्यक जैन समाज की संख्या जिलावार निश्चित की जाय। शहरों, गाँवों कस्बों में खुलेआम मांस, मछली, मुर्गा बेचनेवालों का विरोध किया जाय। यह कार्य सिर्फ निश्चित स्थानों पर परदे के अन्दर ही किया जा सकता है। नगरपालिका एवं निगम अधिकारियों को ऐसा करने हेतु कानूनन बाध्य करें। प्रजातंत्र में हर एक जैन को अपने मताधिकार का उपयोग अवश्य करना चाहिए। अल्पसंख्यक समाज द्वारा ऐसे अहिंसक नेताओं का चयन किया जाय जो मांस के व्यापार का विरोध करें। तीर्थक्षेत्रों पर जैन मंदिरों का निर्माण जैन वास्तु कला के अनुसार कराया जाय तथा क्षेत्र के विकास के लिए आगामी २०-३० वर्षों को ध्यान में रखते हुए मास्टर प्लान बनाकर विकास किया जाय। ८. आपके नगर के समीप यदि कलात्मक जैन तीर्थक्षेत्र हैं, जो भारतवर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी से सम्बद्ध नहीं हैं, तो उन्हें सम्बद्ध करावें, सम्बद्धता फार्म मध्यांचल समिति के कार्यालय से अथवा भारतवर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी के प्रधान कार्यालय-हीराबाग, सी.टी. टैंक, मुंबई- ४०० ००४ से प्राप्त किया जा सकता है। भारतवर्ष में जैनों द्वारा करीब २४ प्रतिशत का राजस्व कर सरकार को दिया जाता है, अतएव जैन समाज संगठित होकर अहिंसक समाज की उत्तरदायी प्रजातांत्रिक भूमिका का उद्घोष करने हेतु संकल्पित हो। समाज के सभी साधर्मी बन्धुओं से निवेदन है कि वे उपर्युक्त बिन्दुओं पर गहन चिंतन करें और उसे कार्यरूप में परिणित कर सहयोग प्रदान करने की कृपा करें। १ स. सिं. सुधीर कुमार जैन, कटनी अध्यक्ष मो. ०९४२५१५३७२२ संजय जैन 'मैक्स', इन्दौर महामंत्री ०९४२५०५३५२१ 32 मार्च 2009 जिनभाषित Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ मैं अपनी शान में खो गया इसलिए दुनिया की दृष्टि में पाषाण था इसलिए मैं परेशान था पर आज सौभाग्य का दिन है। शान की शान रखनेवाले एक कलाकार ने मुझमें ऐसी कला भर दी, आज मैं निरा - पाषाण खण्ड नहीं रहा एक पूजनीय मूरत बन गया। २ कर्मों की कौम को होम करना है ऊँ का जाप करो तुम मोम सा पिघल जाय मोम सा निर्मल बन रोम-रोम से सोम का झरना फूट पड़े मुनि श्री योगसागर जी की कविताएँ ३ काल अनंत से कुंठित है आत्म कली में सुरभित सौरभ अमिट अमित और अनुपम है पर वंचित है खटक रहा है चेतन भ्रमर बाह्य जगत में शोध रहा है विषय-विषैले पुष्पों पर अहर्निश मँडरा रहा है ४ सूर्य कांति सी चंद्र कांति सी है जिस ज्ञान की आभा ऐसे आलोक में आलोकित होता निजात्म का चेहरा । प्रस्तुति प्रो० रतनचन्द्र जैन - Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ UPHIN/2006/16750 मुनि श्री क्षमासागर जी की कविताएँ अगर ना सही माना कि हममें भगवान् बनने की योग्यता है पर इस बात पर हम इतना अकड़ते क्यों हैं? (वह तो किसी चींटी में भी है) सवाल सिर्फ योग्यता का नहीं हू-ब-हू होने का है स्वयं को भगवान् मानने/मनवाने का नहीं स्वयं भगवान् बन जाने का है हम अपने को जरा ऊँचा उठायें इस बार ना सही भगवान्, एक बेहतर इन्सान बन जाएँ। उसने सोचा जब वह पहली बार नीड़ से बाहर पैर रखेगा तब कोई आकर उसे थाम लेगा आँचल से लगा कर दुलार लेगा पंख सहला कर उसे उड़ने का साहस देगा दो-चार कदम उसके साथ चलेगा पर हुआ यह कि उसने न पैर बाहर रखा न पंख खोले न उड़ा सोचता ही रहा अगर ऐसा न हुआ तो क्या होगा? 'पगडंडी सूरज तक' से साभार स्वामी, प्रकाशक एवं मुद्रक : रतनलाल बैनाड़ा द्वारा एकलव्य ऑफसेट सहकारी मुद्रणालय संस्था मर्यादित, 210, जोन-1, एम.पी. नगर, भोपाल (म.प्र.) से मुद्रित एवं 1/205 प्रोफेसर कॉलोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) से प्रकाशित। संपादक : रतनचन्द्र जैन।