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________________ वे कहते हैं आस्तां तव स्तवनमस्तसमस्तदोषं, त्वत्संकथापि जगतां दुरितानि हन्ति । दूरे सहस्रकिरणः कुरुते प्रभैव, पद्माकरेषु जलजानि विकासभाञ्जि ॥ अर्थात् हे भगवन्! आपका निर्दोष स्तवन करना तो दूर, आपका नामस्मरण या कथा करने मात्र से ही जगत् के जनों के पाप नष्ट हो जाते हैं। जैसे सूर्य के दूर रहने पर भी उसकी प्रभामात्र से सरोवरों मे कमल खिल जाते हैं। इसलिए कहा है कि भक्ति और मुक्ति के लिए जिन चरणारविन्द का मधुप होना अनिवार्य है क्योंकि जिनेन्द्र-चरण-कमलों का भ्रमर जन्म, जरा और मरण की बाधा से मुक्त हो जाता है। जैन साहित्य में भक्तिरस की अविरल धारा प्रवाहित करनेवाली अनेक पुनीत एवं आत्मकल्याणकारी रचनाएँ हैं, जिनके शब्द - शब्द से भक्तिरस की कल-कलनिनादकारिणी शत-शत धारायें प्रवाहित होती हैं । समन्तभद्रस्वामी, मानतुङ्गाचार्य, कुमुदचन्द्रचार्य, वादिराज आदि महर्षियों ने सकंट के समय भक्तिरस से भरे हुए अनेक स्तोत्र रचे हैं, तथा उनके बल पर धर्म की महती प्रभावना की है। आचार्य वादिराज का समय प्रायः विक्रम की ११वीं शताब्दी माना गया है । श्रवणबेलगोल के 'मल्लिषेणप्रशस्ति' शिलालेख में (जो शक. सं. १०५० में उत्कीर्ण हुआ है) लिखे हुए प्रशंसात्मक पद्यों से स्पष्ट ज्ञान होता है कि वादिराज अपने समय के एक प्रसिद्ध तार्किक और वाद- विजेता विद्वान् थे । उनके सामने प्रवादियों का गर्व चूर हो जाता था। राजा जयसिंह की राजधानी सिंहपुर में उनका विशेष प्रभाव एवं महत्त्व विद्यमान था। वे उस समय के प्रायः सभी विद्वानों में शिरोमणि गिने जाते थे । 'मल्लिषेणप्रशस्ति' के प्रशंसात्मक पद्यों में से एक पद्य द्रष्टव्य है आरुद्धाम्बरमिन्दुबिम्ब-रचितौत्सुक्यं सदा यद्यशश्छत्रं वाक्चमरीजराजि - रुचयोऽभ्यर्णं च यत्कर्णयोः । सेव्यः सिंहसमर्च्य पीठ-विभवः सर्व-प्रवादि-प्रजादत्तोच्चैर्यकार-सार- महिमा श्रीवादिराजो विदाम् ॥ अर्थात् जिनका यशरूपी छत्र आकाश में व्याप्त था और जिसने चन्द्रमा में उत्सुकता उत्पन्न कर दी थी 5 मार्च 2009 जिनभाषित Jain Education International अर्थात् उनका यश चन्द्रमा से भी अधिक समुज्ज्वल था, स्तुतिवाक्यरूपी चमर - समूह की किरणें जिनके कानों के समीप पड़ती थीं, तथा जयसिंह नरेश से जिनका सिंहासन पूजित था और सर्वप्रवादि प्रजा उच्च स्वर से, जिनका जयजयकार गाया करती थी, ऐसे आचार्य वादिराज विद्वानों के द्वारा सेवनीय हैं। सिद्धान्तशास्त्र के मर्मज्ञ विद्वान् होते हुए भी आचार्य वादिराज की व्याकरण, काव्य, कोश और अलंकारादि विषयों में अच्छी गति थी । आप एक साहित्यिक कवि और प्रतिभासंपन्न व्यक्ति थे। आपकी षट्तर्कषण्मुख, स्याद्वादविद्यापति, जगदेकमल्लवादि आदि अनेक उपाधियाँ थीं जैसा, कि निम्न शिलावाक्य से प्रकट है 'षट्तर्कषण्मुखरं स्याद्वादविद्यापतिगलुं जगदेकमल्ल - वादिगलुं एनिसिद श्री वादिराजदेवरुम्।' वादिराजसूरि की प्रशंसा में अन्यत्र लिखा हैवादिराजसूरि सभा में बोलने के लिए अकलंकदेव के समान हैं और कीर्ति में न्यायबिन्दु आदि प्रसिद्ध ग्रंथों के कर्त्ता, बौद्ध विद्वान् धर्मकीर्ति के समान हैं। वचनों में बृहस्पति के समान हैं और न्यायवाद में अक्षपाद के समान हैं। इस तरह से वादिराज इन भिन्न-भिन्न धर्म-गुरुओं के एकीभूत प्रतिनिधित्व के समान शोभित होते हैं। आचार्य वादिराज की इस समय तक छह कृतियों का पता चलता है। एकीभावस्तोत्र, पार्श्वनाथचरित, काकुत्थ्यचरित, यशोधरचरित, न्यायनिविश्चियविवरण और प्रमाणनिर्णय । एकीभावस्तोत्र सरस और भक्तिरसरूप-माधुर्य से ओत-प्रोत है। इसकी श्लोक संख्या २५ है, छन्द मन्दाक्रान्ता | स्तोत्र की रचना संस्कृत भाषा में मृदु, सरस और पद - लालित्य को लिये हुए हैं। जैनधर्म की मान्यता के अनुसार इस स्तोत्र में सच्चे देव के स्वरूप का अच्छी तरह से प्रतिपादन किया गया है। इस स्तोत्र की विशेषता यह है कि 'भक्तामर', 'कल्याणमन्दिर' आदि अन्य स्तवनों की तरह इसमें किसी एक तीर्थंकरविशेष की स्तुति नहीं की गई है। एकीभावस्तोत्र के प्रथम श्लोक में भक्ति का माहात्म्य प्रकट करते हुए वादिराज मुनिराज कहते हैंएकीभावं गत इव मया यः स्वयं कर्मबन्धो घोरं दुःखं भवभवगतो दुर्निवारः करोति । तस्याप्यस्य त्वयि जिनरवौ भक्तिरुन्मुक्तये चेजेतुं शक्यो भवति न तया कोऽवरस्तापहेतुः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524337
Book TitleJinabhashita 2009 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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