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अर्थात् हे जिनेन्द्र! जब कि आपकी समीचीन भक्ति | ताले से युक्त मोक्ष का कपाट किस तरह खोला जा द्वारा चिरपरिचित और अत्यंत दुःखदायी एवं आत्मा के | सकता है? अर्थात् नहीं खोला जा सकता है। साथ दूध-पानी की तरह मिले हुए कर्मबन्धन भी दूर | वादिराज मुनिराज के जीवन से संबंधित एक किये जाते हैं, तब दूसरा ऐसा कौनसा सन्ताप का कारण | किंवदन्ती है। एक समय आचार्य वादिराज को कुष्ठ है जो कि इस भक्ति के द्वारा दूर नहीं किया जा सकता | रोग हो गया। राजा जयसिंह के दरबार में चर्चा चली अर्थात् दुःख के सभी कारण नष्ट किये जा सकते हैं। कि 'दिगम्बर साधु कोढ़ी होते है'। तब गुरुभक्त श्रावक जिनेन्द्र भगवान् रूपी सूर्य जन्म-जन्मान्तर के पापरूपी | ने कहा कि हमारे गुरु कोढ़ी नहीं होते हैं। चर्चा के अन्धकार का नाश करनेवाला है। भक्तिपूर्वक किये हुए | अंत में निर्णय हुआ कि महाराज स्वयं चलकर देखेंगे। भगवान् के स्तवन मात्र से पुरातन विषम रोग दूर होकर | गुरुभक्त श्रावक चिंतित होता हुआ आचार्यश्री के पास शरीर निरोग बन जाता है। भगवान् के गर्भ में आने के | गया और कहने लगा कि अब जिनशासन की, जिनधर्म पहले ही जब पृथ्वी सुवर्णमयी बन गई, तो अन्त:करण- | की लाज रखना आपके हाथ में है। आचार्यश्री ने कहारूप मंदिर में आपको विराजमान करने से कुष्ठ जैसे भयंकर | चिन्ता की कोई बात नहीं है, धर्म के प्रसाद से सब रोग भी नष्ट हो जाएँ, इसमें कौन सी बड़ी बात है? ठीक होगा। आचार्यश्री को स्वयं शरीर के प्रति राग नहीं
भक्ति-विभोर वादिराज मुनिराज कहते हैं कि | था। अर्थात् अपना शरीर स्वर्णमयी बनाने की कोई अरिहंत भगवान् जब केवली अवस्था में विहार करते अभिलाषा नहीं थी, पर सारे दिगम्बर साधुओं के ऊपर हैं, तब देवगण उनके पवित्र चरणों के नीचे कमलों की | | जो लांछन आ रहा था, उन गुरुओं की रक्षा के लिए रचना करते हैं। चरणकमल से बिना स्पर्शित कमल भी | ही आचार्यश्री ने जिनेन्द्र भगवान् के गुणों में एकाग्रचित्त सुवर्ण-सी कान्तिवाले सुगन्धित एवं लक्ष्मी के निवास | होकर एकीभाव स्तोत्र की रचना की। स्तवन के माहात्म्य बन जाते हैं फिर तो मेरे मन-मंदिर में जिनप्रतिमा का | से कुष्ट रोग दूर होकर शरीर सुवर्ण जैसी कान्तिवाला सर्वांग रूप से स्पर्श हो रहा है जिससे मुझे सर्व सख
दूसरे दिन राजा ने स्वयं वादिराज मुनिराज के की प्राप्ति हो जायगी। भक्तिरूपी पात्र से आपके अमृतरूपी | सुवर्ण समान कान्तिमय शरीर को देखा और दरबार में वचनों को पीनेवाले भव्य पुरुषों को रोगमयी काँटे कभी जिसने निंदा की थी उसकी तरफ रोषभरी दृष्टि से देखा। पीड़ा नहीं दे सकते। आपके शरीर के पास से बहनेवाली | मुनिराज ने कहा- राजन्, गुस्सा न कीजिये, उसने जरा वायु भी लोगों के तरह-तरह के रोग दूर कर देती है। भी असत्य नहीं कहा है, उस समय मैं सचमुच कोढ़ी
जिनके हृदय में भक्ति के झरने झर रहे हैं, ऐसे | था। धर्म के प्रभाव से आज ही मेरा कुष्ठ रोग दूर वादिराज मुनिराज बता रहे हैं कि बिना भक्ति के, शुद्ध | हुआ है। रोग का कुछ अंश अब भी इस कनिष्ठा अँगुली ज्ञान-चारित्र के रहते हुए भी, मोक्ष के कपाट नहीं खोले जा सकते।
इस कथानक से, मनुष्यों को जैनधर्म की 'भक्ति शुद्धे ज्ञाने शुचिनि चरिते सत्यपि त्वय्यनीचा, | से शक्ति' का परिज्ञान कर, निरन्तर जिनेन्द्र-भक्ति में तत्पर भक्ति! चेदनवधिसुखावंचिका कुंचिकेयम्। | रहते हुए, अपने कर्म-बंधनों को शिथिल करना चाहिए। शक्योद्घाटं भवति हि कथं मुक्तिकामस्य पुंसो, | __भक्ति से शक्ति, शक्ति से युक्ति और युक्ति से मुक्तिद्वारं परिदृढ-महामोह-मुद्रा-कपाटम्॥ | मुक्ति मिलती है। अतः प्रत्येक भव्यात्मा को भक्ति के
अर्थात् हे नाथ! शुद्ध ज्ञान और चरित्र के रहते | माध्यम से शाश्वत सुख की प्राप्ति का समीचीन पुरुषार्थ हुए भी यदि आपके विषय में होनेवाली उत्कृष्ट भक्ति- | करना चाहिए। रूपी कुंजी नहीं हो, तो अत्यन्त मजबूत महामोहरूपी |
वात्सल्यरत्नाकर (द्वितीय खण्ड) से साभार
जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग। चन्दन विष व्यापत नहीं, लिपटे रहत भुजंग ।। जो रहीम मन हाथ है, तो तन कितहि न जाहि। जल में ज्यों छाया परे, काया भीजत नाहि ॥
मार्च 2009 जिनभाषित 7
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