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आचार्य श्री विद्यासागर - कृत निजामृतपान
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विश्ववन्द्य आ० कुन्दकुन्दस्वामी रचित अध्यात्म की महान् कृति 'समयप्राभृत' पर व्याख्याकार आ० अमृचन्द्र जी ने आत्म ख्याति' टीका का प्रणयन किया है । प्रस्तुत टीकारूपी भवन के शिखर- समान मध्य-मध्य में 'कलश' काव्यों को समाहित किया है । इन कलशकाव्यों से समयसार की आध्यात्मिकता मुखरित हुई सी जान पड़ती है । अध्यात्म- अमृत का स्थायी भाव इनमें उद्दीपित होता हुआ, विशेष मधुरिम गति से, संचरण करता हुआ, छलकता हुआ, उत्कृष्टता को प्राप्त दृष्टिगोचर होता है। इसी हेतु मनीषियों ने इस कलश काव्य को 'अध्यात्म- अमृत कलश' सार्थक संज्ञा प्रदान की है। पण्डितप्रवर बनारसीदास के शब्दों में 'नाटक सुनत हिय फाटक खुलत हैं' यह सार्थक है, अत्यन्त उपयोगी है।
वर्तमान में सन्त शिरोमणि प० पू० आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ज्ञान-ध्यान- तपोलीन होकर अध्यात्म क्षेत्र में अग्रणी हैं। सम्मतियुग के ऋषितुल्य उनका जीवन स्व के साथ परहित में सदैव व्यतीत हो रहा है। वे जिनवाणी की सेवा में अपने गुरु स्व० प० पू० आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज की परम्परा को अग्रेषित कर रहे हैं। उन्होंने अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग द्वारा जो अनुभव प्राप्त किया है, उसे निरन्तर लेखन, वाचन और प्रवचन के माध्यम से प्रसारित कर रहे हैं। उन्होंने अध्यात्मी विविध विधाओं में अनेकों ग्रन्थों की रचना की है। इस प्रकार वे निर्ग्रन्थ होकर भी सग्रन्थ हैं। धर्मप्रभावना ही उनका परम एवं चरम लक्ष्य है। वे इस हेतु उत्कृष्ट मानदण्ड सिद्ध हुए हैं।
आ० श्री विद्यासागर जी महाराज ने वीरनिर्वाण संवत् २५०४ में उपर्युक्त समयसार - कलश का रोचक पद्यानुवाद किया था। निम्न दोहे से यह प्रकट है, देव-गगन-गति-गन्ध की वीर जयन्ती आज पूर्ण किया इस ग्रन्थ को निजानन्द के काज ॥ प्रस्तुत ग्रन्थ का अन्तिम छंद देव (४ भेद), गगन (०), गति (५ भेद, सिद्धगति युक्त), गन्ध ( २ भेद) अभीष्ट हैं। 'अंकानां वामतो गतिः' के आधार पर वीर निर्वाण संवत् २५०४ में महावीर जयन्ती के दिन ( दमोह नगर में ) 'स्वान्तः सुखाय' यह
8 मार्च 2009 जिनभाषित
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पं० शिवचरणलाल जैन
ग्रन्थ पूर्ण किया गया।
निजामृतपान नाम की सार्थकता 'निजानन्द के काज' उद्देश्य के अतिरिक्त इस ग्रन्थ में सभी जीवों को निजात्मामृत (अनुभव) पान करने की प्रेरणा है। तीसरे, यह ग्रन्थ निजानन्द रूप अमृत (पानक) से परिपूर्ण है, अतः नामकरण यथोचित ही है । आ० श्री ने इस ग्रन्थ का प्रयोजन निम्न दोहे में प्रकट किया है।
अमृत कलश का मैं करूँ पद्यमयी अनुवाद | मात्र कामना मम रही, मोह मिटे परमाद ॥ ७ ॥
ग्रन्थ- परिमाण - आचार्य अमृतचन्द्र - कृत समयसार कलश के पद्यों की संख्या २७८ है । तद्नुसार ही हिन्दी पद्यानुवाद के रूप में पदों की संख्या भी उतनी है । अर्थात् प्रत्येक कलश का अनुवाद एक ही छन्द में किया गया है। छन्द की 'ज्ञानोदय' संज्ञा प्रकट करती है कि ज्ञान इनमें निरन्तर उदित रहकर अनुभव के रूप में विद्यमान है । अमृतचन्द्र जी के कलश काव्यों में गूढ़ रहस्यपूर्ण क्लिष्ट शब्दावली का प्रयोग भी है एवं वे कलश गम्भीर विस्तृत अर्थ को लिए हुए हैं। परवर्ती आचार्यों एवं विद्वानों ने इस कृति को 'गागर में सागर' माना है। ऐसे विशिष्ट एक कलश काव्य का अनुवाद एक ही छन्द में रचकर उसका भाव हृदयग्राही एवं बोधगम्य बना देना ज्ञान एवं काव्यकौशल ही माना जावेगा । २७८ पद्यों के साथ ही ४२ दोहों एवं १ वसंततिलका छन्द को भी समाविष्ट कर सौन्दर्यछटा को द्विगुणित कर दिया है।
ग्रन्थ में प्रथम ही आद्य मंगलाचरण रूप ७ दोहा छन्द हैं। तीन दोहों में वर्तमान तीर्थशासक भगवान् महावीर देव और शास्त्र एवं गुरु का स्तवन है । पुनः एक दोहे में आचार्य कुन्दकुन्द आचार्य अमृतचन्द्र तथा दीक्षागुरु आचार्य ज्ञानसागर जी को नमस्कार किया गया है एवं एक दोहे में प्रयोजन व्यक्त किया है। तत्पश्चात् प्रत्येक अधिकार के अन्त में अधिकार के प्रतीकार्थ रूप में दो-दो दोहे प्रकट किये हैं । ये दोहे अधिकार के सार ही हैं । ग्रन्थ के अन्त में समापन संज्ञा से दो दोहे ग्रन्थरचना की फलकामना रूप में सुशोभित हैं। पुनश्च अन्तिम मंगलरूप तीन दोहे, सुफलरूप एक दोहा है एवं मंगलकामना हेतु ७ दोहे रचित हैं । लघुता एवं मूल क्षम्यता
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