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________________ - रूप एक दोहा है। अन्त में स्थान एवं रचना-समय परिचय। है, अतः वह श्रोता पर उज्ज्वल, अमिट प्रभाव छोड़ती हेतु दो दोहे सुशोभित हैं। ये दोहे तो कलश पर कलश | है। एवंविध ही 'निजामृत पान' का पाठक भी अध्यात्म ही प्रतीत होते हैं। एवं शान्तरस से सराबोर हो जाता है। पुनः पुनः पारायण आचार्यश्री ने 'निजामृतपान' में समयसारकलश के | करने व कंठस्थ करने से उसका आनन्द कई गुना बढ़ स्याद्वाद अधिकार को दो भागों-'स्यावाद अधिकार' | | जाता है। यथार्थ है और 'साध्यसाधक अधिकार' में विभाजित किया है। कुल | सन्त की भाषा, विषय कषाय के अन्त की भाषा। मिलाकर निम्न अधिकार हैं आत्मानुभव बसन्त की भाषा, सविकल्प पर्यन्त की भाषा॥ १. जीवाजीवाधिकार, २. कर्तृकर्माधिकार, ३. भाषा का निम्न उदाहरण द्रष्टव्य हैपुण्यपापाधिकार, ४. आस्रवाधिकार, ५. संवराधिकार, ६.। सहज ज्ञान से स्वपर भेद को परमहंस यह मुनि नेता। निर्जराधिकार, ७. बन्धाधिकार, ८. मोक्षाधिकार, ९.| दूध दूध को नीर नीर को जैसे हंसा लख लेता। सर्वविशद्धज्ञानाधिकार. १०. स्यादवादाधिकार, ११.| केवल अलोल चेतन गुण को अपना विषय बनाता है। साध्यसाधकाधिकार। आचार्य श्री ने पं० बनारसीदास के | कुछ भी फिर करता मुनि बन मुनिपन यहीं निभाता है। 59॥ समयार नाटक की भाँति ही स्याद्वाद अधिकार के १७| कदापि मिलकर परिणमते नहिं दो पदार्थ नहिं, सम्भव हो। कलशों को स्याद्वाद अधिकार में तथा १५ कलशों को | तथा एक परिणाम न भाता दो पदार्थ में उद्भव हो॥ साध्यसाधक अधिकार में अनूदित किया है। शेष यथावत् उभय वस्तु में उसी तरह ही कभी न परिणति इक होती। हैं। यथास्थान ४२ [(अथवा ४५) तीन दोहे पुनरावृत्ति भिन्न-भिन्न जो अनेक रहती एकमेक ना इक होती॥५३॥ सहित)] दोहों की समष्टि से ग्रन्थ बहुत सुन्दर रूप लोकहित एवं अध्यात्म क्षेत्र में जितना महत्त्व भाव में गठित है। एतदतिरिक्त १ वसंततिलका छन्द समापन का होता है, उतना भाषा एवं शब्द रचना का नहीं होता। रूप में है। कुल ३२४ पद्यों की समष्टि है। .. यही कारण है कि कबीर की निरी गँवारू, खिचड़ी भाषा, शैली एवं काव्यगत विशेषताएँ- आचार्य फक्कड़ी एवं धुमक्कड़ी रचनायें आज भी आमजनों की कण्ठहार बनी हुयीं हैं। एवं पं० बनारसीदास के समयसार निजामतपान के रचनाकाल से पूर्व उत्तर भारत में अल्प| कलश की ही व्याख्या रूप लिखे 'समयसार नाटक' समय के प्रवास में हिन्दी भाषा के लेखन. प्रवचन में की भाषा स्खलित होने पर भी हृदय का स्पर्श करती उन्होंने जो निपणता प्राप्त की. वह श्लाघ्य है। 'निजामतपान'| है। आचार्यश्री की भाषा तो पर्याप्त सुधार को लिए हए के पाठक यह अनुभव नहीं कर पाते कि वे मूलतः है एवं भावों का प्रकाशन पर्याप्त रूप से सहज स्वाभाविक कन्नडभाषी हैं। मातभाषा से अन्य भाषा को बोल लेना| है। यतः समयसार अन्तःकरण से विरक्त गृही अथवा अन्य बात है, किन्तु अनुवाद रूप में काव्यरचना दुःसाध्य सन्तों का अध्येय है, अत: आज भी उनके संघस्थ जनों ही होती है। आचार्यश्री की इस काव्यकृति में भले ही | में एवं प्रौढ़ स्वाध्यायशीलवर्ग में निजामृतपान निरन्तर पाथेय भाषा-परिमार्जितता पूर्ण रूप में प्रकट न होती हो, पर | बना हुआ है। उसका उत्तम प्रभाव स्थापित है। भाव व्यक्त करने में यह समर्थ है। वाक्यविन्यास में भी आचार्यश्री की काव्य शैली समयसार के विषयानुरूप अपेक्षाकृत सुगठन कहीं-कहीं कम दृष्टिगोचर होता है. ही कुछ गम्भीर एवं अलौकिक है। ऐसा होना स्वाभाविक एवं किन्हीं-किन्हीं स्थलों पर व्याकरण-सम्मतता की न्यूनता ही है। सरसता, सरलता, खलापन उसमें समाविष्ट है। प्रतीत होती है। वर्ण्य विषय के हार्द को खोलने हेतु उसमें रूक्षता न होने से रोचक है। कतिपय स्थलों पर एवं छन्द की मात्रिकता बनाये रखने हेतु शब्दों में तोड़ प्रवाह की कुछ न्यूनता काव्य रस के रसिकों को अवश्य मरोड़ भी दृष्टिगोचर होता है, तथापि वह बाधक नहीं खटकेगी, किन्तु आत्महितगवेषी जनों को तो मानो इस है। कहा भी है, शान्तरसदर्पण में परमात्मा के दर्शन होते हैं। जैसे सरिता शब्द यदि हो समीचीन मार्ग से सटे के तीव्र प्रवाह से नुकीले पाषाणखण्ड भी लुढ़कते-लुढ़कते मिथ्यात्व से नटे, गोल मनभावन आकार धारण कर लेते हैं, ठीक उसी पारायण से कर्म भार अवश्य घटे, अवश्य घटे।| तरह आचार्यश्री की काव्यधारा से विषय-कषायों का सन्त की भाषा विशद्ध हृदय का प्रकटीकरण होती तीव्रतारूप नुकीलापन समाप्त होकर ऋजुता एवं आनन्द - मार्च 2009 जिनभाषित 9 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524337
Book TitleJinabhashita 2009 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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