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________________ को प्राप्त होता है यही है शैली की सफलता। उनकी शान्त और सरल शैली अवश्य ही विरसता (वैराग्य) को जन्म देती है। प्रवाह पूर्ण, सरल, सुबोध शैली के दर्शन प्रस्तुत ग्रन्थ की निम्न पंक्तियों के माध्यम से करेंज्ञान बिना रट निश्चय निश्चय निश्चयवादी भी डूबे। क्रियाकलापी भी ये डूबे डूबे संयम से ऊबे ॥ डूबे संयम से ऊबे ॥ प्रमत्त बनके कर्म न करते अकंप निश्चल शैल रहे । आत्मध्यान में लीन, किन्तु मुनि तीन लोक पै तैर रहे ।। १११ ।। अनुवाद की प्रामाणिकता एवं प्रतिरूपता के दर्शन हेतु यहाँ मूल संस्कृत कलश प्रस्तुत है मग्ना कर्मनयावलम्बनपरा ज्ञानं न जानन्ति ये । मग्ना, ज्ञाननयैषिणोऽपि यदतिस्वच्छन्दमन्दोद्यमाः ॥ विश्वस्योपरि ते तरन्ति सततं ज्ञानं भवन्तः स्वयं । ये कुर्वन्ति न कर्म जातु न वशं यान्ति प्रमादस्य च ॥ १११ ॥ सम्पूर्ण 'निजामृतपान' ही संस्कृत कलशों का सीधा व मधुर अनुवाद है। अधिकांशतः भाव अभिव्यक्ती-करण, शब्दानुवाद और वाक्यानुवाद रूप ही ज्ञात होता है। यतः पूर्व की 'समयसार नाटक' हिन्दी पद्यमय टीका उपलब्ध है, जो विस्तृत व्याख्यायुक्त है, अतः एक संक्षिप्त एवं सरलता से आम्नाय एवं कण्ठस्थ करने हेतु एक सादा अनुवाद की आवश्यकता आचार्यश्री को अनुभव हुई होगी, इसी का परिणाम है 'निजामृतपान'। , 'निजामृतपान' काव्य-गुणों से सम्पन्न काव्य है । उसमें ओज, माधुर्य प्रसाद गुण भी विद्यमान हैं गेयता की दृष्टि से उपयोगी है। कवित्त छन्द के समान ही आकर्षकता से गेय है। आचार्य विद्यासागर जी महाराज संस्कृत एवं हिन्दी दोनों में काव्यलेखन में सिद्धहस्त हैं । प्रस्तुत कृति छन्द, रस, अलंकार के गुणों से सुशोभित है। इसमें अलंकारों की छटा पग-पग पर दृष्टिगत होकर पाठक का मन मोह लेती है। शब्दालंकार एवं शब्दचयन दोनों ही अद्वितीय प्रतीत होते हैं। अनुप्रास की छटा द्रष्टव्य है, निम्न पंक्तियों में रग-रग में चिति रस भरा खरा निरा यह जीव तनधारी दुःख सहत, सुख तन बिन सिद्ध सदीव ॥ (जीवाजीवाधिकारपुष्पिका - १ ) बन्ध किये बिन बन्ध का बन्धन टूटे आप। महिमा यह सब साम्य की विरागद्ग की छाप ॥ (निर्जराधिकारपुष्पिका-२ ) विश्वसार है सर्वसार है समयसार कां सार सुधा । चेतन रस आपूरित आतम शत शत वन्दन बार सदा ॥ 10 मार्च 2009 जिनभाषित Jain Education International असारमय संसार क्षेत्र में निज चेतन से रहे परे । पदार्थ जो भी जहाँ तहाँ हैं, मुझसे पर हैं निरे निरे ।। ३६ ।। आत्मतत्त्वमय चित्रित दिखता कभी चित्र बिन लसता है । चित्राचित्री कभी - कभी वह विस्मित सस्मित हँसता है ॥ तथापि निर्मल बोध धारि के करे न मन को मोहित है। चूँकि परस्पर बहुविधि बहुगुण - चूँकि परस्पर बहुविधि बहुगुण मिले आत्म में शोभित है। - २७२ ॥ आचार्यश्री के पद्य काव्यों में सहजता और प्रवाहपूर्ण काव्यरस का रसास्वादन करणीय है, स्यादवादअधिकार पुष्पिका के निम्न दोहे पर दृष्टिपात करेंमेटे वाद-विवाद को निर्विवाद स्यादवाद | सब वादों को खुश रखे पुनि पुनि कर संवाद ॥ वर्ण्य विषय की अभिव्यक्ति- प० पू० आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज उत्कृष्ट रूप से ज्ञान-ध्यानलीन साधक हैं। त्याग तपस्या के प्रभाव से उनके ज्ञानावरण कर्म का विशेष क्षयोपशम हुआ है। वे आगम और अध्यात्म के प्रवर मनीषी हैं। चारों अनुयोगों के अभ्यासी एवं अपार पाण्डित्य के धनी हैं। वे प्रवचन वात्सल्य और प्रभावना की प्रतिमूर्ति हैं विषय प्रतिपादन की कला में निष्णात । हैं। उनका 'समग्र साहित्य इसका ज्वलन्त प्रमाण है। समयसार कलश में जीव, अजीव आत्रव, पुण्य, पाप बन्ध, संवर निर्जरा और मोक्ष तत्त्वों का विवेचन है । तदनुरूप ही आचार्यश्री ने इन तत्त्वों का वर्णन बड़ी रोचक शैली में किया है। उनकी विषयानुकूल एवं सीमित शब्दों में प्रकट अभिव्यक्ति प्रशंसनीय है। हृदय से लेकर शब्द तक आते-आते उनका अनुभव मानो प्रकृत विषय का सांगोपांग चित्र प्रस्तुत करता है । निजामृतपान में भी 'अमृतकलश' के भाव का कोई अंश अनुवाद से छूटा नहीं है। यथा , एकमेव हि तत्स्वाद्यं विपदामपदं अपदान्येव भासन्ते पदान्यन्यानि पदम् । यत्पुरः ॥ कलश १३९ पद पद पर बहुपद मिलते हैं पर वे दुःखपद परपद हैं। सब पद में बस पद ही वह पद सुखद निरापद निजपद है। जिसके सम्मुख सब पद दिखते अपद दलित पद आपद हैं। अतः स्वाद्य है पेय निजी पद संकल गुणों का आस्पद है। निजामृतपान १३९ प्रस्तुत निजामृतपान में विषय तो आचार्यश्री का स्वयं का नहीं है, वह तो कुन्दकुन्द एवं अमृतचन्द्र जी का ही है परन्तु वर्ण्य विषय को रोचक, पाचक एवं For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524337
Book TitleJinabhashita 2009 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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