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________________ द्वितीय अंश तत्त्वार्थसूत्र में प्रयुक्त 'च' शब्द का विश्लेषणात्मक विवेचन पं० महेशकुमार जैन व्याख्याता द्वितीय अध्याय तत्त्वार्थवृत्ति में इस सूत्र में आये 'च' शब्द का विशेष नहीं लिखा है । औपशमिक क्षायिकौ भावौ मिश्रश्च जीवस्य । कि 'औपशमिकक्षायिकमिश्रौदयिकपारिणामिका:' इस प्रकार स्वतत्त्वमौदयिकपारिणामिकौ च ॥ १ ॥ सूत्र में द्वन्द्व समास का निर्देश करना चाहिये, जिससे इस सूत्र के अर्थ में दो बार 'च' शब्द नहीं करना पड़ता ? उत्तर- ऐसा नहीं है क्योंकि द्वन्द्वसमास करने से मिश्र शब्द से औपशमिक और क्षायिक से भिन्न तीसरे भी भाव के ग्रहण का प्रसंग आयेगा । इसलिए द्वन्द्व समास नहीं किया गया है। क्योंकि पुनः 'च' शब्द के ग्रहण करने पर पूर्वोक्त दोषों का निराकरण हो जाता है। श्लोकवार्तिक न चैषां द्वन्द्वनिर्देशः सर्वेषां सूरिणा कृतः । क्षायोपशमिकस्यैव मिश्रस्य प्रतिपत्तये ॥ १२ ॥ नानर्थकश्च शब्दौ तौ मध्ये सूत्रस्य लक्ष्यते । नाप्यते व्यादिसंयोग जन्म भावोपसंग्रहात् ॥ १३ ॥ क्षायोपशमिकं चांते नोक्तं मध्येत्र युज्यते । ग्रन्थस्य गौरवाभावादन्यथा तत्प्रसंगतः ॥ १४ ॥ अर्थ- शंका- यहाँ प्रथम 'च' शब्द न देकर आचार्य उमास्वामी को द्वन्द्वसमास का निर्देश करना चाहिये, जिससे " औपशमिकक्षायिकौदयिकपारिणामिका:" इस प्रकार सूत्र हो जाता। समाधान - सूत्र में मिश्र पद का ग्रहण क्षायोपशमिक के ज्ञान के लिए ही है, जिससे औपशमिक और क्षायिक इन दोनों का ही मिश्र यह क्षायोपशमिक भाव है। अतः 'च' शब्द अनर्थक नहीं है। अन्त में 'च' शब्द २ आदि के संयोग से उत्पन्न भाव का संग्रह करने के लिए है। प्रथम 'च' शब्द को नहीं कहकर क्षायोपशमिक पद के कहने से ग्रन्थ का गौरव हो जाता ( अर्थात् मिश्रश्च इन ३ वर्णों के स्थान पर क्षायोपशमिक ये ६ सस्वर वर्ण कहने पड़ते ) अतः ग्रन्थ के गौरव दोष का अभाव हो जाने से औपशमिक और क्षायिक के बाद तथा इस सूत्र के मध्य में क्षायोपशमिक शब्द कहना युक्त नहीं था । सर्वार्थसिद्धि - औपशमिकक्षायिकमिश्रौदयिकपारिणामिका इति । तथा सति द्विः 'च' शब्दो न कर्त्तव्यो भवति । नैवं शक्यम्, अन्यगुणापेक्षया इति प्रतीयेत । वाक्ये पुनः सति 'च' शब्देन प्रकृतोभयानुकर्षः कृतो भवति । तर्हि क्षायोपशमिकग्रहणमिति चेत् । न गौरवात् । मिश्रग्रहणं मध्ये क्रियते उभयापेक्षार्थम् । (यहाँ प्रथम 'च' शब्द की व्याख्या की गई है ।) अर्थ- शंका- यहाँ औपशमिकक्षायिकमिश्रौदयिकपारिणामिकाः इस प्रकार द्वन्द्व समास करना चाहिये, ऐसा करने से में दो 'च' शब्द नहीं रखने पड़ते । सूत्र समाधान- ऐसी शंका नहीं करनी चाहिये क्योंकि सूत्र में यदि 'च' शब्द न रखकर द्वन्द्वसमास करते, तो मिश्र की प्रतीति अन्य गुण की अपेक्षा होती । किन्तु वाक्य में 'च' शब्द रहने पर उससे प्रकरण में आये हुए औपशमिक और क्षायिक भाव का अनुकर्षण हो जाता है। शंका- तो फिर सूत्र में क्षायोपशमिक पद का ही ग्रहण करना चाहिये ! समाधान- नहीं, क्योंकि क्षायोपशमिक पद के ग्रहण करने में गौरव है, अतः इस दोष को दूर करने के लिए क्षायोपशमिक पद का ग्रहण न करके मिश्र पद रखा है। राजवार्तिक- द्वन्द्वनिर्देशो युक्त इति चेत् न, उभयधर्मव्यतिरेकेणान्यभावप्रसङ्गात् । स्यान्मतम् - द्वन्द्वनिर्देशोऽत्र युक्तः औपशमिक क्षायिकमिश्रौदयिकपारिणामिकाः इति । तत्रायमप्यर्थी द्विश्चशब्दो न कर्त्तव्यो भवतीति, तन्न किं कारणम् ? उभयधर्मव्यतिरेकेणान्यभावप्रसंगात् । उभाभ्यां व्यतिरेकेणान्यो भावः प्राप्नोति, 'च' शब्दे पुनः सति पूर्वोक्तानुकर्षणार्थी युक्तो भवति । ( २/१/१९)। अर्थ - इस सूत्र में द्वन्द्व समास करना चाहिये? उत्तर- ऐसा नहीं है, क्योंकि उभयधर्म के व्यतिरेक से अन्य भाव का प्रसंग आता है। शंकाकार का कहना है 1 Jain Education International सुखबोधतत्त्वार्थवृत्ति- 'च' शब्देन षष्ठः सान्निपातिकः समुच्चियते । स च पूर्वोत्तरभावसंयोगादिद्वित्रिचतुःपंचसंयोगजो ज्ञेयः । (यहाँ द्वितीय 'च' शब्द की व्याख्या की गई है ।) अर्थ- सूत्र में आये 'च' शब्द से छठे सान्निपातिक मार्च 2009 जिनभाषित 17 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524337
Book TitleJinabhashita 2009 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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