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________________ भाव का ग्रहण होता है। वह सान्निपातिक भाव इन । वृत्ति में 'च' शब्द की व्याख्या नहीं की है। औपशमिक आदि भावों को पूर्वोत्तर रूप से संयोग करने | राजवार्तिक- संज्ञित्वसम्यमिथ्यात्वयोगोपसंख्यापर बनता है। इनके संयोग से द्विसंयोगी, त्रिसंगोयी, | नमिति चेत्, न, ज्ञानसम्यक्त्वलब्धिग्रहणे गृहीतत्वात्॥९॥ चतु:संयोगी और पंचसंयोगी ऐसे भेद होते हैं। भावार्थ- | स्यादेतत्-संज्ञित्वसम्यमिथ्यात्व-योगोपसंख्यानं कर्तव्यम्, सूत्र में आया प्रथम 'च' औपशमिक भाव और क्षायिक | तेऽपि हि क्षायोपशमिका इति, तन्न, किं कारणम्? भाव का मिश्र पद ग्रहण करने के लिए है, अर्थात | ज्ञानसम्यक्त्वलब्धिग्रहणेन गृहीतत्वात्। संज्ञित्वं हि मतिक्षायोपशमिक भाव का वाचक है। एवं द्वितीय 'च' छठे | ज्ञानेन गृहीतं सम्यमिथ्यात्वं सम्यक्त्वग्रहणेन, नोइन्द्रियासान्निपातिक भाव का ग्रहण करने के लिए है, जिससे | वरणक्षयोपशमापेक्षत्वात्, उभयात्मकस्य एकात्म-परिद्विसंयोगी, त्रिसंयोगी, चतु:संयोगी और पंचसंयोगी भावों ग्रहाच्च उदकव्यतिमिश्रक्षीरव्यपदेशवत्। योगश्च वीर्यका ग्रहण हो जाता है। जैसे- द्विसंयोगी-औदयिक लब्धिग्रहणेन गृहीत इति। अथवा 'च' शब्देन समुच्चयो औपशमिक जैसे- मनुष्य ओर उपशान्तक्रोध। त्रिसंयोगी वेदितव्यः । (२/५/९)। औदयिक-औपशमिक-क्षायिक जैसे-मनुष्य, उपशान्तमोह अर्थ- शंका- संज्ञित्व, सम्यग्मिथ्यात्व और योग और क्षायिक सम्यग्दृष्टि। चतुःसंयोगी-औपशमिक-क्षायिक भी क्षायोशमिक हैं। उनका भी ग्रहण करना चाहिये? क्षायोपशमिक-पारिणामिक, जैसे-उपशान्तलोभ, क्षायिक समाधान- नहीं। शंका- किस कारण से? समाधानसम्यग्दृष्टि, पंचेन्द्रिय और जीव। पंचसंयोगी-औदयिक ज्ञान, सम्यक्त्व और लब्धि के ग्रहण से उन तीनों का औपशमिक-क्षायिक-क्षायोपशमिक-पारिणामिक, जैसे- | गहण हो जाता है। अर्थात् क्षायोपशमिक संज्ञित्वभाव मनुष्य, उपशान्तमोह, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, पंचेन्द्रिय और | नोइन्द्रियावरणकर्म के क्षयोपशम की अपेक्षा रखने के कारण जीव। मतिज्ञान में अन्तर्भूत हो जाता है। सम्यग्मिथ्यात्व यद्यपि ज्ञानदर्शनदानलाभभोगोपभोगवीर्याणि च॥ ४॥ दूध-पानी की तरह उभयात्मक है, फिर भी सम्यक्पना सर्वार्थसिद्धि- 'च' शब्दः सम्यक्त्वचारित्रानुकर्षणार्थः । उसमें विद्यमान होने से सम्यक्त्व में अन्तर्भूत हो जाता अर्थ- सूत्र में 'च' शब्द सम्यक्त्व और चारित्र है। वीर्यलब्धि के ग्रहण से योग का ग्रहण हो जाता है। के ग्रहण करने के लिए आया है। अथवा 'च' शब्द से इन भावों का संग्रह हो जाता है। राजवार्तिक एवं श्लोकवार्तिक- 'च' शब्देन तत्त्वार्थवृत्ति- चकारात् संज्ञित्वं सम्यग्मिथ्यात्वं च सम्यक्त्व-चारित्रे समुच्चीयेते। (४/०) मिश्रौ भावौ ज्ञातव्यौ। अर्थ- 'च' शब्द से सम्यक्त्व और चारित्र का अर्थ- सूत्र में आये हुए च शब्द से संज्ञित्व और समुच्चय हो जाता है। सम्यग्मिथ्यात्व इन दोनों को भी मिश्र (क्षायोपशमिक) सुखबोधतत्त्वार्थवृत्ति- 'च' शब्देन सम्यक्त्वचारित्रयोः | भाव जानना चाहिये। परिग्रहः। भावार्थ- सूत्र में आये 'च' शब्द से सम्यग्मिथ्यात्व, अर्थ- सूत्र में 'च' शब्द से क्षायिकसम्यक्त्व संज्ञीपना एवं योग ये तीनों भी क्षायोपशमिक भाव होते क्षायिकचारित्र भावों का ग्रहण होता है। हैं, इस प्रकार जानना चाहिये। तत्त्वार्थवृत्ति- चकारात् सम्यक्त्वारित्रे च द्वे। जीवभव्याभव्यत्वानि च ॥ ७॥ अर्थ- 'च' शब्द से सम्यक्त्व और चारित्र का सर्वार्थसिद्धि- ननु चास्तित्वनित्यत्वप्रदेशत्वादयोऽपि ग्रहण हो जाता है। भावाः पारिणामिकाः सन्ति। तेषामेव ग्रहणं कर्तव्यम्। न भावार्थ- सूत्र में आये 'च' शब्द से सभी आचार्यो कर्तव्यम्। कृतमेव। कथम्? 'च' शब्देन समुच्चितत्वात्। ने क्षायिक सम्यक्त्व और क्षायिक चारित्र का ग्रहण किया यद्येवं त्रय इति संख्या विरुध्यते। न विरुध्यते, असाधारणाः है, जिससे क्षायिक भाव के ९ भेद हो जाते हैं। जीवस्य भावाः पारिणामिकास्त्रय एव। अस्तित्वादयः ज्ञानाज्ञानदर्शनलब्धयश्चतुस्त्रित्रिपंचभेदाः सम्यक्त्व पुनर्जीवाजीवविषयत्वात् साधारण इति। 'च' शब्देन चारित्रसंयमासंयमाश्च॥ ५॥ पृथग्गृह्यन्ते। सर्वार्थसिद्धि, श्लोकवार्तिक एवं संखबोधतत्त्वार्थ अर्थ- शंका- अस्तित्व, नित्यत्व और प्रदेशत्व | आदि भी भाव हैं, उनका इस सूत्र में ग्रहण करना चाहिये। 18 मार्च 2009 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524337
Book TitleJinabhashita 2009 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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