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जिज्ञासा-समाधान
पं० रतनलाल बैनाड़ा प्रश्नकर्ता- पं० संजीव जी जैन, जयपुर। । ज्ञानादि-चतुष्टय की अभिव्यक्तिरूप कार्यसमयसार का
जिज्ञासा- मोक्षमार्ग प्रकाशक अध्याय-९, पृष्ठ | उत्पादक है, ऐसे निश्चय कारणसमयसार के हुए बिना ३२१ (जयपर प्रकाशन) पर मिथ्यादृष्टि के भी व्यवहार- | यह अज्ञानी जीव रोष करता है और संतुष्ट होता है। सम्यक्त्व कहा गया है, क्या यह आगमसम्मत है? | २. श्री अमृतचन्द्राचार्य ने पंचास्तिकाय गाथा १०७
समाधान- जैन शास्त्रों में सम्यक्त्व दो प्रकार का | की टीका में इस प्रकार कहा हैकहा गया है, बृहद्रव्यसंग्रह गाथा-४१ की टीका में इस भावाः खल कालकलितपंचास्तिकायविकल्पप्रकार कहा है,- "शुद्धजीवादितत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणम् | रूपा नवपदार्थास्तेषां मिथ्यादर्शनोदयापादिताश्रद्धानासरागसम्यक्त्वाभिधानम् व्यवहारसम्यक्त्वं विज्ञेयं।--- | भावस्वभावं भावांतरं श्रद्धानं सम्यग्दर्शनं शुद्धचैतन्यवीतराग - चारित्राविनाभूतं वीतरागसम्यक्त्वाभिधानं रूपात्मतत्त्वविनिश्चयबीजम्। निश्चयसम्यक्त्वं च ज्ञातव्यमिति।
अर्थ- कालसहित पंचास्तिकाय और विकल्परूप अर्थ- शुद्ध जीवादि तत्वार्थों का श्रद्धानरूप सराग- | नव पदार्थ इनको भाव कहते हैं। मिथ्यादर्शन के उदय सम्यक्त्व नाम से कहा जाने वाला व्यवहार-सम्यक्त्व जानना | से उत्पन्न हुआ जो अश्रद्धान, उसका अभाव होने पर चाहिए। वीतरागचारित्र के बिना नहीं होनेवाला, वीतराग- पंचास्तिकाय और नवपदार्थ का श्रद्धान. वह व्यवहारसम्यक्त्व नामक निश्चयसम्यक्त्व जानना चाहिए। सम्यग्दर्शन है और यह शुद्ध आत्मतत्व के निश्चय का
अब प्रश्नकर्ता के प्रश्न पर विचार करते हैं। प्रश्न | बीज है। यह है कि उपर्युक्त सरागसम्यक्त्व अथवा व्यवहार- सारांश- उपर्युक्त प्रमाण नं० १ में यह स्पष्ट कहा सम्यक्त्व प्रथम गुणस्थान में होता है, या नहीं? इस संबंध है कि व्यवहारसम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप व्यवहारमें समयसार गाथा ३७३ की टीका में इस प्रकार कहा | मोक्षमार्ग में मिथ्यात्व आदि सात प्रकृतियों का (दर्शनगया है
मोहनीय की तीन तथा अनन्तानुबंधी की चार = सात) मिथ्यात्वादिसप्तप्रकृतीनां तथैव चारित्रमोहनीयस्य | उपशम. क्षय अथवा क्षयोपशम होता ही है। अर्थात् सात चोपशमक्षयोपशमक्षये सति षद्रव्यपंचास्तिकाय- प्रकृतियों के उपशम आदि न होने पर व्यवहारसम्यक्त्व सप्ततत्त्वनवपदार्थादिश्रद्धानज्ञानरागद्वेषपरिहाररूपेण | नहीं होता। उपर्युक्त दूसरे प्रमाण से भी स्पष्ट है कि भेदरत्नत्रयात्मकव्यवहारमोक्षमार्गसंज्ञेन व्यवहारकारण- व्यवहारसम्यग्दर्शन में मिथ्यादर्शन का उदय नहीं रहता समयसारेण साध्येन विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावशुद्धात्म- है। अत: यह स्पष्ट है कि व्यवहारसम्यक्त्व मिथ्यादृष्टि तत्त्वसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुचरणरूपाभेदरत्नत्रयात्मक
जीव के नहीं होता। किसी भी आचार्य ने, किसी भी निर्विकल्पसमाधिरूपेणानंतकेवलज्ञानादिचतुष्टयव्यक्ति
शास्त्र में ऐसा नहीं कहा है कि मिथ्यादृष्टि के व्यवहाररूपस्य कार्यसमयसारस्योत्पादकेन निश्चयकारणसमय
सम्यक्त्व होता है। यदि हम गुणस्थान की अपेक्षा विचार सारेण विना खल्वज्ञानिजीवो रुष्यति तुष्यति च।
करें, तो चौथे से सातवें गुणस्थान तक शुभोपयोग अवस्था अर्थ- मिथ्यात्वादि सात प्रकृतियों के तथा चारित्र
में व्यवहार सम्यग्दर्शन होता है, तथा निश्चयचारित्ररूप मोहनीय के उपशम, क्षयोशम व क्षय होने से छह द्रव्य,
| शुद्धोपयोग के साथ होनेवाला निश्चयसम्यग्दर्शन सप्तम पंचास्तिकाय, सात तत्त्व, नौ पदार्थ आदि का श्रद्धान और
गुणस्थान से आगे तक रहता है। ज्ञान के साथ-साथ रागद्वेष के त्यागरूप ऐसा भेदरत्नत्रय
आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज ने सम्यक्त्वसार तदात्मक व्यवहारमोक्षमार्ग ही है नाम जिसका, ऐसे
शतकम् गाथा-८१ के विशेषार्थ में इस प्रकार कहा हैव्यवहार-कारणसमयसार के द्वारा जो साध्य है और विशुद्ध |
'दर्शनमोह के उपशमादि द्वारा तत्त्वार्थश्रद्धान प्राप्त करते ज्ञान-दर्शन-स्वाभाव जो शुद्धात्मतत्त्व, उसका समीचीन
हुए चतुर्थ गुणस्थान में जो सम्यग्दर्शन होता है, वह व्यवहारश्रद्धान-ज्ञान और आचरण रूप, ऐसा जो अभेदरत्नत्रय
सम्यग्दर्शन और तत्पूर्वक अणुव्रत-महाव्रतादि का पालन तदात्मक जो निर्विकल्पसमाधि-स्वरूप है तथा जो अनंतकेवल
| करना सो व्यवहार सम्यक्चारित्र एवं उनके साथ जो सचेष्ट
-मार्च 2009 जिनभाषित 29
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