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________________ वादिराज एवं उनकी भक्ति __ आर्यिका प्रशान्तमती जी संघस्था आ० विशुद्धमती जी जिने भक्तिर्जिने भक्तिर्जिने भक्तिर्दिने दिने। । किसी को कपड़ा खरीदना है, तो उस व्यक्ति को कपड़े सदा मेऽस्तु सदा मेऽस्तु सदा मेऽस्तु भवे भवे॥ के व्यापारी के यहाँ जाना पड़ेगा। इसी प्रकार जिसको -हे भगवन् ! मेरी भक्ति प्रतिदिन श्री जिनेन्द्र देव | जिस चीज की आवश्यकता है, वह वस्तु जिसके पास में ही रहे, श्री जिनेन्द्रदेव में ही रहे, श्री जिनेन्द्रदेव में | है उसके पास उसे जाना पड़ेगा। वैसे ही हमें वीतरागभाव रहे तथा जिनेन्द्र के चरणकमलों की भक्ति भव-भव में की आवश्यकता है, तो हमें वीतरागी के पास जाना पड़ेगा, मुझे सदा प्राप्त हो, सदा प्राप्त हो, सदा प्राप्त हो। वीतरागी देव एवं गुरुओं की शरण लेनी पड़ेगी। वीतराग जैसे घर में नेता का चित्र देखकर नेता बनने की, | प्रभु के बताये हुए मार्ग पर स्वयं चलनेवाले एवं वीतराग कवि का चित्र देखकर कवि बनने की इच्छा होती है, धर्म का उपदेश देनेवाले निर्ग्रन्थ गुरुओं की शरण लेनी क्षत्रिय-वीर का चित्र देखते ही क्षत्रियत्व जाग उठता है | पड़ेगी। जो वीतराग प्रभु के बताये हुए मार्ग पर चलने और सिनेमा, टेलीवीज़न आदि में तरह-तरह के रागरञ्जित | एवं वीतरागधर्म का उपदेश देने से रहित हैं, वे अपनी चित्रों को देखकर जीवन इन्द्रियसुखों के लिए छटपटा शरण में आनेवाले को रागरहित कैसे बना सकते हैं? जाता है, ठीक इसी प्रकार वीतराग प्रभु के दर्शन से, | कदापि नहीं। जैसे कोई विद्यार्थी डॉक्टरी पास करके उनकी छवि देखने से, निर्ग्रन्थ वीतरागी सन्तों के दर्शन | आया है, उसे प्रेक्टिस करनी है, यदि वह बड़े से बड़े करने से वीतराग भाव प्रगट होते हैं, शांति मिलती है। | वकील के पास जायेगा, तो वह डॉक्टरी के अनुभव वीतराग भगवान की निर्विकार शांत मद्रा निर्मल दर्पण | प्राप्त नहीं कर सकता है. उसे तो किसी पराने-अनभवी के समान है। जैसे दर्पण में अपना मुख देखने से मुख | डॉक्टर के पास ही काम करना पड़ेगा। वैसे ही जो की स्वच्छता और मलिनता एक साथ सामने आ जाती | स्वयं दुःखी है, स्वयं भयभीत है, स्वयं राग-रञ्जित है, है, उसी प्रकार श्रद्धापूर्वक भगवान् के गुणगान करने से | स्वयं परिग्रही है, वह दूसरों को सुखी, निर्भय, वीतरागी, तथा तन्मय होकर भक्ति-उपासना और दर्शन करने से अपरिग्रही कैसे बना सकता है। अतः मिट है कि तीनगी अपने शद्ध स्वरूप का और अपनी मलिन दशा का बोध | की शरण से ही वीतरागता की प्राप्ति होगी। सहज ही हो जाता है। अतः अध्यात्मवादी जैनदर्शन में कोई रोगी व्यक्ति बीमारी से मुक्त होने के लिए भगवान क. भक्ति-उपासना करने का समुचित एवं | अच्छे चिकित्सक के पास जाता है। वहाँ जाकर वह सयुक्तिक विवेचन दर्शाया गया है। प्रवचनसार में | चिकित्सक से कहता है कि, आप मुझे कोई ऐसी औषधि भगवत्कुन्दकुन्द स्वामी लिखते हैं दीजिए कि मेरा रोग शीघ्र शांत हो जाय। वहाँ जाकर जो जादि अरहंतं, दव्वत्त गुणत्त पज्जयत्तेहिं। | वह रोगी और कोई पूँछताछ नहीं करता है कि आपका सो जाणदि अप्पाणं, मोहो खलु जादि तस्स लयं॥ | नाम क्या है? आप कौन सी यूनिवर्सिटी में और कहाँ जो व्यक्ति अरहंत भगवान् को गुणपर्यायसहित | तक पढ़े हो। वह तो मात्र एक ही बात कहता है कि भली-भाँति जान लेता है, उसे अपने आत्मस्वरूप की आप मुझे शीघ्र औषधि देकर रोगमुक्त कीजिए, किन्तु पहचान हो जाती है, क्योंकि अपने स्वरूप और शुद्ध | वह रोग से मुक्त तभी हो सकता है, जबकि उसको दशा के ज्ञान से उसका आत्म विषयक मोह निश्चय | चिकित्सक के गुणों के प्रति दृढ़ विश्वास हो। उसी ही नष्ट हो जाता है। प्रकार वीतरागी देव एवं गुरुरूपी वैद्य के प्रति होनेवाली जैसे किसी व्यक्ति को हीरा, पन्ना, मोती आदि अटल श्रद्धा ही हमारे रागद्वेष रूपी रोग को दूर करने जवाहरात खरीदना है, तो उसे सर्वप्रथम जौहरी के यहाँ | में समर्थ है। जाना पड़ेगा। यदि वह कपड़े के व्यापारी के पास जाता अब प्रश्न होता है कि 'भक्ति' क्या है? भक्ति है, तो वह रत्नों को प्राप्त नहीं कर सकता है। दूसरे, I का क्या अर्थ है? आचार्य भगवन्तों ने इसका समाधान 4 मार्च 2009 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524337
Book TitleJinabhashita 2009 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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