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पीड़ा पहुँचाता है, तो वे योगी उसकी अनुमोदना भी। अपने मन-वचन और काय को शुद्ध करके जीवनपर्यन्त नहीं करते। इस प्रकार वे मुनिराज अहिंसा महाव्रत को | के लिए सावधयोग का त्याग कर देते हैं। तथा मुनि प्राप्त करने के लिए उन पृथ्वीकायिक जीवों की विराधना | हरिततृण-वृक्ष-छाल-पत्र-कोंपल-कन्दमूल-फल-पुष्प और कभी नहीं करते।
बीज वगैरह का छेदन-भेदन न स्वयं करते हैं और इसी प्रकार वनस्पतिकायिक जीवों के संबंध में | न दूसरों से कराते हैं। तथा मुनि पृथ्वी को खोदना, जल 'हरितांकुर--- पापधी:' (श्लोक नं. ८५ से ९०) में | से सींचना, अग्नि को जलाना, वायु को उत्पन्न करना इस प्रकार कहा है
और त्रसों का घात न स्वयं करते है, न दूसरों से कराते चन-काय की शुद्धता धारण करने | हैं और यदि कोई करता हो, तो उसकी अनुमोदना भी के कारण हरित-अंकुर, बीज, पत्र, पुष्प आदि के आश्रित | नहीं करते। रहनेवाले वनस्पतिकायिक जीवों का छेदन, भेदन, पीड़न, 'देवगुरुण णिमित्तं --- अलियं' (गाथा-४०७) वध, बाधा, स्पर्श और विराधना आदि न तो स्वयं करते | की टीका में इस प्रकार कहा है, भावार्थ- गृहस्थी बिना
से कराते हैं। मुनियों को गमन-आगमन | आरम्भ किये नहीं चल सकती और ऐसा कोई आरम्भ आदि के करने में काई और फलन आदि में रहनेवाले नहीं है. जिसमें हिंसा न होती हो. अतः गहस्थ के लिए अनन्तकायजीवों की हिंसा भी कभी नहीं करनी चाहिए। आरम्भी हिंसा का त्याग करना शक्य नहीं है। किन्त वनस्पति का समारम्भ करने से, वनस्पतिकायिक जीव | मुनि गृहवासी नहीं होते, अतः वे आरम्भी हिंसा का भी और वनस्पतिकाय के आश्रित रहनेवाले जीवों की हिंसा त्याग कर देते हैं। वे केवल अपने लिए ही आरम्भ अवश्य होती है। इसलिए अर्हन्-मुद्रा अथवा जिनलिंग नहीं करते, बल्कि देव और गुरु के निमित्त से भी न को स्वीकार करनेवाले मुनियों को अपने जीवनपर्यन्त | कोई आरम्भ स्वयं करते हैं. न दूसरों से कराते हैं और मन-वचन-काय से उन दोनों प्रकार की वनस्पति का न ऐसे आरम्भ की अनुमोदना ही करते हैं। समारम्भ नहीं करना चाहिए। जो मुनि वनस्पति में प्राप्त । ४. प्रश्नोत्तर-श्रावकाचार श्लोक नं. १०४ से १०६ हए इन जीवों को नहीं मानता, उसे जिनधर्म से बाहर | में आरम्भत्याग नामक अष्टम प्रतिमा के धारी का स्वरूप मिथ्यादृष्टि और पापी समझना चाहिए।
बताते हुए इस प्रकार कहा है- "आरम्भत्यागप्रतिमा को इसी प्रकार जलकायिक, वायुकायिक और धारण करनेवाले धीर-वीर व्रती पुरुषों को अपने आरम्भ अग्निकायिक जीवों की विराधना से मन-वचन-काय का त्याग करने के लिए मन-वचन-काय और कृतऔर कृत-कारित-अनुमोदना से दूर रहना अहिंसा महाव्रत | कारित-अनुमोदना से पृथ्वी खोदना, कपड़े धोना, दीपक में आता है।
मसाल आदि का जलाना, वायु करना, वनस्पतियों को ३. कार्तिकेयानुप्रेक्षा में हिंसारम्भो --- धम्मो। | तोड़ना, काटना, छेदना, गेहूँ, जौ आदि बीजों को, कूटना(गाथा नं० ४०६) की टीका का अर्थ इस प्रकार कहा | पीसना--- आदि निन्द्य आरम्भों का बहुत शीघ्र त्याग है- 'देवपूजा, चैत्यालय, संघ और यात्रा वगैरह के लिए | कर देना चाहिए। मुनियों का आरम्भ करना ठीक नहीं है। तथा गुरुओं | उपर्युक्त प्रमाणों से यह स्पष्ट है कि मुनिराज के लिए वसतिका बनवाना, भोजन बनाना, सचित्त जल- | अहिंसा महाव्रत के पालन के लिए पाँचों प्रकार के स्थावर फल-धान्य वगैरह का प्रासुक करना आदि आरम्भ भी | जीवों की हिंसा के मन-वचन-काय एवं कृत-कारितमुनियों के लिए उचित नहीं हैं, क्योंकि ये सब आरम्भ, | अनुमोदना से त्यागी होते हैं। हिंसा के कारण हैं। वसुनन्दी आचार्य ने मुनि के आचार
१/२०५, प्रोफेसर्स कॉलोनी बतलाते हुए लिखा है- 'निर्ग्रन्थ मुनि पाप के भय से
आगरा-२८२ ००२, उ० प्र०
रहिमन ओछे नरन सों, बैर भली न प्रीत। काटे चाटे श्वान के, दुहूँ भाँति विपरीत ॥ ओछे को सतसंग, रहिमन तजहु अँगार ज्यों। तातो बारे अंग, सीरे पै कारो करै ।।
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- मार्च 2009 जिनभाषित 31
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