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________________ बदले का भाव दलदल है आचार्य श्री विद्यासागर जी माटी का काँटे को उपदेश ) मन वैर-भाव का निधान होता ही है। मन की छाँव में ही मान पनपता है मन का माथा नमता नहीं न-'मन' हो, तब कहीं नमन हो 'समण' को इसलिए मन यही कहता है सदानमन ! नमन !! नमन!!! बादल-दल पिघल जाये, किसी भाँति ! काँटे का बदले का भाव बदल जाये इसी आशय से माटी कुछ कहती है उससे : "बदले का भाव वह दल-दल है कि जिसमें बड़े-बड़े बैल ही क्या, बल-शाली गज-दल तक बुरी तरह फँस जाते हैं और गल-कपोल तक पूरी तरह धंस जाते हैं। बदले का भाव वह अनल है जलाता है तन को भी, चेतन को भी भव-भव तक! बदले का भाव वह राहु है जिसके सुदीर्घ विकराल गाल में छोटा-सा कवल बन चेतनरूप भास्वत भानु भी अपने अस्तित्व को खो देता है और सुनो! बाली से बदला लेना ठान लिया था दशानन ने फिर क्या मिला फल? तन का बल मथित हुआ मन का बल व्यथित हुआ और यश का बल पतित हुआ यही हुआ ना! त्राहि मां! त्राहि मां!! त्राहि मां!!! यों चिल्लाता हुआ राक्षस की ध्वनि में रो पड़ा तभी उसका नाम रावण पड़ा। मूकमाटी (पृष्ठ ९७-९८) से साभार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524337
Book TitleJinabhashita 2009 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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