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जिनभाषित
वीर निर्वाण सं. 2534
संसार की सबसे विशाल सहस्त्रफणी प्राचीन प्रतिमा श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र पटनागंज, रहली, जिला-सागर (म.प्र.)
चैत्र, वि.सं. 2065
अप्रैल, 2008
www.janमूल्य
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आचार्य श्री विद्यासागर जी
के दोहे
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दास-दास ही न रहे, सदा-सदा का दास। कनक, कनकपाषाण हो, ताप मिले प्रभु पास॥
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विजितमना हो फिर हुए, महामना जिनराज। हिम्मतवाला बन अरे! मतवाला मत आज॥
92 रसना रस की ओर ना, जा जीवन अनमोल। गुरु-गुण गरिमा गा अरी! इसे न रस से तोल ॥
93 चमक दमक की ओर तू, मत जा नयना मान। दुर्लभ जिनवर रूप का, निशि-दिन करता पान॥
94 पके पत्र फल डाल पर, टिक ना सकते देर। मुमुक्षु क्यों ना? निकलता, घर से देर सबेर ॥
95 नीरस हो पर कटुक ना, उलटी सो बच जाय। सूखा हो, रूखा नहीं, बिगड़ी सो बन जाय॥
96 छुआछूत की बात क्या? सुनो और तो और। फरस रूप से शून्य हूँ, देखू, दिखू विभोर॥
आत्म-तोष में जी रहा, जिसके यश का नाप। शरद जलद की धवलिमा. लज्जित होती आप॥
99 रस से रीता हूँ, रहा, ममता की ना गन्ध । सौरभ पीता हूँ सदा, समता का मकरन्द ॥
100 तव-मम तव-मम कब मिटे, तरतमता का नाश। अन्धकार गहरा रहा, सूर्योदय ना पास॥
101 बीना बारह क्षेत्र में, नदी बही सुख-चैन। ग्रीष्मकाल का योग है, मन लगता दिन-रैन।
102 गगन गन्ध गति गोत्र के, रंग पंचमी संग। सूर्योदय के उदय से, मम हो प्रभु सम रंग॥
अंकानां वामतो गतिः अनुसार गगन-0, गंध-2, गति-5,गोत्र-2
'सूर्योदयशतक' से साभार
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रजि. नं. UPHIN/2006/16750
अप्रैल 2008
वर्ष 7,
अङ्क 4
मासिक जिनभाषित
सम्पादक प्रो. रतनचन्द्र जैन
अन्तस्तत्त्व
पृष्ठ
कार्यालय ए/2, मानसरोवर, शाहपुरा भोपाल-462039 (म.प्र.) फोन नं. 0755-2424666
सहयोगी सम्पादक पं. मूलचन्द्र लुहाड़िया, मदनगंज किशनगढ़ पं. रतनलाल बैनाड़ा, आगरा डॉ. शीतलचन्द्र जैन, जयपुर डॉ. श्रेयांस कुमार जैन, बड़ौत प्रो. वृषभ प्रसाद जैन, लखनऊ डॉ. सुरेन्द्र जैन 'भारती', बुरहानपुर
शिरोमणि संरक्षक श्री रतनलाल कँवरलाल पाटनी
(मे. आर.के.मार्बल)
किशनगढ़ (राज.) श्री गणेश कुमार राणा, जयपुर
आचार्य श्री विद्यासागर जी के दोहे
आ.पृ. 2 • मुनि श्री क्षमासागर जी की कविताएँ
आ.पृ. 3 सम्पादकीय : जीवित किसलिए रहना है? प्रवचन
• परोन्मुखता ही परिग्रह है : आचार्य श्री विद्यासागर जी .लेख • वैशाली-जैसी सुनी, जैसी देखी, वैसी
: मुनि श्री प्रणम्यसागर जी • मारीच से महावीर : डॉ० राजेन्द्रकुमार वंसल मानवजीवन की सफलता : पण्डित होने से
: क्षुल्लक श्री शीतलसागर जी • अहिंसा और गाँधी : श्री बालगंगाधर जी तिलक जीवन का परामर्शदाता कैसा हो?
. : डॉ० वीरसागर जैन पारिवारिक एवं प्रोफेशनलक्षेत्र में महिलाओं की
भूमिका का समन्वय एवं सन्तुलन : श्रीमती विमला जैन । • विनाश के कगार पर विरासत
: शाहिद हुसैन/अनुवादक : एस०एल० जैन • जैनविद्या विश्वकोश : पं० मूलचन्द्र लुहाड़िया • जैन त्योहारों के दौरान पशुवध एवं माँस विक्रय पर
रोक जायज : सुप्रीम कोर्ट जिज्ञासा-समाधान : पं. रतनलाल बैनाड़ा कविता
तोते की मानिंद :: मनोज जैन 'मधुर' भजन
: विनोद कुमार 'नयन' समाचार
31, 32
प्रकाशक सर्वोदय जैन विद्यापीठ 1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी,
आगरा-282 002 (उ.प्र.) फोन : 0562-2851428, 2852278||
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वार्षिक
लेखक के विचारों से सम्पादक का सहमत होना आवश्यक नहीं है। 'जिनभाषित' से सम्बन्धित समस्त विवादों के लिये न्यायक्षेत्र भोपाल ही मान्य होगा।
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सम्पादकीय
जीवित किसलिए रहना है?
मित्रो! कभी आपने यह सोचा है कि इस दुनिया में जिन्दा रहकर हमें करना क्या है? वैसे हम बहुत से काम करते हैं, इतने कि फुरसत नहीं मिलती है। वेशुमार धन कमाते हैं, आलीशान कोठियाँ बनवाते हैं, बेटे-बेटियों की धूमधाम से शादियाँ करते हैं, इम्तहान पास करके ऊँची नौकरियाँ हासिल करते हैं या चुनाव जीतकर हुकूमत की कुर्सी पर बैठ जाते हैं, लेकिन ये तो सिर्फ जिन्दा रहने के लिए किये जानेवाले काम हैं या ज्यादा से ज्यादा जिन्दगी से मौत तक के रास्ते को सजा लेने के काम हैं, क्योंकि ये मूल प्रवृत्तियों या वासनाओं से प्रेरित होकर किये जाते हैं और मूलप्रवृत्तियों की प्रेरणा से किये जानेवाले काम जीवित रहने की प्रक्रिया के अङ्ग हैं। इनसे आदमियत में वृद्धि नहीं होती, मनुष्य में गुणात्मक सुधार नहीं होता, इंसान की 'क्वालिटी' इम्प्रूव्ह (improve) नहीं होती, व्यक्तित्व में अलौकिकता नहीं आती। दुनियाँ की कीमती और आकर्षक चीजों को अपने साथ जोड़ लेने से आदमी कीमती और आकर्षक नहीं बनता। स्वर्ण की लंका का अधिपति होने पर भी रावण 'राम' नहीं बन पाया। हलाकू, चंगेजखाँ ईदी अमीन बड़ी-बड़ी सल्तनतों के मालिक होकर भी भेड़िये ही बने रहे। दूध-मलाई खिलाने से किसी भी कुत्ते में आदमियत नहीं आ सकती, न ही विशाल भवन में बाँध देने से गधा घोड़े का रूप धारण कर सकता है। एक नीतिकार ने ठीक ही कहा है-“धुति सैंहीं न श्वा धृत-कनकमालोऽपि लभते" अर्थात् स्वर्णमाला धारण कर लेने पर भी कुत्ते में सिंह की तेजस्विता नहीं आ सकती। तो हम जितने भी सांसारिक कार्य करते हैं वे सिर्फ जिन्दा रहने के उपाय हैं, क्योंकि उन्हें किये बिना जिन्दा रहना मुश्किल होता है, हमारी मूलप्रवृत्तियाँ या वासनाएँ उन्हें करने के लिए तन-मन में पीड़ा उत्पन्न करती हैं। वे तन-मन की व्याधियों से क्षणिक राहत पाने की औषधियाँ हैं।
सवाल यह है कि इन उपायों के द्वारा जिन्दा रहकर करना क्या है? इसका जवाब एक महत्त्वपूर्ण तथ्य में झाँकने से मिलता है। हम देखते हैं कि दुनियाँ की वस्तुओं का असली रूप मूलतः अप्रकट अवस्था में रहता है, जो बड़ा सुन्दर तथा हृदयाह्लादक होता है। उसे मनुष्य वस्तुओं को तराश-तराश कर, माँज-माँज कर, तपा-तपा कर प्रकट करता है और प्रकट हो जाने पर उस हृदयाह्लादक रूप के कारण उन वस्तुओं से अपनी इन्द्रियों को संतृप्त करता है, अपने शरीर को, अपने घर को, अपने परिवेश को सजाता है। खान से जो स्वर्ण निकलता है वह उसका असली रूप नहीं है। असली रूप उसके भीतर अप्रकट अवस्था में मौजूद रहता है। जब स्वर्णकार अग्नि में तपाकर उसके मल को जला देता है तब स्वर्ण का असली रूप प्रकट होता है, जो इतना देदीप्यमान होता है कि वह आभूषण बनकर मनुष्य के शरीर की शोभा विस्तृत कर देता है। इसी प्रकार हीरे-जबाहरात भी जिस रूप में खान से निकलते हैं वह उनका असली रूप नहीं होता। असली रूप भीतर छिपा होता है। जौहरी खान से निकले हीरों को शाण पर तराश-तराश कर उनके असली रूप को प्रकट करता है, जो प्रकट होकर मनुष्य का बहुमूल्य आभूषण बन जाता है। फूल का मधुर गन्धमय असली रूप भी कली के भीतर बन्द होता है, जो कली के विकसित होने पर प्रकट होता है और नासिका को आप्यायित कर देता है। नवनीत दूध के भीतर प्रच्छन्न अवस्था में ही रहता है और मन्थन के बाद प्रकट होता है। वह इतना मधुर होता है कि उससे जिह्वा, घ्राण, नेत्र तथा स्पर्शन चार इन्द्रियों को एक साथ तृप्ति मिलती है। खेत से चावल अपने असली रूप में कभी प्राप्त नहीं होता। उसका वास्तविक रूप अनेक आवरणों में छिपा होता है। जब उसे मूसल से बार-बार कूटा जाता है, तब कहीं उसका नासिका और नेत्रों को आह्लादित करनेवाला उज्ज्वल, सुगन्धितरूप
2 अप्रैल 2008 जिनभाषित
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व्यक्त होता । पाषाणों में भी मनमोहक प्रतिमाओं के आकार छिपे रहते हैं, जिन्हें शिल्पी की सिद्धहस्त छैनी कलात्मक तक्षण द्वारा प्रकटकर दर्शकों के लोचनों को मुग्ध कर देती है। विविध वाद्यों में मधुर संगीत और मानवशरीर की गतियों में ललित नर्तन अप्रकट अवस्था में विद्यमान होता है, जिन्हें वादक और नर्तक कुशल अभ्यास से व्यक्त कर मानवहृदय में रस का संचार कर देते हैं।
ठीक इसी प्रकार मनुष्य भी अनादिकाल से जिस रूप में है, वह उसका असली रूप नहीं है। असली रूप उसके भीतर अप्रकट अवस्था में मौजूद है, जो अत्यन्त आनंदमय है । यह आत्मा की अनेक शक्तियों के रूप में अवस्थित है। ये शक्तियाँ अलौकिक और आनंदमय हैं। इनके अभिव्यक्त होने पर व्यक्ति में अलौकिकता आती है और जब ये पूर्णरूप से अभिव्यक्त हो जाती हैं, तब वह पूर्णतः अलौकिक बन जाता है, जिसे परमात्म अवस्था कहते हैं ।
इनकी अलौकिकता का लक्षण यह है कि इनके प्रकट होते ही बिना किसी लौकिक वस्तु का आश्रय लिये, मनुष्य की दुःखानुभूति नष्ट हो जाती है और उसे सुख का अनुभव होने लगता है तथा इस प्रक्रिया से एक दिन उसके जन्म-मरण के बन्धन टूट जाते हैं, शरीर से सदा के लिए सम्बन्ध छूट जाता है। फलस्वरूप वह शाश्वतरूप से दुःखमुक्त होकर सुखमय अवस्था में स्थित हो जाता है।
आत्मा की ये अलौकिक शक्तियाँ हैं- सम्यग्दर्शन, सांसारिक सुख में अनासक्ति, दुःख में अनुद्विग्नता, निर्भयता, वीरता, क्षमा, मार्दव, आर्जव, वात्सल्य, मैत्री, कारुण्य, संयम, तप, शुभध्यान आदि ।
हमारे दुःख का प्रधान कारण है अनादि अविद्या अर्थात् हमारे साथ अनादिकाल से संयुक्त मिथ्यात्व या अज्ञान। उसके प्रभाव से हमें संसार की वस्तुओं में सुख की भ्रान्ति, शरीर में स्वरूप की भ्रान्ति तथा शरीर से सम्बद्ध पदार्थों में अपनत्व की भ्रान्ति होती है जिसके कारण उनके प्रति आकर्षण उत्पन्न होता है और हम उनके अभाव में दुःखी होते हैं तथा उन्हें प्राप्त करने के लिए नाना प्रकार के दुःख उठाते हैं। संसार का नियम है कि मनुष्य को सांसारिक वस्तुओं की पूर्णरूप से प्राप्ति कभी नहीं होती और प्राप्त वस्तु स्थायी नहीं रहती। एक न एक वस्तु की कमी सदा बनी रहती है, जिसके कारण मनुष्य सदा एक न एक वस्तु के अभाव का दुःख अनुभव करता रहता है ।
सम्यग्दर्शन प्रकट होने पर संसार की वस्तुओं के विषय में उपर्युक्त भ्रान्तियाँ मिट जाती हैं अतएव उनके अभाव में दुःख नहीं होता । दुःख न होने से आत्मा का स्वभावभूत सुख प्रकट होकर अनुभव में आता । इस प्रकार एकमात्र सम्यग्दर्शनरूप आत्मशक्ति के अभिव्यक्त होने से ही व्यक्तित्व में अदृष्टपूर्व अलौकिकता एवं जीवन में अननुभूतपूर्व आनंद का आविर्भाव हो जाता है। अन्य शक्तियाँ अभिव्यक्त होकर क्रमशः इनका विस्तार करती जाती हैं। कुछ शक्तियाँ तो सम्यग्दर्शन के साथ ही प्रकट हो जाती हैं, अनेक आगे चलकर विशेष साधना द्वारा व्यक्त होती हैं ।
आत्मा के इस छिपे हुए असली रूप को प्रकट करना ही जीवन का प्रमुख कार्य है । जीवित रहकर एकमात्र यही कार्य करना जरूरी है। जिन्दा रहने का जो यह एकमात्र उद्देश्य है, उसकी पहचान न होने से हम केवल जिन्दा रहते हैं, जिन्दा रहने का मकसद पूरा नहीं कर पाते।
रतनचन्द्र जैन
पाँचों नौबत बाजते, होत छतीसों राग । सो मन्दिर खाली पड़े, बैठन लागे काग ॥ आस-पास जोधा खड़े, सभी बजावैं गाल । मंझ महल से ले चला, ऐसा काल कराल ॥ सन्त कबीर
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प्रवचन
परोन्मुखता ही परिग्रह है
आचार्य श्री विद्यासागर जी
आज तक जितने लोगों ने अपनी आत्मा को पवित्र | नहीं सकते इसी का नाम परिग्रह है। जिस प्रकार तप्त एवं पावन बनाया है वे सभी सिद्ध इसी एक महान् | लोहा यदि पानी से भरे पात्र में पटक दिया जाये तो अपरिग्रह महाव्रत का आधार लेकर ही बने हैं, उन्होंने | वह चारों ओर से पानी को चूस लेता है। उसी प्रकार मन-वचन-काय से इसकी सेवा की, परिणामस्वरूप उन्हें | आत्मतत्त्व के पास जो कोई भी गुण शक्तियाँ हैं वे सारी यह उपलब्धि हुई।
की सारी शक्तियाँ समाप्त प्रायः हो जाती हैं, उस परिग्रह अपरिग्रह महाव्रत, यह शब्द विधेयात्मक नहीं है, | के माध्यम से, वह परिग्रह है क्या बला? आचार्यों ने निषेधात्मक है। उपलब्धि दो प्रकार की हुआ करती है, | कहा कि- मूर्छा ही परिग्रह है। मात्र बाहरी पदार्थों का प्ररूपणा भी दो प्रकार की हुआ करती है- एक निषेध | | समूह परिग्रह नहीं है किन्तु उसके प्रति जो 'अटैचमेन्ट' मुखी और दूसरी विधिमुखी। अपरिग्रह महाव्रत विधिमुखी | है लगाव है, उसके प्रति जो रागानुभूति है जो उनमें नहीं है, निषेधमुखी है इससे बहुत ही सुलभता से हम | एकत्व की स्थापना करती जा रही है वह ऐसी स्थिति धर्म को जान सकते हैं।
में परिग्रह नाम पा जाती है। परिग्रह को अधर्म की कोटि में रखा है, अतः जहाँ पर आप रह रहे हैं, वहीं पर अर्हन्त परमेष्ठी अपरिग्रह स्वतः ही धर्म की कोटि में आ जाता है, जो | | रहेंगे, वहीं पर साधु परमेष्ठी रहेंगे, वहीं पर पुनीत आत्मायें अभी तक अपने को उपलब्ध नहीं हुआ है, उसका | रह रही हैं, किन्तु वह आपके लिये दु:ख का स्थान दर्शन, उसका परिचय, उसकी अनुभूति, उसकी संवेदना | बन जाता है और यही स्थान उन आत्माओं के लिए हमें आज तक नहीं हुई उसकी उपलब्धि हमें हुई ही | न सुख का कारण बनता है और न दुःख का, इससे नहीं, क्यों नहीं हुई? इसके लिये आचार्य कहते हैं कि- | प्रतीत होता है कि वह पदार्थ मात्र उन लोगों के लिये वह इसलिये उपलब्ध नहीं हुई क्योंकि उसका बाधक | दुःख का कारण नहीं है अपितु उसके प्रति जो मूर्छा तत्त्व विद्यमान है। धर्म व अधर्म एक साथ नहीं रह | भाव है वही हम लोगों के लिए परिग्रह है। इस आत्मा सकते। अन्धकार व प्रकाश एक साथ नहीं रह सकते, | का जो अनन्त बल है वह समाप्त हो चुका है। विशालकाय प्रकाश होने पर अन्धकार भागेगा, प्रकाश तिरोहित होगा, | हाथी बंध जाता है, कोई बाँधता है उसे? नहीं, वह खुद अन्धकार होने पर, दोनों एक साथ नहीं रहेंगे। इसी प्रकार | बंध जाता है, यह उसकी मूर्छा का परिणाम है, उसे परिग्रह महान् बाधक तत्त्व है. अन्य जितने भी बाधक कोई बाँध नहीं सकता। इसी प्रकार तीनों लोकों को जानने तत्त्व हैं उन सभी तत्त्वों को सही उत्पन्न करनेवाला | की शक्ति, अलोक को भी अपने ज्ञान का विषय बनाने है। महावीर भगवान् ने इसी को पाँच पापों का मूल की शक्ति इस आत्मा के पास विद्यमान है किन्तु मूर्च्छित सिद्ध किया है। संसार के सारे पाप इसी परिग्रह से | है, सुप्त है, वह अव्यक्त है, उसको कोई पकड़ नहीं उत्पन्न होते हैं।
सकता, किन्तु मूर्छा का प्रभाव उस पर पड़ चुका है यह आत्म-तत्त्व स्वतंत्र होते हुये भी यदि जकड़ा इसलिये वह शक्ति कुण्ठित है। मूर्छा परिग्रह है और हुआ है, बंधा हुआ है तो एकमात्र परिग्रह की डोरी | यह मूर्छा परिग्रह पाँचों पापों का मूलस्रोत है। आप हिंसा से। परिग्रह की व्युत्पत्ति, परिग्रह शब्द का निर्माण अपने | से परहेज कर सकते हैं, सत्य को अपना सकते हैं, आप में एक चिन्तनीय है। आप लोगों की दृष्टि में | चोरी नहीं करूँगा। इस प्रकार का दृढ़संकल्प भी ले अभी तक समझ में आया होगा कि परिग्रह का अर्थ | सकते हैं और लौकिक ब्रह्मचर्य के लिये भी आप स्वीकृति ग्रहण होता है किन्तु ऐसा नहीं, बल्कि आत्मा को जो दे सकते हैं, किन्तु एक सूत्र तो आप अपने हाथ में चारों ओर से पकड़े उसको परिग्रह कहा, आत्मा परिग्रह | रख ही लेते हैं और वह है... बस महाराज आगे मत को पकड़ नहीं सकता किन्तु परिग्रह आत्मा को पकड़ | बढ़ाइये, यह पूर्ण हो जायेगा तो बिल्कुल ही समाप्त हो लेता है। वह आत्मा बंध जाता है। उसको आप बाँध | जाऊँगा मैं, और परिग्रह को आप विशेष रूप से मजबूती 4 अप्रैल 2008 जिनभाषित
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के साथ सुरक्षित रख सकेंगे और रख रहे हैं। । किन्तु अन्दर से आप कितने चिपके हुए हैं? बचपन
आज हिंसक का अनादर हो सकता है, झूठ बोलने | की घटना है। मैं एक आम्र वृक्ष के नीचे बैठा था, वाले का हो सकता है और चोर का भी हो सकता | वृक्ष में आम लगे हुये थे, गुच्छे के गुच्छे, ऊपर की है किन्तु परिग्रही का आदर होता है, जितना परिग्रह बढ़ेगा | ओर देख, पेड़ बहुत ऊँचा था, बैठे-बैठे इधर-उधर देखा, उतना ही वह शिखर पर पहुँच जायेगा, जो कि धर्म | तीन-चार पत्थर पड़े थे, उनको उठाया और निशाना देखकर
ये सही नहीं है। धर्म कहता है कि यह हिंसा | मारना प्रारम्भ कर दिया, पत्थर फेंका, वह जाकर आम का समर्थन है, यह चोरी का समर्थन है, यह झूठ का, | को लग गया। मैंने सोचा चलो एक आम्र फल नीचे असत्य का समर्थन है, और कुशील का समर्थन है। आ ही गया अब तो, किन्तु आम नहीं उसकी एक कोर आप चाहते हैं धर्म, किन्तु (परिग्रह को) छोड़ना नहीं | टूट कर आ गयी। यह आम की ओर से सूचना थी चाहते इसलिये ऐसा लगता है कि आप धर्म को नहीं कि मैं इस प्रकार छोड़ने वाला नहीं हूँ, इस प्रकार टूटने चाहते। आपका कहना हो सकता है कि सारे-के सारे | वाला नहीं हूँ, मेरे पास बहत शक्ति है। उसका डण्ठल निष्परिग्रही हो जायें तो जो निष्परिग्रही हो गये उनको | बहुत पतला है लेकिन उसमें बहुत शक्ति थी। वह इतने आहारदान कौन देगा? आप शायद इसी चिन्ता में लीन | पत्थर से गिरने वाला नहीं है। मैंने भी सोचा कि देखें
तो इसकी शक्ति अधिक है या मेरी, एक पत्थर और ___अनन्तकालीन खुराक को प्राप्त कर लेगा, तृप्त | मारा तो उसकी एक कोर और आ गई, वह कोर-कोर हो जायेगा, शान्त हो जायेगा वह आत्मा, जो परिग्रह से | करके समाप्त हो गया किन्तु फिर भी उसका जो मध्य मुक्त हो जाता है। उस मूर्छारूपी अग्नि के माध्यम से | भाग था वह नहीं छूटा। पर्याप्त था मेरे लिये वह बोध आपकी आत्मा तप्त है, तपा हुआ है और उसके (मूर्छा | जो उस आम्र की ओर से प्राप्त हुआ बाहरी पदार्थों से के) माध्यम से विश्व में जो कोई भी हेय पदार्थ हैं, | आप लोगों की इतनी ही मूर्छा हो गयी कि हम खींचना वे सबके सब चिपक गये हैं और आत्मा की शक्ति | चाहें, हम उसको तोड़ना चाहें तो आप उसे तोड़ने नहीं प्रायः समाप्त हो गयी है, हाँ इतना अवश्य है कि बिल्कुल | देंगे और यह कह देंगे कि महाराज! आप भले एक समाप्त नहीं हुई है। आकाश में बादल छाये है, सूर्य | दिन के लिये तोड़ दें पर हम तो वहीं पर जाकर चिपक की किरणें तो नहीं आई किन्तु ध्यान रहे कि उन बादलों | जायेंगे। यह स्थिति है आप लोगों की। इसलिये यह अन्तिम को चीरते हय प्रकाश तो आ रहा है। उजाला तो आ| अपरिग्रह नामक महाव्रत रखा और भगवान ने उपदेश ही रहा है और दिन उग गया. यह भान सबको हो| भी दिया कि संसार का उद्धार हमारे हाथ में नहीं है। गया है। इसी प्रकार आत्मा के पास जो मूलतः शक्ति जब मैं उस आम्र वृक्ष के नीचे चिन्तन में लीन था. है वह बाहरी पदार्थों के माध्यम से तीन काल में भी उसी समय थोडा सा हवा का झोका आया और एक लुट नहीं सकती। इस प्रकार के पदार्थों के माध्यम से पका हुआ आम्र चरणों में समर्पित हो गया, उसकी महक वह मूर्च्छित तो हो सकती है किन्तु पूर्ण समाप्त नहीं सुगन्धि फैल रही थी, वह पका हुआ था, हरा नहीं था, हो सकती, अभी उसकी भाषा रुक जाती है, उसकी | पीला था, कड़ा नहीं था, मुलायम था, और इससे अनुमान काया में स्पन्दन रुक जाता है, सब रुक सकता है किन्तु लगाया कि खट्टा भी नहीं होगा, मीठा होगा और चूसने वह नाड़ी तो धड़कती ही रहती है। इसी प्रकार इस | लगा, आनन्द की अनुभूति आ गयी इसमें कोई सन्देह मूर्छा का प्रभाव आत्मा पर पड़ तो चुका है और इतना | नहीं। थोड़ा-सा हवा का झोंका भी उसके लिये पर्याप्त गहरा पड़ चुका है कि वह निश्चेष्ट हो चुका है किन्तु | रहा। दो-तीन-चार महीने से लगा हुआ जो सम्बन्ध था फिर भी उस घट में श्वास विद्यमान है। वह कुछ न | उस सम्बन्ध को छोड़ने के लिये तैयार हो गया। सामनेवाले कुछ संवेदन कर रहा है। और इसी से यह आशा है | अन्य आम्र जो पके हुये नहीं दिखते, क्योंकि डण्ठल कि यह मूर्छा अवश्य हट सकती है, इसका इलाज | को छोड़ना नहीं चाहते और इस ओर आना नहीं चाहते, हो सकता है।
बात तो ठीक है, खींचकर ले भी लिया जाये तो उनमें बाहर से दिखता है कि आप परिग्रह से नहीं चिपके | मिठास तो होगी नहीं, कड़वापन या खट्टापन ही मिलेगा।
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उसका अचार भले ही बना दो, कैरी का झोल भले । होता है कि एक-दो आम को पहले तोड़कर देख लेता ही बना दो पर आमरस तो नहीं मिलेगा। आम में दो | है कि उसमें कुछ हल्की सी रेखायें फूटती सी नजर रस हैं, एक कैरी अवस्था का रस जो लू को निकालने | आ रही हैं कि नहीं। तब माली सोचता है कि- हाँ का कारण बन जाता है और दूसरा आम अवस्था का | अब यह पाल में पकाया जा सकता है किन्तु नमूना रस जो भूख मिटाने का कारण बनता है, उसका अनुभव- | देखे बिना वह तोड़ता नहीं है यह भी ध्यान रखो मान अनुभव ही है।
ले कि उस पेड़ पर बहुत सारे बन्दर बैठे हैं, वह माली आप बाजार में ढूंढ-ढूंढ़ कर आमों को देखते | उन कच्चे फलों को तोड़कर पकाने की चेष्टा नहीं करेगा, हैं, भैया खट्टा नहीं होना चाहिये, हरा भी नहीं होना | वह बन्दरों को तो भगायेगा किन्त आमों को (कच्चे होने चाहिये, मुलायम होना चाहिये, ताजा होना चाहिये। आपने | के कारण) पकायेगा नहीं क्योंकि वे पक नहीं सकते। कभी अनुभव किया है कि उस आम ने वृक्ष से सब | इसी प्रकार मैं आप लोगों के साथ जबरदस्ती नहीं कर सम्बन्ध तोड़ दिया, ऊपर से दीखता मात्र है कि सम्बन्ध | रहा हूँ कि पकड़-पकड़ कर पकाना चाहूँ। आप पकेंगे जुड़ा हुआ था किन्तु वृक्ष से पूर्ण पृथक् हो जाता है | ही नहीं। जिस आम में हल्की रेखायें नहीं फूटती उसे उस समय वह नीचे की ओर आ जाता है। एक समय | यदि पकाना चाहें तो वह उस उष्णता के माध्यम से ऐसा भी आता है कि जब हवा न लगे तो भी वह | | मुलायम तो हो सकता है किन्तु खट्टापन नहीं जायेगा उससे पृथक् हो जाता है जो कि सम्पृक्त था। समय | और खट्टापन नहीं जायेगा तो उसमें आनन्द नहीं आयेगा। की बड़ी महत्ता है। समय पर बीज पका करता है ठीक | अभी आपका डण्ठल जोरदार है, मजबूत है, कैसे तोडू है महाराज! आपके उपदेशों की क्या आवश्कता है? | आम को? महाराज! कुछ ऐसे प्रवचन सुनाओं ताकि पक हम समय पर अपने आप पकेंगे ही और हो जायेगा | जायें। कैसे पक जायें भैया? पत्थर के बिना, हवा से काम। यह ठीक है भैया, समय पर काम होगा। आम | हिलने से वह आम गिर गया और इतनी बड़ी सभा की मंजरी आती है, उस समय आम लगते हैं पर उस | में कोई भी पकने को नहीं आया? पकने को आया समय पकते नहीं हैं. पकाना चाहें तो भी नहीं पकते, | होता तो हवा (प्रवचन) लगने की कोई आवश्यकता उसके लिये अभी दो माह आवश्यक हैं। दो माह के | भी नहीं रहती वह अपने आप ही यहाँ पर आ जाता। समय को वह जब तक व्यतीत नहीं करेगा तब तक | अर्थापत्ति न्याय से सिद्ध है कि अभी पकने के लिये आम पकेगा नहीं। किन्तु ध्यान रहे, दो माह में वह पक | नहीं आये। हम तोड़ेंगे नहीं भैया! यह कह सकते हैं भी जाये यह नियम नहीं है, क्योंकि उसके लिये उष्णता | कि कुछ समय के उपरान्त पक सकते हो। समय तो की आवश्यकता है, अनुकूल वातावरण की आवश्यकता | आयेगा ही. जब आप यहाँ तक आये हैं तो मैं कैसे है, तब ही वह पक सकता है पर साथ में यह भी | कहूँ कि आप में पकने की योग्यता नहीं है, पर अभी ध्यान रहे कि डण्ठल के ऊपर रहेगा तो ही पकेगा।| नहीं है। उसकी योग्यता, दो माह तक वह वहाँ रहे तभी अभिव्यक्त | मोह महा मद पियो अनादि, भूल आपको भरमत वादि। हो सकती है, तभी पकने की योग्यता आ सकती है, आप लोगों ने निजी सत्ता के महत्त्व को भुला किन्तु यह बात भी है कि दो माह के भीतर भी पक | दिया यही गलती हो गयी, फलतः हमारी निधि लुट सकता है, वह कैसे? डेढ़ माह गुजर जाये उसके पश्चात् | गयी। आप आनन्द की अनुभूति चाहते हुये भी चाह दस-बीस दिन शेष रहें उस समय उसे हम अपनी तरफ | रहे है कि वह कहीं बाहर से मिल जाये। पर बाहर से तोड़कर पका सकते हैं और वह पक भी सकता | से कभी आने वाली नहीं है। वह बहार अपने अन्दर है, उसमें उसी प्रकार का रस प्रादुर्भाव हो सकता है, | है। बसन्त की बहार बाहर नहीं है अन्दर ही है। अन्धा यह ध्यान रहे कि वहाँ पर उसकी योग्यता आ चुकी | क्या जाने बसन्त की बहार? बसन्त की बहार बाहर चारों थी, पकाने से पक जाने की, तभी वह पक सका अन्यथा | ओर है किन्तु अन्धे के लिये नहीं है। इसका अर्थ हुआ नहीं पक सकता था। मैं कैसे पकाऊँ आप लोगों को? | कि आँखों वालों के लिये ही बसन्त की बहार है। किन्तु पाल-विषै माली कहा तो है पर वह माली इतना होशियार | जिसके आँख होकर भी पीड़ा है उसके लिये बसन्त
6 अप्रैल 2008 जिनभाषित
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की बहार नहीं है। यदि पीड़ा भी नहीं है बिल्कुल अच्छी। होना चाहते हो? हाँ होना तो चाहता हूँ। भक्त ने कहाज्योति है किन्तु फिर भी कुछ लोगों के लिये बसन्त | मुझे भगवान् ने भेजा है, चलो तुम स्वर्ग चलो, वहाँ नहीं है। ऐसा क्यों? हम अभी अस्पताल की ओर जा | पर सुख ही सुख है दुःख है ही नहीं चारों ओर बसन्त रहे थे. वहीं पर एक बगीचा पडता है। जिसको अस्पताल | की बहार है। कत्ते ने कहा- बहत अच्छा। पर यह तो में भरती होना है और जिसका सम्बन्धी वहीं भरती है| बताओं स्वर्ग है कहाँ पर? भक्त ने उत्तर दिया- बहुत वह भी उसी बगीचे में से जा रहा है, हम भी उस | ऊपर सबसे ऊपर। मैं तुम्हे लेने आया हूँ। कुत्ते ने कहाबगीचे में से जा रहे हैं किन्तु उसके लिए वहाँ बहार | चलो मुझे स्वर्ग ले चलो। नहीं है, उसका उपयोग बहुत दयनीय है, पीड़ित है, पर यह बताओं कि वहाँ पर रहने को मकान दुःखित है। बसन्त की बहार बाहर से नहीं आती अपितु | है कि नहीं, यह वस्तु है कि नहीं, वह वस्तु है कि अन्दर से आती है। उस उपयोग में एक प्रकार की | नहीं? कुत्ता एक-एक वस्तु के बारे में पूछता जा रहा जो मूर्छा छाई है, वह मूर्छा टूट जाये बस वहीं पर | था और वह भक्त उसे आश्वस्त करता जा रहा था। बसन्त बहार है।
कुत्ते ने आश्वस्त होकर कहा-ठीक है, किन्तु एक बात ___ एक किंवदन्ति है- एक बार भगवान् ने भक्त की | और पूछनी है कि स्वर्ग में गन्दा नाला है कि नहीं? भक्ति पर प्रभावित होकर उससे पूछा- तू क्या चाहता | वह कहता है कि यह गन्दा नाला तो यहाँ की देन है, है? भक्त ने उत्तर दिया कि मैं और कुछ नहीं चाहता, | वहाँ स्वर्ग में नहीं है। कुत्ता बोला-नाला नहीं है तो फिर बस यही चाहता हूँ कि दुःखियों का दुःख दूर हो जाये।| क्या है? फिर तो मुझे यहीं पर रहने दो, यहाँ पर शांति भगवान् ने कहा- तथाऽस्तु! किन्तु यह ध्यान रहे कि | की ठण्डी-ठण्डी लहरें आ रही हैं। जो सबसे अधिक दुःखी है सर्वप्रथम उसको यहाँ लेकर आप लोगों से भी जयपुर की नाली छूटेगी नहीं आना होगा। भक्त ने स्वीकार कर लिया, पर यह वरदान | इसलिये मैं आप से कह रहा हूँ, कोई जबरदस्ती नहीं तो दीजिये कि मैं जिस किसी दुःखी को लेकर आऊँगा | कर रहा। सबसे अधिक दुःखी के मुख से भी यही उसको आप सुखी बनायेंगे। भगवान् ने उत्तर दिया अवश्य | वाणी सुनेंगे कि यहाँ से छुटकारा नहीं चाहेंगे, बल्कि बनायेंगे, किन्तु सबसे अधिक दुःखी होना चाहिए। वह | यही माँग करेंगे कि यहाँ से ट्रांसफर न हो, हम यही भक्त बहुत दिन की भक्ति के पश्चात् आज बहुत खुश | पर बने रहें। रहस्य समझ में नहीं आ रहा। कैसे कहूँ है कि इतने दिनों की भक्ति उपरान्त यह वरदान मिल | कि आप सुख चाहते हैं? यह परिग्रह का परिणाम है गया।
कि आप उसके माध्यम से जकड़ चुके हैं चारों ओर बहुत अच्छा हुआ अब मैं दुनियाँ को सुखी कर | से जो आत्मा को खींच लेता है उसका नाम परिग्रह दूंगा, सारी दुनियाँ, दु:खी है। पर भगवान् की यह शर्त | है। इसलिये आचार्यों ने, पण्डितों ने विद्वानों ने कहा है कि सबसे अधिक दुःखी को ही पकड कर लाना।| किभक्त दु:खी तलाश करता जाता है। एक-एक व्यक्ति को
'गृह कारागृह वनिता बेड़ी, परिजन हैं रखवारे' पूछता जाता है, सब कहते हैं कि- और तो सब कुछ घर तो कारागृह है, वनिता बेडी है और जो बन्धुवर ठीक है, बस एक कमी है, कोई पुत्र की कमी बताता | हैं वे आप लोगों के गुप्तचर हैं। आप कहीं जायें तो तो कोई धन की, कोई किसी चीज की तो कोई किसी | वे पूछते हैं कि कहाँ जा रहे हैं? आप कहें कि- अभी चीज की, पर मुझे पूर्ण कमी है, ऐसा किसी ने नहीं | आता हूँ। तो ठीक है, किन्तु पूछेगे अवश्य, आप छूट बताया। चलते-चलते उसने देखा कि एक कुत्ता नाली | नहीं सकते। इस प्रकार का मोहजाल है। वह आपकी में पड़ा तड़फ रहा है, वह मरणोन्मुख है। वह उससे | आत्मा को अन्दर जकड़ता जा रहा है, अनुबन्ध होता जाकर पुछता है कि- क्यों क्या हो रहा है? कुत्ता कहता चला जा रहा है और उसी जाल में वह फँस करके है- मैं बहुत दुःखी हूँ बस भगवान् का भजन करना | समाप्त होता जा रहा है। चाहता हूँ। भक्त ने सोचा- ये दुःखी है, बस अब पकड़ मूर्छा का उदाहरण रेशम का कीड़ा है, जो अपने में आ गया, उसने कुत्ते से पूछा- क्यों दुःख से निवृत्त | मुख से लार उगलता रहता है और उस लार के माध्यम
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से वह अपने आपके शरीर को वेष्टित करता चला जाता । से, कितनी शक्ति आ जाती है, कितना धैर्य हो जाता है। रेशम के कीड़ों को पालनेवाले जो व्यक्ति हैं, वे | है। हम लोगों ने सोचा था कि कर्म तो बहुत दिन के उनको, जब वे पूर्णरूप से वेष्टित हो चकते हैं तब | हैं और उनको समाप्त करना बहत कठिन है. हम तो उन्हें उबलते हुए पानी में डाल देते हैं, वह लार रेशम | इनके नौकर रहेंगे, चाकर रहेंगे, ये तो मिटने वाला नहीं के रूप में परिवर्तित हो जाता है और रेशम के कीड़े | है। संसार में सबसे अधिक कमजोर पदार्थ है तो वह को जिन्दगी से हाथ धोना पड़ता है। ध्यान रहे कि रेशम 'मोह' है। यह तो आप लोगों की कमजोरी है मन के के कीड़ों को पालनेवाले व्यक्ति उसकी लार को मुख | हारे हार है और मन के जीते जीत। आप डर जाते में से बहा नहीं सकते, उसको खुराक खिलाते चले जाते हैं और वह मोह कुछ संवेदन ही नहीं कर पाता। यदि हैं, और वह स्वयं लार उगलता चला जाता है। यह | आप उसे भगाना चाहें तो वह भाग सकता है, आप उसकी ही गलती है, उसका ही दोष है, अपराध है। उसे रोकना चाहें तो वह रुक सकता है, वह अपनी उसे कोई बांधने वाला नहीं है। जब तक वह लार नहीं | तरफ से कुछ भी तो नहीं करता है। उगलता तब तक कोई उसे उबलते हुए पानी में पटकता | आपके मकान की दीवार से हवा टकराती हुई भी नहीं है।
जा रही है किन्तु वह क्या वहाँ पर रुक रही है? रुक आत्मा प्रत्येक समय मोह, राग, द्वेष, मद, मत्सर | नहीं सकती. चाहें तो भी रुक नहीं सकती। किन्त आप के माध्यम से अपने आपके परिणामों को विकृत बनाता वहाँ पर थोड़ी-सी चिकनाहट रख दीजिये, वहाँ पर हवा चला जा रहा है और फलस्वरूप वहाँ पर कर्म-वर्गणायें के माध्यम से धूलि कण उड़कर आयेंगे ओर चिपक आकर के चिपकती चली जा रही हैं, यह अनन्तकालीन | जायेंगे। यह चिकनाहट की देन है, धूलि की देन नहीं परम्परा अक्षुण्ण चल रही है। आत्मा को न कोई दसरा | है। आप नित्य ही राग-द्वेष मोह मत्सर करते चले जा सुखी बना सकता है, न कोई दूसरा इसको दुःखी बना | रहे हैं, अपने परिणामों को विकृत बनाते चले जा रहे सकता है। यह स्वयं ही सुखी बन सकता है और स्वयं | हैं। इसलिये और नये-नये कर्म आते जा रहे हैं। ध्यान ही दुःखी बन सकता है। यह आत्मा का स्वभाव है | रखिये कि आने की परम्परा टूटी नहीं है इसलिये प्रतीति पर यह अनन्तकाल से इस जाल में फँसा हुआ है तथापि | में आ रहा है कि बहुत दिन की यह धारा टूटेगी नहीं, किसी अन्य सत्ता के माध्यम से पूर्ण समाप्त नहीं हुआ। | ऐसा नहीं है। कर्म बहुत सीमित हैं किन्तु आगे का कोई यह अजर है, अमर है, काल अनन्त है तो आत्मा भी | अन्त नहीं है हम यदि इसी प्रकार करते चले जायेंगे अनन्त है. वह नहीं मिटेगा तो वह भी नहीं मिटेगा। | तो यह सिलसिला टटने वाला नहीं है क्योंकि यह एक क्या यह संसार भी मिटने वाला नहीं है? नहीं, मिटाना | घुमावदार (सर्किल) रास्ता है। है तो एक ही मील का चाहें तो मिट सकता है। राग-द्वेष मोह मिटाये जा सकते | किन्तु घुमावदार होने के कारण सुबह से लेकर शाम हैं किन्तु आत्मा को मिटाने वाला कोई नहीं है। आत्मा | तक चलते चलो तो भी ज्ञान नहीं होता कि कितने चले, मिट नहीं सकती। इससे कुछ बल मिल जाता है कि कितने नहीं चलें, चला तो एक ही मील है, सफर तो हाँ कुछ सम्भाव्य है, कुछ गुंजाइश है उन्नति के लिये, | एक मील का तय हुआ सुबह से लेकर शाम तक, किन्तु चाहना बहुत कठिन है। आप प्रत्येक पदार्थ को | यह तेली के बैल की चाल है। चाह रहे हैं किन्तु निजी पदार्थ की चाह आज तक उद्भूत प्रायः तेली के बैल को कोल्हू से बाँध दिया जाता नहीं हुई। यह मोह ही ऐसा है, क्या करें महाराज! ध्यान | है। आँखे बन्द कर दी जाती है। बैल सोचने लगता रहे, मोह जड़ है और आप चेतन हैं, यह मोह आपको | है कि सुबह से लेकर शाम तक मेरा सफर तय हो प्रभावित नहीं करता अपितु आप मोह से प्रभावित होते | रहा है, शाम को तो कोई अच्छा स्थान मिल ही जायेगा, हैं। तो क्या करें? अतीत में बंधा हुआ जो मोहकर्म | बहुत चलकर आ रहा हूँ। पर शाम को जब पट्टी हटती है ध्यान रहे कि वह अनन्त नहीं है, अतः उसे नष्ट | है तब ज्ञात होता है कि- मैं तो वहीं पर हूँ जहाँ पर करने का प्रयास करें।
कितना बल मिल जाता है साहित्य को देखने अर्जित कर्म बहुत सीमित हैं और संकल्प अनन्त
था।
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हैं। तेरे-मेरे के संकल्प यदि टूट जायें तो अन्दर जो । में जो कोई भी घटना घटी है उसको वह अपनी आँखों कर्म हैं वह (बिल्कुल उदासीन हैं वे) उदय में आयें | के माध्यम से देख सकता है और वह आनन्द के साथ और फल देकर या फल न देकर भी जा सकते हैं।| रहता है। उसे कोई दु:खी नहीं बना सकता। सुख और तूने किया विगत में कुछ पुण्य पाप,
दुःख मात्र मोहनीय कर्म की परिणति हैं। आत्मा मोह जो आ रहा उदय में स्वयमेव आप।
में ही अपने आपको सुखी-दुःखी मान लेता है। होगा न बंध तबलौं जबलौं न राग,
मैं सुखी दुःखी, मैं रंक राव, चिन्ता नहीं उदय से, बन वीतराग।
मेरे धन गृह गोधन प्रभाव, (निजानुभव शतक)
मेरे सुत तिय मैं सबल दीन, बंध व्यवस्था को जानने से यह विदित होता है
बेरूप सुभग मूरख प्रवीण ॥ (छहढाला) कि अज्ञानदशा में मोह के वशीभूत होकर जो कर्म किया इसमें सन्देह नहीं है कि, यह जीव अपनेरूप को है, उसका उदय चल रहा है किन्तु उदय अपने लिये | अनेक प्रकार से मानता चला आ रहा है और यह सारा बंधनकारक नहीं है अपितु उदय से प्रभावित होना हमारे | अपना ही अज्ञान है। इस रूप नहीं है फिर भी मानता लिये बंधनकारक है, उस उदय से प्रभावित होना हमारी | जा रहा है। आप भले ही ऊपर से कहो कि हम मानते कमजोरी है, पर यदि इस उदय से हम प्रभावित न | नहीं हैं किन्तु नहीं मानते हुये भी आप माने बिना भी हों तो ध्यान रहे कि वह जो उदय में आ रहा है वह | नहीं रहते। जा रहा है। मैं जा रहा हूँ- यह सूचना वह कर्म दे| मैं कैसे आपको सुख दूँ? सुख देनेवाला मैं कौन रहा है जो उदय में आ रहा है। वह अब तुम्हारे घर | हो सकता हूँ? किन्तु बता सकता हूँ। यदि आप दुःखी में नहीं रह सकता क्योंकि उसमें जो चिकनाहट थी, | हैं तो चलिये मेरे साथ स्वर्ग किन्तु कुत्ता कहता है कि
जो स्थिति पड़ गई थी वह चिकनाहट समाप्त हो गयी। और कुछ नहीं चाहिये वहाँ पर गंदा नाला हो तो बुलायें -अब यह धूलि के कण दीवार से खिसक जायेंगे, खिसकने | अन्यथा नहीं। ठीक है, वहाँ पर जब नाला नहीं है तो
का नाम ही उदय है। उस उदय में यदि आपका होश | फिर स्वर्ग ही काहे का? इसी प्रकार आप लोग भी ठीक है तो ठीक, अन्यथा वह दूसरी संतान पैदा करके | यही कहते हैं कि मुक्ति तो दे दो किन्तु मुक्ति में क्याचला जायेगा। यह संतान परम्परा भोगभूमि की है। मोह | क्या है? आप उस कुत्ते के समान यह भी पूछेगे, आप का कार्य भोगभूमि की संतान जैसा है, जब तक मोह | लोगों को जिसमें रस आ रहा है उसी को तो पूछेगे। सत्ता में है तब तक उसका कोई प्रभाव उपयोग पर | किन्तु वह बाहर का रस, रस नहीं है, वह नीरस है, नहीं है किन्तु जब उदय में आता है उस समय रागी- | क्योंकि न तो उसमें संवेदन है, न उसमें ज्ञान है, न द्वेषी संसारी प्राणी उससे प्रभावित हो जाता है, इसलिये | उसमें आत्मतत्त्व है, अपितु अचेतन है, मात्र पुद्गल की वह अपनी संतान छोड़कर चला जाता है। | परिणति है, पर में सुख मानना ही परिग्रह को अपनाना
भोगभूमि काल में पल्योपमों तक जोड़े कामभोग | है और स्व में सुख मानना ही परिग्रह को लात मारना करते रहते हैं, किंतु संतान की प्राप्ति नहीं होगी, अन्त | है। में ये नियमरूप से एक जोड़ा छोड़कर चले जाते हैं। अरब देशों में बहुत सम्पदा है। एक बार वहाँ इसी प्रकार आपका अनादिकाल का जो मोह है वह के कुछ श्रीमान् यहाँ भ्रमण हेतु आये। वे यहाँ किसी जब उदय में आता है, तब आप रागी-द्वेषी बन जाते | रेस्ट हाऊस में ठहर गये वहाँ उनका सब प्रकार का हैं इसलिये दूसरी संतान पैदा हो जाती है
प्रबन्ध हो गया। गर्मी का मौसम था अतः एक दिन चिन्ता नहीं उदय से बन वीतराग,
में तीन बार स्नान की भी व्यवस्था की गयी। अरब होगा न बंध तबलौं जबलौं न राग।
देशों में पानी का बहुत अभाव है और यहाँ पर इतना जिनेन्द्र भगवान् का मुख्य उपदेश है कि राग | पानी कि एक दिन में तीन बार नहाने की व्यवस्था हो करनेवाला बंध को प्राप्त करता है, द्वेष करनेवाला बंध | गयी। वहाँ पेट्रोल अधिक मिलता है। इस समय उनके को प्राप्त होता है किन्तु वीतरागी को कोई नहीं बाँध | लिये पेट्रोल से भी महत्त्वपूर्ण जल था। एक व्यक्ति ने सकता, बल्कि बंधे हुये को वह देख सकता है। अतीत | देखा कि लूंटी को थोड़ा घुमा देने मात्र से खूब तेजी
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से पानी आ जाता है, उसने सोचा-अरे! यहा तो बहुत | रखा है और उसके माध्यम से सुख चाहता है, शांति अच्छा है, उसने वह लेना चाहा जब रेस्ट हाऊस का | चाहता है। मकान एक ढूंटी, स्कूटर एक ढूंटी, ट्रांजिस्टर , नौकर इधर-उधर हुआ, तो उसने वह टूटी खोलकर | एक टूटी, फ्रिज एक ढूंटी। आप लोगों ने ढूंटियों में अपने बैग में छिपा ली। नौकर आया तो टूटी नहीं थी, | जीवन व्यतीत कर दिया। इसमें से सुख थोड़े ही आने उसे अरब व्यक्ति पर सन्देह हो आया, उससे पूछा कि- वाला है, यदि आता तो आ जाता आज तक। आप एक बताओ दूंटी कहाँ है? यात्री डर गया, उसने कहा- किसी | ही ढूंटी नहीं खरीदना चाहते बल्कि सारी सम्पत्ति लगाकर को बनाना मत जो चाहो सो ले लो। नौकर ने कहा | खरीदते ही चले जाते है, खरीदते चले जा रहे हैं, और क्या आपको यह ढूंटी चाहिये? इस ढूंटी की कीमत | भगवान् ऊपर से हँसते चले जा रहे हैं। बीस रुपये है। यात्री ने कहा- तुम मुझ से चालीस रुपये आप दूसरों के जीवन की ओर मत देखो! हमारा ले लो। नौकर ने सोचा- इस पर कोई सनक सवार | | अपना जीवन कितना अंध-रूढ़ियों के साथ चल रहा हो गई। उसने यात्री से पूछा- क्या और ढूंटी चाहिये? | है? कुछ हमारा भी विवेक है, कुछ हमारी भी बुद्धि हमारे पास और भी हैं, पर अब प्रत्येक ढूंटी की कीमत | है, हम यह सोचते भी हैं, कि क्या हम जो कर रहे
त्री ने कहा- हाँ, हाँ, सौ-सौ रुपया | हैं, वह ठीक है? कुछ भी नहीं सोचते। टूंटी के माध्यम ले लो, पर मुझे एक दर्जन ट्रंटिया ला दो। वह नौकर | से आप कछ चाहते हैं. यहाँ भी आपने कछ टंटियों भी चमन हो गया, और वह यात्री भी। उसने सब टंटियाँ (टेपरिर्काडर) अपने सामने रखी हैं, ये भी टंटी हैं क्योंकि बैग में छिपा लीं। रात्रि में जब सब साथी सो गये तो | इसमें से आप महाराज का प्रवचन फिर सुनेंगे, घर जाकर चुपके से एक ढूंटी निकाली और उसे घुमाया, यह क्या, | सुनेंगे। पर ध्यान रखना, सुख इसमें नहीं है, पर पानी उसमें से तो पानी ही नहीं निकला। यह क्या बात हुई? के पीछे कोई भी नहीं पड़ा। पानी ट्रंटियों में नहीं, पानी उसने दूसरी ढूंटी को परखा तीसरी को, चौथी को, इस | कुँओं में है उसमें ढूंटी मत लगाओ ऐसे ही कूद जाओ प्रकार सब टूंटियों को परखा पर पानी किसी में न आया। | तो बहुत आनन्द आयेगा। टूटी लगाने का अर्थ है कंट्रोल, ओफ ओहो! मेरा तो सारा पैसा भी खत्म हो गया और | सीमित करना। अन्दर सरोवर लहरा रहा है उसमें कूद यह किसी काम की भी न रही। उसका एक साथी | जाओ तो सारा जीवन शान्त हो जाये। चद्दर ओढ़कर सोने की मुद्रा में पड़ा था और जाग इसलिये मैं आपसे यही कहना चाहूँगा कि यह रहा था, वह यह सब देख रहा था उसने क- | स्वर्ण अवसर है, मानव को उन्नति की ओर जाने के तुम यह क्या पागलपन कर रहे थे? यात्री बोला- आज | लिए, इन सब उपकरणों को छोड़कर एक बार मात्र मेरे साथ अन्याय हो गया? क्यों क्या बात हो गई? बात | अपनी निज सत्ता का अनुभव करें, उसी में लीन होने यह हई कि ट्रंटी में से पानी आता देखकर मैंने सोचा | का प्रयास करे तो इसी से सुख एवं शांति की उपलब्धि कि हमारे यहाँ पानी की बहुत कमी है, अभाव है, हम | हो सकती है। दुनिया में अन्य कोई भी सुख-शांति देने सब ढूंटियाँ खरीद लें तो वहाँ भी पानी ही पानी हो | वाला पदार्थ नहीं है। भगवान् भी हमें सुखी नहीं बना जायेगा। ओहो! पागल कहीं का। टूंटी में पानी थोड़े ही | सकेंगे इसलिये सुख-शांति का एकमात्र स्थान आत्मा है है, पानी तो टैंक में है और उसी में नल लगा रखा | अतः सुख चाहो तो उस निजी सत्ता का एक बार अवश्य है, मात्र इस व्यवस्था के लिये कि अधिक पानी खर्च अवलोकन करो। न हो। पानी इसमें नहीं है, इसमें से होकर आता है। ज्ञान ही दुःख का मूल है, ज्ञान ही भव का कूल।
सुख इस शरीर में नहीं है, बाहरी सामग्री में नहीं राग सहित प्रतिकूल है, राग रहित अनुकूल॥ है। आप इस ढूंटी वाले आदमी पर तो हँस रहे हैं, | चुन चुन इनमें उचित को, अनुचित मत चुन भूल। पर आप लोगों ने भी तो ढूंटियाँ खरीद रखी हैं, इस
समयसार का सार है, समता बिन सब धूल॥ आशा से कि उनसे सुख प्राप्त होगा? मैं आप लोगों
महावीर भगवान् की जय। पर हँस रहा हूँ। प्रत्येक व्यक्ति ने कुछ न कुछ खरीद
'चरण आचरण की ओर' से साभार
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वैशाली-जैसी सुनी, जैसी देखी, वैसी ।
मुनि श्री प्रणम्यसागर जी
भगवान् महावीर की जन्मभूमि वैशाली वासोकुण्ड | भगवान् महावीर का यह जन्मस्थान है। यह भूमि इतनी है यह शास्त्रीय और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य से अनेक | पवित्र मानते थे कि उस भूमि पर ग्रामवासी कभी खेती मनीषियों से एकमत से मान्य है। वैशाली के ग्राम बौना | नहीं करते थे, क्योंकि खेती करेंगे तो हल चलाना पड़ेगा पोखर, जहाँ उसी पोखर से निकली मूर्ति ही मूलनायक | जिससे उसकी पवित्रता नष्ट हो जायेगी अतः हल न चलने के रूप में विराजमान है। इस पोखर (तालाब) के आस- | के कारण वह अहल्य भूमि के नाम से जानी जाने लगी। पास सम्पदा अभी भी बिखरी पड़ी है, ऐसा गाँव के लोग | उसी भूमि के निकट एक पीपल का वृक्ष है। यह वृक्ष कहते हैं। न केवल जैनमूर्तियाँ अपितु अजैन मूर्तियों की | भी भूमि की तरह पूजा का स्थान है। भगवान् महावीर के प्राप्ति भी यहाँ खुदाई में होती है। राजा चेटक का यह | नाम से जुड़ा वह वृक्ष यदि कभी आँधी, तूफान में गिर पहला विशाल गणतन्त्र था जिसमें प्रजातान्त्रिक पद्धति से | गया तो ग्रामवासी उसी स्थान पर पुनः वृक्ष लगा देते थे। न्याय व्यवस्था सुचारूरूप से चलती थी। कहते हैं कि, | आज भी यदि ग्राम में कोई विवाह या धार्मिक त्यौहार आता यह राजनैतिक व्यवस्था उस समय इतनी सुदृढ़ थी कि | है तो लोग प्रथम उस वृक्ष के निकट अहल्य भूमि को महात्मा बुद्ध ने अपने संघ का विभाजन उन्हीं वैशाली के | पूजकर अपना आगे का कार्यक्रम करते हैं। अभी भी पुष्प, लिच्छिवियों और वज्जिसंघ के संघटन के आधार पर किया | बताशा आदि चढ़ाकर भगवान् महावीर का नाम लेकर उस था। इस पोखर और पास में राजा विशाल के गढ़ (किले) स्थान की पूजा ग्रामवासी करते हैं। के पास से बहुत सी सामग्री प्राप्त हुई है जो राजकीय और जिस भूमि पर भगवान महावीर स्मारक का शिलान्यास केन्द्रीय पुरातात्त्विक संग्रहालय दी गयी है। सन् | १९५६ ई. में राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद जी और साहू १९५२ में बौना पोखर से एक और जैनमूर्ति खुदाई में मिली | शान्तिप्रसाद जी के द्वारा किया गया है, वहीं निकट में एक थी वह भी संग्रहालय में रख दी गयी। १९८२ ई० में राजा | मंदिर निर्माण का कार्य चल रहा है। पास में ही एक प्राकृत के गढ़ से एक प्याला निकला जो बहुत चमकदार था, | शोध संस्थान है जो विशालकाय और विपुल पुस्तक चीनी मिट्टी का बना जैसा लगता था। वह प्याला वैशाली | संग्रहालय से सहित है। इस समस्त लगभग १७ एकड़ भूमि के म्यूजियम में कुछ दिन रखा रहा। जब एक अमरीकी | को नथुनी सिंह और ग्रामवासियों ने उस सयम दान में दिया पर्यटक आया तो उसने उस प्याले की चमक और मिट्टी | था। इन्हीं नथुनी सिंह के पुत्र जोगेन्दर सिंह है, जो वर्तमान को देखकर उसे खरीदना चाहा। उसका कहना था कि यह | में जैतपुर में फिजिक्स में .............. हैं। आप सरल प्याला २५०० वर्ष पुराना है, इसे खरीदने के लिये उसने | स्वभावी और महावीर के वंशज, ज्ञातृवंशी क्षत्रिय हैं। आपने इसकी कीमत २ लाख रूपये तक लगा दी। म्यूजियम के | ही मुझे यहाँ की स्मृतियों से परिचय कराया। आज भी कर्मचारियों ने कहा कि आप इसके लिये राज्य सरकार | इस ग्राम के आस-पास २५ घर हैं जो क्षत्रिय ज्ञातृवंशियों से सम्पर्क करो। विहार सरकार ने बातचीत करने के | के हैं। परम्परा से चले आ रहे इन घरों में पीढ़ी दर पीढ़ी उपरान्त उस प्याले को केन्द्रीय सरकार को सौंप दिया और | एक व्यक्ति ऐसा अवश्य होता था जो ब्रह्मचर्य का आजीवन वह प्याला केन्द्रीय संग्रहालय में पहुँच गया। जन्म से पालन करता था। कहते हैं कि ब्रह्मचर्य की प्रेरणा __इस वैशाली से लगभग ५ कि.मी. की दूरी पर वह | या शिक्षा दिये बिना ही व्यक्ति ब्रह्मचर्य को स्वीकारता था। स्थान है जो वासोकुण्ड कहलाता है। पहले इसका नाम | ऐसा व्यक्ति खेती-बाड़ी से प्रयोजन रखे बिना पूजा-पाठ निवास कुण्ड था बाद में यह वासोकुण्ड के रूप में प्रचलित | आदि करते हुए शान्ति से अपना पूरा जीवन गुजार देता हो गया। उसी ग्राम में जहाँ भगवान् महावीर स्मारक बना | था। आज भी तीन घरों में ब्रह्मचारी थे पिता नथुनी सिंह है वह भमि, पवित्र भमि है। सदियों से ग्रामवासियों के ने विवाह किया उनके दो सन्ताने हई। दोनों ने ब्रह्मचर्य लिये पीढ़ी दर पीढ़ी यह मान्यता चली आ रही है कि । व्रत धारण कर लिया। आगे कुल परम्परा की चिन्ता से
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फिर नथुनी सिंह ने दूसरा विवाह किया जिनसे जोगेन्द्रर | पास के सरैया गाँव में गया जहाँ उस रत्न के उसे चार सिंह आदि पुत्र हुए। आपके दो भाई (पहली माँ के) देवी | हजार रूपये मिले। उसके बाद उसने कलकत्ता में दूसरा नारायण और दीप नारायण सिंह हैं जिन्होंने ब्रह्मचर्य व्रत | रत्न बेचा तो उसे ८० हजार रूपये मिले। फिर कुछ दिनों धारण किया था। उनमें से दीप नारायण सिंह का अवसान | बाद दिल्ली में उसने तीसरा रत्न बेचा जो चार लाख रूपये हो चुका है। देवी नारायण आज भी है। उनकी एक झोपडी | में बिका। उसे यह घड़ा तीन वर्ष पूर्व (२००५ ई.) में अलग है। शान्त स्वभाव से नियमित कार्य करते हुए जीवन | मिला और तीन वर्ष में आज वह बहुत बड़ा आदमी बन यापन कर रहे हैं। इन घरों में आज भी आलू (जमीकन्द) | गया है। बीच में ग्रामवासियों ने इस आश्चर्य को देखकर आदि का खान-पान नहीं होता है। ये लोग अभी भी रात्रि उससे जानना चाहा। उसने कुछ लोगों को यह बता भी भोजन नहीं करते हैं।
दिया। कभी कोई थाना प्रभारी उसे पकड़ने आया तो उसने वर्तमान में वासोकण्ड गाँव के उत्तरी और दक्षिणी | उसे भी वह रत्न देकर अपने को बचा लिया। कुछ ग्रामीण खण्ड हैं। यह लोग उत्तरीखण्ड वासी हैं जिनका ऊपर | जनों को भी उसने रत्न दिये हैं। परिचय दिया है। इन २५ घरों में आज भी २० घर पूर्णतः । एक ओर जहाँ वैशाली, आम्रपाली के कारण शाकाहारी हैं। कलिकाल के प्रभाव से अब संस्कार धीरे- | पाटलिपुत्र के राजा अजातशत्रु से कई बार जीती गयी, धीरे नष्ट होता जा रहा है। दक्षिणखण्ड में रहनेवाले बहत | विध्वंस की गयी और आतंक का केन्द्र बनी रही वहीं से परिवार में माँसाहार भी होने लगा है। ब्रह्मचर्य धारी भी दसरी ओर सिद्धार्थ का यह वासोकण्ड आतातायियों से अब मात्र दो व्यक्ति बचे हैं। फिर भी महावीर के प्रति | सुरक्षित रहा है। यहाँ के ग्रामीण लोग अतिशय मानते हैं श्रद्धा ग्रामवासियों की बनी हुई है। पूजा पद्धति में पूर्वज | कि यहाँ कभी प्राकृतिक प्रकोप भी नहीं हुआ है। सर्वत्र लोग क्या पढ़ते थे, गाते थे यह भी सब विलुप्त प्रायः हो | शान्ति और सुखदकारी वातावरण है। गया है।
___ पास में एक क्षत्रिय ग्राम है। दंत कथा है कि राजा इस ग्राम के आस-पास भी कुछ ग्राम हैं जो महावीर | सिद्धार्थ का राज्य विस्तार उसी क्षत्रिय गाँव की ओर पूर्वी की ऐतिहासिकता को सूचित करते हैं। वासोकुण्ड से एक | क्षेत्र में हिमालय की तराई तक था। राजा चेटक उनके साले किमी. पश्चिम उत्तर में एक गाँव है जो पहले महावीर | थे इसलिये यहीं पास में आकर सिद्धार्थ बस गये थे। वैशाली पुर कहलाता था आज उसे वीरपुर कहते हैं। वासोकुण्ड | और वासोकुण्ड को विभाजित करनेवाली एक नदी थी जो से ३ किमी. पश्चिम में बनिया गाँव है जो पहले वाणिज्य | गण्डक नदी के नाम से जानी जाती है। आज उस नदी ग्राम कहा जाता था। शास्त्रों में महावीर से जुड़ी इस गाँव | की धारा बदल गयी है। वह नदी अभी भी है। लोग कहते में अनेक घटनाओं का साक्ष्य मिलता है। पास में आनन्दपुर | हैं कि वह पहले गंगा नदी के नाम से ही जानी जाती थी। और जैनीनगर के नाम से भी गाँव है।
भौगोलिक स्थिति को देखते हुए प्रतीत होता है कि श्रद्धा की कोई भाषा-परिभाषा नहीं होती है इसी | वासोकुण्ड एक प्रसिद्ध गढ़ था जिसके चारों ओर से जाने उक्ति को चरितार्थ करते हुए ग्रामवासी कहते हैं कि जब | आने का स्थान था। आज भी वासोकुण्ड के चारों ओर भगवान् महावीर का जन्म हुआ था तो उस समय इन्द्र ने | सड़क-पथ है। रत्नों की वर्षा की थी वे रत्न आज भी प्राप्त होते हैं। एक | वासोकुण्ड की इस धरती में अभी भी भगवान् सत्य घटना है कि बनियाँ गाँव में एक मजदूर ईंट बना | महावीर के पवित्र जीवन की सुबास है। यह सुबास काल रहा था। उसने ईंटा बनाने के लिए ३-४ फीट मिट्टी खोदी | के प्रभाव से कहीं विलुप्त न हो जाये इसलिये यह सब तो एक घड़े में रत्न मिले। दिन में घड़ा मिलते ही उसने | उल्लेख है। . उस घड़े को वही पूर दिया। रात्रि में आकर घड़ा निकाल इत्यलम् ले गया। उसमें से एक रत्न लेकर कुछ दिनों बाद वह
प्रस्तुति- ब्र. मनोज जैन आरा-पटना (विहार)
12 अप्रैल 2008 जिनभाषित
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मारीच से महावीर
___ डॉ. राजेन्द्र कुमार बंसल, अमलाई
भारतभूमि मानवता को आलोकित करनेवाली । प्रसिद्ध होगा। भगवान् वृषभदेव की यह भविष्यवाणी महापुरुषों की जन्मभूमि रही है। इस भूमि पर अनन्त काल- | सुनकर साधु मारीच अहंकारी हो गया और अपने दादा प्रवाह में अनेकों विभूतियाँ उत्पन्न हुई, जिन्होंने त्याग, | द्वारा प्रतिपादित जिनमार्ग को छोड़कर एक नए धर्म की साधना, संयम एवं समत्व का जीवन जीकर समूची मानवता | स्थापना की। उसने सोचा कि मैं देखता हूँ कि कैसे मैं को सद्राह दिखाई। इन महापुरुषों की गणना धर्मग्रन्थों में दादा के मार्ग पर चलकर महावीर बनता हूँ। इस प्रकार कहीं अवतार, कहीं भगवान् और कहीं तीर्थङ्कर के रूप | मारीच के जीव ने आत्मस्वरूप के प्रतिकूल प्रतिगामी मार्ग में की गई है। कालान्तर में यही महापुरुष नए धर्म या | अपना लिया। विचारधारा के प्रवर्तक मान लिए गए।
काल प्रवाह में जीवों के भावों के अनुसार अनन्त पुराणों के अनुसार भगवान् विष्णु के २४ अवतार | परिवर्तन हुए। असंख्य वर्ष तक मारीच के जीव ने नरक, हुए जिनमें मत्स्य, कच्छप, बाराह अवतार पशुजगत् से | स्वर्ग, पशु, मनुष्यगति में भ्रमण कर अनेक प्रयोग किए संबंधित हैं, जबकि भगवान् वृषभदेव, भगवान राम, नारायण | किन्तु वह सच्चे आत्मसुख को प्राप्त नहीं कर सका। कृष्ण एवं म. बुद्ध आदि महापुरुषों ने प्रकृति-पुरुष एवं | वृषभदेव का पौत्र एवं सम्राट भरत का पुत्र अनन्त दु:ख सुख की अपने समय में नई विचारधाराओं को जन्म दिया | सहन करता हुआ अन्ततः महावीर बनने के पूर्व दसवें भव और वे इनके प्रतीक के रूप में विविध धर्मों के प्रवर्तक | में सिंह पर्याय में वनराज बना। वनराज अपने दैनिक चर्या स्वीकार किए गए।
के क्रम में हिरण का मांस भक्षण करना चाहता था। अन्तिम कुलकर नाभिराय के पुत्र वृषभदेव को | अचानक चारणऋद्धिधारी करुणावंत दो साधु भावमुद्रा में भगवान् विष्णु का अष्टम् अवतार माना है जो युग-प्रवर्तक | सिंह के समक्ष उपस्थित हुए। उन्होंने क्रूर परिणामी सिंह के रूप में आदिनाथ के नाम से मान्य किए गए हैं। भगवान् | के जीव से आँखें मिलाते हुए उसे अहिंसा एवं करुणा आदिनाथ शिवस्वरूप माने गए हैं। कैलाश-पर्वत उनकी | का आत्मोपदेश दिया। आँखों के माध्यम से सिंह की आत्मा साधना स्थली थी एवं वृषभ उनका प्रतीक था, उन्हें शिव | में बसे परमात्मा की अनुभूति हुई। उसका अज्ञान और रूप में भी हिन्दू पुराणों में मान्य किया है। यह भी एक | कषाय विभाव गलने लगे। उसके ज्ञान नेत्र खुले और उसने पौराणिक तथ्य है कि राजा वृषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र सम्राट | अपने आत्मा के ज्ञायकस्वरूप को अनुभूत किया। इस भरत के नाम पर इस भूखण्ड का नाम भारतवर्ष पड़ा। प्रकार जो आत्मश्रद्धान मारीच के रूप में नर पर्याय में संभव
भगवान् वृषभदेव विष्णु के अवतार के साथ ही नहीं हो सका वह काललब्धि पाकर सिंह की अवस्था में जैनधर्म के आद्यप्रवर्तक हैं, जिन्होंने इस बात की प्रसिद्धि | अनुभूत हुआ और पशुपर्याय से परमात्मा बनने के राह पर की कि स्वावलम्बनरूप आनन्द एवं सुख आत्मा के ही | चल पड़ा। यह है अशुभ परिणामों से शुभ एवं शुद्ध परिणामों गुण हैं और उन्हें बिना किसी परवस्तु के सहारे अपने ज्ञान | में परिवर्तन का सुफल। स्वभाव में ज़मे रमे रहने से प्राप्त किए जा सकते हैं। सिंह के जीव ने संकल्पी हिंसा का त्याग कर दिया स्वावलम्बन की यह स्थिति तभी प्राप्त हो सकती है जब और आत्मसाधना की ओर चल पड़ा। भवांतर में उसने व्यक्ति अणु-अणु की स्वतंत्रता को स्वीकार करे और अपने | मुनिव्रत धारण किया, स्वर्ग गया और अन्ततः दसवें भव से भिन्न प्रकृति या परवस्तुओं में किसी भी प्रकार का में महाराज सिद्धार्थ के यहाँ राजपुत्र के रूप में जन्म लिया। हस्तक्षेप एवं राग-द्वेष न करे क्योंकि यही दुख का मूल | राजकुमार महावीर ३० वर्ष तक परिवार में रहे, राजसी है। मुनि वृषभदेव द्वारा सर्वज्ञता प्राप्त करने पर उनके पुत्र | वैभव में वे अपने आत्मा के अनुभव द्वारा आत्मसाधना भरत ने उनसे पूछा कि क्या इक्ष्वाकुवंश में आप जैसा अन्य | करते रहे। उनका जीवन जल में कमल के समान अलिप्त कोई सदस्य तीर्थकर होगा, इसके उत्तर में उन्होंने कहा कि रहा। ३० वर्ष की उम्र में उन्होंने परमात्मपद प्राप्त करने तुम्हारा पुत्र मारीच ही महावीर के नाम से २४वाँ तीर्थङ्कर | हेतु दीक्षा ली। वे १२ वर्षों तक आत्मा के ज्ञायकस्वभाव
- अप्रैल 2008 जिनभाषित 13
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क साथ निरन्तर सम्पक कर आत्मा में डूबे रहने का अभ्यास | ज्ञान के द्वारा रूपान्तरण की इस अंत:प्रक्रिया में करते रहे संस्कारगत विकार उनके उदय में उठते किन्तु | अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह एवं ब्रह्मचर्य इन पाँच महावीर ने उन्हें अपना नहीं माना। वे उनके साक्षी ज्ञाता | व्रतों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। इससे आत्मस्वरूप की बने रहे और उन पर से दृष्टि उठाकर आत्मरमण करते अनुभूति एवं उसके प्रति रुझान के साथ-साथ पाँचों पापों रहे। बाहर से लोगों को यही लगता है कि वे दिगम्बर बने | की आसक्ति क्रमशः घटती जाती है जिससे ज्ञानस्वरूप में कठोर साधना कर रहे हैं किन्तु वास्तव में वे तो आत्मा रमण हेतु उचित वातावरण निर्मित होता है। ऐसे आत्मसाधक का साक्षात्कार कर अतीन्द्रिय सुख की अनुभूति कर रहे | विचारों से अनाग्रही एवं दर्शक होते हैं निश्चय से चारित्र थे। साधना के काल में एक क्षण ऐसा भी आया जब पूर्वबद्ध | ही धर्म है। कर्मों की जंजीरें टूट गई और वे वीतरागी होकर सर्वज्ञ | भगवान् महावीर के वीतरागता का उपदेश श्रवण बन गए। सर्वज्ञ अर्थात् समय और स्थान की सीमाओं से | कर जिन गृहस्थ महानुभावों ने उनका अनुसरण/अनुकरण परे अतीन्द्रिय ज्ञान की प्राप्ति आत्म-वैभव की होने रूप | किया श्रावक कहलाये। उन्होंने महावीर का उपदेश श्रवण सतत् अनुभूति।
कर अपनी आत्मा के ज्ञायकस्वभाव का श्रद्धान कर घर सर्वज्ञ बनने के पश्चात् उन्होंने तीस वर्षों तक जगती | में रहकर आत्मस्वभाव के सम्मुख होकर साधना की ओर के जीवों को वीतरागता एवं आत्मसाधना का उपदेश दिया। पंचाणुव्रत धारण किए। जिन भव्य महानुभावों ने उनके उन्होंने आत्मस्वरूप के प्रति खोटी मान्यता, अज्ञान एवं | उपदेश को सुनकर पंचमहाव्रत एवं वैराग्ययुक्त संयम का असंयम को दख का मल बताया। उन्होंने कहा कि आत्म | मार्ग अपनाया वे श्रमण या साध कहलाए। श्रमण सभी प्रकार श्रद्धान एवं पर-वस्तुओं से सुख प्राप्त करने की आकांक्षा के बाह्य आन्तरिक परिग्रह के त्यागी होते हैं। वीरागता के यह दो प्रवृत्तियाँ ऐसी हैं जिनसे जीवन में विकृति उत्पन्न | चरम लक्ष्य की प्राप्ति हेतु अन्ततः गृहस्थों को भी सर्व होती है और दुखों का सूत्रपात होता है। इस कारण व्यक्ति | परिग्रह त्याग कर संयम मार्ग अपनाना होता है। सर्व देश पर-वस्तुओं के प्रति मूर्च्छित होकर बेहोशी में क्रोध, | वीतरागी होने के कारण साधु/मुनि भी पंच-परमेष्ठी में अहंकार कपट एवं लोभ आदि आत्म-विकारों को अपना | सम्मिलित किए गये हैं और वे पूज्यता को प्राप्त हैं। स्वभाव भाव मानता है। महावीर ने कहा कि इन आत्म- | वीतरागता के अभाव में पूज्यपना नहीं बनता यही जिनाज्ञा विकारों से छूटने का एकमात्र उपाय आत्मश्रद्धान आत्मज्ञान | है। एवं आत्म निमग्नता है। इसे ही त्रिरत्नरूप मोक्षमार्ग कहा . जीवन में सत्य की खोज तथा अपने आत्मस्वरूप है। इसका निरूपण निश्चय एवं व्यवहार रूप से किया | को प्राप्तकर शाश्वत सख चाहनेवाले महानभावों को गया है।
भगवान् वृषभदेव एवं भगवान् महावीर द्वारा उपदेशित आत्म मोक्षमार्ग की प्रवृत्ति में ज्ञान की भूमिका महत्त्वपूर्ण | स्वावलम्बन एवं सत्य के मार्ग पर चलना अपेक्षित है। इसमें है। ज्ञान के माध्यम से ही वस्तु स्वरूप की जानकारी एवं | सभी जीवों एवं समाज का हित हैं। आत्मा के गुणों के प्रति अहंभाव उत्पन्न होता है। यही आइये, हम अपने आत्मस्वरूप को जाने, पहिचानें अहंभाव जब स्थापित हो जाता है तब ज्ञाता-दृष्टा स्वभाव | और जागरूक होकर आत्मस्वरूप में मरण कर भगवान् रूप मात्र 'होना' शेष रह जाता है। स्वभाव में होने की | महावीर जैसे पश से परमात्मा या निजात्मा से परमात्मा स्वीकृति ही धर्म की शुरुआत है और स्वभाव में सतत् | बनने का प्रयास करें। निजात्मा की प्राप्ति के लिए योनि, प्रवाहरूप से जमे रमे रहना ही धर्म है। सश्रद्धान के माध्यम | पंथ, सम्प्रदाय, काल, धर्म, जाति कोई भी तत्त्व बाधक से असश्रद्धान एवं असआचार का रूपान्तरण सश्रद्धान | नहीं है। जो अपने आत्मस्वरूप को पहिचानता है, चाहता एवं सद्आचार के रूप में होता है। इससे आत्म-विकारों | है और अपने द्वारा अपने लिए अपने को प्राप्त करने हेतु की आसक्ति मंद एवं क्षीण होती है और आत्मलीनता के | प्रयासरत है, वहीं जिन अर्थात् जैन है। यही वृषभ महावीर अंशों में वृद्धि होती है। विभाव से स्वभाव में यह रूपान्तरण | संदेश है। ही अन्ततः जीवात्माओं को परमात्मपद तक ले जाता है।।
14 अप्रैल 2008 जिनभाषित
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मानवजीवन की सफलता : पण्डित होने से
क्षुल्लक श्री शीतलसागर जी
प्राचीन संस्कृति से चला आया 'पण्डित' यह एक मातृवत्परदारेषु, परद्रव्येषु लोष्ठवत्। बहुत ही सुहावना शब्द है। विरले भाग्यशाली ही इस शब्द आत्मवत्सर्वभूतेषु, यः पश्यति सः पण्डितः।। से सम्बोधित होते हैं। अनेक व्यक्ति ऐसे हैं जो पण्डित | अर्थात् जो पराई स्त्रियों को माता के समान, दूसरे बनने की कोशिश करते हैं, लेकिन बन नहीं पाते। कोई के धन को लोष्ठ के समान और प्राणीमात्र को अपने समान ऐसे भी पण्डित हैं जो इस पद को बुरा मानते हैं। एक | समझता है, वह पण्डित है। बार एक पण्डित जी ने सुनाया था
प्रश्नोत्तर रत्नमालिका ग्रन्थ में आया है- 'कः पंडिताई पल्ले पड़ी, पूर्व जन्म को पाप। पण्डितो? विवेकी' अर्थात् पण्डित कौन है? जो विवेकीऔरन को उपदेश दे, कोरे रह गये आप॥
हित और अहित का विचार रखने वाला है वह पण्डित एक जगह आया है- 'पंडा विद्यते यस्य सः पंडितः' | है। अर्थात् जिसके बुद्धि हो वह पण्डित है। परन्तु शास्त्रीय दृष्टि | | एक बार मूर्ख का लक्षण मालूम करने के लिये से विचारा जाय तो ऐसा कोई प्राणी है नहीं कि जिसके | राजा भोज ने भरी सभा में पण्डित कालिदास को मूर्ख बुद्धि अर्थात् ज्ञान न हो। सूक्ष्म से सूक्ष्म जीवों में भी महर्षियों | कहकर बुलाया था कि 'आईये मूर्खराज! आईये मूर्खराज!' ने मति और श्रुत ये दो ज्ञान माने हैं। अतः इस परिभाषा | इस पर विद्वान् कालिदास ने उत्तर दिया थाके अनुसार सभी प्राणी पण्डित कहे जायेंगे। इसलिये मात्र
खादन्न गच्छामि हसन्न जल्पे, 'ज्ञान होने से कोई पण्डित नहीं कहा जा सकता। इसी प्रकार
गतन्न शोचामि कृतन्तु मन्ये। एक जगह पढ़ने में आया है
द्वाभ्यां त्रितयो न भवामि राजन्! 'पण्डिताः खण्डिताः सर्वे भोजराजे दिवंगते'
किं कारणं भोज! भवामि मूर्खः॥ अर्थात्- राजा भोज के दिवंगत (स्वर्गस्थ) हो जाने
अर्थात हे राजा भोज! मैं खाते हये नहीं चलता. हँसते के बाद कोई पण्डित नहीं रहा।
हुये बात नहीं करता, जो हो चुका उसका शोक नहीं करता, राजा भोज संस्कृत भाषा के प्रकाण्ड विद्वान थे। इतना | उपकारी के उपकार को नहीं भूलता और जहाँ दो व्यक्ति ही नहीं, उसके समय में दीन से दीन व्यक्ति भी संस्कृत |
बात करते हों वहाँ नहीं जाता, फिर आपने मुझे मूर्ख कहकर भाषा का शुद्ध उच्चारण करता था और उनके स्वर्गस्थ हो कैसे बुलाया? कालिदास के उक्त कथन से स्पष्ट हो जाता जाने के बाद वह स्थिति नहीं रही। अतः संसार में उपरोक्त है कि जो चलते हुये नहीं खाता, बात करते समय नहीं उक्ति प्रसिद्ध हुई।
हँसता, हो चुका उसका शोक नहीं करता, उपकारी के परन्तु यहाँ विचारणीय है कि मात्र संस्कृत भाषा का | उपकार को कभी नहीं भूलता और जहाँ दो व्यक्ति बात विशेष ज्ञान होने से भी कोई पण्डित नहीं होता। इसी प्रकार | कर रहे हों वहाँ नहीं जाता, वह पण्डित है। प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू, मराठी, कन्नड़, |
| परमानन्द स्तोत्र में पंडित का बहुत ही सुन्दर लक्षण तेलग, गजराती आदि एक भाषा का अथवा दो आदि सम्पर्ण | आया है। उसमें लिखा हैभाषाओं का भी यदि कोई प्रकाण्ड विद्वान् हो, तो भी वह
सदाऽऽनन्दमयं जीवं, जानाति सः पण्डितः। पण्डित नहीं कहला सकता।
स सेवते निजाऽऽत्मानं, परमानन्द-कारणम्॥ विश्व में अच्छे से अच्छे वक्ता-प्रवचनकर्ता होते
अर्थात् पण्डित वह है जो कि जीव को नित्य आये हैं और वर्तमान में भी हजारों हैं, परन्तु मात्र घण्टों
आनन्दमय जानता है तथा परमानन्द के कारणभूत उस निज तक धाराप्रवाह प्रवचन कर देने अथवा वक्तृत्व शैली द्वारा
आत्मा को ही सेवता-अनुभव करता है। हजारों नर-नारियों को मंत्रमुग्ध कर देने से पण्डित नहीं
आगे उसी स्तोत्र के तेईसवें श्लोक में भी पण्डित कहला सकते। हाँ! निम्न लक्षणवाला पण्डित कहला | का
का लक्षण आया है, जो कि विशेष आदरणीय है। वहाँ सकता है
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लिखा है
पंडिद पंडिद मरणं, च पंडिदं बालपंडिदं चैव। पाषाणेषु यथा हेम, दुग्धमध्ये यथा घृतम्।
एदाणि तिष्णि मरणाणि, जिणा णिच्चं पसंसंति॥ तिलमध्ये यथा तैलं, देहमध्ये तथा शिवः॥
अर्थात् पण्डितपण्डितमरण, पण्डितमरण और काष्ठमध्ये यथा वह्निः, शक्तिरूपेण तिष्ठति। बालपण्डित मरण ये तीन मरण जिनेन्द्रदेव ने सदा प्रशंसनीय अयमात्मा शरीरेषु, जानाति सः पण्डितः॥ | कहे हैं।
अर्थात् जिस तरह सुवर्णखान के पाषाणों में सवर्ण, यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि अन्य जितने दग्ध में घत और तिल में तैल विद्यमान है, उसी तरह | भी मरण के भेद हैं उनमें से किसी भी नाम में 'पण्डित' शरीर में भी शिव अर्थात् शान्तस्वभावी आत्मा विद्यमान | शब्द नहीं आया, जबकि उपरोक्त तीनों मरणों में यह शब्द है। इसी प्रकार, जैसे काष्ठ में अग्नि शक्तिरूप से विद्यमान | पाया जाता है। अतः इन तीनों मरणों से अलग मरण करने है उसी प्रकार शरीरों में भी आत्मा विद्यमान है और ऐसा वाला शास्त्रीय विचारधारा से पण्डित नहीं कहला सकता। जाननेवाला ही पण्डित है।
हाँ, इतना अवश्य है कि प्रथम 'पंडितपंडितमरणं' करने सारांश यह है कि मनुष्य पर्याय को प्राप्त करके, | वाला महान् पण्डित है जिसे फिर कभी संसार में जन्म पण्डित वही कहलाने योग्य है, जिसमें उपरोक्त बातें हों। | नहीं लेना पड़ता। दूसरा 'पंडितमरण' करनेवाला मध्यम किसी मुर्दे को ले जाते देखकर पण्डित व्यक्ति यह
श्रेणी का पण्डित है जो कि परमहंस दिगम्बर अवस्था में नहीं मानता है अमुक मर गया है। वह तो सोचता है कि | शान्तिपूर्वक शरीर का त्याग करता है और तीसरा जिस प्रकार वस्त्र फट जाने पर या पुराने हो जाने पर बदल | 'बालपंडितमरण' करनेवाला, जघन्य श्रेणी का पण्डित है लिये जाते हैं या नये धारण कर लिये जाते हैं, उसी प्रकार | जो कि गहस्थावस्था में रहकर व्रती अवस्था में ही शरीर इस मुर्दे शरीर के बेकाम हो जाने से, इसमें रहनेवाला | त्यागता है। शाश्वत् आत्मा जीव भी इसे छोड़कर नये शरीर को धारण उपरोक्त कथन से यह बिलकुल स्पष्ट है कि अन्य करने चला गया है। पण्डित व्यक्ति यह भी दृढ़-निश्चय गुणों के साथ-साथ अहिंसा आदि व्रतों के नियमपूर्वक रखता है कि किसी भी आत्मा को कोई शस्त्र छेद-भेद | पालन करने पर ही पंडित संज्ञा प्रारम्भ होती है। नहीं सकता, अग्नि जला नहीं सकती, पानी गला नहीं | संसार का प्रत्येक मानव अपने को पण्डित कहलाने सकता और हवा उसे सोख या सुखा नहीं सकती। हाँ,
की इच्छा रखता है और वास्तव में ऐसी इच्छा रखनी भी उक्त हेतु जो कुछ बिगाड़ करते हैं, वे शरीर का ही करते | चाहिये, क्योंकि पण्डित संज्ञा प्राप्त किये बिना सच्चे सुख हैं। आत्मा का तनिक भी नहीं।
की प्राप्ति का लक्ष्य पूरा नहीं हो सकता। पर हम अपनेजातस्य हि ध्रुवा मृत्युः के अटल सिद्धान्तानुसार अपने हृदय पर हाथ रखकर देखें कि पंडित संज्ञा प्राप्त जो संसार में जन्म लेता है वह एक दिन प्राप्त हुये शरीर | करने के लिये जो बातें बताई हैं, उनमें से स्वयं में कौनको अवश्य छोड़ता है और संसार में इसी को मरण कहा | कौन विद्यमान हैं? यदि एक भी नहीं तो उन्हें जीवन में है। महर्षियों ने इस मरण के अनेक प्रकार बताये हैं, जिनमें | लाने की कोशिश करें। इसी में मानव जीवन की सफलता तीन मरण ही प्रशंसनीय तथा श्रेष्ठ हैं। सो ही बताया है- | है।
'आ० महावीरकीर्ति अभिनंदन ग्रन्थ' से साभार
समाचार
___ कोटा में जिनधर्म प्रचारक मुनि-भक्त एवं सरल हृदय श्री पं० भगतलाल जी शास्त्री का देहावसान दिनांक २३ फरवारी ०८ को हो गया। वे ९० वर्ष के थे।
पं० जी की शिक्षा इन्दौर एवं वनारस के जैन विद्यापीठ में हुई एवं उसके बाद जैनधर्म के प्रचारक के रूप में अशोकनगर, कोलारस शिवपुरी, गुना के बाद विगत् ५० वर्षों तक कोटा के जैनसमाज की सेवा की। एवं विभिन्न जैनपाठशालाओं में अध्यापन का कार्य किया।
प्रदीप कुमार जैन, महावीरनगर तृतीय,
कोटा ३२४ ००४ (राजस्थान)
16 अप्रैल 2008 जिनभाषित
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अहिंसा और गाँधी
श्री बालगंगाधर जी तिलक
भगवान् महावीर का अहिंसा का उपदेश सर्वमान्य । है। दोनों धर्म प्राचीन और परस्पर सम्बन्ध रखनेवाले हैं। हो गया है। दया और अहिंसा की स्तुत्य प्रीति ने जैनधर्म | ग्रन्थों तथा सामाजिक व्याख्यानों से जाना जाता है कि जैनधर्म को उत्पन्न किया है, स्थिर रखा है। उसी से चिरकाल स्थिर | अनादि है, यह विशेष निर्विवाद तथा मतभेद रहित है। रहेगा। इसी अहिंसा-धर्म की छाप जब ब्राह्मणधर्म पर पड़ी | जैनधर्म की प्रभावना महावीर स्वामी के समय में हुई थी। तो हिन्दुओं को अहिंसा पालन करने की आवश्यकता हुई। उसी समय से जैनधर्म अस्खलित रीति से चल रहा है।
अहिंसा की दया की विशेष प्रीति से कुछ लोगों के हृदय | चौबीस तीर्थङ्करों में महावीर स्वामी अन्तिम तीर्थङ्कर थे। हिंसा के दुष्कृत्यों से दुखने लगे और उन्होंने स्पष्ट कह | बौद्धधर्म की स्थापना से पूर्व जैनधर्म का प्रकाश फैल रहा दिया कि जिन ग्रन्थों में हिंसा का विधान हो, वे ग्रन्थ हमसे | था। यह बात विश्वास करने योग्य है। गौतमबुद्ध के दूर रखे जाएँ।
इतिहास में बीस वर्ष का अन्तर है। बौद्धधर्म के तत्त्व जैनियों के उदार सिद्धान्त 'अहिंसा परमो धर्मः' ने | जैनधर्म के तत्त्वों के अनुकरण हैं। महावीर स्वामी की ब्राह्मणधर्म पर चिरस्मरणीय छाप छोड़ी है। पूर्व काल में | अहिंसा परमो धर्मः का उपदेश सर्वमान्य हो गया है। ब्राह्मण यज्ञ के लिए पशुहिंसा होती थी, इसके प्रमाण मेघूदत काव्य | | धर्म में भी अहिंसा मान्य हो गयी। तथा और भी अनेक ग्रन्थों में मिलते हैं। यज्ञादि से पशुवध महान् देशभक्त का महान् कर्त्तव्य-यह जानने के की घोर हिंसा की ब्राह्मण-धर्म से विदाई ले जाने का श्रेय | | लिए किसी विशेष परिश्रम की आवश्यकता नहीं है कि (पुण्य) जैनियों के हिस्से में है। ब्राह्मण-धर्म और जैनधर्म | महात्मा गाँधी का चरित्र शिक्षाप्रद और अनुकरणीय क्यों दोनों के झगड़े की जड़ हिंसा थी, वह अब नहीं रही है | है। यों तो महात्मा गांधी में और जितनी बातें हैं, वे प्रायः
और इस रीति से ब्राह्मणधर्म अथवा हिन्दूधर्म को जैनधर्म | कुछ-न-कुछ बहुत से पढ़े-लिखे लोगों में पायी जाती हैं, ने अहिंसा-धर्म बनाया है। यज्ञ-यागादिकों में पशुओं का | परन्तु वास्तविक सुशील और सच्चरित्र मनुष्य बहुत ही कम वध होकर जो यज्ञार्थ पशहिंसा आजकल नहीं होती है. देखने में आते हैं। गाँधीजी में सबसे बडी विशेषता यह उसका कारण 'अहिंसा' धर्म का सर्वमान्य हो जाना है। | है कि वे सुशील और सच्चरित्र हैं। बहुत-सी बातों में लोगों शंकराचार्य ने जो ब्राह्मणधर्म का उपदेश किया है, उसमें | का उनसे मतभेद हो सकता है और बहुत से लोग अधिक धर्म का मख्य तत्त्व अहिंसा बतलाया है। अहिंसा और मोक्ष विद्वान भी मिल सकते हैं, पर उनमें जो महत्ता है, उसके का अधिकार दोनों ही धर्मों में एक सरीखा माना गया है। कारण वे सब लोगों के आदर्श हो सकते हैं। जिस समय पूर्वकाल में अनेक ब्राह्मण जैनधर्म के धुरन्धर विद्वान् हो | किसी को अपने कर्तव्य का ठीक ज्ञान हो जाय, उस समय गये हैं और विद्या के प्रसङ्ग में दोनों का पहिले से प्रगाढ़ उसे अपने सब स्वार्थ छोड़कर उस कर्त्तव्य के पालन में संबंध है।
लग जाना चाहिए और इस बात की कुछ भी परवाह न सम्पूर्ण जैनी भाइयों तथा ब्राह्मणधर्म पालनेवालों को करनी चाहिए कि इस कर्त्तव्य-पालन के कारण मुझ पर परस्पर एक माँ-बाप के युगल पुत्रों की तरह एक ही पुरुष | अथवा मेरे परिवार पर भारी संकट आएँगे। उसे ईश्वर पर के दायें-बायें हाथ की तरह अपने को एक समझकर परस्पर भरोसा रखकर, निष्काम बुद्धि से अपने कर्त्तव्य-कर्म के हाथ मिलाके अपने 'अहिंसा' धर्म के अभ्युदय के लिए | पालन में लग जाना चाहिए। महात्मा गाँधी के चरित्र से भेदबुद्धि रहित होकर प्रयत्न करना चाहिए। मैं यद्यपि जैन | जो शिक्षाएँ ग्रहण की जा सकती हैं, उनमें से यह एक नहीं हूँ परन्तु मैंने जैनधर्म का इतिहास तथा उसके प्राचीन | मुख्य शिक्षा है। ग्रन्थों का अवलोकन किया है। साथ ही, जैनधर्मी मित्रों किसी देश की अवस्था सुधारने के लिए सबसे के संसर्ग से भी बहुत कुछ परिचय पाया है। इसलिए इन | पहले इस बात की आवश्यकता होती है कि उस देश की दो आधारों पर जैनधर्म पर कुछ कह पा रहा हूँ। जैनधर्म | सत्ता, उस देश के पूर्ण अधिकार उसी देश के निवासियों विशेषकर ब्राह्मणधर्म के साथ अत्यन्त निकट संबंध रखता | के हाथ में हों। बिना सत्ता के ना तो बुद्धिमत्ता ही काम
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आती है और न कर्तृत्व ही। यदि महात्मा गाँधी का भी | समानता के अधिकार नहीं देना चाहते। इसलिए प्रत्येक वही मत न होता. तो वे कभी राजनीतिक आन्दोलन में | देशभक्त का यह कर्तव्य है कि वह प्रजा के दःखों या नहीं पढ़ते। यदि कहीं का शासन अन्यायपूर्ण हो और | उस पर होनेवाले अत्याचारों की स्थिति उस अवस्था तक सुधारने का प्रयत्न करें तो न्याय की दृष्टि से वह राजद्रोह | पहुँचावे, जिसमें अंत में शासकों को सुधार के लिए विवश नहीं हो सकता। यदि शासक लोग इसे राजद्रोह कहें, तो | होना पड़े। गांधीजी ने अपने इस कर्तव्य का बहुत अच्छी उसका अर्थ यही है कि वे न्याय और नीति नहीं चाहते। | तरह पालन किया है और इसीलिए वे सब लोगों की स्तुति वे अन्याय का प्रतीकार नहीं चाहते. वे अपनी प्रजा को | और आदर के पात्र हुए हैं।
'प्राकृतिविद्या' से साभार
श्री दिगम्बर जैन श्रमण संस्कृति संस्थान, सांगानेर, जयपुर
प्रवेश सूचना श्री दिगम्बरजैन श्रमण संस्कृति संस्थान द्वारा संचालित महाकवि आचार्य ज्ञानसागर छात्रावास का बारहवाँ सत्र १ जुलाई २००८ से प्रारम्भ होने जा रहा है। यह छात्रावास आधुनिक सुविधाओं से सम्पन्न व अद्वितीय है। जहाँ छात्रों को आवास, भोजन, पुस्तकें, शिक्षण आदि की समस्त सुविधाएँ नि: शुल्क उपलब्ध हैं।
यहाँ छात्रों को राजस्थान माध्यमिक शिक्षा बोर्ड व राजस्थान संस्कृत विश्वविद्यालय के निर्धारित पाठ्यक्रम का अध्ययन नियमित छात्र के रूप में श्री दिगम्बरजैन आचार्य संस्कृत महाविद्यालय, सांगानेर, जयपुर में कराया जाता है। कॉलेज के पाठ्यक्रम एवं पठन के अतिरिक्त संस्थान में जैनदर्शन, संस्कृत, अंग्रेजी, ज्योतिष, वास्तु तथा कम्प्यूटर शिक्षा आदि विषयों का अध्ययन. योग्य अध्यापकों द्वारा कराया जाता है।
इस छात्रावास में रहते हुए छात्र शास्त्री (स्नातक) परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात् जैनदर्शन के योग्य विद्वान् तो हो ही जाते हैं, साथ ही सरकार द्वारा आयोजित I.A.S., R.A.S., M.B.A. एवं M.C.A., जैसी सभी प्रतियोगी परीक्षाओं में सम्मिलित हो सकते हैं तथा अपनी प्रतिभा के अनुरूप विषयों का चयन कर उच्च शिक्षा प्राप्त कर सकते
प्रवेश के इच्छुक जिन छात्रों ने इस वर्ष दसवीं की परीक्षा अंग्रेजी विषय सहित दी है अथवा उत्तीर्ण की है, वे निम्न स्थानों पर लगने वाले चयन शिविर में निम्न पते पर सम्मिलित होवें, जहाँ परीक्षा एवं साक्षात्कार के आधार पर योग्य छात्र का चयन किया जावेगा। शिविर स्थल - 1. श्री दिगम्बरजैन सिद्धक्षेत्र कुण्डलपुर, जिला-दमोह (म.प्र.)
छात्रावास फोन नं. 0141-0730552, मो. 9887867822
दिनांक 19 मई से 24 मई 2008 तक 2. 'श्री पार्श्वनाथ दिगम्बरजैन मंदिर. उदासीन आश्रम. अशोक नगर.
उदयपुर (राज.) मो. 09414870099
दिनांक 25 मई से 30 मई 2008 तक 3. श्री दिगम्बरजैन अतिशयक्षेत्र कुंभोज बाहुबलि, तालुका-हाथकणंगले
जिला- कोल्हापुर (महा.) मो. 0941224445 दिनांक 22 मई से 30 मई 2008 तक
18 अप्रैल 2008 जिनभाषित
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जीवन का परामर्शदाता कैसा हो ?
डॉ. वीरसागर जैन
व्यक्तित्व के विकास में मनुष्य की अंतरङ्ग योग्यता,। सिंह को हंस की सलाह बहुत ही पसन्द आई। वर्तमान पुरुषार्थ, बाह्य वातावरण आदि अनेक तत्त्वों की | उसने ब्राह्मण को मारने का इरादा छोड़ दिया और उसके महती भूमिका होती है। इन्हीं में से एक अत्यन्त प्रमुख पास जो गजमोती जमीन में छपे हए रखे थे उन्हें अपने तत्त्व है- उसका परामर्शदाता। जिसका परामर्शदाता जैसा | पंजे से निकाल ब्राह्मण देवता को अर्घ्यस्वरूप चढ़ा दिया। होता है उसके व्यक्तित्व का विकास भी वैसा ही होता | ब्राह्मण प्रसन्न हो गया और आशीर्वाद देकर अपने घर है। अथवा यूँ कहिए कि जो मनुष्य जिसे अपना आदर्श | लौट गया। घर में खुशियाँ छा गई। नये-नये वस्त्राभूषण परामर्शदाता, सच्चा सलाहकार बनाता है, उसका जीवन | आ गये और नित्य ही अच्छा-अच्छा भोजन बनने लग उसके अनुसार ही निर्मित होता है।
गया। लेकिन वह ब्राह्मण निरुद्यमी था, अतः थोड़े दिन यूँ तो हमें जीवन में कदम-कदम पर ही अनेकानेक | बाद पुनः निर्धन हो गया। जो लोग निरुद्यमी होते हैं परामर्श देनेवाले मिल जाते हैं। दुनियाँ में बिना माँगे परामर्श | उनके पास कितनी भी सम्पत्ति हो, एक दिन सब समाप्त देनेवालों की कोई कमी नहीं है, भले ही वह सम्बन्धित | हो जाती है। पत्नी के आग्रह से किन्तु लोभवशात् वह विषय से अनभिज्ञ ही हो। किन्तु यह भी कटु सत्य | ब्राह्मण पुनः थोड़े से गजमोती और लेने जंगल में गया। है कि सच्चे परामर्शदाता दुनियाँ में अत्यन्त दुर्लभ हैं। संयोग से उसे उसी स्थान पर वही सिंह पुनः मिल गया। जो व्यक्ति नि:स्वार्थ हो, सम्बन्धित विषय का समीचीन | सिंह ने अपने ब्राह्मण देवता को दूर से ही आते हुए ज्ञाता हो, करुणा-सम्पन्न हो, वही सच्चा परामर्शदाता हो | देख लिया अतः खड़े होकर विनयपूर्वक बोला-"आइए, सकता है।
| आइए, मेरे ब्राह्मण देवता! पधारिए, आपको मेरा बारम्बार __ इस सम्बन्ध में संस्कृत-वाङ्मय के महत्त्वपूर्ण ग्रंथ | प्रणाम। मैं धन्य हूँ जो आज आपके पुनः दर्शन हुये। 'सम्यक्त्वकौमुदी' में एक बड़ी महत्त्वपूर्ण कथा आती | पिछली बार जब से आपके दर्शन हुये हैं मैं आपको है। एक निर्धन ब्राह्मण था। उसकी पत्नी उसे रोज़ कहती | प्रतिदिन प्रातः प्रातः परोक्ष प्रणाम करता हूँ। और आपके रहती थी कि कहीं से कुछ धन लाओ। एक दिन वह | पुनः पुनः दर्शन की प्रतीक्षा करता रहता हूँ। हे मेरे प्रातः अपनी पत्नी के उलाहनों से तंग होकर जंगल में चला | स्मरणीय देवता! आज तो मैं आपके पुनः दर्शन पाकर गया। सोचा, इससे तो अच्छा है कि मैं मर ही जाऊँ। | सचमुच ही स्वयं को कृतकृत्य महसूस कर रहा हूँ। जंगल में उसे एक शेर मिल गया, जो उसे मारकर खाने आप जरा विराजिए, मैंने इस बार आपके लिए बहुत के लिए उस पर झपटने ही वाला था, किन्तु समीप | से गजमोती इकठे करके रखे हैं। आप स्वीकार कीजिए, में एक वृक्ष के ऊपर बैठे हुए एक हंस पक्षी ने उससे | और मुझे आशीर्वाद दीजिए ताकि मेरी आत्मा का कल्याण कहा-"अरे मृगराज! यह तुम क्या कर रहे हो? जानते | हो।" नहीं हो ये कौन हैं? अरे, ये तो ब्राह्मण देवता हैं। आज | किन्तु आज बाहरी स्थिति में थोड़ा अन्तर था। तुम्हारे किसी महान् भाग्य का उदय हुआ है जो तुम्हें | समीप स्थित वृक्ष पर जहाँ पहले हंस बैठा था, आज इनके दर्शन हुए हैं, वरना इनके तो दर्शन ही महादुर्लभ | उसके स्थान पर एक कौआ बैठा था। सिंह जैसे ही होते हैं। मेरा कहना मानो तो इन्हें मत मारो, पेट भरने | ब्राह्मण देवता को अर्घ्यस्वरूप गजमोती चढ़ाकर प्रणाम के लिए जंगल में जानवरों की कमी नहीं है। इनको | करने को उद्यत हुआ, ऊपर वक्ष की शाखा से वह कौआ मारने से तो तुम्हें ब्रह्महत्या का पाप लगेगा, जिससे तुम | बोला-"अरे ओ सिंह के बच्चे! ये क्या हो गया है तुझको? सैंकड़ों जन्मों में भी मुक्त नहीं हो पाओगे। अतः यदि | ये क्या कर रहा है तू?" सिंह ने हंस से पूर्व में प्राप्त अपना भला चाहते हो तो आज अवसर का लाभ उठाओ हुई सर्व शिक्षा को उसे बता दिया तो कौआ उसकी और इन ब्राह्मण देवता को कुछ अादि चढ़ाकर प्रणाम | हँसी उड़ाते हुए बोला- "अरे, यह सब उसने तुम्हें उलटी करो। यदि इनका आशीर्वाद मिला तो तुम इस पशुयोनि | पट्टी पढ़ा दी है और तुम भोले हो जो उसकी बातों से तिर जाओगे।"
। में आकर उल्लू बन गये हो। अरे, सब आदमी एक
-अप्रैल 2008 जिनभाषित 19
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ही जैसे होते हैं, सभी में एक जैसा रक्त, मांस-अस्थि । एक हंस जैसे और दूसरे कौए जैसे हंस जैसे परामर्शदाता
आदि होते हैं, किसी में कोई अन्तर नहीं होता, कोई ब्राह्मण और कोई शूद्र नहीं होता । सब हमारा भ्रम है अथवा मूर्ख लोगों की बनाई हुई अन्ध व्यवस्था है । अतः मेरा कहना मानो और इसका काम तमाम करो। अपना पेट भरो और प्रसन्न रहो। कुछ नहीं रखा इन फालतू की बातों में।"
सिंह के पास स्वविवेक की कमी थी। वह कौएँ की बातों में आ गया। और ब्राह्मण को मारकर खा गया। थोड़ा प्रसाद कौए को भी मिल गया, जैसा कि कौआ पहले ही से चाहता था और इसलिए उसने सिंह को वैसी शिक्षा दी थी।
सभी का भला करते हैं और कौए जैसे परामर्शदाता सबका बुरा करते हैं। प्रायः देखा जाता है कि कौए जैसे परामर्शदाता तो आज गली-गली में मिल जाते हैं जो लोगों को हिंसा, कलह, असत्य आदि की शिक्षा देते हैं कि गाली का जवाब गोली से दो, ऐसा करो, वैसा करो आदि-आदि, परन्तु हंस जैसे परामर्शदाता अत्यन्त दुर्लभ हैं जो लोगों को सचमुच हितकारी शिक्षा देते हैं। कोरे नाम के 'रायचन्द ' या 'रायबहादुर' होना भी अलग बात है, पर सचमुच के रायचन्द या रायबहादुर बनना अत्यन्त दुर्लभ है। हमें विवेक जागृत करके अपने जीवन का सही परामर्शदाता चुनना चाहिए ताकि हमारा जीवन सन्मार्ग पर आगे बढ़े। अध्यक्ष जैनदर्शन विभाग श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ, (मानित विश्वविद्यालय), नई दिल्ली- 110 016
यह कहानी बहुत ही अर्थगर्भित है । इसे मात्र मनोरंजन हेतु नहीं, अपितु अपने जीवन को सही दिशा देने हेतु गंभीरतापूर्वक समझना चाहिए।
संसार में दो प्रकार के परामर्शदाता पाए जाते हैं।
रथ विकास का
जाने कब तक
आने वाला है।
अब भीखू की भूख प्यास पुनिया की जाएगी। नहर हमारे गाँव द्वार तक
चल कर आएगी
फिर वादों की
नेता फसल उगाने वाला है
भाँति भाँति का अभिनय
करता हमें लुभाता है। अपनी दुखती रग पर आकर
हाथ लगाता है
रिश्ते अभी बनाकर यहीं भुनाने वाला है
लगें राम सा किंतु चरित रावण का जीता है।
20 अप्रैल 2008 जिनभाषित
तोते की मानिंद
मृग की छाल ओढ़कर घर में आया चीता है
मांस नोंचकर अपना येही खाने वाला है ।
राजपथों से पगडंडी तक
चलो देखने उग आए हैं आग बबूलों पर मेला लगने लगा नदी के दोनो कूलों पर ।
फिर बहेलिया आकर
जाल बिछाने वाला है।
ये जुड़ जाएगा तोते की मानिंद हाथ से ये उड़ जाएगा
अपना जनमत इसके पंख लगाने वाला है ।
मनोज जैन 'मधुर'
सी-एस / १८, इन्दिरा कॉलोनी बाग उमराव दुल्हा,
भोपाल
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पारिवारिक एवं प्रोफेशनल क्षेत्र में महिलाओं की भूमिका का समन्वयन एवं संतुलन
श्रीमती विमला जैन, जिला एवं सत्र न्यायाधीश 1. भारतीय संस्कृति नारी की स्वतंत्रता और अस्मिता | ध्वस्त किया है। भारतीय नव-जागरण के अग्रदूत राजारामको प्राचीन काल से संरक्षित करती रही है। हमारी संस्कृति | मोहनराय ने सती दाह का विरोध किया। आधुनिक हिन्दी महिलाओं को पत्नीत्व और मातृत्व के तटबंधों के बीच साहित्य के जनक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने सन् 1868 में अपनी पारिवारिक एवं सामाजिक दायित्वों के सम्यक्-निर्वाह का | | पत्रिका कविवचन सुधा में नारि नर सम होंहि' की प्रभावी संदेश प्रदान करती है। महिला के विकास का सर्वोच्च | उद्घोषणा की है। महात्मा गाँधी ने मीराबाई के चरित्र से शिखर उसका मातृत्व ही है। अतः हम पश्चिम से आए | सत्यग्रह करने की प्रेरणा प्राप्त की। नारी स्वातंत्र्य के अंधानुकरण से बचे और महिला को 4. स्वर्णिम भारतीय इतिहास की इस पृष्ठभूमि को सशक्त करने और पराधीनता से मुक्त बनाने के लिए विवाह | देखते हुए भी वर्तमान में युवकों और युवतियों के बीच संस्था को पूर्ण सम्मान दें। महिला की स्वतंत्रता देह की | इण्टरनेट पर विवाह और ई-मेल पर मिलन समारोह हो मुक्ति और भोग की शक्ति तक ही सीमित नहीं है। महिला | रहे हैं। अलग-अलग नगरों में रहते हुए अपने लेपटॉप की स्वतंत्रता पनि और माता के संबंधों से मुक्त होकर | | कम्प्यूटर के माध्यम से युवकों और युवतियों के बीच प्रेमदेहभोग की उन्मुक्त छूट तक ही सीमित नहीं है। प्रत्येक | संबंध स्थापित हो रहे हैं। प्रोफेशनल युवा पतियों एवं पत्नियों महिला का कर्तव्य है कि वह पत्नीत्व और मातत्व की | की कार्य संबंधी यात्राएँ बढ़ती जा रही हैं। उनमें से कछ भूमिका का निर्वाह कर पारिवारिक एवं सामाजिक विकास | दम्पत्ति एक दूसरे से यात्रा पर आते जाते समय केवल एयर में अपना पवित्र एवं रचनात्मक योगदान दे।
पोर्ट पर ही मिल पाते। उन्हें एक नगर में एक दूसरे के 2. भारतीय महिलाओं ने अपनी निष्ठा, साहसिक | साथ कुछ समय के लिए भी रहना संभव नहीं हो पा रहा भूमिका और सजगता से पूरे विश्व को प्रभावित किया है। है। प्रोफेशनल और करियर नवयुगल के लिए पारिवारिक महाभारत ने प्रभावी ढंग से द्रोपदी, सावित्री और शंकुतला समय निरंतर घटता जा रहा है। वैवाहिक संबंधों में के स्वतंत्र व्यक्तित्व, दृढ़ता, तेजस्विता, अप्रतिम साहस एवं | पारस्परिक मधुरता कम हो रही है। इन समस्याओं से स्वाभिमान का वर्णन किया है। आदि कवि बाल्मीकि ने | महानगरों के नवयुगल सर्वाधिक प्रभावित हो रहे हैं। रामायण में सीता की सजगता, मुखरता और उग्रता को कार्यस्थल से माता-पिता के घर लौटने तक बच्चे सो जाते उल्लेखित किया है। उन्होंने सीताजी के माध्यम से हर पल | हैं। ऐसे माता-पिता अपने बच्चों से सप्ताह के अंत में अपने पति के साथ रहने के हर महिला के अधिकार को | अवकाश के दिन में ही भेंट कर पाते हैं। ऐसा प्रतीत होता संरक्षित किया है। रामचरितमानस में तुलसीदास ने अपनी | है कि वे अब साप्ताहिक माता-पिता बनते जा रहे हैं। सौम्यता के साथ सरल किन्तु सशक्त उक्तियों के माध्यम । 5. कुछ नवयुगल अपनी व्यस्तताओं के कारण से पति संग रहने के सीता के अधिकार को संस्थापित किया | अपने शिशु को जन्म ही नहीं देना चाहते हैं। कुछ नवयुगलों है। सीता ने स्वविवेक से अपने पति राम के साथ वन | ने शिशु को जन्म ही नहीं देने का निर्णय कर लिया है। जाने का निर्णय लेकर अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व को स्थापित | वे दोहरी आय किन्तु शिशु नहीं के सिद्धान्त का पालन किया है।
कर रहे हैं। उन्होंने यह स्वीकार कर लिया है कि शिशु 3. भारतीय संस्कृति ने अपनी महिलाओं को स्वविवेक | को जन्म देने से उनके पारस्परिक मिलने का समय और से निर्णय लेने की स्वतंत्रता प्रदान की है। पारिवारिक, | भी कम हो जावेगा। वे अपने प्रोफेशन के सर्वोच्च स्तर सामाजिक एवं राजनैतिक क्षेत्रों में सक्रिय भूमिका का निर्वाह | पर अपनी पारिवारिक व्यस्तता के कारण नहीं पहुँच सकेंगे। करने का अवसर प्रदान किया है। मध्यकाल में पद्मावत | दुखद पक्ष यह है कि वे अपनी वर्तमान परिस्थितियों से (मलिक मुहम्मद जायसी) ने पद्मावती को मानवीय सद्गुणों | संतुष्ट प्रतीत होते हैं। की जननी घोषित करते हुए पुरुष की श्रेष्ठता के दंभ को 6. भारतीय उद्योग परिसंघ द्वारा महानगरों से कराए
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गए सर्वे में यह निष्कर्ष प्राप्त हुआ है कि डबल इनकम । और संवर्धित किया है। राम द्वारा परित्यक्त गर्भवती सीता नो किड्स का फंडा भारत में लोकप्रिय होता जा रहा है। ने भीषण वन में असह्य कष्ट उठाते हुए लव और कुश ऐसे नवयुगल बढ़ते जा रहे हैं कि जिनके पास दोहरी आय | को जन्म दिया है। पहाड़ की गुफाओं में पड़ी असहाय के साधन तो है, पर कोई संतान नहीं है। वे ऐशो आराम | अंजना ने हनुमान को जन्म दिया है। हमारे देश की जंगल का जीवन व्यतीत कर रहे हैं। ऐसे नवयुगल, होटल, | में लकड़ी बीनती हुई आदिवासी महिलायें शिशु को जन्म मनोरंजन, शॉपिंग, फिटनेस सेन्टर और ब्रांडेड कपड़ों पर दे देती हैं और सिर पर लकड़ी और हाथ में शिशु को व्यय कर रहे हैं। विदेशों और देश के पर्यटन स्थलों के | लेकर अपने घर आ जाती हैं। भ्रमण पर व्यय कर रहे हैं। अनावश्यक वस्तुओं के क्रय | 9. यह सही है कि वर्तमान समय में उच्च शिक्षित पर व्यय कर रहे हैं किन्तु वे गर्भाधान और शिशु पर व्यय | एवं प्रोफेशनल नव-विवाहिताओं और माँ बनने वाली नहीं करना चाहते हैं।
महिलाओं के लिए निजी क्षेत्र में नौकरी करना कठिन होता 7. प्रत्येक नवयुगल का यह उत्तरदायित्व है कि | जा रहा है। अधिकांश कम्पनियाँ नव-विवाहित महिलाओं वह अपने सम्मिलित प्रयास से शिशु को जन्म दे। अपनी | से उनकी योग्यता एवं कार्य अनुभव के साथ ही उनसे कोख से शिशु को जन्म देना प्रत्येक महिला का परम कर्त्तव्य | मातत्व विवरण प्राप्त करती हैं। आवश्यक योग्यता एवं है। अपने शिशु का पालन-पोषण करना प्रत्येक माता का | कार्य अनुभव होते हुए भी विवाहित, गर्भवती महिलाओं धर्म है। प्रत्येक महिला अपने विवाह के साथ प्राकृतिक | एवं छोटे शिशुओं की माताओं की तुलना में निजी क्षेत्र रूप से ही भावी मातृत्व के सपनों में खो जाती है। गर्भधारण | की अधिकांश कम्पनियाँ अविवाहित महिलाओं को करते ही अपने ममत्व और वात्सल्य से अपने गर्भस्थ शिशु | प्राथमिकता दे रही हैं। को अभिसिंचित करती है। शिशु को जन्म देकर अत्यधिक 10. यह उपयुक्त प्रतीत होता है कि निजी क्षेत्र की प्रसन्न होती है। यदि नारी स्वयं को किसी भी कारण से | कम्पनियाँ गर्भवती महिलाओं एवं छोटे-छोटे शिशुओं की ऐसे मातृत्व सुख से वंचित करती है तो यह निश्चित है | माताओं को घर बैठे काम दें। पार्ट-टाइम जाब दें। उन्हें कि वह अपनी कोख के खालीपन को आमंत्रित करती | सीमित और निश्चित काल के लिए नियुक्त करें। टाइम है। अपने भावी जीवन में अपनी खाली कोख पर वह | बाउंड जाब की अपेक्षा उन्हें अपनी सुविधानुसार पूर्व निश्चित ही आँसू बहाती रहेगी। उसके आंचल का दूध | निर्धारित घण्टों के लिए प्रोजेक्ट आधारित कार्य दें। यह सूख जावेगा। नारी की मातृत्व की संवेदनाएँ समाप्त हो | भी उपयुक्त प्रतीत होता है कि हमारे उच्च शिक्षित नवयुगल जावेंगी। वह प्राकृतिक जीवन-चक्र को ध्वस्त कर देगी। अपने प्रोफेशनल उत्तरदायित्व एवं अपने पारिवारिक/
8. प्रकृति का सर्वश्रेष्ठ वरदान मातृत्व सुख केवल | सामाजिक उत्तरदायित्त्वों के बीच आदर्श ढंग से समन्वय नारी को ही प्राप्त है। भारतीय संस्कृति नारी को सदैव एवं संतुलन स्थापित करें। भारतीय संस्कारों का संरक्षण/ मातृत्व की गरिमा से अभिमण्डित करती रही है। भारतीय | संबर्द्धन करते हुए सांस्कृतिक विकास में अपना अनुपम नारी ने असाधारण विपरीत परिस्थितियों में भी मातृत्व के | योगदान प्रदान करें। गंभीर उत्तरदायित्व का निर्वहन करते हुए शिशु को संरक्षित
30, निशात कॉलोनी, भोपाल
जहाँ तक हो सके हम पर सितम ढाते चले जाओ, समन्दर में हमें तूफाँ से धबराना नहीं आता।
सरवत नवाज लखनवी किनारों से मुझे अय नाखुदा तुम दूर ही रखना, वहाँ लेकर चलो, तूफाँ जहाँ से उठनेवाला है।
नरेशकुमार 'शाद'
22 अप्रैल 2008 जिनभाषित -
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विनाश के कगार पर विरासत
मूल अँग्रेजी लेखक : शाहिद हुसैन
हिन्दी अनुवादक : एस. एल. जैन
यह आलेख 'दि सण्डे इण्डियन' (वॉल्यूम 2, अंक 13 ) 31 दिसम्बर 07 से 6 जनवरी, 08, प्रधान सम्पादक : अरिंदम चौधरी, सम्पादक : ए. सन्दीप, कार्यालय : प्लानमेन मीडिया प्रा. लि., डी-103, ओखला इण्डस्ट्रियल एरिया, फेज - प्रथम, नई दिल्ली- 110020, Website - www. thesundayindian.com, E-maileditor@thesundayindian.com में शाहिद हुसैन के प्रकाशित लेख 'हेरिटेज अण्डर थ्रेट' का हिन्दी अनुवाद है । ऐसी महत्त्वपूर्ण एवं दुर्लभ सामग्री प्रकाशित करने के लिए 'दि सण्डे इण्डियन' जैनसमुदाय के धन्यवाद का पात्र है। लेखक श्री शाहिद हुसैन, 'दि सण्डे इण्डियन' के सम्पादक एवं प्रकाशक के प्रति भी आभार प्रदर्शित करते हुए 'विरासत के संरक्षण किए जाने की पवित्र भावना से' पाठकों के अवलोकनार्थ यह आलेख हिन्दी प्रस्तुत किया जा रहा है ।)
में
पाकिस्तान के थार रेगिस्तान में स्थित जैनमंदिर, उपद्रवी तत्त्वों के आक्रमण, चोरी एवं संरक्षण की कमी के शिकार - शाहिद हुसैन द्वारा प्राचीन नगर की यात्रा कर सत्य तथ्य का खुलासा ।
थार रेगिस्तान भारत के सिन्धु नदी के कछार से पूर्व की ओर फैला हुआ है और भारत में राजस्थान प्रदेश का हिस्सा है तो उत्तर में अरबसागर से सतलुज नदी तक फैला हुआ है। इसी क्षेत्र के सुदूर दक्षिणी भाग में स्थित सिन्धु प्रान्त में थारपारकर जिला है ।
यह स्थान वर्षाऋतु के पश्चात् जब हरियाली से मनमोहक हो जाता है तब दूषित वातावरण में रहने के लिए बाध्य शहरी परिवार इस सुन्दर प्राकृतिक छटा का आनन्द लेने के लिए भ्रमण करते हैं । विशाल रेत के ढेर ऐसे प्रतीत होते हैं मानो मनोज्ञ देवियों के नृत्यों के आकार जैसे हों। इससे यह भी प्रमाणित होता है कि यह विशाल रेगिस्तान पहले समुद्र का भाग था ।
लेकिन शहरी पर्यटकों, जिन्हें अपनी विरासतों के प्रति कोई सहानुभूति नहीं होती है, के कारण इस थारपारकर में स्थित पुरातत्त्वीय सम्पदाओं को क्षतिग्रस्त करने, बहुमूल्य पुरातत्त्वीय विरासत को चुराने आदि रूप में अत्यन्त खतरा उत्पन्न हो रहा है।
ही दण्ड एक साथ दिए जा सकेंगे।'
लेकिन इस प्रकार के प्रावधानों के पालन करवाने के लिए उस मन्दिर में कोई सुरक्षागॉर्ड तैनात नहीं किए गए हैं। पाकिस्तान में स्थित 1376 ईस्वी में निर्मित यह गोरीमन्दिर एक प्राचीनतम जैनमन्दिर है, जिसे गैर जिम्मेदार पर्यटकों द्वारा नुकसान पहुँचाया जा रहा है, इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। इस मन्दिर को कितनी क्षति पहुँचाई जा चुकी है, यह बात इसी से मालूम पड़ती है कि अब यहाँ चिड़ियों के घोंसले एवं चमगादड़ आदि भरे हुए हैं जबकि पहले यहाँ श्रद्धालुओं का ताँता लगा रहता था ।
कासिम अली - कासिम, पूर्व निदेशक- आर्कियोलॉली एवं म्यूजियम विभाग, दक्षिण संभाग, पाकिस्तान सरकार कहते हैं, कि 'भारत में साठ लाख से अधिक जैन धर्मावलम्बी हैं । हम गोरीमन्दिर को उनके लिए तीर्थस्थान के रूप में विकसित करना चाहते हैं । इसके लिए हमने एक योजना का प्रारूप पाकिस्तान की केन्द्रीय सरकार को भेजा है।' उन्होंने आगे कहा- 'दुर्भाग्यवश पाकिस्तान में मन्दिरों के पुनरुद्धार के लिए कुशल कारीगर नहीं हैं। हम अपने कारीगरों को आवश्यक प्रशिक्षण के लिए भारत भेजना चाहते हैं। अतः हमने 4.2390 करोड़ रुपये का मास्टर प्लान सरकार को स्वीकार करने हेतु प्रस्तुत किया है।'
गोमन्दिर नगरपारकर शहर, जिला थारपारकर से २८ किलोमीटर पर स्थित है। उस मंदिर के बाहर पाकिस्तान सरकार के आर्कियोलॉजी एवं म्यूजियम विभाग के डायरेक्टर जनरल द्वारा इस प्रकार की सूचना लगाई गई है- 'एण्टिक एक्ट (1976 का VII) की धारा 19 के अन्तर्गत, यदि कोई भी व्यक्ति, जो इस सम्पदा को क्षति पहुँचाएगा, तोड़फोड़ करेगा, परिवर्तन करेगा, आकृतियों को मिटाएगा, कुछ लिखेगा, पत्थरों से खुदाई करेगा अथवा अपना नाम आदि लिखेगा, तो उसे तीन वर्ष के कठोर कारावास या अर्थदण्ड अथवा दोनों । पुरातत्त्वीय महत्त्व के स्थानों को क्षति हो रही है तो किसी
कासिम के अनुसार सिन्ध प्रान्त में 128 पुरातत्त्वीय महत्त्व के स्थान हैं लेकिन पुरातत्त्व विभाग के पास धन की कमी होने के कारण केवल 50 चौकीदार (गॉर्ड) हैं। इन परिस्थितियों में यदि गोरीमन्दिर या थारपारकर के अन्य
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को आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
फोर्स) जो पास में स्थित थे, को जैनकाल के 21 स्कल्पचर्स पारिनगर के मेंगो नामक एक जैनव्यक्ति ने यह गोरी प्राप्त हुए थे। शुरु में रेंजर्स ने म्यूजियम के अधिकारियों को मन्दिर बनवाया था। इस मन्दिर की लम्बाई-चौड़ाई समान नहीं अपने केम्प में आने नहीं दिया था, लेकिन बाद में उच्च है। इसका बाह्य विस्तार उत्तर से दक्षिण दिशा में 74 फुट | अधिकारियों के दबाव में उन्हें जाने की अनुमति प्राप्त हो लम्बा तथा पूर्व से पश्चिम दिशा में 49 फुट चौड़ा है। | सकी थी।
मन्दिर का प्रवेश द्वार उत्तर दिशा में गुम्बज के आकार | कासिम का विश्वास है कि पारिनगर से प्राप्त अवशेष के पोर्च (ड्योढ़ी/ओसारा) से होकर है। इसमें आठ खम्बे न केवल अनुसन्धान एवं शोध करनेवालों के केनोपी (Canopy) सहित हैं। उनमें से कुछ खम्बे सफेद रहेंगे बल्कि इससे इतिहास को गहराई पूर्वक ठीकतरह से संगमरमर और कुछ चूना पत्थर के हैं, जिन पर चूने द्वारा समझा जा सकेगा। इससे उस स्थान को धार्मिक पर्यटकों की सफेदी की गई है। हाल में 28 खम्बे हैं। इसके बाद एक दृष्टि से भी विकसित किया जा सकेगा। 'यहाँ जो लोहे के और कक्ष है जिसे 'ओरधी मण्डप' (Ordhi mandap) कहा | टुकड़े प्राप्त हुए हैं वे इस ओर संकेत करते हैं कि प्राचीन जाता है। मन्दिर के अन्त में एक और कक्ष है जिसे 'विहार' | पारिनगर में जहाज निर्माण से सम्बन्धित व्यवसाय होता होगा।' नाम से जाना जाता है। पूरे मन्दिर में जगह-जगह फ्रेस्को चचा अली नवाज, 82 वर्ष, जो नगरपारकर के रहने पेन्टिंग (Fresco Painting) बनी हुई हैं। मंदिर ऐसी दुर्दशा वाले हैं कहते हैं कि जैनसमुदाय के व्यक्ति पाकिस्तान बनने में है कि मंदिर की पेरापेट वॉल (Parapet wall) का पूर्ण | से पूर्व नगरपारकर में रहते थे। लेकिन 14 अगस्त, 1947 क्षय हो चुका है। इस मन्दिर के संरक्षण और पुनर्निर्माण की | को पाकिस्तान बनने पर वे भारत चले गए और अपने साथ शीघ्र आवश्यकता है।
बहुत सारी मूर्तियाँ भी ले गए। मंदिर को क्षतिग्रस्त करने में धार्मिक विद्वेष भी कारण थारपारकर में 40 प्रतिशत से अधिक हिन्दू रहते हैं है। दो ऐसी मूर्तियाँ, जो आलिंगनबद्ध मुद्रा में थीं, उन्हें क्षति | जिनमें अधिकांश अनुसूचित जाति के भील और कोली हैं, पहुँचा दी गई है, ऐसा विदित हुआ है। कासिम के कथनानुसार, परन्तु वहाँ कभी साम्प्रदायिक हिंसा नहीं हुई। वहाँ के हिन्दू 'ऐसा अनुमान है कि यह मन्दिर पारिनगर शहर का हिस्सा | युवक मोहर्रम के पवित्र अवसर पर मुसलमानों के जुलूस में था। यदि इस स्थान में भली प्रकार से खुदाई की जाए तो भी सम्मिलित होते हुए देखे जाते हैं। हमें उस नगर के इतिहास से सम्बन्धित पुरातत्त्वीय महत्त्व सन् 1960 के पूर्व थारपारकर की अर्थ-व्यवस्था की अनेक कलात्मक वस्तुओं के मिलने की भी सम्भावना | स्वाश्रित थी और आपस में एक दूसरे व्यक्ति से सम्बन्ध एवं
| व्यापार वस्तुओं के विनिमय (Barter) पर आधारित थे। कासिम के अनुसार कच्छ का रन समुद्र का भाग था | लेकिन सन् 1970 के दशक में मुद्रा पर आधारित अर्थ-व्यवस्था और पारिनगर उस समुद्र के तट पर ईसा से 500 वर्ष पूर्व एवं सन् 1990 के दशक में सड़कों के जालों के निर्माण के एक महत्त्वपूर्ण बन्दरगाह था। अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार हेतु यह | पश्चात् बहुत बदलाव आ गया है। अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बन्दरगाह था और यहाँ से कच्छ, भुज, सड़के बनने से पूर्व थारपारकर के निवासी बिचौलियों पोरबन्दर, माण्डल्या, लंका और सुमात्रा देश से व्यापार होता | पर पूर्णतः निर्भर रहते थे, जो उनके पशुधन (थारपारकर में था।
| पशु-धन और व्यक्तियों का अनुपात 5:1 है), कम्बल तथा ऐसा कहा जाता है कि पारिनगर बन्दरगाह भयंकर | गलीचे आदि बहुत सस्ते मूल्य में खरीद कर कराँची के बाजार भूकम्प के कारण नष्ट हो गया था तारिख फरिस्ता के | में बहुत ऊँची कीमत में बेच देते थे। अब थारपारकर के कथनानुसार, अब्ने-बतूता यहाँ होकर गये थे और इसे सन् 1223 में जलालुद्दीन खवारिजा शाह ने नष्ट कर दिया था।| मूल्य प्राप्त करने हेतु सौदेबाजी कर उचित मूल्य प्राप्त कर पूर्व में यहाँ 6 जैनमन्दिर थे।
सकते हैं। उनमें से कुछ लोग तो कराँची जाकर भी अपने सन् 2006 में दो सूचनाएँ आईं थी कि वीरवाह- माल को उचित मूल्य में बेचते हैं। ऐसा अक्सर ईद-उलनगरपारकर सड़क के निर्माण करते समय स्वर्ण आभूषणों से | अजा, जब मुसलमान पशुओं की बलि देते हैं, का समय होता भरा हुआ एक अत्यन्त प्राचीन घड़ा प्राप्त हुआ था और खुदाई| है। करने वाले मजदूर उसे ले गए थे। सड़क निर्माण के समय
7/3, नूपुर कुँज, ई-3, अरेरा कॉलोनी, जनवरी 2006 में स्थानीय निवासियों और रेंजर्स (पैरा मिलिट्री
भोपाल (म.प्र.) 24 अप्रैल 2008 जिनभाषित
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जैनविद्या विश्वकोश
पं. मूलचन्द्र लुहाड़िया लम्बे समय से जैनविद्या के दर्शन, इतिहास, आचार, I (जिनकी सूची संलग्न है) का पारायण किया गया तथा साहित्य, कला, पुरातत्त्व आदि का प्रामाणिक परिचय विश्व | उनमें से संज्ञाओं को. उनके भेद-प्रभेदों. सन्दर्भो व के चिंतकों/जिज्ञासुओं को प्रदान करनेवाली ठोस सामग्री | विवरणसहित संकलित किया गया। जिसमें लगभग ४०का अभाव अनुभव किया जा रहा था। उसके अभाव के | ५० हजार शब्दों का ससन्दर्भ संकलन सम्पन्न हो चुका कारण देश-विदेश के बुद्धिजीवियों की धारणा में जैनविद्या | है। के धर्म, दर्शन एवं इतिहास के सम्बन्ध में अनेक भ्रमपूर्ण सन्दर्भग्रन्थों में जैनविद्या के लगभग सभी विषय के चित्र अंकित हो रहे थे और उसके परिणामस्वरूप समय- ग्रन्थों का उपयोग किया गया है। इसमें जैनधर्म के सभी समय पर पुस्तकों/लेखों के माध्यम से भ्रमपूर्ण धारणाएँ | सम्प्रदायों के मूलग्रन्थों के आधार से सामग्री संकलित की जन-साधारण में प्रचारित होती रही हैं।
गई है। इसके अनन्तर ये सन्दर्भ वर्गीकृत होकर प्रविष्ट अतः सर्वोदय जैनविद्यापीठ ने जैनसाहित्य के मूल | लेखन के कार्य में सीधे प्रयोग किये जा सकेंगे। प्रामाणिक ग्रन्थों में प्रयुक्त पारिभाषिक शब्दों के उन्हीं ग्रन्थों, २. संकलन के साथ संग्रहीत सन्दर्भो के परीक्षण/ में उपलब्ध उनके भेद-प्रभेद सहित अर्थ को दिग्दर्शित | पुनरावलोकन का कार्य भी समानान्तर रूप से दो अध्येताओं करनेवाले एक जैनविद्या विश्वकोश की रचना की योजना | द्वारा सम्पन्न हो रहा है। इसमें प्रथम कार्य सन्दर्भ के संकलन जैनविद्या के प्रभावक आचार्य परम पूज्य विद्यासागर महाराज | के समय लिये गये संकेतों के निरीक्षण का होता है। अनन्तर की प्रेरणा एवं आशीर्वाद से प्रारम्भ की। इस योजना को | उनके सन्दर्भो का पुनरीक्षण एवं संभावित स्खलन का मूर्तरूप देकर इसका शुभारम्भ करनेवाले जैनविद्या के | संशोधन / परिवर्धन आदि किया जाता है। इसमें अभी तक यशस्वी विद्वान् डॉ० वृषभप्रसाद जैन, लखनऊ हैं। पश्चात् | २०० ग्रन्थों (सूची में तारांकित ग्रन्थविशेष) के संशोधन जैनविद्या के अध्येता विद्वान् डॉ. भागचन्द्र जैन 'भास्कर' | का कार्य सम्पन्न हो चुका है। नागपुर के मार्गदर्शन में एवं डी. राकेश जैन के सहयोग | सर्वोदय जैनविद्यापीठ ग्रन्थालय से शब्दकोश का कार्यालय सागर में आरम्भ किया गया। ३. इस कार्यालय द्वारा जैनविद्या विश्वकोश परियोजना
सर्वोदय जैनविद्यापीठ की महत्त्वाकांक्षी योजना के लिए आवश्यक पुस्तक संग्रह का कार्य भी समानान्तर जैनविद्या विश्वकोश परियोजना के कार्य को सुव्यवस्थित | रूप से किया जा रहा है। अभी तक इसके अपने गति देने के लिए जनवरी २००२ में सागर कार्यालय का | पुस्तकालय में ९ हजार पुस्तकों का संग्रह पूर्ण हो चुका शुभारम्भ किया गया। जिसमें इस परियोजना के साथ अन्य | है। इन्हें अन्तर्राष्ट्रीय पुस्तक विभाजन के मानकों के आधार कार्य भी समानान्तर रूप से संचालित हो रहे हैं। विगत् | पर वर्गीकृत किया गया है। जिसके कुल ५८ विभाग हैं। वर्षों से जैनविद्या विश्वकोश का कार्य प्रगति पर है। इसके | यदि अन्यत्र भी इस पद्धति का उपयोग किया जाये तो समय, श्रम एवं व्ययसाध्य होने के कारण शीघ्र ही निष्पन्नता पाठकों/उपयोगकर्ताओं को पुस्तकीय सूचनाओं से लाभान्वित दिखाई नहीं देती। फिर भी इसके निम्न विवरण दष्टव्य | होने में अत्यधिक सविधा प्राप्त होती है। पस्तकों की
उपलब्धता प्रदर्शित करने के लिए पुस्तक शीर्षकाधारित १. संचालक मण्डल के निर्णयानुसार परियोजना में | एवं लेखकाधारित सूचनापत्रों (कार्डस्) का निर्माण कर जैनविद्या की सभी विधाओं के मूलभूत ग्रन्थों (यदि आचार्य | सुसज्जित किया गया है। पुस्तकों के अतिरिक्त जैनसमाज भगवन्त प्रणीत हैं तो वे, अन्यथा उपलब्ध प्रामाणिक सामग्री में प्रकाशित होनेवाली शताधिक नियमित पत्रिकाओं की से) के द्वारा संज्ञाओं (पारिभाषिक शब्द, शब्दों की विशेषताएँ, अनेक वर्षों की फाईलें भी उपलब्ध हैं। स्थान एवं व्यक्तिवाचक शब्द आदि विविध सन्दर्भो) के | शोध-सहयोग/मार्गदर्शन संग्रह का कार्य निरन्तर १० प्रशिक्षुओं द्वारा सम्पन्न कराया। ४. कार्यालय में पुस्तकों की उपलब्धि के आधार गया। इनके द्वारा अब तक लगभग २५० से अधिक ग्रन्थों। पर जैनधर्म एवं जैनविद्या पर अनुसन्धानकर्ताओं को
हैं
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आवश्यक सहयोग एवं मार्गदर्शन की व्यवस्था भी उपलब्ध है। अभी तक यहाँ की सामग्री का उपयोग करनेवाले सात शोधार्थियों ने अपने शोध प्रबन्ध प्रस्तुत कर विद्यावारिधि की उपाधि अर्जित की है। जिनकी तालिका उनके विषय के साथ निम्न है
१. श्रीमती अमिता जैन- डॉ. सर हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर ( आचार्य विद्यासागरकृत मूकमाटी और हिन्दी महाकाव्य)
३. डॉ. कु. चन्द्रकान्ता जैन- डॉ. सर हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर ( आचार्य जिनसेनकृत आदिपुराण में प्रतिपादित शिक्षाशास्त्रीय मान्यताओं का वर्तमान सन्दर्भ में परिशीलन )
संग्रहीत इन पुस्तकों का सर्वाधिक उपयोग अनेक जैनसन्त व जैनधर्म के स्वाध्यायी जिज्ञासुओं द्वारा किया जाता है। विश्वविद्यालय में संचालित स्नातक एवं स्नातकोत्तर २. डॉ. सुनील जैन- डॉ. सर हरिसिंह गौर विश्व के जैनदर्शन के पाठ्यक्रम की उपलब्धता होने से अनेक विद्यालय, सागर (जैन साहित्य में ज्योतिष) छात्र-छात्राएँ भी इन पुस्तकों का उपयोग कर लाभान्वित होते हैं।
सहायक गतिविधियाँ
५. सर्वोदय जैनविद्यापीठ एवं स्व. पं. पन्नालाल जैन साहित्याचार्य पुण्यस्मरण आयोजन समिति के संयुक्त तत्त्वावधान में राष्ट्रीय प्रतिभा प्रोत्साहन संगोष्ठी का आयोजन भी सफलता पूर्वक सन् २००२ में श्री सिद्धक्षेत्र कुण्डलपुर एवं २००३ में सागर में किया गया।
६. जैन साहित्य के प्रचार-प्रसार की दृष्टि से एक पुस्तक विक्रय केन्द्र संचालित है, जिसमें निर्धारित छूट के साथ धार्मिक पुस्तकें उपलब्ध होती हैं ।
सर्वोदय जैनविद्यापीठ सिद्धायतन, महावीरनगर, छोटा करीला, सागर ४७० ००१
४. डॉ. वन्दना जैन- डॉ. सर हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर (विदिशा जिले का सांस्कृतिक अध्ययन : पुरातत्त्व एवं जैनधर्म के विशेष सन्दर्भ में)
५. डॉ. कु. अनीता जैन - रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय, जबलपुर (पाणिनि एवं जैनेन्द्र व्याकरण का तुलनात्मक अध्ययन )
६. डॉ. ब्र. राजेन्द्र कुमार जैन- रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय, जबलपुर ( भारतीय योगपरम्परा और ज्ञानार्णव)
७. डॉ. कु. शशि जैन- डॉ. सर हरिसिंह गौर विश्व
विद्यालय, सागर ( आचार्य कुन्दकुन्द और समन्तभद्र के श्रावकाचारों का विशेष अध्ययन )
संस्कृति और संस्कारों की ओर बढ़ते चले, आधुनिक शिक्षा के साथ श्री वर्णी दिगम्बरजैन गुरुकुल उच्चतर माध्यमिक विद्यालय एवं छात्रावास
1. उच्चतम, स्वच्छंद आवासीय व्यवस्था 2. 6 एकड़ भूमि का विशाल प्राङ्गण 3. आधुनिक सुविधायुक्त अध्ययन कक्ष 4. प्रत्येक कक्षा में सीमित छात्र संख्या 5. प्रशिक्षित एवं अनुभवी शिक्षकों द्वारा अध्ययन 6. धार्मिक क्रियाओं का आगमानुसार प्रशिक्षण 7. सरस शुद्ध सात्विक भोजन व्यवस्था
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इसके साथ ही तीन अन्य शोधार्थी इन ग्रन्थालय का उपयोग वर्तमान में कर रहे हैं, जिनके कार्य शीघ्र ही पूर्ण होने की सम्भावना है।
प्रवेश प्रारंभ
8. कम्प्यूटर शिक्षण की व्यवस्था । 9. उच्च संगीतज्ञों द्वारा संगीत - शिक्षा 10. मासिक खेल प्रतियोगिताएँ 11. प्रातः कालीन योगाभ्यास क्रियाएँ 12. वार्षिक उच्च प्राप्ताङ्कों पर शासकीय उच्चाधिकारियों
द्वारा सम्मान
सम्पर्कसूत्रः अधिष्ठाता - ब्र. जिनेशजी
.9301338591, 9425984533, 9301338591, 2672991
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जिज्ञासा समाधान
प्रश्नकर्त्ता - पं. विनीत शास्त्री बागीदौरा
जिज्ञासा- क्या उपपाद नाम का कोई आठवाँ समुद्घात भी होता है ?
पं. रतनलाल बैनाड़ा
थी, रामनाम था और उसने सब लोगों को नम्रीभूत कर रखा था --- ।
(आ) श्री महापुराण ( रचयिता - कवि पुष्पदंत) की ६९ वीं संधि में इस प्रकार कहा हैमघरिक्खयदि णीरयदिसिहि, फग्गुणि तम कालिहि तेरसि हि । देवि णवमासहिं सुउजणिउ, तणु रामुरामु राएं भणिउ ॥ अर्थ- जब चन्द्रमा मघा नक्षत्र में स्थित था, दिशा निर्मल थी ऐसी फाल्गुन वदी तेरस को नौ माह पूरे होने पर देवी ने पुत्र को जन्म दिया। शरीर से सुन्दर होने के कारण राजा ने उसका नाम राम रखा।
समाधान- उपपाद नामक कोई आठवाँ समुद्घात नहीं होता। समुद्घात तो सात ही होते हैं। तत्त्वार्थसूत्र अध्याय २ सूत्र ८ की सर्वार्थसिद्धि टीका में यह शब्द बहुत प्रयोग हुआ है शायद आपने इनको ही देखकर प्रश्न लिखा है। जैसे - इस सूत्र की टीका में स्पर्शन प्ररूपणा में पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि जीवों का उपपाद की अपेक्षा सर्वलोक स्पर्श कहा है। यहाँ उपपाद शब्द का अर्थ इस प्रकार समझना है कि तीनों लोकों में स्थावर जीव भरे हुये हैं । यदि तीनों लोकों के किसी स्थान से कोई स्थावर जीव मरकर पंचेन्द्रिय में उत्पन्न होने वाला हो, तो वह मरण करने के तुरन्त बाद प्रथम समय से ही पंचेन्द्रिय जीव कहलाने लगता है। अभी वह पंचेन्द्रिय के शरीर को धारण नहीं कर पाया है, फिर भी पंचेन्द्रियजाति नामकर्म के उदय से पंचेन्द्रिय जीव कहलाता है। ऐसे पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि जीव पूरे लोक में पाये जाते हैं, यह यहाँ उपपाद शब्द का अर्थ लगाना चाहिये। प्रमाण इस प्रकार है
तिलोयपण्णत्ति अधिकार २/८ की टीका के भावार्थ में इस प्रकार कहा है
विवक्षित भव के प्रथम समय में होनेवाली पर्याय की प्राप्ति को उपपाद कहते हैं।
(अ) ज्ञानार्णव सर्ग ६ में इस प्रकार कहा हैअन्योन्य संक्रमोत्पन्नो भावः स्यात्सान्निपातिकः । षट्विंशभेदभिन्नात्मा स षष्ठो मुनिभिर्मतः ॥ ४२ ॥ अर्थ- जीव के इन पाँच भावों के परस्पर संयोग से उत्पन्न हुआ सान्निपातिक नाम का एक छठा भाव भी जिज्ञासा- रामचन्द्र जी का जन्म चैत्र शुक्ल नवमीं आचार्यों ने माना है। वह छव्वीस भेदों से भेदरूप है। या फाल्गुन कृष्णा ११ को हुआ था ?
(आ) सान्निपातिक भावों के संबंध में राजवर्तिक अ. २/७ की टीका में इस प्रकार कहा है
समाधान जैन प्रथमानुयोग के अनुसार रामचन्द्र जी का जन्म इन दोनों तिथियों को नहीं हुआ था । वैदिक या अन्य संस्कृति में हुआ हो, वह अन्य बात है । जैन प्रथमानुयोग के ग्रंथों के अनुसार रामचन्द्र जी का जन्म फाल्गुन कृष्णा १३ को हुआ था । प्रमाण इस प्रकार हैं
(अ) उत्तरपुराण पर्व ६७ में इस प्रकार कहा हैकृष्णपक्षे त्रयोदश्यां फाल्गुने मास्यजायत । मद्यायां हल भृद्भावी चूलान्तकनकामरः ॥ १४९ ॥ त्रयोदश सहस्त्राब्दो रामनामानताखिलः । तत एव महीभर्तुः कैकेय्यामभवत्पुरः ॥ १५० ॥ अर्थ- फाल्गुन कृष्णा त्रयोदशी के दिन मद्या नक्षत्र में सुवर्णचूल नामक देव जो कि मंत्री के पुत्र का जीव था, होनहार बलभद्र हुआ । उसकी तेरह हजार वर्ष की आयु ।
" सान्तिपातिक नाम का कोई छठवाँ भाव नहीं है । यदि है भी तो वह 'मिश्र' शब्द से गृहीत हो जाता है । 'मिश्र' शब्द केवल क्षयोपशम के लिये ही नहीं है किन्तु उसके पास ग्रहण किया गया 'च' शब्द सूचित करता है कि 'मिश्र' शब्द से क्षायोपशमिक और सान्निपातिक दोनों का ग्रहण करना चाहिये। संयोग भंग की अपेक्षा आगम में उसका निरुपण किया गया है । सान्निपातिक भाव २६, ३६ और ४१ आदि प्रकार के बताये हैं। जैसे २६ भाव का खुलाशा द्विसंयोगी - १०, त्रिसंयोगी - १०, चतुः संयोगी ५ और पंच संयोगी - १ = २६ । उदाहरण- द्विसंयोगी जैसे मनुष्य और उपशांत क्रोध ( औदयिक- औपशमिकभाव) आदि । इसी तरह अन्य भावों की तफसील राजवार्तिक से देख
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प्रश्नकर्त्ता - सौ सरिता जैन नन्दुरवार (महा.) जिज्ञासा- क्या जीव में ५३ भाव के अलावा अन्य भाव भी होते हैं?
समाधान- जीव के ५३ भावों को स्वतत्त्व कहा है, अर्थात् ये ५३ जीव के भाव चेतनात्मक हैं। इसकारण स्वतत्त्व कहे हैं। इनके अतिरिक्त अन्य भावों का भी उल्लेख टीकाओं से प्राप्त होता है, जो सामान्य से इन ५३ में ही गर्भित माने जा सकते हैं। वे इस प्रकार हैं
.
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हैं।
लीजियेगा।
| छठवाँ तथा सातवाँ होता है। इनका गुणस्थान पांचवाँ है, . (इ) तत्त्वार्थसूत्र अ.२/७ में जो 'च' शब्द दिया है, | अतः ये देश चारित्र की धारी होती हैं। उसका अर्थ राजवार्तिक में इस प्रकार दिया है- अस्तित्व | जिज्ञासा- आजकल बहुत से साधर्मी भाई, मंदिर अन्यत्व, कर्तृत्व, भोक्तृत्व पर्यायवत्व असर्वगत्व, प्रदेशवत्व | प्रवेश करते समय मंदिर की चौखट या देहली को छूकर अरूपत्व आदि के समुच्च के लिये सूत्र में 'च' शब्द दिया | मस्तक से स्पर्श करते है। क्या यह मूढ़ता नहीं है? है। क्योंकि ये भाव अन्य द्रव्यों में भी पाये जाते हैं अतः समाधान- नहीं, यह मूढ़ता नहीं है। हमारे पूज्य असाधारण परिणामिक जीवभावों के निर्देशक इस सत्र में | नवदेवता होते हैं- पांच परमेष्ठी, जिनधर्म, जिनवाणी. इनका ग्रहण नहीं किया है। यद्यपि ये सभी भाव पारिणामिक | जिनालय एवं जिनविम्ब। ये जिनालय पूज्य होते है अतः
मंदिर में प्रवेश करते समय नि:सहि बोलते हुये मंदिर की (ई) तत्त्वार्थसूत्र अ. २/५ में जो अंत में 'च' शब्द | चौखट या देहली का स्पर्श करके मस्तक से लगाते हुये दिया है उसके संबंध में राजवार्तिक में कहा है- क्षायोपशमिक ही प्रवेश करना चाहिये। यह मूढता नहीं, यह तो जिनालय संज्ञित्वभाव, नोइंद्रियावरण के क्षयोपशम की अपेक्षा रखने | की वंदना का तरीका है। सड़क से गुजरते हुये, यदि रास्ते के कारण मतिज्ञान में अंतर्भूत हो जाता है। सम्यक- | में जिनालय आता हो तो तुरन्त हाथ जोड़कर तथा सिर मिथ्यात्व, यद्यपि धपानी की तरह उभयात्मक है, फिर | झुकाकर वंदना करनी चाहिये। दिन में उस मार्ग से यदि भी सम्यक्त्वपना उसमें विद्यमान होने से वह सम्यक्त्व में | २० बार आना-जाना पड़े तो हर बार ऐसा करना चाहिये। अंतर्भूत हो जाता है। योग भी क्षायोपशमिक भाव है, उसका | यदि जिनालय का शिखर दूर से दृष्टिगोचर हो जाये, तब वीर्यलब्धि में अंतर्भाव हो जाता है। अथवा 'च' शब्द से | भी तुरन्त वंदना करना चाहिये। यह जिनालय के प्रति इन भावों का संग्रह हो जाता है।
| बहुमान प्रदर्शित करने तथा वंदना के लिये है। आपको , उपरोक्त प्रकार से जीव के ५३ असाधारण भावों चाहिये कि आज से ही यह शुभकार्य करना प्रारंभ कर के अलावा, उपरोक्त सान्निपातिक या सम्यक्-मिथ्यात्व | दें। आदि भावों को समझ लेना चाहिए।
जिज्ञासा- पू. आचार्यश्री ने दूसरे अध्याय की वाचना जिज्ञासा- आर्यिकाओं का गुणस्थान, पात्रपना, भक्तियाँ | में कहा था कि एक समय में एक इन्द्रिय संबंधी उपयोग तथा चारित्र कौन सा होता है? स्पष्ट कीजिये?
ही होता है। परन्तु टी.वी. देखते समय हम देखते भी हैं समाधान- आपकी जिज्ञासा का उत्तर (आर्यिकाओं | और सुनते भी हैं ऐसा क्यों? के संबंध में) इस प्रकार है
समाधान- आपके प्रश्न के समाधान में कार्तिके(१) गुणस्थान- आर्यिकाओं का पाँचवा गुणस्थान | यानुप्रेक्षा में अच्छी तरह समझाया है। जो इस प्रकार हैहोता है।
पंचिदिय णाणाणंमज्झे एगं च होदि उवजुत्तं। (२) पात्र- में मध्यम पात्र की कोटि में आती हैं।
मण-णाणे उव जुक्तो इंदियणाणंण जोणेदि॥२५९॥ (३) भक्तियाँ- आहार के समय इनके लिये नवधा
अर्थ- पाँचों इन्द्रिय में से एक समय में एक ही भक्ति आवश्यक नहीं होती। पाद-प्रक्षालन तथा पूजन को
ज्ञान का उपयोग होता है तथा मनोज्ञान का उपयोग होने छोड़कर शेष ७ भक्तियाँ होती हैं। यह भी ध्यान रखना
| पर इन्द्रियज्ञान नहीं होता।। चाहिये कि यदि आर्यिका माताजी का अपने शहर में प्रवेश
भावार्थ- सैनी पंचेन्द्रिय जीव को पाँच इन्द्रिय तथा हो रहा हो, विहार हो रहा हो तो उनका पाद-प्रक्षालन या
मन, इन छह के निमित्त से मतिज्ञान होता है। परन्तु एक उनकी आरती उतारना आगम सम्मत नहीं है। यदि आर्यिका
| समय में इन छह में किसी एक के ही निमित्त से ज्ञान माताजी तखत आदि पर विराजमान हैं तो उनके समक्ष अy | होता है, जब मन से आत्मा जान रहा होता है तब पांचों बोलना. सामग्री चढाना. आरती करना भी उचित नहीं है।। इन्द्रियो से नहीं जानता है। इन सब बातों को समझकर आगम की मर्यादा जानकर,
यदि ऐसा है तो प्रश्न उठता है कि हाथ की कचौड़ी विवेक से कार्य करना चाहिये यथायोग्य भक्तियों से अधिक | खाने पर घ्राण इन्द्रिय उसकी गंध को सूंघती है, श्रोत्रेन्द्रिय भक्ति करके, आगम का अपलाप उचित नहीं है।
है। | कचौड़ी के चवाने के शब्द को ग्रहण करती है, चक्षु कचौड़ी (४) चारित्र- आर्यिकाएँ संयमासंयम अर्थात देश | को देखती है, हाथ को उसके गर्म होने का ज्ञान रहता है चारित्र की धारी होती हैं। सकलचारित्र धारी का गणस्थान | और जिव्हा उसका स्वाद लेती है, इस तरह पांचों इन्द्रिय 28 अप्रैल 2008 जिनभाषित
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ज्ञान एक साथ होते स्पष्ट क्यों दिखाई देते हैं? इसके । है कि हमें समय भेद का ज्ञान नहीं होता। तब ही हम समाधान में कार्तिकेय स्वामी कहते हैं
यह समझ लेते हैं कि पाँचों ज्ञान एक साथ हो रहे हैं। किन्तु एक्केकाले एक्कं णाणं जीवस्स होदि उवजुत्तं। यथार्थ में पाँचों ज्ञान क्रम से ही होते हैं अतः उपयोगरूप णाणाणाणाणि पुणो, लद्धि सहावेण वुच्चंति॥२६०॥ ज्ञान एक समय में एक ही होता है।
अर्थ- जीव के एक समय में एक ही ज्ञान का उपयोग | टी.वी. देखते समय भी ऐसा ही समझना चाहिये। होता है। किन्तु लब्धिरूप से एक समय में अनेक ज्ञान | हम को ऐसा लगता है कि हम देख भी रहे हैं और सुन, कहे हैं।
भी रहे हैं। वास्तव में ऐसा उपयोग की चंचलता से प्रतीत भावार्थ- प्रत्येक क्षायोपशमिक ज्ञान की दो अवस्थायें | होता हैं। सच तो यह ही है कि छहों में से एक ज्ञान उपयोग होती हैं- एक लब्धिरूप और एक उपयोगरूप। अर्थ को | में रहता है, शेष पांच लब्धि में रहते हैं। जैसे- कौएँ के ग्रहण करने की शक्ति का नाम लब्धि है और अर्थ को | आँख की दो गोल होती हैं परन्तु उनमें पतली एक ही ग्रहण करने का नाम उपयोग है। लब्धिरूप में एक साथ | होती है। हम कौएँ को बडी गौर से देखें तो भी लगेगा अनेक ज्ञान रह सकते हैं किन्तु उपयोगरूप में एक समय | कि दोनों गोलकों में पतली है। जबकि वास्तविकता यह में एक ही ज्ञान होता है। जैसे- पांचों इन्द्रियजन्य ज्ञान तथा [ है कि उसके पतली एक ही होती है। वह उसे इतनी तेजी मनोजन्य ज्ञान, लब्धिरूप में हमारे में सदा रहते हैं, किन्तु | से घुमाता है कि ऐसा लगता है कि दोनों गोलकों में पुतली हमारा उपयोग जिस समय जिस वस्तु की ओर होता है, | हैं। एक पतली होने से ही कौआ-काना कहा जाता है। उस समय केवल उसी का ज्ञान हमें होता है। कचौरी खाते | यह भी समझना चाहिये कि जब आत्मा को दर्शन समय भी जिस समय हमें उसकी गंध का ज्ञान हो रहा | हो रहा होता है तब ज्ञान नहीं होता. जब मतिज्ञान हो रहा होता है, उस समय इसका ज्ञान नहीं होता। जिस समय | है तब श्रत ज्ञान नहीं होता, जब अवग्रह हो रहा होता है रस का ज्ञान हो रहा होता है उस समय स्पर्श का ज्ञान | तब ईहा नहीं होता, जब व्यजनावग्रह हो रहा होता है तब नहीं होता। किन्त उपयोग की चंचलता के कारण कचौड़ी | अर्थावग्रह नहीं होता आदि। के बंध, रस, स्पर्श वगैरह का ज्ञान इतनी शीघ्रता से होता ।
1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी आगरा-282002 (उ.प्र.)
भजन
विनोद कुमार 'नयन'
धर्म की जड़ तो है पाताल। निशदिन करियो पुण्य कमाई। जहाँ पे होये पाप कमाई, भीर परै दुखदाई ॥ निशदिन --
जो भी धरम की शरण में आया, हुआ वो मालामाल॥ पुण्य कमाई सुख खों लावे, रिद्धि-सिद्धि सबहिं दिखावे।
धर्म है सच्चा मीत तुम्हारा, करता सदा सम्हाल।
आने वाला अगर हो संकट, उसको देता टाल॥ घर में भी सुख-शाँति होवे, रार मचै नें भाई ॥ निशदिन--
धर्म की--- जैसो पैसा घर में आवे, वैसो अपनो असर दिखावे।
जीवन में सुख-शांति लाता, हटाता मायाजाल। आवे घर में खोठो पैसा, उड़ है खाई उड़ाई ॥ निशदिन--
जिसने सच्चा धरम है जाना, डरता उससे काल॥ मेहनत को गर पैसा होवे, घर में आदमी चैन से सोवे।
धर्म की--- खर्च करें सब सम्हल-सम्हल कें, संतान ने बिगड़े भाई॥
सीधा सरल स्वभावी होता, नहीं होता विकराल । पईसा हाथ को मैल कहावे, ज्यादा जो कोऊ गरे लगावे
लाखों में वो अगल दिखाता, चमकता उसका भाल॥ गलत राह खों वो अपनावे, कष्ट उठावे भाई॥
धर्म की--- निशदिन---
'नयन' धरम धारण तू कर ले, क्यों बनता कँगाल। 'नयन' रखो संतोष सदा मन, सबसे बड़ो जगत में जो धन । ऐके आगे सबई हैं फीके, क्यों चित्त बात भुलाई ।।
ये अमूल्य धन है जगमाँहि, सुखी करे त्रिकाल ॥
धर्म की--- निशदिन --- |
एल.आई.जी.-24, ऐशबाग स्टेडियम के पास, भोपाल
अप्रैल 2008 जिनभाषित 29
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जैन त्योहारों के दौरान पशुवध एवं माँस विक्रय पर
रोक जायज : सुप्रीम कोर्ट
नई-दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने १४ मार्च, २००८,। एवं माँस विक्रय प्रतिबंध एक सामयिक, ऐतिहासिक एवं शुक्रवार को एक ऐतिहासिक फैसले में गुजरात हाई-कोर्ट | सर्वधर्म समभाव की जीवन्त मिशाल है। का वह फैसला पलट दिया, जिसमें जैन-पर्व 'पर्युषण' के प्रबुद्ध व विचारशील व्यक्तियों, कर्मठ कार्यकर्ताओं, दौरान नौ दिन तक किसी भी तरह के पशुधन के वध | सक्रिय सामाजिक व धार्मिक संगठनों/संस्थाओं का यह एवं माँस विक्री पर लगाई गई रोक को खारिज कर दिया नैतिक दायित्त्व है कि वे अब अपनी-अपनी कमर कसें। था। जैन-पर्व पर गुजरात सरकार द्वारा पशुवध एवं माँस और गुजरात सरकार के उक्त आदेश की तरह देश भर विक्री पर लगाए गए प्रतिबंध को सुप्रीम कोर्ट ने सही | में अपने एवं अन्य प्रदेशों में भी पर्युषण पर्व के दौरान ठहराया है।
पशुवध और माँस विक्रय को पूर्ण प्रतिबन्धित करवाने हेतु सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात सरकार के द्वारा लगाई गयी जन-जागरण करें। साथ ही स्थानीय प्रशासन एवं राज्य उक्त रोक को सही ठहराते हुए कहा कि आधुनिक भारत सरकार से अविलम्ब संपर्क स्थापित करके शासनादेश के वास्तुकार बादशाह अकबर ने भी सुलह-ए-कुल की | निर्गमित करने/करवाने हेतु सार्थक प्रयास करें। विभिन्न रीति अपनाई थी, जिसका मतलब सभी धर्मों व समुदायों
सांसद, विधायक अन्य जन-प्रतिनिधियों, राजनेताओं, के प्रति सहनशील होना था। सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी की
राजनैतिक संगठनों, समाचार-पत्र एवं पत्रिकाओं, इलेक्ट्रॉनिक कि महान् शासक अकबर ने सभी समुदाय के लोगों को
एवं प्रिंट मीडिया आदि के माध्यम से इस मुहिम को गति समान अवसर व सम्मान दिया था। अतः लोगों को भी
प्रदान की/ कराई जा सकती है। अकबर से सीख लेनी चाहिए, जो मुस्लिम होते हुए भी
कदाचित् राज्य सरकार के द्वारा ध्यान आकृष्ट कराये अपनी पत्नी जोधा के सम्मान में एक दिन के लिए
जाने के उपरान्त भी इस गंभीर मुद्दे पर ध्यान नहीं दिये शाकाहारी भोजन करता था।
जाने पर, योग्य कानूनविदों से सत्परामर्श लेकर अपने राज्य न्यायमूर्ति श्री एच. के सेमा और श्री मार्कण्डेय
के उच्च-न्यायालय में सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के काटजू की पीठ ने अपने पृष्ठीय फैसले में गुजरात के
परिप्रेक्ष्य में निज प्रदेश में पशुवध एवं माँस विक्रय को अहमदाबाद नगर-निगम द्वारा 'पर्युषण' पर्व के दौरान पशुवध एवं माँस की विक्री पर बंदिश लगाने के खिलाफ
पर्युषण-पर्व के दौरान पूर्णत: बंद किये जाने हेतु जनहित दायर की गई एक याचिका की सुनवाई के दौरान यह
याचिका दाखिल की/कराई जा सकती है। फैसला प्रदान किया।
पूज्य आचार्य भगवन्तों, साधु-सन्तों, साध्वीगण, पीठ ने हिंसाविरोधक संघ की याचिकाओं को
विद्वज्जगत्, धर्मोपदेशक भी यदि अपने धर्मोपदेशों के स्वीकार करते हुए यह भी कहा है जैनसमुदाय की
प्रसङ्ग आदि पर इस महान्, अद्वितीय कार्य को अमलीजामा भावनाओं का आदर करते हुए पशुवध एवं माँस की दुकानें
(पहनाएँ जाने हेतु सामाजिक कर्णधारी / जनसामान्य को एक वर्ष में नौ दिन तक बंद करने के फैसलों को अतार्किक प्रोत्साहित) करें तो यह मुहिम अतिशीघ्र ही अपने लक्ष्य प्रतिबंध नहीं कहा जा सकता।
को पा लेगी, ऐसा विश्वास है। गुजरात के समान आपके विभिन्न समाचार एजेंसियों के द्वारा प्रेषित एवं | प्रयासों से यदि नौ दिन तक पशुवध व माँस विक्रय कार्य समाचार-पत्रों में प्रकाशित उक्त संक्षिप्त समाचार ही अहिंसा. प्रतिबंधित होता है, तो अकेले आपके राज्य में ही उतने जीव-दया, प्राणि-मैत्री, पशु-कल्याण, पर्यावरण संरक्षण के | दिनों में लाखों जीवों को जीवनदान मिल सकेगा। अतएव साथ शाकाहार के क्षेत्र में भी मील के पत्थर की भाँति | ऐसे श्रेष्ठ, अहिंसक पुण्यवर्धक कार्य को प्रोत्साहित करने एक आधार स्तंभ बन गया है। गुजरात सरकार द्वारा जैन- | हेतु यथासंभव तन-मन-धन एवं योग्य समय देकर समुचित समुदाय के पवित्र पर्व पर्युषण के दौरान लगाई गई पशुवध | प्रयास करना सामयिक रचनात्मक पहल होगी।
30 अप्रैल 2008 जिनभाषित
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अखिल भारतीय जैनविद्वत्सम्मेलन : एक सुखद समागम
डॉ. सुरेन्द्रकुमार जैन 'भारती'
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श्री १००८ श्री मज्जिनेन्द्र जिनबिम्ब पंचकल्याणक प्रतिष्ठा, पंच गजरथ महोत्सव एवं विश्वशांति महायज्ञ के शुभावसर पर दिनाङ्क १७ फरवरी २००८ को ज्ञान कल्याणक दिवस के शुभावसर पर संतशिरोमणि आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज (ससंघ) के शुभाशीर्वाद एवं सान्निध्य में मुनिश्री अजितसागरजी महाराज एवं क्षुल्लक श्री विवेकानन्दसागरजी महाराज की मंगल प्रेरणा से पंचकल्याणक महोत्सव स्थल श्री राधाकृष्णरम्, कालाबाग, गंजबासौदा ( विदिशा) म.प्र. में, धर्म दिवाकर, काव्य मर्मज्ञ पं. लालचन्द्र जैन 'राकेश' के संयोजकत्व तथा डॉ. पी.सी. जैन एवं डॉ. आराधना जैन, गंजबासौदा (म.प्र.) के सहसंयोजकत्व तथा मेरे (डॉ. सुरेन्द्रकुमार जैन 'भारती') के निर्देशन एवं संचालकत्व में अखिल भारतीय जैन विद्वत्सम्मेलन प्रासंगिक विचारों से ओतप्रोत तीर्थसंरक्षण एवं पंचकल्याणक प्रतिष्ठा जैसे महत्त्वपूर्ण विषय पर अतिशय प्रभावनापूर्वक संपन्न हुआ । इस विद्वत्सम्मेलन में आचार्यश्री के ससंघ सान्निध्य में दो सत्र सम्पन्न हुए। जिनकी अध्यक्षता क्रमशः भाषाविद् डॉ. वृषभप्रसाद जैन, लखनऊ एवं डॉ. शीतलचन्द्र जैन (अध्यक्ष- अ. भा. दि. जैन विद्वत्परिषद्) जयपुर ने की। ग्रंथ विमोचन
अखिल भारतीय जैनविद्वत्सम्मेलन के मध्य अ. भा.दि. जैन विद्वत्परिषद् के द्वारा प्रकाशित आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज द्वारा संस्कृत भाषा में रचित एवं हिन्दी पद्यानुवाद युक्त काव्य 'चैतन्य चन्द्रोदय' के द्वितीय संस्करण का विमोचन मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री श्री शिवराज सिंह चौहान ने किया तथा कृति का परिचय डॉ. सुरेन्द्र जैन 'भारती' ने दिया। इसी श्रृंखला में 'आचार्य गुणभद्र कृत आत्मानुशासन' ग्रंथ पर आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज द्वारा रचित 'गुणोदय' (पद्यानुवाद) पर आर्यिका श्री मृदुमति माता जी द्वारा लिखित 'अन्वयार्थ व भद्रार्थ', बालब्रह्मचारिणी पुष्पा दीदी द्वारा संयोजित ग्रंथ 'आत्मानुशासन' का विमोचन रहली समाज द्वारा किया गया। ग्रंथ का परिचय पं. शिवचरणलाल जैन मैनपुरी ने दिया । तृतीय कृति मुनि श्री अजितसागरजी महाराज द्वारा आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज के सुभाषितों के संग्रहग्रंथ 'विद्या- वाणी' का
विमोचन किया गया। कृति का परिचय डॉ. कपूरचन्द्र जैन, खतौली ने दिया। संस्कार सागर एवं पार्श्व - ज्योति (मासिक) के नवीन अङ्को का विमोचन किया गया। इनका परिचय पं. विनोद जैन, रजवांस ने दिया। बैलगाड़ी उपहार योजना की घोषणा
अ.भा. जैन विद्वत्सम्मेलन में मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री श्री शिवराजसिंह चौहान ने आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज द्वारा अपने प्रवचन में यह कहे जाने पर कि आपकी सरकार ने गौवंश की हत्या पर प्रतिबंध लगाया है जो सराहनीय है लेकिन गाय तो दूध देने के कारण लोग पाल रहे हैं किन्तु खेती के कार्य में ट्रेक्टर आदि के आ जाने के कारण बैलों की उपेक्षा हो रही है अतः उन्हें बूचड़खाने भेजा जा रहा है। ऐसे समय में जरूरी है कि बैलों के संरक्षण पर ध्यान दिया जाए और कृषि उपज मंडियों में बैलगाड़ियों को चलवाने की व्यवस्था की जाए तथा सामाजिक संगठन एवं सरकार इसमें सहयोग करें। इस विचार को सुनते मुख्यमंत्री ने अपनी संवेदनशीलता का परिचय देते हुए कहा कि मैं आचार्यश्री के विचारों से प्रेरित होकर यह घोषणा करता हूँ कि जो भी किसान या हम्माल मंडी में बैलगाड़ी चलायेगा, उसके लिए म.प्र. शासन की ओर से बैलगाड़ी का आधा लागत व्यय दिया जायेगा । अपार जनसमूह ने करतल ध्वनि से इसका समर्थन किया। मुख्यमंत्री की मांग
अ.भा. जैन विद्वत्सम्मेलन में मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री श्री शिवराजसिंह चौहान ने आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज के चरणों में सपत्नीक श्रीफल अर्पित कर चरण वंदना की और आचार्यश्री से मुखातिब होकर जनसमूह के मध्य कहा कि- आचार्य श्री जब मैंने सर्वप्रथम आपके नेमावर में दर्शन किये थे तो आपसे आशीर्वाद मांगा था कि मुझे १. सद्बुद्धि देना क्योंकि राजनीति की रपटीली राह में कोई भी भटक सकता है । २. सन्मार्ग देना क्योंकि जिसे उचित रास्ते का ज्ञान नहीं वह आगे कैसे बढ़ेगा और आज मैं इस विद्वत्सम्मेलन के मध्य आपसे विनम्र प्रार्थना कर रहा हूँ कि मुझे । ३. सामर्थ्य देना क्योंकि यदि सामर्थ्य नहीं रही तो मैं और मेरी सरकार हिंसा एवं अन्याय का मुकाबला और अहिंसा और न्याय की प्रतिष्ठा कैसे कर सकेगी?
अप्रैल 2008 जिनभाषित 31
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यह सुनकर आचार्यश्री मंदमंद मुस्कुराते रहे और जनता । समारोह हेतु अपनी स्वीकृति प्रदान करें और वहाँ अपना में तुरंत प्रतिक्रिया हुई कि आगामी विधानसभा चुनाव में | ससंघ सान्निध्य एवं शुभाशीर्वाद प्रदान करें क्योंकि आपके जीतने के लिए आशीर्वाद मांग रहे हैं। इस अवसर पर | ही प्रमुख शिष्य मुनिपुङ्गव श्री सुधासागरजी महाराज के मुख्यमंत्री ने अपनी सरकार द्वारा कन्या-शिक्षा, जननी- | शुभाशीर्वाद एवं मंगल प्रेरणा से यह अभिनव तीर्थ साकार सुरक्षा और कन्याओं के संरक्षण हेतु प्रारंभ की गई योजनाओं हो रहा है जो आध्यात्मिक पर्यटन स्थल के रूप में विश्व की बड़े ही काव्यात्मक ढंग से जानकारी दी जिसका | के पर्यटन मानचित्र पर अपनी दस्तक देने जा रहा है। अतः जनसमूह ने खुले दिल से करतलध्वनि कर समर्थन दिया।| यदि आचार्यश्री के चरण वहाँ पड़ते हैं तो उस तीर्थ के उन्होंने आचार्यश्री को विदिशा में ग्रीष्मकालीन वाचना करने | उत्तरोत्तर विकास को गति मिलेगी। वहाँ आर.के. मार्बल्स तथा उसके बाद भोपाल पधारने हेत विनती की और श्रीफल | परिवार की ओर से विशाल एवं भव्य आदिनाथ जिनालय अर्पित किया।
का निर्माण हुआ है वह पर्यटकों को सहज ही आकर्षित आचार्यश्री नारेली जायें
करता है और जो भी वहाँ जाता है वह एक अध्यात्म के अ.भा.जैनविद्वत्सम्मेलन के मध्य अ.भा. दिगम्बर रंग से रंगकर निकलता है। उपस्थित जनसमूह ने भी करतल जैन विद्वत्परिषद् के अध्यक्ष डॉ. शीतलचन्द्र जैन ने | ध्वनि से इसका समर्थन किया। राजस्थानवासियों को आशा राजस्थान के जैनतीर्थों के परिचय के मध्य कहा कि- नारेली | है कि आचार्यश्री अवश्य वहाँ पधारेंगे और उनकी राजस्थान का नवोदित तीर्थ है जहाँ आचार्यश्री के सान्निध्य | मनोकामनापूर्ण करेंगे। में पंचकल्याणक प्रतिष्ठा का आयोजन होना शेष है। हम | आचार्यश्री की भावना सब राजस्थानवासी आपके शुभाशीर्वाद की प्रतीक्षा में हैं। | अ.भा. जैनविद्वत्सम्मेलन के मध्य परमपूज्य आचार्यश्री डॉ. साहब के वक्तव्य पर टिप्पणी करते हुए सम्मेलन के | ने ज्ञान कल्याणक के महत्त्व को रेखाङ्कित करते हुए जहाँ संचालक डॉ. सुरेन्द्र जैन 'भारती' ने कहा कि यद्यपि | जिनवाणी के महत्त्व एवं षद्रव्य व्यवस्था पर प्रेरक प्रवचन आचार्यश्री के चरण बुन्देलखण्डवासियों ने पूरे समर्पण- | दिया वहीं सम्मेलन के निदेशक डॉ. सुरेन्द्र जैन 'भारती' भाव के साथ पकड़ रखे हैं अतः मैं यह तो नहीं कह | एवं संयोजक धर्मदिवाकर पं. लालचन्द्र जैन 'राकेश' आदि सकता कि आचार्यश्री बुन्देलखण्ड छोड़कर अन्यत्र विहार विद्वानों से परस्पर संवाद में भावना व्यक्त की कि जैनसमाज करें किन्तु मैं श्री दिगम्बरजैन ज्ञानोदय तीर्थक्षेत्र नारेली- | में जो संस्थाएँ पहले से कार्य कर रही हैं उन्हें और अधिक अजमेर (राजस्थान) कमेटी की ओर से पूज्य आचार्यश्री | सक्रिय करने की आवश्यकता है इसके लिए समाज को विद्यासागर जी महाराज से यह निवेदन अवश्य करना चाहूँगा तन-मन-धन से सहयोग करना चाहिए। कि वह वहाँ आयोजित होनेवाले पंचकल्याणक प्रतिष्ठा
एल-६५, न्यू इंदिरानगर, बुरहानपुर (म.प्र.)
राणा प्रताप का भाट जब वीर-केसरी राणा प्रताप जंगलों और पर्वत-कन्दराओं में भटकते फिरते थे, तब उनका एक भाट पेट की ज्वाला से तंग आकार शहंशाह अकबर के दरबार में पहुँचा और सिरकी पगड़ी बगल में छिपाकर फर्शी सलाम झुका लाया। अकबर ने भाट की यह उद्दण्डता देखी तो तमतमा उठा और रोष-भरे स्वर में बोला
'पगड़ी उतारकर मुजरा देना, जानता है कितना बड़ा अपराध है?'
भाट अत्यन्त दीनता-पूर्वक बोला- 'अन्नदाता! जानता तो सब कुछ हूँ, मगर क्या करूँ, मजबूर हूँ। यह पगड़ी हिन्दूकुल-भूषण राणा प्रतापकी दी हुई है। जब वे आपके सामने न झुके, तब उनकी दी हुई यह पगड़ी कैसे झुका सकता था? मेरा क्या है, मैं ठहरा पेट का कुत्ता, जहाँ भी पेट भरन की आशा देखी, वहीं मान अपमान की चिन्ता न करके पहुँच गया। मगर जहाँ-पनाह...'
अकबर ने सोचा- 'वह प्रताप कितना महान् है, जिसके भाट तक शत्रु के शरणगत होने पर भी उसके स्वाभिमान और मर्यादा को अक्षुण्ण रखते हैं।' (अनेकान्त, मार्च १९३९ ई.) ।
श्री अयोध्या प्रसाद गोपलाय : 'गहने पानी पैठ' से साभार
32 अप्रैल 2008 जिनभाषित
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पूण्य कमाओ
तीर्थबचाओ
भावसहित बंदे जो कोई, ताहि नरक पशु गति नहिं होई।
वंदना से पूर्व तीर्थ सुरक्षा का एक संकल्प
पर्वतराज श्री सम्मेद शिखर एवं अन्य तीर्थ पर्वतों पर मैं किसी भी प्रकार की खाद्य व पेय सामग्री नहीं खरीदूंगा।
___ क्योंकि, सामग्रियाँ बेचनेवाले पर्वतों पर अपने स्थायी निवास बनाने लगे हैं, जिससे सभी तीर्थक्षेत्र गिरनार जी की तरह असुरक्षित हो जायेंगे।
तीर्थ हमारे प्राण हैं इनकी सुरक्षा हमारा कर्त्तव्य व धर्म है
निवेदक : श्री शान्तिनाथ प्रकाशन समिति, 18, खरीफाटक विदिशा
सौजन्य : श्रीमती स्नेहलता जैन, धर्मपत्नि-स्व. गुलाबचन्द्र जैन
(उत्सव टेंट हाउस) विदिशा
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________________ UPHIN/2006/16750 NOohd मुनि श्री क्षमासागर जी की कविताएँ मुझसे सुनकर बात मरण की मेरे भीतरतुम्हें निराशा छाई लगती होगी पर जीवन में स्वीकार मरण का हँसी-खुशी कर लेना जीवन का इनकार नहीं है वह तो क्रम है संसृति का जैसे वृक्षों से पतझर आने पर सूखे पत्तों का गिरना पतझर से इनकार नहीं स्वागत है आते बसन्त का। रेत पर पैरों की छाप नदी के किनारे रेत पर पड़ी अपने पैरों की छाप, सोचा लौटकर उठा लाऊँ। मुड़कर देखा, पाया उठा ले गयीं हवाएँ मेरी छाप अपने आप। अब मन को समझाता हूँ कि हवाएँ सब दुश्मनों की नहीं होती जो मिटाने आती हों हमारी छाप। असल में, अहं की रेत पर बनी हमारी छाप मिट जाती है अपने-आप 'अपना घर' से साभार स्वामी, प्रकाशक एवं मुद्रक : रतनलाल बैनाड़ा द्वारा एकलव्य ऑफसेट सहकारी मुद्रणालय संस्था मर्यादित, 210, जोन-1, एम.पी. नगर, भोपाल (म.प्र.) से मुद्रित एवं 1/205 प्रोफेसर कॉलोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) से प्रकाशित / संपादक : रतनचन्द्र जैन।