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________________ - ज्ञान एक साथ होते स्पष्ट क्यों दिखाई देते हैं? इसके । है कि हमें समय भेद का ज्ञान नहीं होता। तब ही हम समाधान में कार्तिकेय स्वामी कहते हैं यह समझ लेते हैं कि पाँचों ज्ञान एक साथ हो रहे हैं। किन्तु एक्केकाले एक्कं णाणं जीवस्स होदि उवजुत्तं। यथार्थ में पाँचों ज्ञान क्रम से ही होते हैं अतः उपयोगरूप णाणाणाणाणि पुणो, लद्धि सहावेण वुच्चंति॥२६०॥ ज्ञान एक समय में एक ही होता है। अर्थ- जीव के एक समय में एक ही ज्ञान का उपयोग | टी.वी. देखते समय भी ऐसा ही समझना चाहिये। होता है। किन्तु लब्धिरूप से एक समय में अनेक ज्ञान | हम को ऐसा लगता है कि हम देख भी रहे हैं और सुन, कहे हैं। भी रहे हैं। वास्तव में ऐसा उपयोग की चंचलता से प्रतीत भावार्थ- प्रत्येक क्षायोपशमिक ज्ञान की दो अवस्थायें | होता हैं। सच तो यह ही है कि छहों में से एक ज्ञान उपयोग होती हैं- एक लब्धिरूप और एक उपयोगरूप। अर्थ को | में रहता है, शेष पांच लब्धि में रहते हैं। जैसे- कौएँ के ग्रहण करने की शक्ति का नाम लब्धि है और अर्थ को | आँख की दो गोल होती हैं परन्तु उनमें पतली एक ही ग्रहण करने का नाम उपयोग है। लब्धिरूप में एक साथ | होती है। हम कौएँ को बडी गौर से देखें तो भी लगेगा अनेक ज्ञान रह सकते हैं किन्तु उपयोगरूप में एक समय | कि दोनों गोलकों में पतली है। जबकि वास्तविकता यह में एक ही ज्ञान होता है। जैसे- पांचों इन्द्रियजन्य ज्ञान तथा [ है कि उसके पतली एक ही होती है। वह उसे इतनी तेजी मनोजन्य ज्ञान, लब्धिरूप में हमारे में सदा रहते हैं, किन्तु | से घुमाता है कि ऐसा लगता है कि दोनों गोलकों में पुतली हमारा उपयोग जिस समय जिस वस्तु की ओर होता है, | हैं। एक पतली होने से ही कौआ-काना कहा जाता है। उस समय केवल उसी का ज्ञान हमें होता है। कचौरी खाते | यह भी समझना चाहिये कि जब आत्मा को दर्शन समय भी जिस समय हमें उसकी गंध का ज्ञान हो रहा | हो रहा होता है तब ज्ञान नहीं होता. जब मतिज्ञान हो रहा होता है, उस समय इसका ज्ञान नहीं होता। जिस समय | है तब श्रत ज्ञान नहीं होता, जब अवग्रह हो रहा होता है रस का ज्ञान हो रहा होता है उस समय स्पर्श का ज्ञान | तब ईहा नहीं होता, जब व्यजनावग्रह हो रहा होता है तब नहीं होता। किन्त उपयोग की चंचलता के कारण कचौड़ी | अर्थावग्रह नहीं होता आदि। के बंध, रस, स्पर्श वगैरह का ज्ञान इतनी शीघ्रता से होता । 1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी आगरा-282002 (उ.प्र.) भजन विनोद कुमार 'नयन' धर्म की जड़ तो है पाताल। निशदिन करियो पुण्य कमाई। जहाँ पे होये पाप कमाई, भीर परै दुखदाई ॥ निशदिन -- जो भी धरम की शरण में आया, हुआ वो मालामाल॥ पुण्य कमाई सुख खों लावे, रिद्धि-सिद्धि सबहिं दिखावे। धर्म है सच्चा मीत तुम्हारा, करता सदा सम्हाल। आने वाला अगर हो संकट, उसको देता टाल॥ घर में भी सुख-शाँति होवे, रार मचै नें भाई ॥ निशदिन-- धर्म की--- जैसो पैसा घर में आवे, वैसो अपनो असर दिखावे। जीवन में सुख-शांति लाता, हटाता मायाजाल। आवे घर में खोठो पैसा, उड़ है खाई उड़ाई ॥ निशदिन-- जिसने सच्चा धरम है जाना, डरता उससे काल॥ मेहनत को गर पैसा होवे, घर में आदमी चैन से सोवे। धर्म की--- खर्च करें सब सम्हल-सम्हल कें, संतान ने बिगड़े भाई॥ सीधा सरल स्वभावी होता, नहीं होता विकराल । पईसा हाथ को मैल कहावे, ज्यादा जो कोऊ गरे लगावे लाखों में वो अगल दिखाता, चमकता उसका भाल॥ गलत राह खों वो अपनावे, कष्ट उठावे भाई॥ धर्म की--- निशदिन--- 'नयन' धरम धारण तू कर ले, क्यों बनता कँगाल। 'नयन' रखो संतोष सदा मन, सबसे बड़ो जगत में जो धन । ऐके आगे सबई हैं फीके, क्यों चित्त बात भुलाई ।। ये अमूल्य धन है जगमाँहि, सुखी करे त्रिकाल ॥ धर्म की--- निशदिन --- | एल.आई.जी.-24, ऐशबाग स्टेडियम के पास, भोपाल अप्रैल 2008 जिनभाषित 29 ational Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524327
Book TitleJinabhashita 2008 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2008
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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