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हैं।
लीजियेगा।
| छठवाँ तथा सातवाँ होता है। इनका गुणस्थान पांचवाँ है, . (इ) तत्त्वार्थसूत्र अ.२/७ में जो 'च' शब्द दिया है, | अतः ये देश चारित्र की धारी होती हैं। उसका अर्थ राजवार्तिक में इस प्रकार दिया है- अस्तित्व | जिज्ञासा- आजकल बहुत से साधर्मी भाई, मंदिर अन्यत्व, कर्तृत्व, भोक्तृत्व पर्यायवत्व असर्वगत्व, प्रदेशवत्व | प्रवेश करते समय मंदिर की चौखट या देहली को छूकर अरूपत्व आदि के समुच्च के लिये सूत्र में 'च' शब्द दिया | मस्तक से स्पर्श करते है। क्या यह मूढ़ता नहीं है? है। क्योंकि ये भाव अन्य द्रव्यों में भी पाये जाते हैं अतः समाधान- नहीं, यह मूढ़ता नहीं है। हमारे पूज्य असाधारण परिणामिक जीवभावों के निर्देशक इस सत्र में | नवदेवता होते हैं- पांच परमेष्ठी, जिनधर्म, जिनवाणी. इनका ग्रहण नहीं किया है। यद्यपि ये सभी भाव पारिणामिक | जिनालय एवं जिनविम्ब। ये जिनालय पूज्य होते है अतः
मंदिर में प्रवेश करते समय नि:सहि बोलते हुये मंदिर की (ई) तत्त्वार्थसूत्र अ. २/५ में जो अंत में 'च' शब्द | चौखट या देहली का स्पर्श करके मस्तक से लगाते हुये दिया है उसके संबंध में राजवार्तिक में कहा है- क्षायोपशमिक ही प्रवेश करना चाहिये। यह मूढता नहीं, यह तो जिनालय संज्ञित्वभाव, नोइंद्रियावरण के क्षयोपशम की अपेक्षा रखने | की वंदना का तरीका है। सड़क से गुजरते हुये, यदि रास्ते के कारण मतिज्ञान में अंतर्भूत हो जाता है। सम्यक- | में जिनालय आता हो तो तुरन्त हाथ जोड़कर तथा सिर मिथ्यात्व, यद्यपि धपानी की तरह उभयात्मक है, फिर | झुकाकर वंदना करनी चाहिये। दिन में उस मार्ग से यदि भी सम्यक्त्वपना उसमें विद्यमान होने से वह सम्यक्त्व में | २० बार आना-जाना पड़े तो हर बार ऐसा करना चाहिये। अंतर्भूत हो जाता है। योग भी क्षायोपशमिक भाव है, उसका | यदि जिनालय का शिखर दूर से दृष्टिगोचर हो जाये, तब वीर्यलब्धि में अंतर्भाव हो जाता है। अथवा 'च' शब्द से | भी तुरन्त वंदना करना चाहिये। यह जिनालय के प्रति इन भावों का संग्रह हो जाता है।
| बहुमान प्रदर्शित करने तथा वंदना के लिये है। आपको , उपरोक्त प्रकार से जीव के ५३ असाधारण भावों चाहिये कि आज से ही यह शुभकार्य करना प्रारंभ कर के अलावा, उपरोक्त सान्निपातिक या सम्यक्-मिथ्यात्व | दें। आदि भावों को समझ लेना चाहिए।
जिज्ञासा- पू. आचार्यश्री ने दूसरे अध्याय की वाचना जिज्ञासा- आर्यिकाओं का गुणस्थान, पात्रपना, भक्तियाँ | में कहा था कि एक समय में एक इन्द्रिय संबंधी उपयोग तथा चारित्र कौन सा होता है? स्पष्ट कीजिये?
ही होता है। परन्तु टी.वी. देखते समय हम देखते भी हैं समाधान- आपकी जिज्ञासा का उत्तर (आर्यिकाओं | और सुनते भी हैं ऐसा क्यों? के संबंध में) इस प्रकार है
समाधान- आपके प्रश्न के समाधान में कार्तिके(१) गुणस्थान- आर्यिकाओं का पाँचवा गुणस्थान | यानुप्रेक्षा में अच्छी तरह समझाया है। जो इस प्रकार हैहोता है।
पंचिदिय णाणाणंमज्झे एगं च होदि उवजुत्तं। (२) पात्र- में मध्यम पात्र की कोटि में आती हैं।
मण-णाणे उव जुक्तो इंदियणाणंण जोणेदि॥२५९॥ (३) भक्तियाँ- आहार के समय इनके लिये नवधा
अर्थ- पाँचों इन्द्रिय में से एक समय में एक ही भक्ति आवश्यक नहीं होती। पाद-प्रक्षालन तथा पूजन को
ज्ञान का उपयोग होता है तथा मनोज्ञान का उपयोग होने छोड़कर शेष ७ भक्तियाँ होती हैं। यह भी ध्यान रखना
| पर इन्द्रियज्ञान नहीं होता।। चाहिये कि यदि आर्यिका माताजी का अपने शहर में प्रवेश
भावार्थ- सैनी पंचेन्द्रिय जीव को पाँच इन्द्रिय तथा हो रहा हो, विहार हो रहा हो तो उनका पाद-प्रक्षालन या
मन, इन छह के निमित्त से मतिज्ञान होता है। परन्तु एक उनकी आरती उतारना आगम सम्मत नहीं है। यदि आर्यिका
| समय में इन छह में किसी एक के ही निमित्त से ज्ञान माताजी तखत आदि पर विराजमान हैं तो उनके समक्ष अy | होता है, जब मन से आत्मा जान रहा होता है तब पांचों बोलना. सामग्री चढाना. आरती करना भी उचित नहीं है।। इन्द्रियो से नहीं जानता है। इन सब बातों को समझकर आगम की मर्यादा जानकर,
यदि ऐसा है तो प्रश्न उठता है कि हाथ की कचौड़ी विवेक से कार्य करना चाहिये यथायोग्य भक्तियों से अधिक | खाने पर घ्राण इन्द्रिय उसकी गंध को सूंघती है, श्रोत्रेन्द्रिय भक्ति करके, आगम का अपलाप उचित नहीं है।
है। | कचौड़ी के चवाने के शब्द को ग्रहण करती है, चक्षु कचौड़ी (४) चारित्र- आर्यिकाएँ संयमासंयम अर्थात देश | को देखती है, हाथ को उसके गर्म होने का ज्ञान रहता है चारित्र की धारी होती हैं। सकलचारित्र धारी का गणस्थान | और जिव्हा उसका स्वाद लेती है, इस तरह पांचों इन्द्रिय 28 अप्रैल 2008 जिनभाषित
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