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व्यक्त होता । पाषाणों में भी मनमोहक प्रतिमाओं के आकार छिपे रहते हैं, जिन्हें शिल्पी की सिद्धहस्त छैनी कलात्मक तक्षण द्वारा प्रकटकर दर्शकों के लोचनों को मुग्ध कर देती है। विविध वाद्यों में मधुर संगीत और मानवशरीर की गतियों में ललित नर्तन अप्रकट अवस्था में विद्यमान होता है, जिन्हें वादक और नर्तक कुशल अभ्यास से व्यक्त कर मानवहृदय में रस का संचार कर देते हैं।
ठीक इसी प्रकार मनुष्य भी अनादिकाल से जिस रूप में है, वह उसका असली रूप नहीं है। असली रूप उसके भीतर अप्रकट अवस्था में मौजूद है, जो अत्यन्त आनंदमय है । यह आत्मा की अनेक शक्तियों के रूप में अवस्थित है। ये शक्तियाँ अलौकिक और आनंदमय हैं। इनके अभिव्यक्त होने पर व्यक्ति में अलौकिकता आती है और जब ये पूर्णरूप से अभिव्यक्त हो जाती हैं, तब वह पूर्णतः अलौकिक बन जाता है, जिसे परमात्म अवस्था कहते हैं ।
इनकी अलौकिकता का लक्षण यह है कि इनके प्रकट होते ही बिना किसी लौकिक वस्तु का आश्रय लिये, मनुष्य की दुःखानुभूति नष्ट हो जाती है और उसे सुख का अनुभव होने लगता है तथा इस प्रक्रिया से एक दिन उसके जन्म-मरण के बन्धन टूट जाते हैं, शरीर से सदा के लिए सम्बन्ध छूट जाता है। फलस्वरूप वह शाश्वतरूप से दुःखमुक्त होकर सुखमय अवस्था में स्थित हो जाता है।
आत्मा की ये अलौकिक शक्तियाँ हैं- सम्यग्दर्शन, सांसारिक सुख में अनासक्ति, दुःख में अनुद्विग्नता, निर्भयता, वीरता, क्षमा, मार्दव, आर्जव, वात्सल्य, मैत्री, कारुण्य, संयम, तप, शुभध्यान आदि ।
हमारे दुःख का प्रधान कारण है अनादि अविद्या अर्थात् हमारे साथ अनादिकाल से संयुक्त मिथ्यात्व या अज्ञान। उसके प्रभाव से हमें संसार की वस्तुओं में सुख की भ्रान्ति, शरीर में स्वरूप की भ्रान्ति तथा शरीर से सम्बद्ध पदार्थों में अपनत्व की भ्रान्ति होती है जिसके कारण उनके प्रति आकर्षण उत्पन्न होता है और हम उनके अभाव में दुःखी होते हैं तथा उन्हें प्राप्त करने के लिए नाना प्रकार के दुःख उठाते हैं। संसार का नियम है कि मनुष्य को सांसारिक वस्तुओं की पूर्णरूप से प्राप्ति कभी नहीं होती और प्राप्त वस्तु स्थायी नहीं रहती। एक न एक वस्तु की कमी सदा बनी रहती है, जिसके कारण मनुष्य सदा एक न एक वस्तु के अभाव का दुःख अनुभव करता रहता है ।
सम्यग्दर्शन प्रकट होने पर संसार की वस्तुओं के विषय में उपर्युक्त भ्रान्तियाँ मिट जाती हैं अतएव उनके अभाव में दुःख नहीं होता । दुःख न होने से आत्मा का स्वभावभूत सुख प्रकट होकर अनुभव में आता । इस प्रकार एकमात्र सम्यग्दर्शनरूप आत्मशक्ति के अभिव्यक्त होने से ही व्यक्तित्व में अदृष्टपूर्व अलौकिकता एवं जीवन में अननुभूतपूर्व आनंद का आविर्भाव हो जाता है। अन्य शक्तियाँ अभिव्यक्त होकर क्रमशः इनका विस्तार करती जाती हैं। कुछ शक्तियाँ तो सम्यग्दर्शन के साथ ही प्रकट हो जाती हैं, अनेक आगे चलकर विशेष साधना द्वारा व्यक्त होती हैं ।
आत्मा के इस छिपे हुए असली रूप को प्रकट करना ही जीवन का प्रमुख कार्य है । जीवित रहकर एकमात्र यही कार्य करना जरूरी है। जिन्दा रहने का जो यह एकमात्र उद्देश्य है, उसकी पहचान न होने से हम केवल जिन्दा रहते हैं, जिन्दा रहने का मकसद पूरा नहीं कर पाते।
रतनचन्द्र जैन
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पाँचों नौबत बाजते, होत छतीसों राग । सो मन्दिर खाली पड़े, बैठन लागे काग ॥ आस-पास जोधा खड़े, सभी बजावैं गाल । मंझ महल से ले चला, ऐसा काल कराल ॥ सन्त कबीर
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अप्रैल 2008 जिनभाषित 3
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