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सम्पादकीय
जीवित किसलिए रहना है?
मित्रो! कभी आपने यह सोचा है कि इस दुनिया में जिन्दा रहकर हमें करना क्या है? वैसे हम बहुत से काम करते हैं, इतने कि फुरसत नहीं मिलती है। वेशुमार धन कमाते हैं, आलीशान कोठियाँ बनवाते हैं, बेटे-बेटियों की धूमधाम से शादियाँ करते हैं, इम्तहान पास करके ऊँची नौकरियाँ हासिल करते हैं या चुनाव जीतकर हुकूमत की कुर्सी पर बैठ जाते हैं, लेकिन ये तो सिर्फ जिन्दा रहने के लिए किये जानेवाले काम हैं या ज्यादा से ज्यादा जिन्दगी से मौत तक के रास्ते को सजा लेने के काम हैं, क्योंकि ये मूल प्रवृत्तियों या वासनाओं से प्रेरित होकर किये जाते हैं और मूलप्रवृत्तियों की प्रेरणा से किये जानेवाले काम जीवित रहने की प्रक्रिया के अङ्ग हैं। इनसे आदमियत में वृद्धि नहीं होती, मनुष्य में गुणात्मक सुधार नहीं होता, इंसान की 'क्वालिटी' इम्प्रूव्ह (improve) नहीं होती, व्यक्तित्व में अलौकिकता नहीं आती। दुनियाँ की कीमती और आकर्षक चीजों को अपने साथ जोड़ लेने से आदमी कीमती और आकर्षक नहीं बनता। स्वर्ण की लंका का अधिपति होने पर भी रावण 'राम' नहीं बन पाया। हलाकू, चंगेजखाँ ईदी अमीन बड़ी-बड़ी सल्तनतों के मालिक होकर भी भेड़िये ही बने रहे। दूध-मलाई खिलाने से किसी भी कुत्ते में आदमियत नहीं आ सकती, न ही विशाल भवन में बाँध देने से गधा घोड़े का रूप धारण कर सकता है। एक नीतिकार ने ठीक ही कहा है-“धुति सैंहीं न श्वा धृत-कनकमालोऽपि लभते" अर्थात् स्वर्णमाला धारण कर लेने पर भी कुत्ते में सिंह की तेजस्विता नहीं आ सकती। तो हम जितने भी सांसारिक कार्य करते हैं वे सिर्फ जिन्दा रहने के उपाय हैं, क्योंकि उन्हें किये बिना जिन्दा रहना मुश्किल होता है, हमारी मूलप्रवृत्तियाँ या वासनाएँ उन्हें करने के लिए तन-मन में पीड़ा उत्पन्न करती हैं। वे तन-मन की व्याधियों से क्षणिक राहत पाने की औषधियाँ हैं।
सवाल यह है कि इन उपायों के द्वारा जिन्दा रहकर करना क्या है? इसका जवाब एक महत्त्वपूर्ण तथ्य में झाँकने से मिलता है। हम देखते हैं कि दुनियाँ की वस्तुओं का असली रूप मूलतः अप्रकट अवस्था में रहता है, जो बड़ा सुन्दर तथा हृदयाह्लादक होता है। उसे मनुष्य वस्तुओं को तराश-तराश कर, माँज-माँज कर, तपा-तपा कर प्रकट करता है और प्रकट हो जाने पर उस हृदयाह्लादक रूप के कारण उन वस्तुओं से अपनी इन्द्रियों को संतृप्त करता है, अपने शरीर को, अपने घर को, अपने परिवेश को सजाता है। खान से जो स्वर्ण निकलता है वह उसका असली रूप नहीं है। असली रूप उसके भीतर अप्रकट अवस्था में मौजूद रहता है। जब स्वर्णकार अग्नि में तपाकर उसके मल को जला देता है तब स्वर्ण का असली रूप प्रकट होता है, जो इतना देदीप्यमान होता है कि वह आभूषण बनकर मनुष्य के शरीर की शोभा विस्तृत कर देता है। इसी प्रकार हीरे-जबाहरात भी जिस रूप में खान से निकलते हैं वह उनका असली रूप नहीं होता। असली रूप भीतर छिपा होता है। जौहरी खान से निकले हीरों को शाण पर तराश-तराश कर उनके असली रूप को प्रकट करता है, जो प्रकट होकर मनुष्य का बहुमूल्य आभूषण बन जाता है। फूल का मधुर गन्धमय असली रूप भी कली के भीतर बन्द होता है, जो कली के विकसित होने पर प्रकट होता है और नासिका को आप्यायित कर देता है। नवनीत दूध के भीतर प्रच्छन्न अवस्था में ही रहता है और मन्थन के बाद प्रकट होता है। वह इतना मधुर होता है कि उससे जिह्वा, घ्राण, नेत्र तथा स्पर्शन चार इन्द्रियों को एक साथ तृप्ति मिलती है। खेत से चावल अपने असली रूप में कभी प्राप्त नहीं होता। उसका वास्तविक रूप अनेक आवरणों में छिपा होता है। जब उसे मूसल से बार-बार कूटा जाता है, तब कहीं उसका नासिका और नेत्रों को आह्लादित करनेवाला उज्ज्वल, सुगन्धितरूप
2 अप्रैल 2008 जिनभाषित
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