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प्रवचन
परोन्मुखता ही परिग्रह है
आचार्य श्री विद्यासागर जी
आज तक जितने लोगों ने अपनी आत्मा को पवित्र | नहीं सकते इसी का नाम परिग्रह है। जिस प्रकार तप्त एवं पावन बनाया है वे सभी सिद्ध इसी एक महान् | लोहा यदि पानी से भरे पात्र में पटक दिया जाये तो अपरिग्रह महाव्रत का आधार लेकर ही बने हैं, उन्होंने | वह चारों ओर से पानी को चूस लेता है। उसी प्रकार मन-वचन-काय से इसकी सेवा की, परिणामस्वरूप उन्हें | आत्मतत्त्व के पास जो कोई भी गुण शक्तियाँ हैं वे सारी यह उपलब्धि हुई।
की सारी शक्तियाँ समाप्त प्रायः हो जाती हैं, उस परिग्रह अपरिग्रह महाव्रत, यह शब्द विधेयात्मक नहीं है, | के माध्यम से, वह परिग्रह है क्या बला? आचार्यों ने निषेधात्मक है। उपलब्धि दो प्रकार की हुआ करती है, | कहा कि- मूर्छा ही परिग्रह है। मात्र बाहरी पदार्थों का प्ररूपणा भी दो प्रकार की हुआ करती है- एक निषेध | | समूह परिग्रह नहीं है किन्तु उसके प्रति जो 'अटैचमेन्ट' मुखी और दूसरी विधिमुखी। अपरिग्रह महाव्रत विधिमुखी | है लगाव है, उसके प्रति जो रागानुभूति है जो उनमें नहीं है, निषेधमुखी है इससे बहुत ही सुलभता से हम | एकत्व की स्थापना करती जा रही है वह ऐसी स्थिति धर्म को जान सकते हैं।
में परिग्रह नाम पा जाती है। परिग्रह को अधर्म की कोटि में रखा है, अतः जहाँ पर आप रह रहे हैं, वहीं पर अर्हन्त परमेष्ठी अपरिग्रह स्वतः ही धर्म की कोटि में आ जाता है, जो | | रहेंगे, वहीं पर साधु परमेष्ठी रहेंगे, वहीं पर पुनीत आत्मायें अभी तक अपने को उपलब्ध नहीं हुआ है, उसका | रह रही हैं, किन्तु वह आपके लिये दु:ख का स्थान दर्शन, उसका परिचय, उसकी अनुभूति, उसकी संवेदना | बन जाता है और यही स्थान उन आत्माओं के लिए हमें आज तक नहीं हुई उसकी उपलब्धि हमें हुई ही | न सुख का कारण बनता है और न दुःख का, इससे नहीं, क्यों नहीं हुई? इसके लिये आचार्य कहते हैं कि- | प्रतीत होता है कि वह पदार्थ मात्र उन लोगों के लिये वह इसलिये उपलब्ध नहीं हुई क्योंकि उसका बाधक | दुःख का कारण नहीं है अपितु उसके प्रति जो मूर्छा तत्त्व विद्यमान है। धर्म व अधर्म एक साथ नहीं रह | भाव है वही हम लोगों के लिए परिग्रह है। इस आत्मा सकते। अन्धकार व प्रकाश एक साथ नहीं रह सकते, | का जो अनन्त बल है वह समाप्त हो चुका है। विशालकाय प्रकाश होने पर अन्धकार भागेगा, प्रकाश तिरोहित होगा, | हाथी बंध जाता है, कोई बाँधता है उसे? नहीं, वह खुद अन्धकार होने पर, दोनों एक साथ नहीं रहेंगे। इसी प्रकार | बंध जाता है, यह उसकी मूर्छा का परिणाम है, उसे परिग्रह महान् बाधक तत्त्व है. अन्य जितने भी बाधक कोई बाँध नहीं सकता। इसी प्रकार तीनों लोकों को जानने तत्त्व हैं उन सभी तत्त्वों को सही उत्पन्न करनेवाला | की शक्ति, अलोक को भी अपने ज्ञान का विषय बनाने है। महावीर भगवान् ने इसी को पाँच पापों का मूल की शक्ति इस आत्मा के पास विद्यमान है किन्तु मूर्च्छित सिद्ध किया है। संसार के सारे पाप इसी परिग्रह से | है, सुप्त है, वह अव्यक्त है, उसको कोई पकड़ नहीं उत्पन्न होते हैं।
सकता, किन्तु मूर्छा का प्रभाव उस पर पड़ चुका है यह आत्म-तत्त्व स्वतंत्र होते हुये भी यदि जकड़ा इसलिये वह शक्ति कुण्ठित है। मूर्छा परिग्रह है और हुआ है, बंधा हुआ है तो एकमात्र परिग्रह की डोरी | यह मूर्छा परिग्रह पाँचों पापों का मूलस्रोत है। आप हिंसा से। परिग्रह की व्युत्पत्ति, परिग्रह शब्द का निर्माण अपने | से परहेज कर सकते हैं, सत्य को अपना सकते हैं, आप में एक चिन्तनीय है। आप लोगों की दृष्टि में | चोरी नहीं करूँगा। इस प्रकार का दृढ़संकल्प भी ले अभी तक समझ में आया होगा कि परिग्रह का अर्थ | सकते हैं और लौकिक ब्रह्मचर्य के लिये भी आप स्वीकृति ग्रहण होता है किन्तु ऐसा नहीं, बल्कि आत्मा को जो दे सकते हैं, किन्तु एक सूत्र तो आप अपने हाथ में चारों ओर से पकड़े उसको परिग्रह कहा, आत्मा परिग्रह | रख ही लेते हैं और वह है... बस महाराज आगे मत को पकड़ नहीं सकता किन्तु परिग्रह आत्मा को पकड़ | बढ़ाइये, यह पूर्ण हो जायेगा तो बिल्कुल ही समाप्त हो लेता है। वह आत्मा बंध जाता है। उसको आप बाँध | जाऊँगा मैं, और परिग्रह को आप विशेष रूप से मजबूती 4 अप्रैल 2008 जिनभाषित
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