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________________ लिखा है पंडिद पंडिद मरणं, च पंडिदं बालपंडिदं चैव। पाषाणेषु यथा हेम, दुग्धमध्ये यथा घृतम्। एदाणि तिष्णि मरणाणि, जिणा णिच्चं पसंसंति॥ तिलमध्ये यथा तैलं, देहमध्ये तथा शिवः॥ अर्थात् पण्डितपण्डितमरण, पण्डितमरण और काष्ठमध्ये यथा वह्निः, शक्तिरूपेण तिष्ठति। बालपण्डित मरण ये तीन मरण जिनेन्द्रदेव ने सदा प्रशंसनीय अयमात्मा शरीरेषु, जानाति सः पण्डितः॥ | कहे हैं। अर्थात् जिस तरह सुवर्णखान के पाषाणों में सवर्ण, यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि अन्य जितने दग्ध में घत और तिल में तैल विद्यमान है, उसी तरह | भी मरण के भेद हैं उनमें से किसी भी नाम में 'पण्डित' शरीर में भी शिव अर्थात् शान्तस्वभावी आत्मा विद्यमान | शब्द नहीं आया, जबकि उपरोक्त तीनों मरणों में यह शब्द है। इसी प्रकार, जैसे काष्ठ में अग्नि शक्तिरूप से विद्यमान | पाया जाता है। अतः इन तीनों मरणों से अलग मरण करने है उसी प्रकार शरीरों में भी आत्मा विद्यमान है और ऐसा वाला शास्त्रीय विचारधारा से पण्डित नहीं कहला सकता। जाननेवाला ही पण्डित है। हाँ, इतना अवश्य है कि प्रथम 'पंडितपंडितमरणं' करने सारांश यह है कि मनुष्य पर्याय को प्राप्त करके, | वाला महान् पण्डित है जिसे फिर कभी संसार में जन्म पण्डित वही कहलाने योग्य है, जिसमें उपरोक्त बातें हों। | नहीं लेना पड़ता। दूसरा 'पंडितमरण' करनेवाला मध्यम किसी मुर्दे को ले जाते देखकर पण्डित व्यक्ति यह श्रेणी का पण्डित है जो कि परमहंस दिगम्बर अवस्था में नहीं मानता है अमुक मर गया है। वह तो सोचता है कि | शान्तिपूर्वक शरीर का त्याग करता है और तीसरा जिस प्रकार वस्त्र फट जाने पर या पुराने हो जाने पर बदल | 'बालपंडितमरण' करनेवाला, जघन्य श्रेणी का पण्डित है लिये जाते हैं या नये धारण कर लिये जाते हैं, उसी प्रकार | जो कि गहस्थावस्था में रहकर व्रती अवस्था में ही शरीर इस मुर्दे शरीर के बेकाम हो जाने से, इसमें रहनेवाला | त्यागता है। शाश्वत् आत्मा जीव भी इसे छोड़कर नये शरीर को धारण उपरोक्त कथन से यह बिलकुल स्पष्ट है कि अन्य करने चला गया है। पण्डित व्यक्ति यह भी दृढ़-निश्चय गुणों के साथ-साथ अहिंसा आदि व्रतों के नियमपूर्वक रखता है कि किसी भी आत्मा को कोई शस्त्र छेद-भेद | पालन करने पर ही पंडित संज्ञा प्रारम्भ होती है। नहीं सकता, अग्नि जला नहीं सकती, पानी गला नहीं | संसार का प्रत्येक मानव अपने को पण्डित कहलाने सकता और हवा उसे सोख या सुखा नहीं सकती। हाँ, की इच्छा रखता है और वास्तव में ऐसी इच्छा रखनी भी उक्त हेतु जो कुछ बिगाड़ करते हैं, वे शरीर का ही करते | चाहिये, क्योंकि पण्डित संज्ञा प्राप्त किये बिना सच्चे सुख हैं। आत्मा का तनिक भी नहीं। की प्राप्ति का लक्ष्य पूरा नहीं हो सकता। पर हम अपनेजातस्य हि ध्रुवा मृत्युः के अटल सिद्धान्तानुसार अपने हृदय पर हाथ रखकर देखें कि पंडित संज्ञा प्राप्त जो संसार में जन्म लेता है वह एक दिन प्राप्त हुये शरीर | करने के लिये जो बातें बताई हैं, उनमें से स्वयं में कौनको अवश्य छोड़ता है और संसार में इसी को मरण कहा | कौन विद्यमान हैं? यदि एक भी नहीं तो उन्हें जीवन में है। महर्षियों ने इस मरण के अनेक प्रकार बताये हैं, जिनमें | लाने की कोशिश करें। इसी में मानव जीवन की सफलता तीन मरण ही प्रशंसनीय तथा श्रेष्ठ हैं। सो ही बताया है- | है। 'आ० महावीरकीर्ति अभिनंदन ग्रन्थ' से साभार समाचार ___ कोटा में जिनधर्म प्रचारक मुनि-भक्त एवं सरल हृदय श्री पं० भगतलाल जी शास्त्री का देहावसान दिनांक २३ फरवारी ०८ को हो गया। वे ९० वर्ष के थे। पं० जी की शिक्षा इन्दौर एवं वनारस के जैन विद्यापीठ में हुई एवं उसके बाद जैनधर्म के प्रचारक के रूप में अशोकनगर, कोलारस शिवपुरी, गुना के बाद विगत् ५० वर्षों तक कोटा के जैनसमाज की सेवा की। एवं विभिन्न जैनपाठशालाओं में अध्यापन का कार्य किया। प्रदीप कुमार जैन, महावीरनगर तृतीय, कोटा ३२४ ००४ (राजस्थान) 16 अप्रैल 2008 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524327
Book TitleJinabhashita 2008 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2008
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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