Book Title: Jinabhashita 2008 02
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनभाषित वीर निर्वाणसं. 2534 20वीं सदी के प्रथम दिगम्बर जैनाचार्य प.पू. आचार्य श्री शान्तिसागरजी महाराज माघ, वि.सं. 2064 फरवरी, 2008 wwwlovelora 5 ore Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री विद्यासागर जी के दोहे सर परिसर ज्यों शीत हो, सर परिसर हो शीत। वरना अध्यातम रहा, सपनों का संगीत ॥ 65 55 रही सम्पदा, आपदा, प्रभु से हमें बचाय। रही आपदा सम्पदा, प्रभु में हमें रचाय॥ 56 कटुक मधुर गुरु वचन भी, भविक-चित्त हुलसाय। तरुण अरुण की किरण भी, सहज कमल विकसाय॥ 57 सत्ता का सातत्य सो, सत्य रहा है तथ्य। सत्ता का आश्रय रहा, शिवपथ में है पथ्य॥ 58 ज्ञेय बने उपयोग ही. ध्येय बने उपयोग। शिव-पथ में उपयोग का, सदा करो उपयोग। 59 योग, भोग, उपयोग में, प्रधान हो उपयोग। शिव-पथ में उपयोग का, सुधी करे उपयोग। 60 रसना रस गुण को कभी, ना चख सकती भ्रात! मधुरादिक पर्याय को, चख पाती हो ज्ञात ॥ 61 तथा नासिका सूंघती, सुगन्ध या दुर्गन्ध। अविनश्वर गुण गन्ध से, होता ना सम्बन्ध ॥ 62 इसी भाँति सब इन्द्रियाँ, ना जानें गुण-शील। इसीलिए उपयोग में, रमते सुधी सलील॥ 63 मूर्तिक इन्द्रिय विषय भी, मूर्तिक हैं पर्याय। तभी सुधी उपयोग का, करते हैं 'स्वाध्याय'॥ खोया जो है अहम में, खोया उसने मोल। खोया जिसने अहम को, खोजा धन अनमोल ॥ 66 प्रतिभा की इच्छा नहीं, आभा मिले अपार। प्रतिभा परदे की प्रथा, आभा सीधी पार ।। 67 वेग बढ़े इस बुद्धि में, नहीं बढ़े आवेग। कष्ट-दायिनी बुद्धि है, जिसमें ना संवेग॥ 68 कल्प काल से चल रहे, विकल्प ये संकल्प। अल्प काल भी मौन लँ. चलता अन्तर्जल्प। 69 पर घर में क्यों घुस रही, निज घर तज यह भीड़। पर नीड़ों में कब घुसा, पंछी तज निज नीड़॥ 70 कहीं कभी भी ना हुआ, नदियों का संघर्ष । मनजों में संघर्ष क्यों? दुर्लभ क्यों है हर्ष? ॥ 71 शास्त्र पठन ना, गुणन से, निज में हम खो जायें। कटि पर ना, पर अंक में, माँ के शिशु सो जायें। 72 दश्य नहीं दर्शन भला, ज्ञेय नहीं है ज्ञान। 'और' नहीं आतम भला, भरा सुधामृत-पान॥ 'सूर्योदयशतक' से साभार Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रजि. नं. UPHIN/2006/16750 फरवरी 2008 वर्ष 7, अङ्क 2 मासिक जिनभाषित सम्पादक प्रो. रतनचन्द्र जैन अन्तस्तत्त्व पृष्ठ आ.पू.2 - आचार्य श्री विद्यासागर जी के दोहे - मुनि श्री क्षमासागर जी की कविताएँ सम्पादकीय : आगम-विरुद्ध आचरण परम्परा नहीं है कार्यालय ए/2,मानसरोवर, शाहपुरा भोपाल-462 039 (म.प्र.) फोन नं. 0755-2424666 आ.पृ. 3 प्रवचन चरण आचरण की ओर : आचार्य श्री विद्यासागर जी आत्मरिणामों की परख : मुनि पंगव श्री सधासागर जी सहयोगी सम्पादक पं. मूलचन्द्र लुहाड़िया, मदनगंज किशनगढ़ पं. रतनलाल बैनाड़ा, आगरा डॉ. शीतलचन्द्र जैन, जयपुर डॉ. श्रेयांस कुमार जैन, बड़ौत प्रो. वृषभ प्रसाद जैन, लखनऊ डॉ. सुरेन्द्र जैन 'भारती', बुरहानपुर लेख • शिखरजी की यात्रा और बाई जी (धर्ममाता चिरौंजीबाई जी) का व्रतग्रहण : क्षुल्लक श्री गणेशप्रसाद जी वर्णी 13 • चतुर्थकाल के मुनि आचार्य श्री विद्यासागर जी : स्व. पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री 16 शिरोमणि संरक्षक श्री रतनलाल कँवरलाल पाटनी (मे.आर.के.मार्बल) किशनगढ़ (राज.) श्री गणेश कुमार राणा, जयपुर प्रकाशक सर्वोदय जैन विद्यापीठ 1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी, आगरा-282 002 (उ.प्र.) फोन : 0562-2851428, 28522781 कुन्दकुन्द और उनका जन्मस्थान .: श्री पी० बी० देसाई 18 • लोकगीतों में कुण्डलपुर और बड़े बाबा : श्रीमती डॉ० मुन्नीपुष्पा जैन 22 • श्री पाहिल्ल श्रेष्ठी : पं० कुन्दनलाल जैन • बच्चों को यौन-शिक्षा : डॉ० श्रीमती ज्योति जैन 27 जिज्ञासा-समाधान : पं. रतनलाल बैनाड़ा . समाचार 17, 31, 32 एवं आ.पृ.4 सदस्यता शुल्क शिरोमणि संरक्षक 5,00,000 रु. परम संरक्षक 51,000 रु. संरक्षक 5,000 रु. आजीवन 1100 रु. वार्षिक 150 रु. एक प्रति 15 रु. सदस्यता शुल्क प्रकाशक को भेजें। लेखक के विचारों से सम्पादक का सहमत होना आवश्यक नहीं है। 'जिनभाषित' से सम्बन्धित समस्त विवादों के लिये न्यायक्षेत्र भोपाल ही मान्य होगा। Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय आगमविरुद्ध आचरण परम्परा नहीं है हमारा देश और समाज साधु के प्रति अतिश्रद्धा रखता है। इसका एक मात्र कारण उसकी साधुता है। राग-द्वेष से रहित, वीतरागता की ओर उन्मुख आत्म- केन्द्रित चर्चा और चर्या के कारण वे पूज्य माने गये हैं। जिन साधुओं ने जिन मार्ग का अवलम्बन लिया है, वह आचार्य श्री कुन्दकुन्द आचार्य श्री उमास्वामी और आचार्य श्री समन्तभद्र आदि का मार्ग है, जिसमें सांसारिक अनासक्ति का भाव अन्तर्निहित है। इस मार्ग के विषय में आचार्यश्री समन्तभद्र 'युक्त्यनुशासन' में कहते हैंदयादमत्यागसमाधिनिष्ठं, नयप्रमाणप्रकृताञ्जसार्थम् । अधृष्यमन्यैरखिलैः प्रमादैर्जिन त्वदीयं मतमद्वितीयम् ॥ 6 ॥ अर्थात् हे वीर जिन ! आपका मत दया, दम, त्याग और समाधि की निष्ठा, तत्परता को लिए हुए है। नयों तथा प्रमाणों के द्वारा सम्यक् वस्तुतत्त्व को बिल्कुल स्पष्ट करनेवाला है तथा दूसरे सभी प्रवादों से अबाध्य है, अद्वितीय है । यहाँ स्पष्ट भाव है कि भगवान् महावीर का मार्ग दया अर्थात् अहिंसा, दम अर्थात् इन्द्रियों विषयों के प्रति संयम, त्याग अर्थात् राग-द्वेष का विसर्जन और समाधि अर्थात् जीवनान्त में काय और कषायों को कृश करते हुए सल्लेखनापूर्वक शरीर का त्याग करना है। आचार्य श्री उमास्वामी ने यह अवधारणा- 'मारणान्तिकीं सल्लेखनां जोषिता' के रूप में प्रस्तुत की है। हे भगवन्! आपने जिस वस्तु (आत्म) तत्त्व को उपादेय बताया है वह नय और प्रमाणों के द्वारा स्पष्ट और पुष्ट है। इसका किसी भी अन्य मत या रीति से खण्डन नहीं किया जा सकता । उक्त स्पष्ट दिशा-निर्देश के बावजूद आज देखने में आ रहा है कि हमारे समाज में ऐसे अनेक कार्य हो रहे हैं जो आगम की कसौटी पर किसी भी नय की अपेक्षा से खरे नहीं उतरते। भरतक्षेत्र के चौबीस तीर्थंकरों की उपेक्षा करके विदेहक्षेत्र के विद्यमान बीस तीर्थंकरों और उनमें भी मात्र श्री सीमंधर स्वामी की प्रतिष्ठा की जा रही है। नव निर्माण और नयी विचार-धारा का जो दौर प्रारम्भ हुआ, तो अब थमने का नाम नहीं ले रहा है। अचार्य श्री समन्तभद्र, आचार्य श्री कुन्दकुन्द की वाणी की व्याख्या के नाम पर अपलाप किया जा रहा है। अति सक्रियता से आगमिक जड़ता का खतरा दिखाई देने लगा है। यहाँ प्रस्तुत कतिपय उदाहरण विचारणीय यथा 1. वर्तमान में नवग्रह जिनमन्दिरों का निर्माण और प्रतिष्ठा के आयोजन अनेक स्थानों पर चल रहे हैं, जो किसी भी दृष्टि से आगमसम्मत नहीं हैं। 2. बीसवीं शताब्दी के एक साधु के चरण और मूर्तियाँ सप्रयास आन्दोलन की शक्ल में सैकड़ों स्थानों पर स्थापित की जा रही है, क्या यह इतिहास के साथ मजाक नहीं है? 3. धरणेन्द्र और पद्मावती या अन्य यक्ष-यक्षिणी की मूर्तियों की प्राणप्रतिष्ठा की जा रही है? आखिर इनमें किनके प्राण फूँके जा रहे हैं? 4. दिगम्बर मुनि / आचार्य की मूर्ति बनाकर उनका प्रतिदिन अभिषेक अरहन्तबिम्ब की तरह किया जा रहा है, जबकि वह कौन सी गति को प्राप्त हुए, यह भी ज्ञात नहीं है । 5. क्या एक साधु अपनी पुरानी पीछी जिसे वह बदलने की भावना कर चुका है या जो संयम पालन के योग्य नहीं रह गयी है उस पीछी को अपने शिष्य या अन्य आचार्य को भेट स्वरूप दे सकता वह भी किसी आकस्मिक स्थिति के लिए नहीं, अपितु अपना प्रेम जताने के लिए? इसी तरह यह क्या जरूरी है कि एक आचार्य या गुरु के जन्म या दीक्षा दिवस पर उसके सभी शिष्य (प्रमुख) अपनेअपने प्रवास स्थल से नयी पीछी भिजवायें, वह भी तब, जबकि एक-एक पीछी की लागत दो-तीन हजार रुपये आ रही हो? 2 फरवरी 2008 जिनभाषित Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6. आचार्यों/आर्यिकाओं/साधुओं को दिये जाने वाले प्रशस्ति/अभिनन्दन/उपाधि पत्र क्या उनके द्वारा ग्रहण करने योग्य हैं? यदि वे योग्य हैं तो फिर क्या परिग्रह का दोष नहीं लगेगा? आज अनेक साधु बड़े हर्षित भाव से अपने लिए विचित्र-विचित्र उपाधियों से युक्त अभिनन्दन पत्र ग्रहण कर रहे हैं और इन उपाधियों को अपने नाम के साथ जोड़ और जुड़वा भी रहे हैं। यदि पत्रसम्पादक उनके नाम के साथ वह उपाधियाँ नहीं लगाते हैं तो बाकायदा फोन / पत्रादि आते हैं कि खाली नाम न छापें बल्कि फलाँ उपाधि अवश्य लगायें। आज साधुओं में एम० ए०, पी-एच० डी०, डी लिट्० उपाधि विभिन्न विश्वविद्यालयों से लेने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। इसके लिए वे आवेदन पत्र भर रहे हैं, इण्टरव्यू देते हैं, उपाधियाँ ग्रहण करने जाते हैं, जबकि साधु उपधि और उपाधि से रहित निस्संग होता है, ऐसा आगम वचन है, फिर भी इसकी उपेक्षा हो रही है। अध्ययन साधु के लिए आवश्यक है, किन्तु वह समीचीन आत्मज्ञान के लिए है किसी 'डिग्री' के लिए नहीं। कल के दिन इन उपाधिधारी साधुओं में अन्य उपाधिरहित साधुओं से अधिक श्रेष्ठता का भाव / मान भी जन्म ले सकता है अतः इस प्रवृत्ति पर विराम लगना चाहिए। हाँ, वर्तमान में ज्ञान की ललक को देखते हुए यह आवश्यक है कि समाज में कोई ऐसा विद्यालय स्थापित हो, जिसमें साधुगण एक निश्चित समयावधि में ज्ञानार्जन कर सकें। वहाँ सुयोग्य विद्वानों को अध्यापन हेतु रखा जाना चाहिए। वैसे तो गुरु का सान्निध्य ही पर्याप्त है, यदि वे ज्ञान-गुरु हैं। 7. आजकल साधुओं को आचार्यपद देने-लेने की प्रवृत्ति हास्य के स्तर तक बढ़ गयी है। अकेले साधु (वह भी कहीं गुरुद्रोही भी) आचार्य, एलाचार्य, बालाचार्य, ज्ञानाचार्य, उपाध्यायपद धारक बनकर विहार कर रहे हैं, यह सिलसिला रुक भी नहीं रहा है। यहाँ आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज एवं श्वेताम्बर तेरापंथ सम्प्रदाय में आचार्य श्री महाप्रज्ञ का आदर्श उदाहरण है जहाँ सैकड़ों साधु अपने एक ही आचार्य के नेतृत्व में चल रहे हैं और अपनी चर्चा और चर्या से प्रभावित कर रहे हैं। आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज की परम्परा भी यही है। 8. आजकल चर्चा इस बात की हो रही है कि 'शाकाहार प्रवर्तक' कौन? क्योंकि अनेक आचार्य, उपाध्याय अपने नाम के साथ 'शाकाहार प्रवर्तक' उपाधि जोड़ और जुड़वा रहे हैं। यह देखकर लोग प्रश्न करते हैं कि यदि यह 'शाकाहार प्रवर्तक' हैं तो फिर इनसे पहले क्या शाकाहार चलन में नहीं था? हम एक ओर शाकाहार को मानवीय आहारप्रणाली कहते नहीं थकते, तो दूसरी ओर स्वयं को इसका प्रवर्तक कहना क्या समाज को भ्रमित करना नहीं है? मेरा तो विचार है कि सम्पूर्ण मानवीय जीवनदर्शन के व्यवस्थित प्रवर्तक और पुरस्कर्ता तीर्थंकर ऋषभदेव हैं अतः उन्हें ही मानना चाहिए। इसलिए जरूरी है कि ऐसे सभी संतगण 'शाकाहार प्रवर्तक' उपाधि का अविलम्ब त्याग करें जो इसे अपने नाम के साथ जोड़ते-जुड़वाते हैं। दूसरी ओर यह भी विसंगति है कि मात्र शाकाहारी जैन समाज में ही शाकाहार का प्रचार हो रहा है, यहाँ तक कि जैनसमाज के मध्य आयोजित होने वाले सर्वधर्म सम्मेलनों का विषय 'शाकाहार' रख लिया जाता है, जिसमें मांसाहारी अन्य विद्वान् / धर्मगुरु ऐसा कहते देखे / सुने गये है कि जैनी भाइयों के बीच शाकाहार की बात कहनी पड़ रही है, यह सोचकर शर्म आती है और इस तरह एक भली शाकाहारी समाज मांसभक्षण करनेवाली प्रतीत होने लगती है। यदि यहाँ हम विषय- 'अहिंसा-दर्शन' रखें और सप्त व्यसन त्याग की प्रेरणा दें तथा मांसभक्षण की बुराइयों से अवगत करायें, तो शाकाहार के प्रति निष्ठा बढ़ेगी और मांसभक्षण के त्याग के प्रति हमारी संकल्पशक्ति और मजबूत होगी। 9. आजकल स्थान-स्थान पर महामस्तकाभिषेक होने लगे हैं पहले मात्र 12 वर्ष में श्रवणबेलगोला में महामस्तकाभिषेक होता था अब यह धनसंग्रह का माध्यम मान लिया गया है। इसी के साथ एक विकृति और आ गयी है कि अब यह मात्र जल तक सीमित न होकर रंग पर आ गया है। मानों हम भगवान् से होली खेलने जा रहे हों। अभी हाल ही में 'बावनगजा महोत्सव-2008' में सप्तरंगी अभिषेक चर्चित हुआ जब कि वहाँ पूर्व में मात्र जलाभिषेक की परम्परा रही है, जैसा कि विगत् 20 वर्षों से बावनगजा -फरवरी 2008 जिनभाषित 3 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षेत्र कमेटी के कर्ता-धर्ता रहे श्री बाबूलाल जी पाटोदी ने एक साक्षात्कार (सन्मति-वाणी में प्रकाशित) में स्पष्ट कहा है कि 'बावनगजा में पंचामृताभिषेक की परम्परा तथा स्त्रियों द्वारा अभिषेक की परम्परा नहीं हैं' फिर वहाँ इस आयोजन में कतिपय साधुओं द्वारा जिद करना कि पंचामृताभिषेक ही होना चाहिए, यहाँ तक कि महोत्सव का बहिष्कार भी किया, क्या यह उचित है? जबकि यही लोग परम्परा की दुहाई देते हैं। कहीं-कहीं कोई प्रभावशाली व्यक्ति साधु या आर्यिका-विशेष के आग्रह पर या छल-कपट पूर्वक दूध-दही आदि से अभिषेक करवा देता है (कहीं-कहीं आयोजकों का धनसंग्रह का लालच भी इसमें समाहित है). तो इसे परम्परा क्यों माना जाना चाहिए? एक माता जी जानबझकर तेरापंथी-परम्परावाले तीर्थक्षेत्रों पर पंचामताभिषेक करवाती हैं और उसकी वीडियो कैसिट / सी० डी० बनवाकर रखती हैं, ताकि कालान्तर में वहाँ पंचामताभिषेक की परम्परा बताई जा सके, इस प्रवृत्ति पर विराम लगना चाहिए। मुझे इस बात पर घोर आश्चर्य हुआ कि कुछ साधुओं ने स्पष्ट कहा कि 'वे तो मात्र सप्तरंगी कलश देखने आये हैं। यदि ऐसा पता होता कि मात्र जल से अभिषेक होगा, तो इतनी दूर से क्यों आते?' यहाँ विचारणीय है कि इनकी निष्ठा किसमें है? जिनाभिषेक में या कि पंथपोषण में? इस विषय में श्रवणबेलगोल-2006 एवं सिद्धवरकूट 2007 में अपनायी गयी स्पष्ट नीति समाज हित में अनुकरणीय हो सकती है। ____ हमें पूजन-अभिषेक सम्बन्धी क्रियाओं में पक्षपाती, दुराग्रही न होकर आगमसम्मत अहिंसक क्रियायें ही उपादेय हैं। हमें सामाजिक समरसता और उचित संदेश का भी ध्यान रखना चाहिए। जिस तरह बावनगजा में जलाभिषेक के विरुद्ध वातावरण बनाया गया और दैनिक समाचारपत्रों में उसे हवा दी गयी, वह अशोभनीय है। इसकी पुनरावृत्ति से सभी को बचना चाहिए। इस सम्बन्ध में स्थानीय क्षेत्र कमेटी का मौन या मूकदर्शक बने रहना चिन्तनीय है। हम जिसके नेतृत्व में कार्य करें वह भी निष्पक्ष, निर्भीक और स्पष्ट मतवाला होना चाहिए। जब यह लगने लगता है कि "माना ये हमने कि पैसा खुदा नहीं, पर सच ये भी है कि पैसा खुदा से कम नहीं" तो सब कुछ उल्टा-सीधा होने लगता है और जो हो रहा है उसे ही जायज ठहराया जाने लगता है। ऐसे अवसरों पर अन्य मतावलम्बी नेताओं द्वारा बिना शुद्धि के अभिषेक करवाना घोर आपत्तिजनक है। हमारे यहाँ कहा जाता है कि "महाजनो येन गतः स पन्थाः" लेकिन जब महाजन | महापुरुष ही अपने पद और धर्म के विरुद्ध आचरण करें तो हम किसका अनुकरण करें। समाज को इन विषयों में स्पष्ट धर्मसम्मत रवैया अपनाना चाहिए। श्री गोपालदास 'नीरज' की यह पंक्ति बड़ी मौजूं हैं कि साथियो! अपनी मशालें गुल न कर देना अभी, क्या पता इस अम्न के पीछे कोई तूफान हो? ___ डॉ० सुरेन्द्रकुमार जैन 'भारती' काहे को दुनिया बसायी एक बार रास्ते में विहार करते हुए आ रहे थे। एक गाँव से गुजरना हुआ वहाँ दुकान पर एक भजन चल रहा था। "दुनिया बनानेवाले क्या तेरे मन में समायी, तूने काहे को दुनिया बनायी।" इस पंक्ति को सुनकर आचार्यश्री के चेहरे पर हल्की सी मुस्कान आ गयी तो साथ में चलनेवाले सभी हँसने लगे। आचार्य महाराज ने कहा। ऐसा कहना ठीक नहीं बल्कि ऐसा कहो- "दुनिया बसानेवाले क्या तेरे मन में समायी तूने काहे को दुनिया बसायी।" संसार में तुम ही फँसे हो, गृहस्थी तुमने ही बसायी है खुद को दोषी कहो भगवान् को दोषी मत कहो। मुनि श्री कुन्थुसागरकृत 'संस्मरण' से साभार 4 फरवरी 2008 जिनभाषित Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन चरण .... आचरण की ओर प. पू. आचार्य श्री विद्यासागर जी मोह तिमिरापहरणे दर्शन लाभादवाप्तसंज्ञानः। । निवृत्त्यै' रागद्वेष की निवृत्ति के लिए चारित्र की शरण रागद्वेषनिवृत्त्यै चरणं प्रतिपद्यते साधुः॥ लेता है। यदि यह उद्देश्य गौण हो गया तो चारित्र के रत्नकरण्ड श्रावकाचार | क्षेत्र में विकास नहीं, बल्कि सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र सन्दर्भ- रत्नकरण्ड श्रावकाचार में मंगलाचरण के | का विनाश और सम्भव हो जायेगा। रागद्वेष जीव के उपरांत पूज्य आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने प्रतिज्ञा की थी| लिए अभिशाप है। ये दृष्टि को, ज्ञान को, और आचरण कि मैं समीचीन धर्म का कथन करूँगा जो दर्शन ज्ञान को समाप्त कर देने वाले हैं। थोड़ी भी रागद्वेष की भूमिका चारित्रात्मक है। प्रथम अधिकार में सम्यग्दर्शन, द्वितीय | बनी तो सम्यग्दृष्टि ज्ञानी तथा अपना हित चाहनेवाला अधिकार में सम्यग्ज्ञान का वर्णन किया है। सम्यग्दर्शन, | उस पथ से दूर होने लगता है। जब रागद्वेष को मिटाने सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये तीनों मिलकर ही धर्म | का लक्ष्य बन जाता है तो चारित्र को लेना अनिवार्य संज्ञा को प्राप्त होते हैं और उस धर्म का जो सहारा | हो जाता है। रागद्वेष अपने आप मिट जायें यह सवाल लेता है, वह संसार से ऊपर उठ जाता है, संसार से | ही नहीं उठता। अपने आप कोई काम नहीं होता, कारण दूर हो जाता है, मुक्ति सुख का भाजन बन जाता है। के द्वारा कार्य होता है। बाधक कारण को हटाकर साधक वर्णन की अपेक्षा से तो सम्यक् चारित्र तीसरे नम्बर | कारण को प्राप्त करेंगे तो हमारी कामना पूर्ण होगी। रागद्वेष पर आता है, लेकिन उत्पत्ति की अपेक्षा से ऐसा नहीं से बचना चाहते हो तो चारित्र की शरण में चले जाओ समझना चाहिए। जिस प्रकार सम्यग्दर्शन व ज्ञान दोनों | और कोई भी भूमिका नहीं है। कोई छाँवदार वृक्ष नहीं एक साथ उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार सम्यक्चारित्र भी | है, जो हमारे रागद्वेष को मिटा सके। एकमात्र चारित्र के एक साथ उत्पन्न हो सकता है ऐसा धवला, जयधवला, | णस ही यह शक्ति है। महाधवला इत्यादि ग्रन्थों में वर्णन आया है। उनमें उल्लेख | रागद्वेष को मिटाने के लिए चारित्र की शरण कब आता है कि वह भव्य जब जिनवाणी का श्रवण अथवा | लेता है वह? 'मोहतिमिरापहरणे' मोहरूपी तिमिर/अंधकार गरुओं का सान्निध्य प्राप्त कर लेता है और वह डायरेक्ट | के दूर होने पर। दर्शन का लाभ हुआ है, तो समझो (साक्षात्) एक साथ सप्तम गुणस्थान को छू लेता है। दृष्टि प्राप्त हो गई, श्रद्धान हो गया कि सुख यदि मिलेगा मोह तिमिरापहरणे दर्शन लाभादवाप्तसंज्ञानः। तो आत्मा में मिलेगा, रत्नत्रय की प्राप्ति के माध्यम से रागद्वेषनिवृत्त्यै चरणं प्रतिपद्यते साधुः॥ | ही मिलेगा। रत्नत्रय को छोडकर अन्य किसी पदार्थ को (मोह) दर्शनमोहनीय, (तिमिरापहरणे) अंधकार के | मैं नहीं लूँगा, सुख का कारण केवल अपनी आत्मा है। अपहरण होने पर, (दर्शन) सम्यग्दर्शन, (अवाप्त संज्ञानः) | दष्टि के साथ ज्ञान भी सम्यक् हो गया अब राग-द्वेष उसके साथ ही सम्यक ज्ञान प्राप्त कर लेना (रागद्वैषनिवृत्य) को मिटाना है. चारित्र को धारण करना है। जिस व्यक्ति रागद्वेष की निवृत्ति के लिए (चरणं) चारित्र की ओर | को जिस पदार्थ के प्रति रुचि होती है, जब तक वह (प्रतिपद्यते) चला जाना चाहिए/बढ़ना चाहिए। (साधु) | मिल न जाये, तब तक रात दिन चैन नहीं पड़ती, क्योंकि सज्जन/भव्य पुरुष को, अर्थात् दर्शन मोहनीय के अन्धकार | जो उपलब्ध है वह अभीष्ट नहीं है और जो अनुपलब्ध के नष्ट होने पर जिसने सम्यग्दर्शन व उसके साथ ही है वह इष्ट है। दावत में षट् रस व्यंजन हों पर जिसे सम्यग्ज्ञान को प्राप्त कर लिया है, ऐसा वह भव्य सज्जन | नमकीन ही अच्छा लगता है उसके लिए बिना उसके पुरुष रागद्वेष की निवृत्ति के लिए चारित्र की शरण में | पंगत कैसी? उसे षट्रस पकवान इष्ट नहीं हैं, क्योंकि चला जाता है। उसमें मन नहीं है। जिस व्यक्ति को जो चीज अपेक्षित चारित्र की शरण किसलिए? है उसी में रुचि रहती है। जब तक वह प्राप्त न हो ____कोई भव्य जीव चरण/चारित्र की शरण ले लेता | छटपटाहट चलती रहती है। मखमल के भी गद्दे बिछे है। किसलिये लेता है? कोई कार्य करे तो उसका प्रयोजन | हों, किन्तु जिसे सुबह मुनि दीक्षा के लिए जाना है, भी होना अनिवार्य है। यहाँ क्या प्रयोजन है? 'रागद्वेष- | तो उसे वहाँ पर भी नींद नहीं आती, मखमल के गद्दों फरवरी 2008 जिनभाषित 5 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर भी एक-एक मिनिट कटता है, बार-बार घड़ी देखता है । सम्यग्दर्शन, ज्ञान प्राप्त होने के उपरान्त उसे रागद्वेष को मिटाने के लिये रुचि रहती ही है, अतः वह संयम / चारित्र की शरण में चला जाता है । चारित्र का अर्थ क्या है? आचार्य समन्तभद्र महाराज कह रहे हैं कि चारित्र का अर्थ पाँचों पापों से निवृत्ति रूप है- हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह से निवृत्ति लेना चारित्र है। ध्यान रखिये कोई भी दीक्षा लेता है, सकल / देश संयम, कोई भी चारित्र धारण करता है, तो उसका लक्ष्य क्या होना चाहिए ?- रागद्वेष मिटाने के लिये । चर्चा में, दृष्टि में, मन-वचन-काय की चेष्टा में, प्रत्येक समय यही लक्ष्य रहेगा कि यह चर्या मैं इसलिए अपना रहा हूँ कि रागद्वेष को मुझे मिटाना है। जिस चारित्र के द्वारा रागद्वेष मिटता है, वह सम्यक्चारित्र है । और जिस चारित्र के द्वारा रागद्वेष की उत्पत्ति होती है वह मिथ्याचारित्र है । सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र संसार के उन्मूलक हैं, मोक्षमार्ग स्वरूप हैं, मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र मोक्षमार्ग के खिलाफ हैं। संसार के वर्धक हैं। ऐसा दृढ़ संकल्प होना चाहिए कि जब तक रागद्वेष नहीं मिटेंगे, तब तक मैं चारित्र का सहारा नहीं छोडूंगा, जब तक कार्य की प्राप्ति नहीं होती, तब तक कारण को नहीं छोड़ा जाता । मान लो कि मथानी से मंथन कर रहे हो, कब तक करते रहते हो? जब तक नवनीत की प्राप्ति नहीं होती । इसी प्रकार संयम के क्षेत्र में भी होना चाहिए । रागद्वेष को मिटाना है, मिटाने का एक मात्र कारण है चारित्र, जो पाँच पापों की निवृत्ति रूप, पाँचों पापों से बचने रूप है। यह बचना एक ही दिन में होता है क्या ? एक ही घण्टे में क्या रागद्वेष पर कन्ट्रोल कर सकते हैं। ऐसा तो सम्भव नहीं । ऋषभनाथ भगवान् को 1000 वर्ष लग गये। 1000 वर्ष तक चारित्र की शरण लेकर आदिप्रभु ने जीवन गुजार दिया। रागद्वेष नहीं मिटे, छठा/सातवां, सातवाँ / छठा गुणस्थान चलता रहा, मौन साधना चलती रही रागद्वेष को मिटाने के लिए भगवान् बाहुबली की साधना एक साल तक चली, हिले नहीं, डुले नहीं, बोले नहीं, खाया पिया नहीं । इतना कठिन तप फिर भी रागद्वेष अभी तुरन्त नहीं मिटे । श्रद्धान एक क्षण में हो जाता है, लेकिन जिसके ऊपर श्रद्धान किया जाता है, उसे प्राप्त करने के लिए एक क्षण नहीं, अपितु बहुत क्षण अपेक्षित हैं, कड़ी साधना की आवश्यकता है, तब कहीं जाकर के रागद्वेष का उन्मूलन सम्भव है। यह चारित्र कौन स्वीकार करता है? साधु / सज्जन 6 फरवरी 2008 जिनभाषित से / भव्य । वह सज्जन जिसको ज्ञान प्राप्त हुआ है, दर्शन लाभ हुआ है, दृष्टि प्राप्त हो गई है ज्ञान श्रद्धान हुआ है मुक्ति के लिए साधन सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र ही हैं यह सुख को दे सकते हैं इसके अलावा कोई नहीं, पर में मुक्ति नहीं, पर में सुख नहीं पर को छोड़ने सुख है, पर को जोड़ने में सुख मोक्षमार्गी को नहीं, संसारी को है । संसारी का ऐसा विश्वास है अरे भैया ! अपने जीवन के अन्तिम काल का क्या पता, माता-पिता तो वृद्ध हैं ही, वे तो रहेंगे नहीं, बाल-बच्चों का भरोसा क्या? 20 वीं शताब्दी का काल चल रहा है, इसलिये अपने नाम से ही, बच्चों को बताना तक नहीं, गुदड़ी में बाँधते जाओ, काम में आता है, नहीं तो अन्त में उनका है ही । इसलिये यदि अपने जीवन में सुख चाहते हो तो जोड़कर रखो। यह जोड़ना - सोचना सांसारिक सुख है और सम्यग्दृष्टि को यह विश्वास हो जाता है कि जितना जोड़ना है, वह संसार से सम्बन्ध जोड़ना है और जितना तोड़ना है, वह मुक्ति से सम्बन्ध जोड़ना है। यही कहलाता है 'अवाप्तसंज्ञान' । महाराज ! यह तो बिल्कुल ही विपरीत दशा हो गई, यूँ कहना चाहिए कि सारी दुनिया पूरब की ओर जा रही है, तो साधक पश्चिम की ओर जा रहे हैं, यह अपूर्व दिशा है अपूर्व अर्थात् अद्वितीय दिशा सारा का सारा संसार, जो जोड़ने में लगा है, क्या हम उसे सम्यग्दृष्टि कहें, नहीं ! भले ही हमें सारा संसार पागल कह दे, तो भी भीड़ की बात नहीं माननी है। वृद्धों की बात मानो, आयु में वृद्ध नहीं 80, 90, 100 वर्ष के हों दादा जी, परदादा जी, जो पर वस्तु को जोड़ने में लगे हैं, उनकी नहीं, यहाँ पर वृद्ध का तात्पर्य है दृष्टि जिसकी समीचीन है सही वह भी ऊपर-ऊपर से नहीं भीतर से भी । बन्धुओ जोड़ना ठीक नहीं छोड़ना ही ठीक है। मिट्टी में कुछ नहीं रखा। ऊँची आसन पर बैठकर, करे धर्म की गल्ला । औरों को माया बुरी बतावे, आप बिछावे पल्ला ॥ | अरे यह सब पर है, इसमें कुछ नहीं रखा, धर्म की बात मैं कह रहा हूँ, सुनो! यह सारे के सारे संसार के कारण हैं, राग के कारण हैं बन्ध के कारण हैं, दुर्गति देनेवाले ये पर हैं, स्वभाव अलग है, ये सब विभाव हैं, संसार है, राग करना अभिशाप है, छोड़ दो, छोड़ दो । कहाँ छोड़ दें? हम पल्ला बिछा देते हैं, इसके ऊपर छोड़ दो ( श्रोताओं में हँसी) । तो वह सोचेगा कि आप तो कह रहे थे यह रखने योग्य नहीं है और आप पल्ला बिछा रहे हो। ये तो समझ में नहीं आती। बात हमारे Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पल्ले तो यह पड़ रही है कि वस्तुतः आप हमें उपदेश | की शक्ति रखते थे। भगवान् से भी पूछ डाला क्यों धारण देकर के इकट्ठे करने में लगे हुए हो, तो उसका बुरा | करें? बहुत कुछ कहा तब अन्त में कहा हाँ यह युक्ति प्रभाव पड़ेगा। यह उल्टा उपदेश देते हैं, हमें छुड़वा देते | भी है और अनुभूत भी। जो रागी-द्वेषी होता है वह पक्षपात हैं और खुद ले लेते हैं, लेकिन जिसकी दृष्टि वास्तव | की बात कह सकता है। आप रागी, द्वेषी न होने के में समीचीन हो गई उसका श्रद्धान हो जाता है- पर पदार्थ कारण पक्षपात की बात नहीं कहेंगे सही बात कहेंगे। में सुख नहीं, यदि है तो आत्मद्रव्य में है, सुख को जब कभी भी रागद्वेष की निवृत्ति होगी, उस समय नियम प्राप्त करने का साधन है तो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, | से वह पापों से निवृत्ति लेगा। सम्यक्चारित्र। आचार्य समन्तभद्र कहते हैं- सही साधन अभी बिजली चली गई तो आप में से कोई नहीं को अपनाओ, तब निराकुल दशा प्राप्त हो सकेगी। यह | आया बैटरी को बदलने, क्यों? क्योंकि आपने निश्चय न्याय का सिद्धान्त है कि जैसा कारण होगा वैसा ही कर लिया है कि यह मेरा काम नहीं है, इसके बारे कार्य होगा। हिंसादिनिवृत्ति रूप जो चारित्र है उस चारित्र | में मुझे ज्ञान नहीं है जिसे ज्ञान है उस मिस्त्री को नियुक्त को अपनायेंगे तभी राग-द्वेष की प्रणाली मिटनेवाली है, कर रखा है। वह व्यक्ति तुरन्त आता है, जिसको ज्ञान अन्यथा तीन काल में भी सम्भव नहीं। राग-द्वेष जो हो | प्राप्त हो गया है। उसी प्रकार वह व्यक्ति झट से चारित्र रहे हैं, वे क्यों हो रहे हैं, जिन पदार्थों से हो रहे हैं | लेने के लिए आ जाता है। राग-द्वेष के साधन को मुझे उन पदार्थों को छोड़ना भी अनिवार्य है, इसी को बोलते | हटाना है और चारित्र को आगे बढ़ाना है। अभी तक हैं बाहरी चारित्र। इस बाहरी चारित्र से ही अन्दर का | ज्ञान था कि आत्मा का हितकारी कोई है तो पंचेन्द्रिय रागद्वेषनिवृत्ति रूप जो आभ्यन्तर चारित्र है वह होने वाला के विषय हैं अब ज्ञात हो गया कि 'आतम के अहित है। दूसरा मार्ग ही नहीं है। यही सही मार्ग है, मोक्ष विषय कषाय'। जब जान लिया कि ये अहितकारी हैं प्राप्त होगा तो इसी से ऐसा अटूट श्रद्धान रहता है उसको। तो फिर उनकी ओर देखें क्यों? नहीं। देखें नहीं, मिटाने इदम् एव च ईदृशं एव च तत्त्वं नान्यत् न च | का प्रयास करें। किसके द्वारा मिट सकते हैं। घर पर अन्यथा। इसका उल्टा भी नहीं है, अन्यथा भी नहीं है, मिट सकते हैं? कहाँ पर मिट सकते हैं? इन्हें किस ऐसा ही है, इसी प्रकार है, यही है। इस प्रकार का प्रगाढ़ | प्रकार मिटा दूं? आकर के कहता है महाराज! मुझे राग श्रद्धानवाला सम्यग्दर्शन और उस राग-द्वेष को मिटाने के द्वेष मिटाना है। आ जाओ बैठ जाओ और किसी के जितने साधन हैं उनमें एक सम्यक् चारित्र भी है जो | साथ बोलना नहीं, क्योंकि बोलने से भी राग उत्पन्न होता कि हिंसादिनिवत्ति रूप होता है। या यँ कहें कि जिन | है। इस प्रकार पाँच पापों से वह जब निवत्ति लेगा, तो साधनों से राग-द्वेष की शांति होती है वह है सम्यक्चारित्र। उसका उपयोग राग-द्वेष की ओर नहीं जायेगा। बाहर से कम से कम शांति आये तो बाद में रागद्वेष सम्बन्ध ही दुःख का कारण की प्रणाली जहाँ से उद्भूत हो रही है, वह भी मिटेगी, आत्मा का उपयोग राग-द्वेष की ओर तब तक अन्यथा तीन काल में नहीं। जाता है जब तक इष्ट व अनिष्ट पदार्थ रहते हैं। पदार्थों पाप से बचो के विमोचन होने के उपरान्त इष्ट रहा, न अनिष्ट। कुछ एक बर्तन में दूध तप रहा है, उबल रहा है तो | भी बंध नहीं है। आपकी दुकान के पड़ोस में दो दुकानें क्या करते हो? अग्नि को बाहर खिसका देते हो। क्या | और हैं। एक की दुकान में फायदा हो गया, एक की होगा इससे? तपन/क्षोभ/उबलन शांत हो जायेगी। दूध | दुकान में हानि हो गई। दोनों की वार्ता को आपने सुना ही क्षुब्ध होनेवाला है, दूध में ही शांति आनेवाली है। पर आपको कुछ नहीं, होता क्यों? क्योंकि उनके हानिफिर भी यह स्पष्ट है कि जब तक अग्नि नीचे से लाभ से हमारी दुकान का कोई हानि-लाभ नहीं है। आचार्य तेज रहेगी तब तक दूध में क्षोभ का अभाव नहीं होगा, कहते हैं- इसी प्रकार जिन पदार्थों से जब तक सम्बन्ध उष्णता का अभाव नहीं होगा। इसी प्रकार जिन पाप | रहता है, तब तक उनके वियोग में दु:ख व संयोग में प्रणालियों से रागद्वेषों का विकास हो रहा है तो राग- | सुख प्रतीत होता है, जिन पदार्थों का त्याग कर दिया द्वेष को छोड़ने के लिए पाँच पापों का आलम्बन छोड़ना | तो फिर कुछ नहीं, जिस पदार्थ से हमारा सम्बन्ध है, होगा। महाराज जी हो जायेगी शांति? अरे भाई यह आचार्य | उसी को लेकर हर्ष-विषाद होता है। सम्यग्दृष्टि को ऐसी समन्तभद्र कह रहे हैं न, जो भगवान् को भी हिलाने | जागृति हो गई। पदार्थ हमारा हो भी नहीं सकता, तो - फरवरी 2008 जिनभाषित 7 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फिर क्यों उसके प्रति सम्बन्ध रखना, क्योंकि पर पदार्थ | था। सम्यग्दर्शन का अर्थ ही यही है कि इस प्रकार का से सम्बन्ध रखना दुःख विकल्प का कारण है। । मजबूत श्रद्धान बनाना कि पर पदार्थ मेरे नहीं हैं। हेय इस सभा में अभी कोई आकर आवाज दे- सीताराम | का विमोचन और उपादेय का ग्रहण, इसमें जो सहायक जी! मान लो सभा में चार सीताराम हैं। आवाज होते बनता है वही सम्यग्ज्ञान है और इन्द्रियों के विषयों से ही चारों के कान सतर्क हो जाते हैं, देखते हैं कौन है? | उपेक्षा होना ही ज्ञान का वास्तविक फल है, जिसे चारित्र किसने आवाज दी? और जैसे ही देखा अमुक व्यक्ति | कहते हैं। ज्ञान होने के उपरान्त भी उसका विषयों की ने आवाज दी, ओह मुनीम जी! तो तीन सीताराम जी ओर धावमान होना बह जाना, वह ज्ञान, ज्ञान नहीं है। की आकुलता समाप्त हो जाती है। क्यों? क्योंकि उनका | बस समझ लो- 'ओरों को तो माया बुरी बतावे आप उन मुनीम जी से कोई सम्बन्ध नहीं है। और जिन सीताराम | बिछावे पल्ला'। दूसरे के लिये जो बुरी है वह तुम्हारे जी के मुनीम जी हैं उन सीताराम जी को आकुलता | लिये भी तो बुरी है, लेकिन वास्तविकता तो यह है कि परेशानी होती है वह खिसकने लगते हैं। उठ जायें कि अपनी दृष्टि में बुरी लग नहीं रही है, बस कहता जा नहीं, शास्त्र तो समाप्त हुआ नहीं। मुनीम जी का चेहरा रहा है। पंचेन्द्रियों के विषय जब तक जीवन में रुचिकर कैसा है, हँस रहे हैं या विषाद/चिन्ता युक्त हैं। पता नहीं । अच्छे लग रहे हैं तब तक सम्यग्ज्ञान नहीं है। संसार क्या हो गया। लगता है बॉम्बे में सौदा हुआ था उसमें | शरीर भोगों से जब तक उदासीनता नहीं आयेगी, तब गड़बड़ दिखती है। ये सब क्यों? क्योंकि सम्बन्ध है। तक समझो अभी बात बनी नहीं। संसार की ओर मुड़ना जिस सीताराम जी का मुनीम जी से सम्बन्ध है, उनके | और संसार से मुड़ना बहुत अन्तर है इसमें। मन में उथल-पुथल है, बाकी के तीन बिल्कुल शांत | दर्शन मोहनीय की सत्ता/क्षय को जानना हमारे वश वीतरागी/निर्विकल्प समाधि जैसे बैठे हैं।' की बात नहीं प्रत्येक व्यक्ति का सम्बन्ध किसी बाहरी पदार्थ अब दूसरी बात यहाँ पर है। दर्शनमोह व चारित्रसे जुड़ा है। उस पदार्थ के संयोग में, वियोग में, उसके | मोह क्या है? उसे हम आगम से जान रहे हैं। हमें उसका बारे में कुछ वार्ता सुनते हैं, तो नियम से कुछ हर्ष-क्षयोपशम हुआ कि नहीं, उसका ज्ञान इस अवस्था में विषाद होता है और इस हर्ष-विषाद को ही राग-द्वेष | 'न भूतो न भविष्यति'। आगम यह कहता है कि दर्शनकहते हैं। इस राग-द्वेष और हर्ष-विषाद की प्रणाली को | मोहनीय व चारित्रमोहनीय वह कर्म है, जिसको हम इन यदि मिटाना है, तो पदार्थों से सम्बन्ध को तोडना होगा। आँखों से नहीं देख सकते. हाथों से टटोल कर छ नहीं व्यक्ति सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान प्राप्त करने के उपरान्त सकते, उसके पास कोई गंध नहीं, जो अपनी नासिका जितना-जितना बाहरी पदार्थों से सम्बन्ध तोड़ता है, उतना | ग्रहण कर ले। छद्मस्थ के लिये, हमारे जैसे जो मंदबुद्धिही उतना वह अपने निकट पहुँचता चला जाता है और | वाले हैं क्षायोपशमिक ज्ञान के साथ चलनेवाले उनके लिए एक समय आता है, जब वह आकिंचन्य रह जाता है, वह अमूर्त जैसे हैं। माईक्रोस्कोप में भी दिखनेवाले नहीं, किसी पदार्थ से सम्बन्ध नहीं रखता वह। कितना | फिर हम कैसे जानें कि हम पुरुषार्थशील होगा वह, उसकी दृष्टि, उसका ज्ञान, उसकी / उपशम/क्षयोपशम हुआ कि नहीं हुआ? कोई कहे कि वृत्ति कितनी निर्मल होगी, कितना साहसी है वह! दुनिया जब तक कर्म का उपशमादि नहीं होगा तब तक चारित्र किसी प्रकार सहारा लेने का प्रयास कर रही है, लेकिन | लेना बेकार है, क्योंकि उसमें समीचीनता तभी आ सकती वह निराधार, एक मात्र अपनी ही आत्मा का सहारा लेता है जब दर्शनमोहनीय का क्षय/उपशम/क्षयोपशम हुआ है। जो कुछ कर्म के अनुसार मिलेगा वह ही मेरे लिए | हो। इसका ज्ञान हो तो चारित्र लें, क्योंकि मिथ्याचारित्र मान्य है और कुछ नहीं। यह मानना साहस का काम तो हम अंगीकार कर नहीं सकेंगे, महाराज! अरे भाई है। राग-द्वेष को मिटाने का रास्ता है, तो बस यही एक | सम्यक्चारित्र कब धारण करोगे? सम्यक्दर्शन की पहचान रास्ता है। अन्धकार मिट गया। सूर्य का प्रकाश आता | आ जाये तब। सम्यक्चारित्र पहिचान में तभी आ सकेगा है, पदार्थ अपने आप प्रकाशित हो जाते हैं। अभी तक | जब दर्शनमोहनीय की आपको पहिचान हो। वह होती अन्धकार में हाथ मार रहे थे जहाँ-तहाँ गिर रहे थे। ज्ञानरूपी | नहीं तो बड़ी उलझन है। आचार्य कहते हैं उलझन तो प्रकाश आ गया। अपना कौन? पराया कौन? सारा का | तुम्हारी है। यह उलझन की बात ही नहीं, रुचि की बात सारा देखने में आ गया। वह पदार्थ वह रास्ता मेरा नहीं | है। दर्शनमोहनीय के क्षय/उपशम/क्षयोपशम के जानने 8 फरवरी 2008 जिनभाषित - Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का थर्मामीटर आप ढूँढना चाहोगे, तो न मिला है, न | साधन मैं कब प्राप्त करूँगा, घर में शादी है, वैभव हो मिलेगा। यह दिव्यज्ञान का ही विषय है कि किसके पास | तो भी सोचता रहता है, सदैव उदासी छाई रहती है कि दर्शनमोहनीय का क्षय/उपशम/क्षयोपशम है? किसके पास | ये बाहरी लक्षण हैं। कई लोग कहते हैं महाराज हम उदय है? बाहर से दिखना चाहिए सच्चे देव-गुरु-शास्त्र | चाहते तो नहीं थे फँसना, मगर 2-3 लोगों ने मिलकर के प्रति समर्पण का भाव, मार्ग यदि है तो यह है, यही | फँसा दिया। अच्छा आप कुछ कहकर हमें मत फँसाओ है। प्रतिमा के समाने जाते समय आप यही भाव रखते | हम जानते हैं ऐसे थोड़े ही फँसाया जाता है, मुनिवत् हैं कि ये ही भगवान् हैं, दूसरे नहीं हो सकते ऊपर- | बैठ जाओ देखें कौन फँसाता है? ऊपर से ना-ना और ऊपर से ही नहीं, अन्दर से भी उसी की शरण में जाऊँगा, अन्दर से हाँ-हाँ बस जरा सी अभिव्यक्ति कर दी। तो मेरे कर्म की निर्जरा होगी, उसी के ऊपर श्रद्धान करूँगा | सम्यग्दर्शन, ज्ञान होने के उपरान्त वह स्वयं विषय कषायों तो मेरे कर्म की निर्जरा होगी, ऐसे दृढ़भाव सम्यग्दृष्टि | में फँसना नहीं चाहेगा, और उसे कोई फँसा नहीं सकेगा, के हैं। दूसरे के पास जाने की बात तो दूर, यहाँ आकर फँसा भी ले तो कब तक फँसायेगा? एक न एक दिन भी दूसरे भावों की शरण नहीं है। हे भगवान् ! मुझे कर्म | उठकर बाहर आ ही जायेगा। मैं अपनी आँखों से देख निर्जरा करनी है, आप जैसा बनना है, इसके लिए आपकी | लें किशरण में आया हूँ व तब तक आपकी शरण लूँगा, जब दर्शन मोहनीय का क्षय हुआ कि नहीं, इस प्रकार तक कि आपकी शरण में स्थिर नहीं हो जाऊँगा। यह | का जीवन में कभी भी प्रयास नहीं करना चाहिए, क्योंकि बाहरी पहिचान सम्यग्दर्शन की है। प्रशम, संवेग, आस्तिक्य | यह सूक्ष्म परणति है जिसे हम इन आँखों से (क्षायोपशमिक अनुकम्पा ये चार जहाँ हों, वहाँ सम्यग्दर्शन बनता है। ज्ञान से) पकड़ नहीं सकते। हमेशा उदासीन/शाँत रहना और चिन्तन करना कि संसार | सम्यग्दर्शन होने के उपरान्त वह स्थायी बना रहे में क्या रखा है? यह भी कोई नियम नहीं। दीक्षा ली, एक साथ रत्नत्रय समझने के लिए घर में शादी हो रही है, बारात | को प्राप्त कर लिया और अन्तर्मुहूर्त के अन्दर नीचे आ आई खूब धूमधाम चल रही है, शादी हो गई, बारात गये। कोई पाँचवें, कोई चौथे, कोई प्रथम गुणस्थान में लौट गई, अब तो मजा नहीं आ रहा है, ऐसा लगता | आ गया और जीवनकाल पर्यन्त जो चर्या ग्रहण की थी है जैसे भवन खाने को दौड़ रहा है। क्यों? भवन तो वह निर्दोष पल रही है। अन्दर घटना बढ़ना होता है वही है, वही रंग रोगन, सब कुछ वही, लेकिन फिर | वह जानना तो दिव्यज्ञान का विषय है। इसलिए हमें तो भी अच्छा नहीं लग रहा। जिस प्रकार सब कुछ होते | यही ध्यान रखना चाहिये कि राग-द्वेष हमारे लिए अभिशाप हुए भी वहाँ अच्छा नहीं लगता, उसी प्रकार सम्यग्दर्शन हैं और रागद्वेष से अतीत होना ही वरदान है, उसी की होने के उपरान्त फिर पंचेन्द्रियविषय अच्छे नहीं लगते। शरण लेंगे, उसी का प्रयास करेंगे, उसी की साधना करेंगे, छोड़ो (अपना अपना निवास स्थान) ईसरी चलो, क्यों? | यही बनाये रखो तो भी पर्याप्त है। अतः चारित्र अंगीकार अच्छा नहीं लगता क्योंकि मार्ग है तो यही, जीवन में | करते समय सम्यग्दर्शन है या नहीं यह शंका नहीं करना संसारी प्राणी विषयों में सुख मान रहे हैं जबकि वस्तुतः| चाहिये। विषयों में सुख है ही नहीं। परद्रव्यों को जो ढूँढ रहे | आप चारित्र के लेते समय ऐसी शंका करते हो हैं और उनमें सुख मान रहे हैं वे पश्चाताप करेंगे, क्योंकि | कि सम्यग्दर्शन है या नहीं है तो हम यह कहते हैं कि परिग्रह महापाप माना जाता है। इसका फल जब मिलेगा | आप जो स्वाध्याय करते हो, और यदि सम्यग्दर्शन नहीं तब मालूम पड़ेगा। आचार्य कहते हैं-'बह्वारम्भपरिग्रहत्वं | है तो स्वाध्याय परम तप कैसे होगा? सम्यग्दर्शन होगा नारकस्यायुषः,' बहुत आरम्भ और बहुत परिग्रह के माध्यम | तभी तो स्वाध्याय परम तप है और तप भी इसे मुनियों से नरकायु का आस्रव होता है। नरकों में जाना पड़ता की अपेक्षा से कहा है। आपका भी है, लेकिन आपका है। अतः सम्यग्दृष्टि सोचता है कि, हे भगवन्! इनको षट्कर्म है। और आपका भी षट्कर्म तब बन सकता कैसे ज्ञान मिले? इस प्रकार अपायविचय धर्मध्यान करता | है, जब आपने मूलगुण धारण कर लिये हों। और षट्कर्म है। यह दूसरे को देखकर भी हो जाये व अपने को | तो पंच अणुव्रत की सुरक्षा के लिये हैं। पाँच अणुव्रत भी देखकर हो जाये। मैं रागद्वेष कब मिटाऊँ इसका अपाय | तो आपने लिये नहीं, तो षट्कर्मो का यह स्वाध्याय आपका अर्थात् दुःख कब दूर होगा, अभाव कब होगा, सच्चा । षट्कर्म भी नहीं माना जायेगा। और षट्कर्म नहीं माना - फरवरी 2008 जिनभाषित , Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जायेगा, तो इससे असंख्यात गणी निर्जरा होगी कैसे? तप । चारित्र लेना ही औषधि है। राग-द्वेष तब तक नहीं मिटेंगे होगा कैसे? अर्थात् यदि सम्यग्दर्शन का पता नहीं है, जब तक आप अपने में लीन नहीं होंगे। मन बाहर लीन तो स्वाध्याय भी सम्यग्ज्ञान की कोटि में नहीं आ सकेगा। हो रहा है, क्यों? क्योंकि बाहर मन रखा है, माया रख तरफ शंका करते हो (चारित्र के क्षेत्र में). I रखी है, माया से कहो तुम हमारी नहीं और इसके लिए तो दूसरी तरफ भी तो (ज्ञान के क्षेत्र में) शंका हो जायेगी | मन मानता नहीं। सम्यग्दृष्टि का पुरुषार्थ बहुत बड़ा है। और यदि जीवन भर ऐसा निर्णय नहीं हुआ तो फिर? | संसारी प्राणी अनन्त काल से पर पदार्थ का सहारा लेकर जीवन भर पढ़ते-पढ़ते निकल गया कोई रिजल्ट ही नहीं | के आ रहा है, सम्यग्दृष्टि उस पर कुठाराघात कर देता आ रहा है और हम पढ़ते जा रहे हैं पढ़ते जा रहे हैं। है। अज्ञान दशा में जब जो स्थिति थी, जोड़ लिया, अब यह तो समझ में नहीं आ रहा कि ऐसी कौन सी कक्षा | ज्ञान उत्पन्न हो गया है, अब कोई आवश्यकता नहीं। है एक साल की, दो साल की, तीन साल की है या दवाई बहुत ढंग से पिलाई जाती है, हाथ पैर पकड़ करके जीवन भर की है? इस जीवन में कोई कक्षा बदलेगी | भी, बेहोश करके भी। चारित्र के क्षेत्र में भी ऐसा ही या नहीं? हमारी समझ में नहीं आता कि जीवन पर्यन्त | प्रयास करना पड़ेगा। वस्तुतः चारित्र के क्षेत्र में जल्दी एक ही कक्षा में रहें। अर्थ यह है कि अपनी बुद्धि | पग नहीं उठते, परिश्रम होता है, लेकिन यही परिश्रम जहाँ तक पहुँचती है वहाँ तक पर्याप्त है जो अपनी बुद्धि | एक दिन मंजिल तक पहुँचा देता है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, गम्य पहिचान के लिए प्रशम, संवेग, अनुकम्पा, आस्तिक्य | सम्यक्चारित्र को अपनाना ही मनुष्य जीवन की सफलता है। यही तत्त्व है, यही सम्यक्चारित्र है। इसके अलावा | है। यदि यह नहीं, तो सम्यग्दर्शन-ज्ञान तो नारक, तिर्यंच अन्य लौकिक क्रियाओं को जो चारित्र कहते हैं, वह गति में भी होता है। लोग चारित्र को प्राप्त करना चाहते सम्यक्चारित्र नहीं है। सम्यक्चारित्र तो वही है जो राग- | हैं, लेकिन क्षेत्र का, गति का ऐसा सम्बन्ध पड़ चुका द्वेष को मिटाने का साधन है, पंच पापों से निवृत्ति रूप | होता है कि वहाँ से अन्यत्र नहीं जा सकते, लेकिन आपके ही चारित्र है। इस प्रशमादि चार लक्षणों को लेकर ही साथ ऐसा नहीं है। बहुत गुंजाइश हैं आपके साथ। विषय सम्यग्दर्शन की पहिचान, हम बाहर से कर सकते हैं। के क्षेत्र में जब आप शक्ति से बाहर कूदने का साहस भीतरी पहिचान तो जिसने कर्म को जाना है, कर्म के रखते हो तो, वीतरागता के क्षेत्र में शक्ति के नहीं होते क्षयोपशम के बारे में जानने की क्षमता है, ऐसे जो (अवधि | हुये भी कूदना चाहिए। लेकिन लगता है कि लोग क्या /मन:पयर्य/केवलज्ञान का धारी है) वही जान सकता | कहेंगे? सबसे बड़ी बीमारी चारित्र के क्षेत्र में यही है है इसके अलावा अन्य किसी को सम्भव ही नहीं, ऐसा | कि देखो अच्छा! भगत जी आ गये (श्रोता समुदाय में स्पष्ट आगम का उल्लेख है। इतना ही सोच लेना चाहिए | हँसी) थोड़ा अभिषेक पूजन करें, तो लोग यही कहेंगे ज्यादा नहीं, यदि हम ज्यादा शंका करेंगे तो हमारी मति | बड़े भगत हैं, तो वह सहन नहीं होता, लेकिन ऐसा नहीं, विभ्रम में पड़ जायेगी और दूसरों की मति को भी विभ्रम | कब तक पीछे रहोगे। दुनिया आपको ऐसा कहती है, में डाल देंगे। अतः क्या आप अपना स्वभाव प्राप्त करना छोड़ दोगे? यह अर्थ समझ लेना चाहिए कि चारित्र राग-द्वेष | स्वभाव अपनी चीज है, राग-द्वेष नहीं। स्वभाव की ओर की निवृत्ति के लिए लिया जा रहा है। इसी चारित्र की जाते समय दुनिया नियम से बहकायेगी। द्रव्य, क्षेत्र, काल, शरण में हमको जाना है, चारित्र लेना है। जीवन का भाव सब मिल चुके हैं, द्रव्य आपका, क्षेत्र श्रेष्ठ सामने लक्ष्य ही यही होना चाहिए कि चारित्र लेना है। राग- | दिख रहा है पारसनाथ हिल, अनंतानंतसिद्ध परमेष्ठी का द्वेष को मिटाने के लिए। राग-द्वेष को मिटाने के लिए | धाम, इससे बढ़कर कौन-सा क्षेत्र? एक मात्र अन्दर की जिन पदार्थों को लेकर के राग-द्वेष उत्पन्न हो रहे हैं, अलार्म घण्टी बजने की देर है और अन उन पदार्थों से मन, वचन, काय से कृत-कारित-अनुमोदना | अपने आश्रित है। राग-द्वेष छोड़ना है जीवन में चारित्र से जब तक सहर्ष त्याग नहीं होगा, ध्यान रखिये तब | का सहारा लेना है। तक रागद्वेष के मिटने का कोई सवाल ही नहीं। यह 'महावीर भगवान् की जय'! औषधि है. रोग मिटाने के लिए. राग-द्वेष मिटाने के लिये | 'चरण आचरण की ओर' से साभार 10 फरवरी 2008 जिनभाषित Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मपरिणामों की परख मुनिपुङ्गव श्री सुधासागर जी (अजीव). धर्म. अधर्म आकाश और । अंदर? सात अरब की जनता है। सात अरब में कितने काल, इन छह द्रव्यों में जीव द्रव्य विशेष है। यह परिणाम | जीव ऐसे हैं जिनके परिणाम सत् होते हैं? कितने जीव से युक्त है। इसके परिणाम हवा के समान दोलायमान | ऐसे हैं जो सत् मार्ग पर चलने के लिए निस्वार्थ बुद्धि होते रहते हैं। हवा का कोई भरोसा नहीं रहता कि कब | से प्रेरणा देते हों? सत् मार्ग की एक स्वार्थ बुद्धि से किस दिशा की तरफ मुड़ जाये? इसी तरह जीव के | प्रेरणा देना और एक नि:स्वार्थ बुद्धि से प्रेरणा देना, दोनों परिणामों का भी कोई ठिकाना नहीं रहता। कब, किस | में अंतर है। जीव की स्वरूपगत विशेषताओं के विषय तरफ इनका झुकाव हो जाये, कौन सा परिणाम हो जाये? | में 'प्रवचनसार' में आचार्य श्री कुन्दकुन्ददेव ने कहा हैएक क्षण में ये जीव इतनी अशुभ प्रकृति का बंध कर अरसमरुवमगंधं अव्वत्तं चेदणागुणमसद। लेता है कि इस प्रकृति का यदि विश्लेषण किया जाये जाणअलिंगग्गहणं जीवमणिदिट्ठ-संठाणं॥ तो ऐसा लगता है कि ये जीव कभी इससे मुक्त हो | अर्थात् जीव को रसरहित, रूपरहित, गंधरहित, पायेगा कि नहीं और एक क्षण के बाद इसके परिणामों स्पर्शरहित, शब्दरहित, किसी चिन्ह के द्वारा ग्रहण न करने को देखते हैं तो इतना विकास का परिणाम होता है कि योग्य तथा आकाररहित जानो। शायद ऐसा लगता है कि अभी इसको केवलज्ञान होकर एक पिता अपने बेटे से कहता है कि बेटे! चोरी मोक्ष हो जायेगा। कितना विचित्र परिणाम है? इसीलिए | मत करना, जुआ मत खेलना, शराब मत पीना। वह सन्मार्गी कहा है होकर के भी सन्मार्ग दिखाने की उसकी जो परिणति अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य। | है, वह जो उसका स्वार्थ है कि ये मेरा बेटा है, शराब अप्या मित्तंमतित्तं च, दुपट्ठिय सुपाट्ठिओ॥ | पियेगा तो मेरा कुल नष्ट हो जायेगा, शराब पियेगा तो अर्थात आत्मा सखों और द:खों का कर्ता है तथा | मेरे परिवार में अशांति हो जायेगी. शराब पियेगा तो ये उनका अकर्ता भी है। शुभ में स्थित आत्मा मित्र है और मरण को प्राप्त हो जायेगा, शराब पियेगा तो बुढ़ापे में अशुभ में स्थित आत्मा शत्रु है। मेरी कौन सेवा करेगा? ये अनेक स्वार्थ उसके अंदर देखने में आता है कि संसार से वैराग्य लेकर | पनपे हए हैं, तब कहीं वह बेटे को सुधरने का मार्ग के एक मुनि रत्नत्रय के आनंद में डूब गया। कई बार | बता रहा है। दूसरे के बेटे यही कर्म करते हैं, तो उसके । गणस्थान का भी स्पर्श किया। सम्यग्दर्शन. अंदर इस तरह का परिणाम नहीं आता, लेकिन कुछ सम्यक्ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूपी रत्नत्रय को अपने | ऐसे निमित्त होते हैं, जिन्हें आप लोगों की भाषा में गुरु जीवन में धारण कर लिया, लेकिन उपादान यदि थोड़ा | कहा जाता है। जिनके अंदर कोई परिणाम नहीं कि तुम सा कमजोर हो जाये तो निमित्त अपना बल, जोर दिखाने | सुधरोगे तो भी मुझे कुछ मिलने वाला नहीं और तुम के लिए घूमते ही रहते हैं। उपादान एक होता है, निमित्त | बिगड़ोगे तो भी मुझे कुछ मिलने वाला नहीं। अनेक हो जाते हैं। अनेक होते हैं, निमित्त। जब भी जयपुर वाले शराब पियें या न पियें, पीते भी हों कोई व्यक्ति किसी के घर में डाका डालता है, एक तो मेरे लिए इससे क्या फर्क पड़ेगा, ये तो बता दो? नहीं अनेक व्यक्ति डालते हैं। मालिक एक होता है, लेकिन | तुम्हारी शराब का नशा मुझ पर नहीं चढ़ेगा। मेरी साधना उसे लूटनेवाले अनेक होते हैं। कहाँ तक बचे व्यक्ति? | पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। मेरी साध्यता के ऊपर कोई कितना ही प्रयास करो। एक निमित्त हो तो बच जाये, | प्रभाव नहीं पड़ेगा। लेकिन उसके बावजूद भी मार्ग दिखाने निमित्त अनेकों बनते हैं। बुरे निमित्तों की कमी नहीं है | का परिणाम आता है। आचार्य श्री कुन्दकुन्द स्वामी, और अच्छे निमित्तों की बहुलता नहीं है, अच्छे निमित्त | आचार्यश्री समन्तभद्र स्वामी को आया, अरहंत भगवंतों दुर्लभ होते हैं। हजारों लोगों को उपादान जगाने के लिए | को आया। इसलिए समन्तभद्र स्वामी ने कहा है कि ऐसा कोई एकाध अच्छा निमित्त मिलता है, हजारों लोगों में | निर्देशक मिलना बहुत कठिन है, ऐसा मार्गद्रष्टा मिलना किसी एक को। कितने करोड़ की जनता है विश्व के । बहुत कठिन है। ऐसा भगवान् मिलना बहुत कठिन है, - फरवरी 2008 जिनभाषित 11 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो नि:स्वार्थ उपदेश देता है। आत्मा की अवस्था को | में जायें और कल्याण हो जाये, कहा नहीं जा सकता, निस्संग माननेवाले हमारे आचार्य संयोग के स्वरूप को | लेकिन शब्द सुनानेवाला नि:स्वार्थ होना चाहिए। बहुत बताकर आत्महित और विशुद्ध आत्मा की प्राप्ति के विषय | दुर्लभता से अच्छे शब्द सुनानेवाले मिलते हैं। सारी दुनिया में प्रेरित करते हैं। आचार्य कुन्दकुन्द देव ने लिखा है- | में कल्याणकारक बहुत हैं, लेकिन वे हमें मिल जायें, एगो मे सासदो आदा णाण-दसणलक्खणो। | यह सौभाग्य है। आत्मानुशासन में कहा है- खद्योतवत्। सेसा में बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा॥ खद्योत बोलते हैं जुगनू को। जैसे वर्षा के समय में जुगनू अर्थात् जब हम तत्त्वदृष्टि से विचार करते हैं, | थोड़े बहुत कही दिख जाते हैं, ऐसे ही कभी, क्वचित्, तो ज्ञात होता है कि मेरी आत्मा अकेली है, ज्ञान-दर्शन | कदाचित् वे साधु हमें दिख जाते हैं, जो हित की बात उसके लक्षण हैं। शेष जितने भी पदार्थ हैं वे मुझसे भिन्न करते हैं। और दिखने के बाद वही हमारी आत्मा में हैं. बाहर हैं। यह सभी संयोग के कारण प्राप्त हुए हैं। ग्रहण हो जाये, तो बहुत बड़ी बात है। बहुत बड़ा विचारणीय अर्थात बाह्य पदार्थों से इस आत्मा का कोई लेना-देना | प्रसंग है ये. लेकिन फिर भी हमारी जिन्दगी को बिगाडने नहीं है। वाले हजारों निमित्त मिलते हैं। जिन्दगी को सुधारनेवाला जैसे कोई भी व्यक्ति ढोलक उठाये, उस पर हाथ | एक निमित्त मिला। आप अपनी जिन्दगी के आधार पर मारे, तो उससे आवाज आयेगी। वह यह नहीं देखेगा | देख लो। कि इस ढोलक का मालिक कौन है? जितने भी संगीत | आपकी जिन्दगी में क्रोध पैदा करनेवाले कितने के यंत्र होते हैं ढोलक आदि, वे यह नहीं देखते कि | निमित्त मिले होंगे? मान करनेवाले कितने निमित्त मिले मेरा कौन मालिक है? मुझे कौन खरीदकर लाया है? | होंगे? लोभ करनेवाले कितने निमित्त मिले होंगे? तुम्हारे ढोलक कहता है कि जो कलाकार मेरे ऊपर हाथ मारेगा, जीवन के संबंध में बुरा विचारनेवाले कितने निमित्त मिले मैं उसे ही संगीत दूंगा। ढोलक किसका है, बजा कौन | होंगे? तुम्हारे जीवन का विनाश करनेवाले कितने निमित्त रहा है, इससे उसे कोई मतलब नहीं। जो कलाकार हाथ | मिले होंगे? उठायेगा मैं उसे ही संगीत दूंगा। इसी प्रकार से देव, | आचार्य कहते हैं कि अनंतानंत निमित्त मिले होंगे। शास्त्र, गुरु हैं कि जो भव्य जीव अपना कल्याण करना | जो अपनी जिन्दगी को मिटाने वाले हैं, उनसे बचना बहुत चाहता है, वे उनका साथ देते हैं। जो ढोलक बजाता | कठिन है और जो जीव बच जाता है, वह व्यक्ति बड़ा है, ढोलक से संगीत की लहर उसके कानों में आये | भाग्यशाली है। एक उपादान को बडी मश्किल से संभाला बिना रह नहीं सकती। है बड़ी मुश्किल से भव-भव के पुण्य का संचय किया आप समझते हैं कि महाराज मेरे ही हैं। नहीं बन्धुओ! | है, तब कहीं रत्नत्रय धारण करने का परिणाम होता है। न जाने कौन व्यक्ति इन शब्दों को सुनकर के अपना | ऐसे दिगम्बर मुनियों को प्रणाम किया गया है, जिन्होंने कल्याण कर लेता है, कौन कर लेता है अपना हित | यह रत्नत्रय धारण किया है। साधन, कहा नहीं जा सकता। किसके शब्द किसके कान | प्रेषक-डॉ० सुरेन्द्र जैन 'भारती' अहिंसा का आयतन किसी सज्जन ने आचार्य गुरुदेव से कहा साधुओं को गौशाला खुलवाने की प्रेरणा नहीं देना चाहिए उसमें हिंसा होती है। उन्हें तो आत्मध्यान करना चाहिए। यह सुनकर आचार्य श्री ने कहा गौशाला में हिंसा नहीं होती, साक्षात् दया पलती है, करुणा के दर्शन होते हैं, गौशाला भी आयतन हैं, "अहिंसा का आयतन"। सम्यग्दर्शन में अनुकम्पा गुण कहा है वह गौशाला में पशुओं के संरक्षण से प्रयोग में आता है यह सक्रिय सम्यग्दर्शन माना जाता है। बच्चों को पालना मोह है, किन्तु पशुओं को पालना दया अनुकम्पा है। मुनि श्री कुन्थुसागरकृत 'संस्मरण' से साभार 12 फरवरी 2008 जिनभाषित Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिखरजी की यात्रा और बाई जी (धर्ममाता चिरौंजाबाई जी) का व्रतग्रहण क्षुल्लक श्री गणेशप्रसाद जी वर्णी प्रातः काल का समय था। माघ मास में कटरा । मोक्ष प्राप्तकर चुकी, वहाँ की पृथिवी का स्पर्श पुण्यात्मा बाजार के मंदिर में आनन्द से पूजन हो रहा था। सब | जीव को ही प्राप्त हो सकता है। रह-रह कर यही भाव लोग प्रसन्नचित्त थे। सबके मुख से श्री गिरिराज की | होता था कि हे प्रभो! कब ऐसा सुअवसर आवे कि वन्दना के वचन निकल रहे थे। हमारा चित्त भी भीतर | हम लोग भी दैगम्बरी दीक्षा का अवलम्बनकर इस दु:खमय से गिरिराज की वन्दना के लिये उमंग करने लगा और | जगत् से मुक्त हों। यह विचार हुआ कि गिरिराज की वन्दना को अवश्य बाई जी का स्वास्थ्य श्वास रोग से व्यथित था, जाना। मंदिर से धर्मशाला में आए और भोजन शीघ्रता | अतः उन्होंने कहा- 'भैया आज ही यात्रा के लिये चलना से करने लगे। भोजन करने के अनन्तर श्रीबाई जी ने | है, इसलिए यहाँ से जल्दी स्थान पर चलो और मार्ग कहा कि 'इतनी शीघ्रता क्यों? भोजन में शीघ्रता करना | का जो परिश्रम है उसे दूर करने के लिये शीघ्र आराम अच्छा नहीं।' मैंने कहा-'बाई जी! कल कटरा से पच्चीस | से सो जाओ। पश्चात् तीन बजे रात्रि से यात्रा के लिये मनुष्य श्री गिरिराज जी जा रहे हैं। मेरा भी मन श्रीगिरिराज | चलेंगे।' आज्ञा प्रमाण स्थान पर आये और सो गये। दो जी की यात्रा के लिये व्यग्र हो रहा है।' बाई जी ने | बजे निद्रा भंग हुई। पश्चात् शौचादि क्रिया से निवृत्त कहा- 'व्यग्रता की आवश्यकता नहीं, हम भी चलेंगे। होकर एक डोली मँगाई। बाई जी को उसमें बैठाकर मुलाबाई भी चलेगी।' हम सब श्रीपार्श्वनाथ स्वामी की जय बोलते हुए गिरिराज दूसरे दिन हम सब यात्रा के लिये स्टेशन से गया | की वन्दना के लिये चल पड़े। गन्धर्व नाला पर पहुंचकर का टिकट लेकर चल दिये। सागर से कटनी पहुँचे और | | सामायिक क्रिया की। वहाँ से चलकर सात बजे श्री यहाँ से डाकगाड़ी में बैठकर प्रातःकाल गया पहुँच गये। | कुन्थुनाथ स्वामी की वन्दना की। वहाँ से सब टोकों वहाँ श्रीजानकीदास कन्हैयालाल के यहाँ भोजनकर दो | | की यात्रा करते हुए दस बजे श्रीपार्श्वनाथ स्वामी की बजे की गाड़ी में बैठकर शाम को श्रीपार्श्वनाथ स्टेशन | टोंक पर पहुँच गये। आनन्द से श्रीपार्श्वनाथ स्वामी और पर पहुँच गये और गिरिराज के दूर से ही दर्शन कर | गिरिराज की पूजा की। चित्त प्रसन्नता से भर गया। बाई धर्मशाला में ठहर गये। प्रातः काल श्रीपार्श्वप्रभु की पूजाकर | जी तो आनन्द में इतनी निमग्न हुई कि पुलकित वदन मध्याह्न बाद मोटर में बैठकर श्रीतेरापन्थी कोठी में जा | हो उठीं, और गद्गद् स्वर में हमसे कहने लगीं किपहुँचे। 'भैया! यह हमारी पर्याय तीन माह की है, अतः तुम यहाँ पर श्री पं० पन्नालाल जी मैनेजर ने सब | हमें दूसरी प्रतिमा के व्रत दो।' मैंने कहा- 'बाई जी! प्रकार की सुविधा कर दी। आप ही ऐसे मैनेजर तेरापन्थी | मैं तो आपका बालक हूँ, आपने चालीस वर्ष मुझे बालकवत् कोठी को मिले कि जिनके द्वारा वह स्वर्ग बन गई। पुष्ट किया, मेरे साथ आपने जो उपकार किया है उसे विशाल सरस्वती भवन तथा मंदिरों की सुन्दरता देख आजन्म नहीं विस्मरण कर सकता, आपकी सहायता से चित्त प्रसन्न हो जाता है। श्री पार्श्वनाथ की प्रतिमा तो | ही मुझे दो अक्षरों का बोध हुआ, अथवा बोध होना चित्त को शान्त करने में अद्वितीय निमित्त है। यद्यपि | उतना उपकार नहीं जितना उपकार आपका समागम पाकर उपादान में कार्य होता है, परन्तु निमित्त भी कोई वस्तु | कषाय मन्द होने से हुआ है, आपकी शांति से मेरी क्रूरता है। मोक्ष का कारण रत्नत्रय की पूर्णता है, परन्तु कर्मभूमि, | चली गई और मेरी गणना मनुष्यों में होने लगी। यदि चरम शरीर आदि भी सहकारी कारण है। आपका समागम न होता तो न जाने मेरी क्या दशा होती? ___ सायंकाल का समय था। हम सब लोग कोठी | मैंने द्रव्यसम्बन्धी व्यग्रता का कभी अनुभव नहीं किया, के बाहर चबूतरा पर गये। वहीं पर सामायिकादि क्रिया | दान देने में मुझे संकोच नहीं हुआ, वस्त्रादिकों के व्यवहार कर तत्त्वचर्चा करने लगे! जिस क्षेत्र से अनन्तानन्त चौबीसी । में कभी कृपणता न की, तीर्थयात्रादि करने का पुष्कल परवरी 2006 जिनभाषित ।। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवसर आया...' इत्यादि भूरिशः आपके उपकार मेरे । को देखकर करते हैं। शास्त्र में यद्यपि मुनि-श्रावक धर्म ऊपर हैं। आप जिस निरपेक्षवृत्ति से व्रत को पालती हैं | का पूर्ण विवेचन है, तथापि जो शक्ति अपनी हो उसी मैं उसे कहने में असमर्थ हूँ। और जब कि मैं आपको | के अनुसार त्याग करना। व्याख्यान सुनकर या शास्त्र पढ़कर गुरु मानता हूँ तब आपको व्रत , यह कैसे सम्भव हो | आवेगवश शक्ति के बाहर त्याग न कर बैठना। गल्पवाद सकता है? बाई जी ने कहा- 'बेटा! मैंने जो तुम्हारा | में समय न खोना। प्रकरण के अनुकूल शास्त्र की व्याख्या पोषण किया है वह केवल मेरे मोह का कार्य है। फिर | | करना। 'कहीं की ईट कहीं का रोड़ा भानुमती ने कुनवा भी मेरा यह भाव था कि तुझे साक्षर देखें। तूने पढ़ने | जोड़ा' की कहावत चरितार्थ न करना। श्रोताओं की योग्यता में परिश्रम नहीं किया। बहुत से कार्य प्रारम्भ कर दिये। देखकर शास्त्र वाचना। समय की अवहेलना न करना। परन्तु उपयोग स्थिर न किया। यदि एक काम का आरम्भ | निश्चय को पुष्ट कर व्यवहार का उच्छेद न करना, करता, तो बहुत ही यश पाता। परन्तु जो भवितव्य होता क्योंकि यह दोनों परस्पर सापेक्ष हैं। 'निरपेक्षो नयो मिथ्या' है वह दुर्निवार है। तूने सप्तमी प्रतिमा ले ली, यह भी यह आचार्यों का वचन है। यदि द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक मेरी अनुमति के बिना ले ली, केवल ब्रह्मचर्य पालने नय में परस्पर सापेक्षता नहीं है, तो उनके द्वारा अर्थक्रिया से प्रतिमा नहीं हो जाती, १२ व्रतों का निरतिचार पालन की सिद्धि नहीं हो सकती। इनके सिवाय एक यह बात भी साथ में करना चाहिए, तुम्हारी शक्ति को मैं जानती | भी हमारी याद रखना कि जिसकाल में जो काम करो, हूँ, परन्तु अब क्या? जो किया सो अच्छा किया, अब | सब तरफ से उपयोग खींच कर चित्त उसी में लगा हम तो तीन मास में चले जावेंगे, तुम आनन्द से व्रत | दो। जिस समय श्री जिनेन्द्र देवकी पूजा में उपयोग लगा पालना, भोजन का लालच न करना, वेग में आकर त्याग | हो, उस समय स्वाध्याय की चिन्ता न करो और स्वाध्याय न करना, चरणानुयोग की अवहेलना न करना तथा आय | के काल में पूजन का विकल्प न करो। जो बात न के अनुकूल व्यय करना, अपना द्रव्य त्यागकर पर की | आती हो उसका उत्तर न दो, यही उत्तर दो कि हम आशा न करना, 'जो न काहु का तो दीन कोटि हजार।' | नहीं जानते। जिसको तुम समझ गये कि गलत हम कह दूसरे से लेकर दान करने की पद्धति अच्छी नहीं। सबसे | रहे थे, शीघ्र कह दो कि हम वह बात मिथ्या कह प्रेम रखना, जो तुम्हारा दुश्मन भी हो उसे मित्र समझना, | रहे थे। प्रतिष्ठा के लिये उसकी पुष्टि मत करो। जो निरन्तर स्वाध्याय करना, आलस्य न करना यथा समय | तत्त्व तुम्हें अभ्रान्त आता है, वह दूसरे से पूछ कर उसे सामायिकादि करना, गल्पवाद के रसिक न बनना, द्रव्य | नीचा दिखाने की चेष्टा मत करो। विशेष क्या कहें? का सदुपयोग इसी में है कि यद्वा तद्वा व्यय नहीं करना, जिसमें आत्मा का कल्याण हो वही कार्य करना। भोजन हमारे साथ जैसा क्रोध करते थे वैसा अन्य के साथ | के समय जो थाली में आवे उसे सन्तोषपूर्वक खाओ। न करना, सबका विश्वास न करना, शास्त्रों की विनय | कोई विकल्प न करो। व्रत की रक्षा करने के लिये करना, चाहे लिखित पुस्तक हो, चाहे मुद्रित। उच्च स्थान | रसना इन्द्रिय पर विजय रखना। विशेष कुछ नहीं। पर रखकर पढ़ना, जो गजट आवें उन्हें रद्दी में न डालना, इतना कहकर बाई जी ने श्रीपार्श्वनाथस्वामी की यदि उनकी रक्षा न कर सको तो न मँगाना, हाथ की टोंक पर द्वितीय प्रतिमा के व्रत लिये और यह भी व्रत पुस्तकों को सुरक्षित रखना और जो नवीन पुस्तक अपूर्व लिया कि जिस समय मेरी समाधि होगी उस समय एक मुद्रित हो उसे लिखवाकर सरस्वती भवन में रखना। वस्त्र रखकर सबका त्याग कर दूंगी-क्षुल्लिका वेष में यह पञ्चमकाल है। कुछ द्रव्य भी निज का रखना।। ही प्राण विसर्जन करूँगी। यदि तीन मास जीवित रही निज का त्याग कर पर की आशा रखना महती लज्जा | तो सर्व परिग्रह का त्याग कर नवमी प्रतिमा का आचरण की बात है। अपना दे देना और पर से माँगने की अभिलाषा | करूँगी। हे प्रभो पार्श्वनाथ! तेरी निर्वाण भूमिपर प्रतिज्ञा करना घोर निन्द्य कार्य है। योग्य पात्रको दान देना। | लेती हूँ, इसे आजीवन निर्वाह करूँगी। कितने ही कष्ट विवेकशून्य दान की कोई महिमा नहीं। लोकप्रतिष्ठा के | क्यों न आवें, सबको सहन करूँगी। औषध का सेवन लिये धार्मिक कार्य करना ज्ञानी जनों का कार्य नहीं। | मैंने आज तक नहीं किया। अब केवल सूखी वनस्पति ज्ञानीजन जो कार्य करते हैं, वह अपने परिणामों की जाति | को छोड़कर अन्य औषध सेवन का त्याग करती हूँ। 14 फरवरी 2008 जिनभाषित Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैसे तो मैंने १८ वर्ष की अवस्था से आज तक एक | मन स्वपरज्ञान में समर्थ हुआ। अब मुझे विश्वास हो बार भोजन किया है, क्योंकि मेरी १८ वर्ष में वैधव्य | गया कि मैं अपनी संसार अटवी को अवश्य पार कर अवस्था हो चुकी थी। तभी से मेरे एक बार भोजन का लूँगी। मेरे ऊपर अनन्त संसार का जो भार था, वह आज नियम था, अब आपके समक्ष विधिपूर्वक उसका नियम | तेरे प्रसाद से उतर गया। लेती हूँ। मेरी यह अन्तिम यात्रा है। हे प्रभो! आज तक मेरा जीव संसार में रुला। इसका मूलकारण आत्मीय 'मेरी जीवनगाथा'/ भाग १/ अज्ञान था, परन्तु आज तेरे चरणाम्बुज प्रसाद से मेरा पृष्ठ ३९५-४०० से साभार आपके पत्र "जिनभाषित' का प्रत्येक अंक मिलते ही उसी । नये वर्ष की (2008) हार्दिक शुभकामनाएँ दिन पूरा पढ़ लेता हूँ, फिर अगले अंक की लम्बी | स्वीकारें। शतायु हों। दिसम्बर 07 'जिनभाषित' मेरे प्रतीक्षा करना पढती है. पूरे एक माह। क्योंकि मासिक सामने है। बहुत रोचक एवं पठनीय लेख इस अंक पत्रिका है। लगता है यह सप्ताहिक होती। अपनी रीति में समायोजित हैं। जहाँ बोधकथाओं की महक है, नीति के अनुरूप जैनधर्म-दर्शन-संस्कृति के विविध | | वहीं आचार्य श्री के दोहों में शब्द चमत्कार तथा मुनि आयामों का सम्यक् प्रतिनिधित्व कर रही है यह। श्री क्षमासागर जी की कविता में भाव-प्रवणता का नवम्बर 07 के अंक में प्रकाशित सभी लेख ज्ञानवर्धक | सघन अहसास। पूज्य गणेशप्रसाद वर्णी जी का व्यक्तित्व हैं। स्व० डॉ० जगदीशचंद जैन जैसे अन्ताराष्ट्रियख्यातिप्राप्त विद्वान् का 'जर्मनी में जैनधर्म के कुछ अध्येता' जितना सरल और विनम्र, सम्यकदर्शन पर उनकी नामक लेख हमें जैनधर्म के प्रति विदेशियों के मन लेखनी से प्रसूत सरिता सा सरल प्रवाह। मुनि श्री में आदर और समर्पण की सूचना देता है। ब्र० पं० | प्रणम्यसागर जी का दिव्यध्वनि पर दिव्य आलेख अमरचन्द्र जी का आलेख वर्तमान में मंत्र-तंत्रादि के | शोधपूर्ण तार्किक एवं वैज्ञानिक लगा। मुनि श्री कुंथुसागर बल पर जरूरत से ज्यादा लोकप्रियता और धनसंग्रह | जी के लघु संस्मरण पढ़ने में मीठे और शिक्षाप्रद को मुख्य लक्ष्य बनानेवाले मुनियों को ही नहीं, अपितु हैं। संत के समत्व का स्फुरण जिनसे प्रगट है। मुनि कुछ विधि-विधान कर्ता / प्रतिष्ठाचार्य विद्वानों को | श्री क्षमासागर की 'चिड़िया' भावाकाश की ऊँचाईयाँ आत्मबोध की ओर आने को बाध्य करनेवाला है। अपने परों से तैय करती चोंच में ही जैनदर्शन के बुंदेली बोली (भाषा) में मालती मड़बैया के आचार्य | तत्त्व-कण दबाये स्वच्छन्द विहग बनी फुदफुदाती हुई श्री विद्यासागर जी के बुंदेल खण्ड क्षेत्र के प्रति विशेष आत्म-स्वातंत्र्य का रूप-बिम्ब। बुन्देलखण्ड का वैभव, लगाव, झुकाव-विषयक आलेख ने तो दिल को छु | (श्री राकेश दत्त त्रिवेदी) जैसे कोई हमारी जन्मभूमि लिया। बुंदेली के इस प्रथम आलेख को पढ़कर और | का यशोगान कर रहा हो। वह भी आचार्यश्री से सम्बन्धित, उनकी आन्तरिक विशेषताओं को पढ़कर बहुत आनन्द आया। मेरा उन्हें डॉ० सुरेन्द्र भारती को और विस्तारित लिखना विशेष धन्यवाद। इसी प्यारी-प्यारी बुंदेली में आगे भी | | चाहिए था, आज के पंचकल्याणकों के अभिनव लिखते रहने हेतु। अन्य सभी आलेख भी प्रेरणाप्रद | | अभिनय अभिनीत पर। वैसे वे कहना तो बहुत चाहते थे, लेकिन 'जिनभाषित' की अपनी कुछ सीमाएँ हैं। प्रो० फूलचन्द्र जैन 'प्रेमी' पं० निहालचन्द्र जैन जैन दर्शन विभागाध्यक्ष जवाहर वार्ड- बीना (म०प्र०) सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी।। . हैं। फरवरी 2008 जिनभाषित 15 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ काल के मुनि आचार्य श्री विद्यासागर जी श्रद्वेय पं० कैलाशचंद्र जी शास्त्री 19वीं शताब्दी के महान् जैन विद्वान् थे । वे अपने अंतिम समय तक 'जैनसन्देश' के सम्पादक रहे। 'जैनधर्म' कृति लिखकर उन्होंने महती ख्याति अर्जित की थी। इस सदी के महानतम आचार्य विद्यासागर जी महाराज के दर्शनोपरान्त जो सम्पादकीय उन्होंने 'जैन संदेश' के 10 अक्टूबर 1985 के अंक में लिखा था उसे साभार यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा I एलाचार्य मुनि विद्यानन्द जी ने अपने भाषण में । कहा था कि चतुर्थ काल के मुनि विद्यासागर जी हैं। उनका यह कथन यथार्थ है । रत्नकरण्ड श्रावकाचार में समन्तभद्राचार्य ने कहा है विषयाशावशातीतो निरारम्भोऽपरिग्रहः । ज्ञानध्यानतपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते ॥ अर्थ- जो विषयों की आशा के वश के रहित है, आरम्भ और परिग्रह से रहित है तथा ज्ञान ध्यान और तप में लीन रहता है वह साधु प्रशंसनीय है। आचार्य विद्यासागर जी में ये सभी बातें घटित होती हैं। उन्हें किसी भी लौकिक प्रतिष्ठा आदि की चाह नहीं है, वे किसी भी प्रकार का आरम्भ नहीं करते। उनके पास पीछी कमण्डलु के सिवाय कोई परिग्रह नहीं है, न मोटर है और न एक पैसा है। उनके संघ के सब मुनि बाल ब्रह्मचारी युवा हैं। वे अपने संघ के साथ अनियत बिहार करते हैं। वे कब विहार करेंगे और कहाँ जायेंगे, यह कभी भी किसी को मालूम नहीं होता। फिरोजाबाद में हमें मालूम हुआ कि वहाँ उनसे किसी ने प्रश्न किया कि महाराज अतिथि किसे कहते हैं? उन्होंने कहा कि इसका उत्तर कल देंगे । और दूसरे दिन पीछी कमण्डलु लेकर विहार कर गये । पुराने दिगम्बर जैन साधु तो वनों में रहते थे । आज तो प्रायः नगरों में रहते हैं। मगर आचार्य विद्यासागर जी नगर में निवास न करके प्रायः बाहर में ही निवास करते हैं। जबलपुर में चातुर्मास किया तो नगर में न रहकर मढ़िया जी में रहे। सागर में भी वर्णी भवन में ही रहे । खुरई में तो पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन मंदिर ही उनके संघ का आवास था । आगम में कहा है- जिस घर में गृहस्थों का आवास हो या उनके और साधु के आने जाने का मार्ग एक हो, साधु को वहाँ नहीं रहना 16 फरवरी 2008 जिनभाषित स्व० पं० कैलाशचंद्र जी शास्त्री चाहिये । जहाँ स्त्रियों का, पशुओं आदि का आना-जाना हो, ऐसे स्थान भी साधु निवास के लिए वर्जित हैं । प्राचीन काल में साधु नगर के बाहर बन गुफा आदि में रहा करते थे । प्रवचनसार में कहा है। कि आगम में दो प्रकार के मुनि कहे हैं- एक शुभोपयोगी और एक शुद्धोपयोगी । इसकी टीका में आचार्य अमृतचन्द्र ने यह प्रश्न किया है कि मुनिपद धारण करके भी जो कषाय का लेश होने से शुद्धोपयोग की भूमिका पर आरोहण करने में असमर्थ हैं, उन्हें साधु माना जाये या नहीं? इसका उत्तर देते हुए उन्होंने कहा है कि आचार्य कुन्दकुन्द ने 'धम्मेण परिणदप्पा' इत्यादि गाथा से स्वयं ही कहा है कि शुभोपयोग का धर्म के साथ एकार्थ समवाय है। अतः शुभोपयोगी के भी धर्म का सद्भाव होने से शुभोपयोगी भी साधु होते हैं, किन्तु वे शुद्धोपयोगियों के समकक्ष नहीं होते। आचार्य कुन्दकुन्द ने श्रमणों की प्रवृत्ति इस प्रकार कही है- शुभोपयोगी मुनि शुद्धात्मा के अनुरागी होते हैं । अतः वे शुद्धात्मयोगी श्रमणों का वन्दन नमस्कार, उनके लिये उठना, उनके पीछे-पीछे जाना, उनकी वैयावृत्य आदि करते हैं। दूसरों के अनुग्रह की भावना से दर्शन ज्ञान के उपदेश में प्रवृत्ति, शिष्यों का ग्रहण, उनका संरक्षण, तथा जिनपूजा के उपदेश में प्रवृत्ति शुभोपयोगी मुनि करते हैं । किन्तु जो शुभोपयोगी मुनि ऐसा करते हुए अपने संयम की विराधना करता है वह गृहस्थधर्म में प्रवेश करने के कारण मुनिपद से च्युत हो जाता है । इसलिए प्रत्येक प्रवृत्ति संयम के अनुकूल ही होना चाहिये, क्योंकि प्रवृत्ति संयम की सिद्धि के लिये ही की जाती है। किन्तु जो निश्चय - व्यवहाररूप मोक्षमार्ग को नहीं जानते और पुण्य को ही मोक्ष का कारण मानते हैं, उनके साथ संसर्ग करने से हानि ही होती है। अतः शुभोपयोगी भी Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधु लौकिक जनों के साथ संपर्क से बचते हैं। । चलते थे। जिससे मुनिजन और गृहस्थ दोनों स्वकल्याण आज तो साधुगण शुभोपयोगी ही हैं। आचार्य | करते थे। लोग आपसे सविनय यह जानना चाहते हैं विद्यासागर जी शुभोपयोगी श्रमणों का कर्तव्य पालन करते | कि आप बिना बताये विहार कर जाते हैं। क्या बता हैं अतः लौकिक जनों के संपर्क से बचते है। आज | देने से महाव्रत में क्षति होगी?" के साध तो प्रायः जिनपजा के उपदेश में ही प्रवृत्ति | महाराज ने इसका कोई उत्तर नहीं दिया, क्योंकि न करके जिन पूजा में भी प्रवृत्ति करते हैं। प्रोग्राम बताकर, श्रावक प्रतिमा लेकर साथ में चले यह प्रतिदिन देवदर्शन, देवपूजा, जिन मंदिर व मूर्तियों | तो इसी युग की प्रवृत्ति है। आज मुनिगण स्वयं अपने के निर्माण में श्रावको का कर्त्तव्य श्रावकाचार में कहा | साथ मूर्तियाँ रखते हैं, जबकि आगम में इस तरह का है, किन्तु आज तो वह सब साधुगण भी करते हैं। उनका | कोई उल्लेख नहीं है। मुनि स्वयं आत्मस्वरूप के ज्ञाताउपयोग आत्मोन्मुख न होकर वहिर्मुखी होता है। दृष्टा होते है तथा आत्मस्वरूप को जानने के लिए ही किन्तु आचार्य विद्यासागर जी पूजा-पाठ के प्रपंच | श्रावक देव दर्शन करते हैं। जब साधुगण जंगलों में रह में नहीं हैं। वे तो अपने शिष्यों को पढ़ाते हैं, स्वयं | कर विहार करते थे, तब यह सब प्रवृत्ति नहीं थी। आज पढ़ते हैं और श्रावकों को दर्शन और ज्ञान का सदुपदेश | तो साधुगण मात्र शरीर से नग्न होते हैं, किन्तु उनके देते हैं। अन्तरंग में अपनी पूजा-प्रतिष्ठा की भावना रहती है। उन्हें पं० सुमेर चन्द्र जी दिवाकर ने लिखा था | आचार्य विद्यासागर जी में ऐसी भावना नहीं है, इसी 'आपके द्वारा जैन-अजैनों में धर्म की प्रभावना हो रही | से वे चतुर्थकाल के मुनि-तुल्य हैं। है। लोग पूछते हैं- "आचार्य शांतिसागर जी महाराज बाहर प्रस्तुति- डॉ० श्रीमती ज्योति जैन, खतौली जाते समय अपना प्रोग्राम कह दिया करते थे। उनके सह सम्पादिका - 'जैन सन्देश' संघ में चलनेवाले श्रावक समूह जिनप्रतिमा को लेकर समाधिमरण-पूर्वक देहत्याग | के जुटाने में सहयोग किया। ४७ भाइयों एवं बहनों हिम्मतनगर (गुजरात) निवासी धर्मप्रेमी श्री सुरेश | ने जैनधर्म के प्रसिद्ध ग्रंथ छहढाला, द्रव्यसंग्रह, तत्त्वार्थसूत्र गाँधी की पूजनीय माताश्री ब्र० चम्पावेन भजीलाल गाँधी | | का अध्ययन किया। परीक्षा के बाद प्रथम, द्वितीय ने दिनांक 29.10.07 को प्रभुस्मरण करते हुये देहत्याग एवं तृतीय स्थान प्राप्त प्रशिक्षणार्थियों को विशेष पुरस्कार कर दिया। आप सप्तम प्रतिमाधारी विदुषी महिला थीं। | एवं सभी को प्रोत्साहन पुरस्कार से सम्मानित किया कई वर्षों से आप साधना में लगी हुई थीं। प्रभु से | गया। कामना है कि आपको सद्गति प्राप्त हो। केसरीभाई परिख विद्यासागर तपोवन, तारंगाजी में शिविर सम्पन्न हुआ विद्यासागर तपोवन, तारंगाजी, परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विद्यासागर जी एवं श्री विमलचन्द्र जी गोधा का निधन । १०८ सुधासागर जी महाराज के आशीर्वाद . दिल्ली निवासी श्री विमलचन्द्र जी गोधा ने 76 से, तपोवन ट्रस्ट के सक्रिय सहयोग से डॉ० नेमिचंद | वर्ष की आयु में शान्त-निराकुल परिणामों सहित सर्व जी जैन खुरई के मार्गदर्शन में, सर्वोदय आध्यात्मिक | सम्पन्न परिवार जनों से निर्मोही हो, इस मनुष्यपर्याय जैन धार्मिक शिक्षण शिविर दिनांक २१.१२.०७ से | को सार्थक करते हुये 30 नवम्बर, 2007 को दोपहर ३१.१२.०७ तक सम्पन्न हुआ। 2:30 बजे शरीर का परित्याग किया। शिविर में शिक्षण में सहयोग सांगानेर (जयपर. | आप तीर्थ क्षेत्रों, सस्थाओं एवं मन्दिरों के उत्थान राजस्थान) के आचार्य श्री १०८ ज्ञानसागर छात्रावास | हेतु बिना पद एवं नाम की आकांक्षा के, उदारभाव के छात्र पंडित भरत जी, पंडित वैभव जी शास्त्री | से जीवन भर कार्य करते रहे। आप परम मुनिभक्त एवं तपोवन के ही बाल ब्र० पंडित चेतन जी ने दिया। | थे। जिनभाषित परिवार शोकसन्तप्त परिवार के प्रति बाल ब्र० सुनील जी ने शिविर के लिये उचित साधनों | समवेदना प्रकट करता है। - फरवरी 2008 जिनभाषित 17 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुन्दकुन्द और उनका जन्मस्थान मूल लेखक : श्री पी०बी० देसाई अनुवादक : डॉ० कन्हैयालाल अग्रवाल दिगम्बरपरम्परा में आचार्य कुन्दकुन्द का स्थान कितना महत्त्वपूर्ण है, यह इसी से पता चल सकता है कि 'मंगलं भगवान् वीरो .......' वाले मंगलाचरण में भगवान महावीर और गौतमगणधर के बाद मंगलरूप में उनका स्मरण-वन्दन किया जाता है। आज भी उनका विस्तृत इतिहास अज्ञात ही है। कुछ वर्षों पूर्व तक तो हमें उनके जन्मस्थान का भी निश्चित पता नहीं था। अपने महान् उपकारी आचार्यों के प्रति हम कितने अकतज्ञ एवं असंवेदनशील हैं, यह इससे प्रकट है। उन्हीं भगवान् कुन्दकुन्द के जन्मस्थान आदि के संबंध में प्रामाणिक जानकारी आपको विद्वान् लेखक की इस रचना में मिलेगी। सामान्य रूप में जैनधर्म और प्रमुख रूप में दक्षिण । सम्बन्ध में कुछ प्रकाश डाल सकूँ। भारतीय जैनधर्म महान् आचार्य कोण्डकुन्दाचार्य का | आचार्य का वास्तविक नाम पद्मनन्दी था और ऐसा अत्यधिक ऋणी है, जिन्होंने अपने विशाल व्यक्तित्व से | प्रतीत होता है कि अपने निवासस्थान के कारण उन्होंने उसके विकास में बहुत अधिक योगदान दिया। आध्यात्मिक | कोण्डकुन्दाचार्य का लोकप्रिय विरुद धारण कर लिया ख्याति प्राप्त, एक नई वैहारिक व्यवस्था के श्रेष्ठ संघ- | था। इस सूचना का स्पष्ट संकेत इन्द्रनन्दी के श्रुतावतार टनकर्ता और इन सबसे अधिक जैन आगमों पर उत्कृष्ट | में मिलता है। इस लेखक के अनुसार आचार्य का निवास टीकाओं के सुप्रसिद्ध लेखक, उन्होंने सम्पूर्ण जैनधर्म और | स्थान कुन्दकुन्दपुर में था। इस तथ्य की पुष्टि आभिलेखिक दर्शन के क्षेत्र में अपनी उपलब्धियों की अमिट छाप साक्ष्यों से होती है। 1133 ई० के मैसूर राज्य (अब छोड़ी है। कर्नाटक) के हासन जिला स्थित बस्तिहल्ली अभिलेख दुर्भाग्य से उनके जीवन के बारे में बहुत कम प्रख्यात मुनि कोण्डकुन्द के चतुर्दिक् यश का उल्लेख जानकारी है, लेकिन उनके सम्बन्ध में जो थोड़ी बहुत करता है, जो शान्ति की भावना का मानों उद्गम स्थान जानकारी है भी, वह आख्यानों और अनुमानों के रूप था और कोण्डकुन्दे से आया था और चारणों से वन्दित में है। यहाँ तक कि उनके नाम या नामों का स्वरूप | था। मल्लिषेण के श्रवणबेलगोल अभिलेख में इस आचार्य और प्रकार भी विभिन्न कल्पनाओं पर आधारित है। ऐसी का उल्लेख कोण्डकुन्द के रूप में किया गया है, जिससे स्थिति में राजाराम महाविद्यालय, कोल्हापुर के डॉ० ए० संकेत मिलता है कि उसकी उत्पत्ति कोण्डकुन्द या एन० उपाध्ये ने सम्पूर्ण उपलब्ध सामग्री को एकत्र करने | कुण्डकुन्द से हुई। जैसा कि हम बाद में देखेंगे, कोण्डकुन्द और इस आचार्य के जीवन सम्बन्धी पक्ष को भलीभाँति । (कुन्दे) स्थान का मूल नाम है। कालान्तर में उसका समझने के लिये मार्ग प्रशस्त करने का स्तुत्य प्रयास | संस्कृत निष्ठ रूप कुन्दकुन्द हो गया। किया है। मैंने अपने ग्रन्थ 'दक्षिण भारत में जैनधर्म' | आज भी, आंध्रप्रदेश के अनन्तपुर जिलान्तर्गत गूटी के लिये पुरातात्त्विक और आभिलेखिक स्रोतों का अध्ययन तालका में एक गाँव ऐसा है जो इस नाम की समस्या करते समय कोण्डकुन्दाचार्य से सम्बन्धित अनेक सन्तोष- | को हल कर देता है। पहले यह क्षेत्र कर्नाटक प्रदेश जनक तथ्यों का अवलोकन किया है। विषय की प्रथम | का अंग था। आंध्रों के प्रभाव में आने पर आजकल श्रेणी की सामग्री संकलित करने के विचार से मैंने इस | यह गाँव कोनकोण्डला कहलाता है। लेकिन इसका सही आचार्य से सम्बन्धित एक स्थान का भ्रमण किया और नाम कोण्डकुन्दी है। स्थान नाम का यह रूप आज भी सेतु-स्थित पुरावशेषों का परीक्षण किया। इस व्यक्तिगत | स्थानीय जनता और बोलचाल की भाषा में प्रचलित है। छानबीन के कारण अब मैं ऐसी स्थिति में हूँ कि जैसा कि इस ग्राम से 1071 ई० के एक आद्य अभिलेख कोण्डकुन्दाचार्य और विशेष रूप से उनके जन्मस्थान के ! से, जिसमें उसका नाम कोण्डकुन्दे बताया गया है, विदित 18 फरवरी 2008 जिनभाषित Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होता है कि यही इस स्थान का मूल नाम होना चाहिए। का गुरु होना चाहिये। प्रायः दसवीं शती का एक अन्य इस सन्दर्भ में एक स्थानीय परम्परा को भी ध्यान में | अभिलेख० निषधि-स्मारक है, जो आचार्य नागसेम देव रखना उपयुक्त होगा, जिससे यह प्रमाणित होता है कि | के सम्मान में उत्कीर्ण किया गया। यह ग्राम कोण्डकुन्दाचार्य का निवास स्थान था। लगभग विभिन्न स्थानों से प्राप्त दो अन्य अभिलेख अत्यन्त दो हजार सालों से इन क्षेत्रों में प्रचलित परम्परा से न | महत्त्वपूर्ण हैं। इनमें से पहला कैलासप्प गुट्ट' नामक केवल यह विश्वसनीय रूप से प्रमाणित हो जाता है, | एक दूसरी पहाड़ी के एक शिलाफलक पर उत्कीर्ण है। अपितु यह यहाँ उद्धृत अन्य साक्ष्यों को भी पुष्ट करता | इनमें से चट्ट जिनालय नामक मंदिर को प्रदत्त भूमि और अन्य वस्तुओं के दिये जाने का उल्लेख है। इस मंदिर संयोग से आचार्य के निवास स्थान का पता मिल | का निर्माण नालिकब्बे नामक महिला द्वारा अपने स्वर्गीय जाने पर अब हम स्वयं उक्त स्थान पर ध्यान देंगे और पति की स्मृति में कोण्डकुन्देय तीर्थ में कराया गया था। वहाँ के प्राचीन अवशेषों का विश्लेषण करेंगे, जिसमें उक्त दान महामण्डलेश्वर जोयिमय्यरस द्वारा जो पश्चिमी जिनमूर्तियाँ और जैन अभिलेख सम्मिलित हैं। कोण्ड- | चालुक्य नरेश विक्रमादित्य षष्ठ के राज्यकाल में १०८१ कोण्डला या कोण्डकुन्दी ग्राम के बहुसंख्यक जैन पुरावशेष | ई० में सिंगवाड़ी क्षेत्र पर शासन कर रहा था, दिया गया। रसा-सिद्धूल गुट्ट नामक पहाड़ी पर ढूँढे जा सकते हैं, | इस अभिलेख से दो महत्वपूर्ण सूचनाएँ मिलती है, पहली जो ग्राम के उत्तर में दो फल्ग की दूरी पर स्थित है। यह कि इस स्थान का नाम कोण्डकुन्दे था और दूसरी रसासिद्धूल गुट्ट, जो एक तामिल नाम है, उसका अर्थ | यह कि यह एक तीर्थक्षेत्र या जैनों द्वारा मान्य धार्मिक है रसासिद्ध की पहाड़ी और प्रतीत होता है कि इस | क्षेत्र था। नाम ने अलौकिक महत्त्व प्राप्त कर लिया। इस पहाड़ी | दूसरा अभिलेख उसी गाँव के आदिचन्न केशव की चोटी पर एक जिनालय है, जिसके तीनों ओर की | मंदिर के अग्रभाग पर स्थापित शिलाफलक पर उत्कीर्ण दीवारें पहाड़ी काटकर बनायी गयी हैं, जिस पर छत | है। दुर्भाग्य से यह अभिलेख क्षतिग्रस्त हो गया और नहीं है। इस जिनालय में तीर्थंकरों की दो खड्गासन | कहीं कहीं कट गया है। इसलिये इसका सम्पूर्ण वर्ण्य प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित है, जिनके साथ तिहरे छत्र और सेवा | विषय हमें प्राप्त नहीं है। यह एक जैन अभिलेख है। में शासन देवता हैं। मूर्तियाँ लाल ग्रेनाइट की बनी हैं | जिनशासन की परिचित शैली से प्रारम्भ होकर यह और लगभग दो फुट छः इंच ऊँची हैं। समान्य रूप | अभिलेख इस स्थान की प्रसिद्धि का वर्णन निम्नांकित से उन्हें 13वीं शती ई० का कहा जा सकता है। लोक- | पंक्तियों में करता है। जैसा कि अभिलेख से विदित होता विश्वास के अनुसार ये प्रतिमाएँ रससिद्ध या अलौकिक है यह स्थान महान आचार्य पद्मनन्दि भट्रारक का जन्म मुनियों का प्रतिनिधित्व करती हैं, जिन्हें रससिद्धि के स्थान होने के कारण संसार में विख्यात था। उन्होंने रहस्य ज्ञात थे। इस जिनालय के पीछे एक चट्ठान पर | अनेकान्त सिद्धान्त से, जो भवसागर पार करने का कमल पर खड़ी एक बड़ी जिन-प्रतिमा बनी है। समीपवर्ती | वास्तविक जहाज है, सम्पूर्ण विश्व को जीत लिया था। एक अन्य चट्टान पर एक वर्तुलाकर यन्त्र की रेखाकृति | वर्णन में पद्मनन्दि का नाम दो बार और चरणों का अस्पष्ट उत्कीर्ण है, जिसमें अलौकिक महत्त्व सन्निहित है। | संकेत मिलता है जो महत्त्वपूर्ण है। यहाँ हम उपरिवर्णित उक्त जिनालय से थोड़ी ही दूर के शिलाखण्डों | बस्तिहल्ली का वर्णन स्मरण कराना चाहेंगे। जैसा कि के चट्टानी पार्यों पर अनेक अभिलेख उत्कीर्ण हैं। उनमें | हम पहले कह चुके हैं पद्मनन्दि कोण्डकुदाचार्य का नाम से कुछ सातवीं शती के अपरिष्कृत अक्षरों से युक्त हैं | था और कुछ अभिलेखों में चारणों से आचार्य को सम्बन्धित और अन्य दसवीं और ग्यारहवीं शती के हैं। इनमें से करते हुए उल्लेख किया गया है। इस प्रकार यह प्रतीत अनेक में जैन आचार्यों के नाम लिखे हैं, उनमें से कुछ | होता है कि प्रस्तुत अभिलेख के पद्मनन्दि का तादात्म्य का यहाँ उल्लेख किया जायेगा। प्रथम वर्ग के एक लेख कोण्डकन्दाचार्य से स्थापित करने में हम उचित मार्ग में 'सिंगनन्दि द्वारा सम्मानित' का वर्णन है। निश्चितरूप पर हैं। पनः अभिलेख कोण्डकन्द अन्वय का उल्लेख से यह सम्मानित व्यक्ति इस अभिलेख के लेखक सिंगनन्दि करता है। यह अभिलेख स्वतः पश्चिमी चालुक्य नरेश फरवरी 2008 जिनभाषित 19 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रमादित्य षष्ठ के शासन का उल्लेख करता है जिसने | हैं कि इस स्थान की महत्तर ख्याति का कारण इस महान् 1076 ई० से 1126 ई० तक शासन किया। लेकिन | आचार्य की ख्याति थी। अभिलेख का वह भाग जिसमें वास्तविक तिथि अंकित अपने उपर्युक्त अध्ययन के समय हमने यह उल्लेख थी, नष्ट हो गया है। तो भी, हम इसे लगभग 11वीं किया है कि कोणकुन्दे या कोण्डकुन्दी स्थान का मूल शती के अन्त का मान सकते हैं। नाम था और यह कर्नाटक प्रदेश में था। इस स्थान से इस अभिलेख का महत्व त्रिकोणीय है। पहला प्राप्त अधिकांश अभिलेख कन्नड़ भाषा में हैं। कुन्दे, वह इस कथन के समर्थन में आभिलेखिक साक्ष्य प्रस्तुत कुन्द या गुण्ड से अन्त होने वाले नाम सामान्यतः कन्नड़ करता है कि पद्मनन्दि कोण्डकुन्दाचार्य का दूसरा नाम | देश में मिलते हैं यथा मेल-कुन्दे, ओक-कुन्दे नरगुण्ड, था। दूसरा, यह साक्ष्य प्राचीनतम है, क्योंकि कोण्डकन्दाचार्य नविल-गुण्ड आदि। वेलारी जिला में बल-कुन्दि नाम के प्रथम टीकाकार जयसेन, जिन्होंने पद्मनन्दि के साथ का एक गाँव है। इस नाम के उत्तरार्द्ध का अभिज्ञान उनकी पहली बार पहचान की, का समय 12वीं शती कोण्डकुन्दि से किया गया है। यह उल्लेख करना मनोरंजक का उत्तरार्द्ध निर्धारित किया गया है। तीसरा, आचार्य | है कि इस गाँव का मल नाम बल्लकन्दे था, जो निश्चित के जन्म स्थान के सम्बन्ध में, यह अतिरिक्त प्रमाण प्रस्तुत | रूप से कोण्ड-कुन्दे से समाप्त होता था। शब्द व्युत्पत्ति करता है कि आधुनिक कोनकोण्डा या कोण्डकुन्दी | की दृष्टि से कोण्ड और कन्द नाम के दो कन्नड भाग कोण्डकुन्दाचार्य का जन्मस्थान था। हैं, जिनका प्रायः वही अर्थ है अर्थात् पहाड़ी। कन्नड़ हम यहाँ कुछ और तथ्यों का उल्लेख करेंगे। कुन्द शब्द तामिल के कुण्णम् का समानवाची है। इस रसासिद्धल पहाड़ी पर के एक अन्य अभिलेख में श्री प्रकार कोण्डकुन्दे शब्द का अर्थ पहाड़ी बस्ती या ऐसा विद्यानन्द स्वामी का उल्लेख है। संभवतः इसकी पहचान स्थान होगा जो पहाड़ी पर स्थित हो।° शब्द का यह महान् जैन विद्वान् वादी विद्यानन्द से की जा सकती शाब्दिक भावार्थ कोण्डकुन्द ग्राम, जो पहाड़ी श्रृंखला के है, जो6 9वीं शती में हुए। वादी विद्यानन्द के सम्बन्ध समीप है, उसकी स्थिति के सर्वथा अनुरूप है। में यह कहा जाता है कि उन्होंने कोपण और अन्य तीर्थों । उपर्युक्त विवेचन से हमें आचार्य के सच्चे और में महान् उत्सव कराये।। जैसा कि पहले कहा जा चुका सही नाम को, जो कोण्डकुन्द रहा होगा, पहचानने में है, कोण्डकुन्दे एक तीर्थ था और कोण्डकुन्दाचार्य का मदद मिलती है। संस्कृत लेखकों द्वारा यह कुन्दकुन्द उससे सम्बन्ध होने के कारण निश्चित रूप से श्रद्धा में परिवर्तित कर दिया गया। यहीं यह भी विचारणीय की दृष्टि से देखा जाता था, अतः यह बिल्कुल संभव है कि कन्नड़ प्रदेश के अभिलेखों में सामान्यरूप से है कि वादी विद्यानन्द ने इस स्थान का भ्रमण किया आचार्य का उल्लेख कोण्डकुन्द के ही रूप में किया हो और यहाँ भी किसी प्रकार का धार्मिक समारोह सम्पन्न गया है। परवर्ती लेखकों ने आचार्य के संस्कृत नाम विरुद किया। तीसरा, यह कहा जाता है कि पहले इस ग्राम 'कुन्दकुन्द' की व्याख्या हेतु कई आख्यान गढ़ लिये। में अनेक जैन परिवार रहते थे जिनमें से कुछ अभी उदाहरणार्थ, रत्नत्रय बसदि, बीलिगि, उत्तरी कनारा जिला, हाल तक विद्यमान थे। बम्बई राज्य के सोलहवीं शती के अभिलेख1 में निम्नांकित इस स्थान से प्राप्त पुरावशेषों के मौलिक अध्ययन विशिष्ट कहानी मिलती है। एक बार एक दुष्ट मनुष्य से हमारा विश्वास है कि कोनकोण्डला या कोण्डकुन्दी प्रारम्भिक समय से लेकर आधुनिक काल तक जैनधर्म ने, जो आचार्य से शत्रुभाव रखता था, आचार्य की कोठरी का एक केन्द्र था और कोण्डकुन्दाचार्य का जन्मस्थान में एक सुरापात्र छिपाकर रख दिया और राजा के समक्ष था। डॉ० उपाध्ये18 इस आचार्य का समय लगभग पहली उसके निन्द्य चरित्र की शिकायत की। आचार्य को पात्र शती ई० निर्धारित करते हैं। तो भी, यह शंका करने | T R P के साथ दरबार में बुलाया गया और आश्चर्य अपने पवित्र के संकेत हैं कि यह स्थान इस आचार्य के, जो इस मन्त्रयोग से उन्होंने उसे चमेली के फूलों से युक्त पात्र नाम के कारण प्रसिद्ध हआ, जन्म से पहले भी जैनधर्म | में बदल दिया। तब से मुनि कुन्दकुन्द अर्थात् चमेली का केन्द्र था। हम यह भी सम्भावना व्यक्त कर सकते | के पात्र के नाम से प्रसिद्ध हो गये। 20 फरवरी 2008 जिनभाषित For Private & Personal use only - Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्दर्भ 1. यह शोधपत्र आल इण्डिया ओरियण्टल कान्फ्रेन्स, अहमदाबाद 1953, के सत्रहवें सत्र जैनधर्म विभाग में पढ़ा गया था। प्राकृत और 2. प्रवचनसार ( श्री रायचन्द्र जैन शास्त्रमाला, बम्बई, 1935), भूमिका, पृ. 1 तथा आगे । 3. प्रवचनसार, भूमिका, पृ. 5 4. एपिग्राफिया कर्नाटिका, खण्ड 5, वेलूर, 124 5. एपिग्राफिया इण्डिका, खण्ड 3, पृ. 190 । यह स्थान गुण्टकल रेल्वे स्टेशन से चार या पाँच मील की दूरी पर स्थित है । (अनुवादक) साउथ इण्डियन इन्स्क्रिप्सन्स, खण्ड 9, अंक 1, क्र. 1361 एन्युअल रिपोर्ट ऑन इण्डिन एपिग्राफी, 1916, पृ. 134। कोनकोण्डला ग्राम का भ्रमण मद्रास एपिग्राफिस्ट ऑफिस के सदस्यों द्वारा 1912 1915, 1920 और 1941 ई. में किया गया । यहाँ से प्रतिलिपि किये गये अभिलेख एन्युअल रिपोर्ट्स आन साउथ इण्डियन एपिग्राफी की सम्बन्धित वार्षिक रपटों में सूचीबद्ध किये गये हैं । उनमें से कुछ अभिलेख साउथ इण्डियन इन्स्क्रिप्सन्स खण्ड 9 अंक 1 में विधिवत प्रकाशित किये गये हैं। उक्त एपिग्राफिकल ब्रांच का सदस्य होने के नाते मैंने 1950 ई० में यह स्थान देखा और उसके पुरावशेषों का निरीक्षण किया। मैं वहाँ कुछ नये अभिलेख ढूँढ़ने में सफल हुआ। लेकिन उनकी प्रतिलिपि नहीं की जा सकी या मौसम से प्रभावित होने के कारण वे ठीक से नहीं पढ़े जा सके। इस स्थान के पुरावशेषों का संक्षिप्त वर्णन आंध्र हिस्टारिकल रिसर्च सोसायटी, खण्ड 17, पृ. 164-65 में भी उपलब्ध है। 6. 7. 8. एन्युअल रिपोर्ट्स आन साउथ इण्डियन एपिग्राफी, 1939-40, परिशिष्ट-बी, 1940-41 का क्र. 453 10. वहीं, क्र० 45 11. साउथ इण्डियन इन्स्क्रिप्सन्स, खण्ड 9, अंक 1, पूर्वोक्त क्र० 150 12. जैसा कि पहले बताया जा चुका है कि कोण्डकुन्दे नाम इसी स्थान के 1071 ई० के अभिलेख में भी मिलता है। 13. 9. 14. प्रवचनसार, भूमिका, पृ० 7-8 15. वही, भूमिका पृ० 104 16. एन्युअल रिपोर्ट्स आन साउथ इण्डियन एपिग्राफी, 1939-40 से 1942-43, परिशिष्ट बी क्र० 194041 का क्र. 452। मैंने इस अभिलेख की मूल छाप का परीक्षण किया है और मेरा विचार है कि तिथिहीन होने के कारण, लिपि के आधार पर इसका समय 16वीं शती निर्धारित किया जा सकता है। एपिग्राफी कर्नाटिका, खण्ड 8, नगर 46 18. प्रवचनसार, भूमिका पृ. 22 17. 19. नाथूराम प्रेमी, जैन साहित्य और इतिहास, पृ. 11 20. साउथ इण्डियन इस्क्रिप्सन्स, खण्ड 9, अंक 1, पूर्वोक्त क्र० 288 21. 12 प्रतीत होता है कि कन्नड़ में कुन्द या गुन्द और तामिल में कुण्णम् से अन्त होने वाले नाम मूलरूप से पहाड़ी से सम्बन्धित होने के कारण या उत्तुंग क्षेत्र में स्थित होने के कारण बने । यह अभिलेख मेरे अप्रकाशित व्यक्तिगत अभिलेख संग्रह में है । इस अभिलेख का पाठ प्रसिद्ध कन्नड़ वैयाकरण भट्टाकलंक द्वारा रचा गया था । फूल नहीं काँटे सर्दी का समय था एक दिन प्रातः काल आचार्य श्री के पास कुछ महाराज लोग बैठे हुए थे, ठण्डी हवा चल रही थी, ठण्डी लग रही थी, शरीर से कँपकँपी उठ रही थी । आचार्य श्री से कहा देखो आचार्य श्री जी शरीर से काँटे उठ रहे हैं। आचार्य श्री ने कहा हाँ शरीर से काँटे ही उठते हैं फूल नहीं। शरीर दुख का घर है। इसके स्वभाव को जानो और वैराग्य भाव जाग्रत करो। शरीर को नहीं बल्कि शरीर के स्वभाव को जानने से वैराग्य भाव उत्पन्न होता है । 'महावीर जयन्ती स्मारिका 75 से साभार मुनि श्री कुन्थुसागरकृत 'संस्मरण' से साभार फरवरी 2008 जिनभाषित 21 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकगीतों में कुण्डलपुर और बड़े बाबा श्रीमती डॉ० मुन्नीपुष्पा जैन पवित्र सिद्धक्षेत्र कुण्डलपुर मेरी जन्मभूमि दमोह। वाचिक रूप से प्रचलित तथा कुछ आज के लिखित (म०प्र०) के समीप होने के कारण बचपन से ही मेरे | अन्यान्य स्रोतों से प्राप्त उन कुछैक बुंदेली लोक भजनों अतिश्रद्धास्पद इष्टदेव यहाँ के बड़े बाबा की भव्य एवं | को (सिद्धक्षेत्र कुण्डलपुर एवं बड़े बाबा से संबंधित) विशाल प्रतिमा एवं इस तीर्थ की वंदना-अर्चना करने | उदाहरणार्थ इस निबंध के माध्यम से संकलित करना का सुयोग प्राप्त होता रहा है। साथ ही इस क्षेत्र की | इसलिए उचित समझा, ताकि ये आधुनिकीकरण के इस अपनी बुंदेली लोक-भाषा-संस्कृति और लोकगीतों के | युग में लुप्त न हो जायें। प्रति गहरा लगाव भी आरम्भ से होना स्वाभाविक है। ये बुंदेली बोली लोकभजन प्रायः सामूहिक रूप जब यहाँ प्रचलित बुंदेली लोकगीतों की ओर मेरा विशेष | से गाये जाते रहे हैं। इस तीर्थ के आस-पास एवं दूरध्यान गया, तो यह देखकर आश्चर्य हुआ कि इनमें से दूर बसे गाँवों से लोग मिलजुलकर पैदल तथा बैलगाड़ी अनेक लोकगीतों में तो सिद्धक्षेत्र कुण्डलपुर और यहाँ | आदि साधनों से बड़े बाबा के दर्शनों को आते थे और के इष्टदेव बड़े बाबा समाये हुए हैं। ऐसे अनेक लोकगीत | इन लोकभजनों को गाते हुए अपनी मंजिल तक पहुँच जिन्हें मैंने अपनी पूज्य दादी-नानी, माँ और पास-पड़ौस जाते थे। सारा संसार एक तरफ और बड़े बाबा के प्रति की बुजुर्ग महिलाओं से बचपन में सुने थे, वे आज अगाध भक्ति एक तरफ। अपने मन को संबोधित करते स्मति के माध्यम से अपने आप जुबान पर आ गये।। हुए लोग भाव-विभोर होकर गाते रहे हैं कि किसी भी क्षेत्र की बोली के लोकगीत उस क्षेत्र- चलो-चलो रे सकल परवार, लाल कुण्डलपुर क्षेत्र सुहावनो। विशेष की पहचान होते हैं, क्योंकि इनमें अपनी परम्पराओं. इक शोभा बड़े बाबा की, पधारे पलौथी लगाये॥ रीति-रिवाजों और लोक-संस्कृति आदि को सुरक्षित रखने लाल कुण्डलपुर क्षेत्र सुहावनो॥ की अपूर्व क्षमता होती है। प्राचीन समय में ये गीत | इक शोभा उनके मंदर की, जहाँ छत्र चढ़े सौ साठ। किसी पुस्तक में लिखित नहीं होते थे, अपितु वाचिक इक शोभा उनके पर्वत की, जहाँ शेरभरे हुंकार॥ (श्रुति) परम्परा से स्वभावतः पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तान्तरित लाल कुण्डलपुर क्षेत्र सुहावनो॥ इक शोभा वापी तालों की, जहाँ यात्री करे स्नान। होते आये हैं, इसलिए ये अब तक जीवित हैं। किन्तु इक शोभा धरमशाला की, जहाँ यात्री बसें सौ साठ॥ अब इस टेलिविजन आदि के आधुनिक युग में इन लाल कुण्डलपुर क्षेत्र सहावनो । लोकगीतों की सुरक्षा खतरे में पड़ गई है। इसलिए अब कुछ इसी तरह बड़े बाबा की भक्ति की महिमा इनकी वाचिक परम्परा के साथ इनका लेखन संकलन की बानगी देखिएअनिवार्य हो गया है। इन लोकगीतों में जो अपनापन, मन छोड़ सकल संसार, सरन चल कुण्डलपुर बाबा। अपनी मिट्टी की सुगंध और अपनों तथा अपनी परम्पराओं बाबा का बड़ा दरबार, सरन चल कुण्डलपुर बाबा॥ आदि से निरन्तर जडे रहने का जो स्वाभाविक भाव | What तीर्थस्थली बुन्देलखण्ड की, कीरत परम सुहावनी। है वह अन्यत्र दुर्लभ है। साथ ही ये कृत्रिमता से दूर | सकल काम पूरण, मोक्खधाम, जा देवन की रजधानी॥ सहज-सरल रूप में हृदय में समा जाते हैं। लोकगीतों | हर पथ तीरथ को जावै, बड़े भाग्य इतै जो आवै॥ को याद रखने हेतु कोई विशेष प्रयास नहीं करना पड़ता। | पावै भवसागर पार, सरन चल कुण्डलपुर बाबा ॥ विशेषता यह कि लोकगीतों को याद रखने के लिए पढ़ा- | कुण्डलगिरि गौहर सर सुन्दर, निर्मल नीर नहाने। लिखा या अत्यधिक तेजबुद्धि होना भी आवश्यक नहीं | ता पे मंदिर भाल देख, मन के पाप हिराने॥ होता। क्योंकि जैसे ही कोई इन लोकगीतों को समूह | चले इतै वन्दना कर लें, मन खाली झोली भर ले। में गाना शरू करता है, सभी अन्य लोग सहज ही स्वर सरन चल कुण्डलपुर बाबा, सब सुख ले हाथ पसार॥ में स्वर मिलाकर गाने लगते हैं। मूरत बड़ी विशाल, पद्मासन बाबा जी सोहें। भक्त सिरोमन जन-जीवन सब दरसन कर मोहे॥ 22 फरवरी 2008 जिनभाषित Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 पूरी करवै सवई की आसा, वे जानत मन की भाषा । मन के हरत सबई विकार, सरन चल कुण्डलपुर बाबा ॥ बड़े बाबा की भक्ति में लोग इतने सराबोर हैं कि उन्हें सपने में भी बड़े बाबा मुक्ति का मार्ग बताते हुए दिखाई देते हैं । 'निपुण सराफ' ने अपने इस गीत में इन्हीं भावों को प्रस्तुत किया है रात सपने में मोरे आय गये री सबसे बड़े बाबा | सोते से मोय जगाय गये री, कुण्डलपुर के बाबा ॥ मिथ्यातम में सोई पड़ी थी । समकित की लौं लगाय गये री कुण्डलपुर के बाबा ॥ अब तक करत रई काया की पूजा । चेतन की पूजा सिखाए गये री कुण्डलपुर के बाबा ॥ माया के पीछू भई ती दीवानी । आखों की पट्टी हटाय गये री कुण्डलपुर के बाबा ॥ जब मैंने निपुण पकर लइ पैंया । मुकति का मारग बताये गये री कुण्डलपुर के बाबा ॥ दूर-दूर के गाँव-देहात के सभी समाज के लोग कुण्डलपुर का वार्षिक मेला तथा दीपावली जैसे अनेक कल्लु चमड़ी जाये पे दमड़ी न जावै । एक और भावयुक्त गीत - नइया कोउ को कोउ सहाई, सबरे स्वारथ के हैं भाई । विपत समय एक तुमाय बिना, कोउ न देत दिखाई ॥ मरे बिना सुरग ने मिल है, मंत्रर तुमी से पाई । सबरे मिल लोग लुगाई, बड़े बाबा से आस लगाई ॥ नइया कोउ को कोउ सहाई । विशेष अवसरों पर बड़े बाबा के दरबार में अपनी हाजिरी ★ लगाने जरूर आना चाहते । साथ ही अपनी समस्याओं और शिकायतों तथा अपनी भावनाओं को अपने लोकगीतों में व्यक्त करते हुए चलते हैं चलो चलिए कुण्डलपुर खों आज, उतै तो बड़ी भीर जुरी । जा देखो जा ठाड़ी फसल है, बिटिया को करने काज उतै तो बड़ी भीर जुरी । को लक्ष्य करके गाया जाता हैके दद्दा खों को समझावै, मोरे आरत के भये हैं भाव, लंगुरिया चलो सु आरति कर आइये 1 वे तो सज-धज के बस आये है, उनने मंगल दीप जलाये हैं । पग घुंघरुं की सुन झंकार, लंगुरिया चलो सु आरति कर आइये । उनकी महिमा को कवि कोई गा न सके उनसे हारे हैं, सूरज चांद, लंगुरिया, चलो सो आरति कर आइये ॥ महापर्व दीपावली के अवसर पर 'लाडू' चढ़ाने के लिए यहाँ हजारों की संख्या में लोग पहुँचते हैं तथा विशेष भजन - आरती आदि के कार्यक्रम होते हैं । सन्मतिमंडल यहाँ बच्चों का पहला मुंडन कराना शुभ माना जाता है । अतः बच्चों के मुंडन के समय गाये जानेवाला एक लोकगीत चिर- नवीन है। इसमें बड़े बाबा से उलाहना के रूप में भाव व्यक्त है कि बाबा आप स्वयं तो बड़ेबड़े वालों वाले हैं, परन्तु हमारा मुंडन क्यों? - कुण्डलपुर के बाबा जटाधारी मोरी पकर चुटइया मुड़ा डारी । कुण्डलपुर के बाबा कलाधारी मोड़ा की चुटइया मुड़ा डारी ॥ बड़े बाबा के अभिषेक पूजन के साथ-साथ सायंकालीन भव्य आरती का बहुत महत्त्व है। यहाँ कहा सुना जाता है कि मनुष्य तो मनुष्य देवता तक बड़े बाबा की आरती करने आते हैं। कुछ लोगों का कहना है कि आधी रात के सन्नाटे में बड़े बाबा के बंद मंदिर से संगीतमय नृत्य गीतादि की आवाजें सुनी जाती रही हैं। इस तरह बड़े बाबा का बहुत अतिशय माना जाता है। लोकगीतों की अनेक राग रागनियों में से एक विशेष राग को 'लंगुरिया' कहा जाता । इसके गाने की एक विशेष लय होती है । बड़े बाबा की महाआरती उनमें के मंसेलू आय । उतै तौ बड़ी भीर जुरी । बड़े बाबा मात्र जैनों के ही नहीं, बल्कि जनजन के इष्टदेव हैं। कितने ही घर परिवार उन्हें अपना कुलदेवता पीढ़ियों से मानते आ रहे हैं। उनका हर शुभकार्य बड़े बाबा का नाम लेकर प्रारंभ होता है और हर कार्य की सफलता का भरोसा बड़े बाबा पर है। देखिए क्या चाहते हैं लोग अपने इष्टदेव बड़े बाबा सेमुगलबादशाह डर के भागे, छत्रसाल जू ने पाँव पखारे । आ जइयो काम हमारे, बड़े बाबा आ जइयौ काम हमारे ॥ बैठे हाथ पे हाथ पसारैं, नासा पर दृष्टि हैं धारें। सबरें करम तुम से हैं हारे, बड़े बाबा आ जइयौ काम हमारे । खमरिया, का यह गीत प्रस्तुत हैं फरवरी 2008 जिनभाषित 23 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ झलो रे नित नैनों में बड़े बाबा कुण्डलपुर वारे। | मिटत है भव-भव के दावा, जयति जय वीर बड़े बाबा। पलकन विछाई तोहें पलकियाँ झुलना विरोंनी बारे॥ बात मोरी ---- कार्तिक बीच सबई जुर आवें, सारी रतियन आरति गावें। शिखर पे शिखर, शिखर की शान, सन्मतिमण्डल लाडू चढ़ावत, हो जावे भुन्सारे॥ |इते के कण-कण में भगवान् बीच पहडिया आपो विराजे,शोभा अतिशय मन्दिर साजे। लगत है इतै बड़े नोनो, इतै की माटी है सोनो। माथो झुक झुक जावे सवई को, पोंचें जो भी द्वारे॥ बात मोरी सुन ---- बीच पहड़िया आपो विराजें,शोभा अतिशय मंदिर साजे। भरो है वर्धमान में नीर सुद्ध कर लीजो पैलउं शरीर। माथो झुक झुक जावे सबई को, पोंचें जो भी द्वारे॥ नीर निर्मल मन भाता है, तन का मैल धुले तो धुले। कुण्डलपुर की वन्दना का शुभारंभ 'छहघरिया' | मन का भी धुल जाता है। से होता है। 'छहघरिया' नामक परिवार द्वारा यहाँ के | बात मोरी सुन लइयो --- मंदिर एवं सीढ़ियाँ बनवाये जाने के कारण पहाड़ का फर्क का जैनी और अजैन, दर्शन को लगी रेत है लैन। यह नाम पड गया। 'छहघरिया' (पहाड़ की सीढ़ियाँ) बड़े बाबा के दरवार में अमृत सो बरसै॥ चढ़ गये तो समझों आगे की पूरी वन्दना सहजता से नर-नारी तो ठीक, देवता दर्शन खों तरसें। हो जायेगी, ऐसा सभी लोगों का अनुभव रहता है। इसके बात मोरी सुन लइयो, तनक सी गुन लइयों लिए लोकगीत के बोल इस प्रकार हैं दर्शहित आ जइयो॥ शुद्धि कर लो द्रव्य सजा लो, निंगलो थोरी डगरिया। ___ बुजुर्गों के मुख से सुने गये इस लोकगीत के पेललं चढ़ने है छहघरिया॥ साथ हम अपनी बात पूरी करेंगेमिलके सब जयकारा बोलो, विसरादो सारी खबरिया कुदेवों को छोड़ो, कुगुरुओं को छोड़ो, पेलडं चढ़ने है छहघरिया॥ भजलो. बाबा कुण्डलपुर के। कुण्डलपुर की शान में 'नर-नारी तो ठीक, देवता तर जैहो रे सबरे कुटुम्ब भर के कुशास्त्रों को छोड़ो, कुदेवियों को छोड़ों, दरसन खों तरसें' इस यथार्थ सत्य को उद्घाटित करते चरणों में आओ केवली श्रीधर के। हुए बुंदेली के प्रसिद्ध जैन कवि 'सुन्दरलाल पटेरा' ने तर जैहो रे सबरे कुटुम्ब भर के अपनी कलम को धन्य किया है। बुन्देली पुट लिए हुये धरम का मारग बतावें जिनवाणी यह गीत हर किसी को गुनगुनाने को मजबूर और जिन्होंने | छोड़ो देवता दुनियाभर के। अभी कुण्डलपुर बड़े बाबा के दर्शन न किये हों उनकी | तर जैहो रे सबरे कुटुम्बभर के भावनाओं को मजबूत कर देता है। दर्शनाभिलाषियों के | इस तरह इस आलेख के माध्यम से बुन्देली लिए 'पटेरा' जी का भावभीना निमंत्रण इस गीत के | के कतिपय गीतों को, जिसमें विशेषकर सिद्धक्षेत्र माध्यम से इस प्रकार है कुण्डलपुर एवं बड़े बाबा की महिमा को उद्घाटित अनोखी कुण्डलपुर की शान, विराजें आदिनाथ भगवान्।। किया गया है, संकलित किया है। प्रयास करने पर प्रभु की अद्भुत छाया है, ऐसे ही और भी गीतों का पता लगाया जा सकता कुण्डलपुर में वीर बड़े बाबा का माया है। हैं। बुजुर्गों के पास इन गीतों की निधि स्मृतियों में बात मोरी सुन लइयो, तनक सी गुन लइयो, सुरक्षित हो सकती है। समय रहते इसे संकलित किया दर्शहित आ जइयो। इते सोने को होत प्रभात, चाँदी सी होती रात। जाना अपेक्षित है। अनेकान्तविद्या-भवनम खुदा की अजब खुदाई है, धरती की सुन्दरता इते समाई है बी-23/45, पी-6, शारदानगर कॉलोनी खोजवाँ, वाराणसी-10 बात मोरी ---- इते जो भी दर्शक आ जाय, जपे सो मनवांछित फल पाय।। 24 फरवरी 2008 जिनभाषित Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पाहिल्ल श्रेष्ठी पं० कुन्दनलाल जैन कुछ वर्ष पूर्व खजुराहो में एक संगोष्ठी में सम्मिलित । साल्हे के पुत्र महागण, महीचन्द्र, श्रीचन्द्र, जितचन्द्र और होने का अवसर प्राप्त हुआ। वहाँ जिननाथ (आदिनाथ ) उदयचन्द्र आदि थे। श्रेष्ठी पाहिल्ल के पुत्र साहू साल्हे मन्दिर में उसके निर्माता उदार हृदय पाहिल्ल श्रेष्ठी (९५४ ने माघ सुदी ५ सं. १२१५ (ई. सन् १९५८) को खजुराहो ई.) का महती विनम्रता से भरा शिलालेख पढ़ने को में भगवान् संभवनाथ की प्रतिमा प्रतिष्ठित कराई थी। मिला, तो हृदय भर आया । इस लेख में श्रेष्ठी महोदय इस प्रतिमा के मूर्तिकार का नाम रामदेव था । यह प्रतिमा ने स्वयं को 'दासानुदास' विशेषण से संबोधित किया श्यामवर्ण पाषाण की विशाल मनोज्ञ मूर्ति है। इस मूर्ति है। का वजन लगभग चार-पाँच क्विंटल से अधिक होगा। पाहिल्ल श्रेष्ठी संबंधी प्रस्तुत शिलालेख जिननाथ मन्दिर के प्रवेशद्वार की बाईं चौखट में गहरी छेनी से उकेरा गया है जो आज ग्यारह सौ वर्ष बाद भी स्पष्ट पढ़ने में आता है। उस शिलालेख से स्पष्ट ज्ञात होता है कि भव्य पाहिल्ल श्रेष्ठी ने खर्जुरवाहक (खजुराहो) में तत्कालीन द्वितीय चन्देल नरेश धंगराज (जो महाराज यशोवर्मन प्रथम के बाद चंदेला राज्य के उत्तराधिकारी बने) के समय में इस जिननाथ मन्दिर का निर्माण कराया था तथा इसकी सुरक्षा, पूजा-पाठ, आरती आदि पुनीत कार्यों के लिए सात वाटिकाएँ-बगीचे दान में दिए थे, जिससे जिननाथ मन्दिर के सुसंचालन में किसी तरह की बाधा न आवे, साथ ही विनम्र निवेदन किया कि मेरे तथा मेरे वंश के नष्ट हो जाने के बाद जो भी भव्यपुरुष इस मंदिर की देखभाल तथा साज - सँभार कर इसकी सुरक्षा करता रहेगा, उसका यह पाहिल्ल श्रेष्ठी युगों-युगों तक दासों का दास बना रहेगा। कितनी उदार और विनम्र भावना है पाहिल्ल श्रेष्ठी की, कि स्वनिर्मित जिन मन्दिर की सुरक्षा करनेवालों के प्रति वे इतनी अधिक कृतज्ञता और विनम्रता प्रकट करते हैं। इसी शिलालेख के साथ ३४ के जोड़वाला यंत्र भी उत्कीर्ण है । यह नौ घरोंवाला है जो संभवतः नवकार मंत्र का प्रतीक हो, इसमें अंकित अंकों को किसी भी तरफ से जोड़ों, सबका जोड़ ३४ ही आयेगा। संभव यह ३४ की संख्या अरहंत के ३४ अतिशयों की द्योतक I धन कुबेर पाहिल्ल श्रेष्ठी गृहपति ( गहोई ) वंश में उत्पन्न हुए थे। बुन्देलखण्ड के धन कुबेर पाड़ासाह भी गृहपति वंशान्वयी थे। पाहिल्ल श्रेष्ठी के पिता का नाम देदू था और पुत्र का नाम साहू साल्हे था । साहू इस मूर्ति-लेख में वर्णित पाहिल्ल श्रेष्ठी तथा जिननाथ मन्दिर के निर्माणकर्त्ता पाहिल्ल श्रेष्ठी में लगभग दो सौ वर्षों का अन्तर दिखाई देता है। इससे यह अनुमान किया जाता है कि इस मूर्ति की प्रतिष्ठापना के समय पाहिल्ल श्रेष्ठी दिवगंत हो गये होंगे, उनके पुत्र साहू साल्हे तथा पौत्रों ने अपने पिता व दादा की पुण्य स्मृति को चिरकाल तक जीवित रखने के लिए उनका नाम इस मूर्ति के पाद- पीठ में अंकित करा दिया होगा। इस समय चन्देल वंश उन्नति और समृद्धि के चरम शिखर पर था, इनमें से कई राजा तो जैनधर्म के प्रति बड़े उदार और अनुरागी थे। उनके शासनकाल में जैनधर्म को खूब फलने-फूलने का अवसर मिला । यहाँ हम उन चन्देल राजाओं का संक्षिप्त-सा विवरण दे देना अनुचित नहीं समझते, जिनके राज्य में जैनधर्म को प्रश्रय और संरक्षण मिला, जिससे जैनधर्म के साथसाथ जैनशिल्प, जैनसाहित्य और जैनकला पल्लवित एवं पुष्पित हुई और उन्नति एवं अभिवृद्धि के चरम शिखर पर पहुँची। बुन्देलखण्ड में चन्देल वंश की नींव सर्वप्रथम नन्नुक चन्देला ( नवमी सदी) ने स्थापित की, जिसने कल्याणकटकपुर (कालिंजर) में किले का निर्माण कराया था। यह नन्नुक चंदेला गोल्लदेश का निवासी था । जब गोल्लदेशाधिप पड़ौसी राज्य से पराजित हो गोल्लाचार्य बन गये तो नन्नुक गोल्लदेश से भागकर कालिंजर का प्रथम चन्देल राजा बना। इसने गोल्लदेश निवासी गोलालारों, गोलापूर्वी एवं गोल्लभृंगों को आश्रय दिया और अपने राज्य में बसाया? ये लोग जैन धर्मानुयायी थे। इनके लिए गोल्लपुर विशेष रूप से बसाया गया जो महोबा के पास था । लखनऊ म्यूजियम के मूर्ति-लेखों में यह तथ्य उपलब्ध है । फरवरी 2008 जिनभाषित 25 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसी चन्देलवंश में यशोवर्मन प्रथम नामक प्रतापी । मिलता है। मदनवर्मदेव के बाद उसका पुत्र यशोवर्म राजा हुआ। यह बड़ा न्यायप्रिय राजा था। इसने अपने | द्वितीय हुआ, जो अपने पिता के सामने ही दिवंगत हो महल के मुख्य द्वार पर न्याय-घंटिका लगवा रखी थी, गया था। अतः मदनवर्मदेव के पश्चात् चन्देलवंश का जिसे कोई भी दुखियारा बजाकर न्याय की माँग कर | उत्तराधिकारी परमर्दिदेव हुआ। मदनवर्मदेव के समय में सकता था- "कल्याणकटके पुरे यशोवर्मनृपतिस्तेन | ही 'अहार' में, जिसे 'मदनेस सागरपुर' कहा जाता था, धवलगृहद्वारे न्यायघण्टा बद्धा।" लगता है इस घटना से | तीर्थंकर शान्तिनाथ की प्रसिद्ध ऐतिहासिक प्रतिमा पाड़ासाह प्रभावित हो आगे चलकर बादशाह जहाँगीर ने भी इस | के वंशजों ने प्रतिष्ठित कराई थी। मदनवर्मदेव ने अपना प्रथा को कायम रखा। इसी यशोवर्मन प्रथम के पुत्र धंगराज | राज्य मालवा तक फैला दिया था। इसलिए परमर्दिदेव ने चन्देल राज्य की सीमाओं को बढ़ाकर अपनी कीर्ति | 'दशार्णाधिपति' की उपाधि से सुशोभित हैं। विस्तृत और चिरस्थायी बनाई थी। इसी के राज्य में हमारे महोबा से प्राप्त सं. १२२४ की जैनमूर्ति में परमर्दिदेव इस लेख के नायक पाहिल्ल श्रेष्ठी ने खजराहो में जिननाथ-को प्रवर्द्धमानकल्याणविजयराज्ये' से सम्बोधित किया गया मंदिर बनवाया था तथा इसी राजा के नाम पर विकसित है। अहार से प्राप्त एक जैनमुर्ति सं. १२३७ में भी राजा और निर्मित धंग वाटिका अन्य छः वाटिकाओं के साथ | परमर्दिदेव का उल्लेख है। परमर्दिदेव के बाद चंदेलवंश स्वनिर्मित जिननाथमंदिर के लिए दान में दी थी। का उत्तराधिकारी त्रैलोक्यवर्मन हआ जिसने छत्तीस वर्ष धंगराज के बाद उसका पुत्र गंडराज और फिर | राज्य किया था। पर जैनधर्म-संबंधी किसी कार्य का उसका पुत्र विद्याधर चन्देलवंश का उत्तराधिकारी हुआ। उल्लेख इतिहास में नहीं मिलता है। त्रैलोक्यवर्मन के विद्याधर का उल्लेख दूबकुण्ड (ग्वालियर) के विशाल बाद चंदेलवंश का अन्तिम राजा वीरवर्मदेव हुआ जिसका शिलालेख में है, जो एक जैनमन्दिर के निर्माण के समय उल्लेख अजयगढ़ (पन्ना) के तीर्थंकर शान्तिनाथ के महाराज विक्रमसिंह के राज्यकाल में लिखा गया था। मंदिर में है, जिसकी नींव आचार्य कुमुद्रचन्द्र ने सं. विद्याधर के बाद इस राज्य का उत्तराधिकारी विजयपाल १३३१ में रखी थी। अजयगढ में श्रेष्ठी सोढल द्वारा हुआ और उसके बाद कीर्तिवर्मा, जिसने सं. ११५४ के प्रतिष्ठित सं. १३३५ में तीर्थंकर शान्तिनाथ की प्रतिमा लगभग लुअच्छगिरि नाम से प्रसिद्धि प्राप्त देवगढ़ का | के पादपीठ में भी महाराज वीरवर्मदेव का नामोल्लेख नाम कीर्तिनगर रखा था और यहाँ जैनशिल्प का विकास | है। इस तरह चंदेलवंश के लगभग चार सौ वर्षों के कराकर इसे जैनशिल्प का प्रसिद्ध केन्द्र बना दिया था। | शासन में दस राजा हुए, जिनके प्रश्रय और संरक्षण से कीर्तिवर्मा की एक पीढ़ी के बाद चन्देलवंश का | जैनधर्म को बुन्देलखण्ड में खूब फलने-फूलने का अवसर उत्तराधिकारी मदनवर्मन हुआ जो बड़ा प्रतापी और उत्कृष्ट | प्राप्त था। शासक था। इसके राज्यकाल में जैनधर्म की बड़ी प्रगति अन्त में हम चन्देलों के धन-कुबेर पाहिल्ल श्रेष्ठी हई। पपौरा में स्थित मर्ति-लेखों से इसकी जैनधर्मप्रियता का पुण्य स्मरण करते हए उनकी उदार एवं विनम्र मिलता है। खजुराहो-स्थित मूर्तियों में भी | सदवृत्ति का गुणानुवाद करते हैं और शत-शत नमन इस राजा का उल्लेख है, जो श्रेष्ठी पणिधर ने निर्मित | करते हैं, जिसे हजार वर्ष बाद भी नहीं भूल सके हैं, कराई थीं। भावी-पीढ़ी भी उनका आदर करती रहेगी। कोक्कल के शिलालेख में भी इन (मदनवर्मदेवस्य श्री कुन्दनलाल जैन-कृत प्रवर्द्धमान विजयराज्य) का उल्लेख मिलता है। महोबा 'जैन इतिहास के प्रेरक व्यक्तित्व भाग १' से प्राप्त मूर्तियों में भी महाराज मदनवर्मदेव का नामोल्लेख से साभार दानं भोगो नाशस्तिस्त्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य। यो न ददाति न भुङ्क्ते तस्य तृतीया गतिर्भवति॥ धन की तीन गतियाँ होती हैं- दान, भोग और नाश। जो न दान करता है, न भोग उसके धन की तीसरी गति होती है। 26 फरवरी 2008 जिनभाषित - Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बच्चों को यौन शिक्षा ? पिछले दिनों मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा के०जी० से लेकर 12वीं कक्षा तक के बच्चों के लिए यौन शिक्षा लागू कराये जाने का प्रस्ताव आया साथ ही इसके लिये अध्यापक-अध्यापिकाओं को यौन शिक्षा की ट्रेनिंग भी दी जा रही है। छोटे बच्चों को यौन शिक्षा देना हमारी भारतीय संस्कृति पर एक सुनियोजित कुठाराघात है। विश्व में आध्यात्मिकता का परचम लहरानेवाला भारत देश संस्कारों और योग-ध्यान की शिक्षा में भी विश्व - गुरु है । यह देश व्यवस्थित कामशास्त्र का जनक तो है ही पर ब्रह्मचर्य को भी सर्वोच्च साधना मानता है । 'संयम ही जीवन है' इस आदर्श वाक्य का आज भी लाखों लोग पालन कर रहे हैं, पर बदलती परिस्थितियों और आधुनिकता के दुष्प्रभाव का व्यक्ति और समाज पर प्रभाव बढ़ता दिखायी दे रहा है। पाश्चात्य संस्कृति को आत्मसात् कर 'सेक्स ही जीवन है' और 'पैसे बस पैसे' की भोगवादी संस्कृति का जादू नई पीढ़ी के ऐसा सिर चढ़ रहा है कि वे एक स्वछन्दतावादी जीवनशैली जीने के आदी होते जा रहे हैं। अश्लीलता, यौनकुंठा और निर्लज्जता का खुला खेल ड्राइंग रूम की टी० वी० से लेकर सड़कों पर लगे कंडोम के बड़े-बड़े विज्ञापनों में समाचार पत्रों की रंगीन सेक्सी तस्वीरों, इंटरनेट की अश्लील बेवसाइटों आदि न जाने किन-किन रूपों में खेला जा रहा है। घटिया सेक्सी फिल्में, टी० वी० में विकृति दिखाते चैनल, फैशन शो, अश्लील चुटकुले, कुत्सित साहित्य, सेक्सी विज्ञापन, द्विअर्थी संवाद, अश्लील एस.एम.एस., . डेटिंग आदि के इस खुले माहौल में युवापीढ़ी डगमगा रही है और डगमगा रहे हमारे नैतिक मूल्य और संस्कार । मोबाइल कैमरे से उतारी अतरंग तस्वीरें पलभर में देश के कोने कोने में पहुँच जाती है । उत्तेजना और कामुकता के इस माहौल में अविवाहित युवक-युवतियाँ यहाँ तक कि किशोरो के बीच सेक्स सम्बन्धों की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। युवाओं और किशोरों में बढ़ती यौन उन्मुक्तता भारत जैसे विकासशील देश की संस्कृति पर दुष्प्रभाव डाल रही है। आज विभिन्न माध्यमों से स्त्री-पुरुष को शोपीस डॉ० श्रीमती ज्योति जैन बनाकर उनके अंग-अंग को प्रदर्शित कर जो भोंडा प्रदर्शन किया जा रहा है उसका समाज / घर / परिवार व्यक्ति पर जो प्रभाव पड़ रहा है वह किसी से छिपा नहीं है। पारिवारिक रिश्ते एवं सामाजिक मूल्य तार-तार हो रहे हैं। अखवारों की सुर्खियाँ सैक्स अपराधों से भरी रहती हैं। विचारणीय बात तो यह है कि नैतिकता व संस्कारों की कमी से युवा पीढ़ी में संयमहीनता बढ़ती जा रही है। वस्तुतः समाज एवं राष्ट्र व्यक्तियों की नैतिक एवं संयमित शक्तियों से ही समृद्ध होता है। नैतिकता का पतन राष्ट्र का पतन है । पाश्चात्य देशों में खुले माहौल को देखते हुए यौन शिक्षा पर बल दिया गया था, पर इसका कोई सकारात्मक रिजल्ट सामने नहीं आया। उल्टे 'टीन एजर्स मदर्स' की संख्या बढ़ गयी। कच्ची उमर में गर्भपात की संख्या में वृद्धि पायी गयी । असमय की यौनशिक्षा कुप्रभाव पैदा कर सकती है । शारीरिक विकास के दौरान समय आने पर शरीर में सेक्स संबंधी हारमोन्स बनने लगते हैं । समय से पहले उनसे छेड़छाड़ करना विकास पर असर डालता ही है, मानसिक विकृतियाँ भी पैदा करता है। जहाँ तक पाठ्यक्रम का सवाल है बॉयोलाजी, होमसाइंस जैसे विषयों को पढ़ते समय बहुत सी जानकारी विद्यार्थियों को हो जाती है । अतः असमय और अपरिपक्व अवस्था में यौन शिक्षा विचारणीय है? विषय विशेषज्ञों का भी कहना है कि किशोरवय अथवा अल्प आयु में प्रारम्भ यौन संबंध उन्हें नपुंसकता की ओर ले जायेंगे। पाश्चात्य देशों में आज घर-परिवार जैसी संस्था को व्यवस्थित करने पर पूरा ध्यान दिया जा रहा है। ऐसे में आवश्यक है कि हम भी अपनी परिवारसंस्था को भोगवाद से बचायें और उसे मजबूत बनायें । असंयम का आचरण सामाजिक असंतुलन ही पैदा करेगा । यौन-शिक्षा के सम्बन्ध में एक तर्क यह भी दिया जाता है कि इससे एच० आई० बी०, एड्स, जैसे रोगों पर काबू पाया जा सकेगा पर एच० आई० बी० एवं एड्स की आड़ में विज्ञापनों का खुला खेल भोगवाद और व्याभिचार को बढ़ावा दे रहा है। यह भी एक दुखद तथ्य है कि दुनियाभर के एड्स रोगियों में अधिकतर फरवरी 2008 जिनभाषित 27 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25 वर्ष से कम आयु के हैं। भारत में लगभग चालीस | पीड़ितों के लिए कार्य कर रही है। पीड़ित व्यक्ति अपना लाख एच० आई० वी० संक्रमित लोग हैं। गरीबी, | सुख दुख बाँट सके, जिन्दगी नरक न बने, डाक्टरी सहायता बेरोजगारी, नशाखोरी, रक्तदान, यौनकर्मी, ट्रक-ड्राइवर, | व दवा उपलब्ध कराना और रोगी सार्थक जीवन जी स्वछन्द यौन संबंधों में विश्वास रखने वाले, चिकित्सा | सके आदि उद्देश्यों की पूर्ति ये संस्थायें करती हैं। सुविधाओं का अभाव, पीड़ित माता पिता आदि एड्स आज लोगों (विशेषकर युवा-किशोरों) को अध्ययन, फैलाने में प्रमुख भूमिका निभाते हैं। नौकरी एवं अन्य कारणों से घर से बाहर रहना पड़ता एडस की रोकथाम के लिये विज्ञापनों पर पानी | है। वे आज के वातावरण में किसी गलत रास्ते पर की तरह पैसा बहाया जा रहा है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों | न चल पड़ें या किसी बीमारी की चपेट में न आ जायें ने भारत के बाजारों को कंडोम. गर्भनिरोधकों एवं सेक्स | इसका पूरा ध्यान रखना आवश सामग्रियों से पाट दिया है। यही कारण है कि अविवाहित | दें, स्वयं संस्कारित हों और बच्चों को भी संस्कारित युवाओं में इनका खूब प्रयोग होने लगा है। 'कण्डोम | करें। बच्चों को विवेकी बनायें, ताकि वे उचित अनुचित साथ लेकर चलो' संदेश देते विज्ञापन जहाँ बच्चों में | का निर्णय ले सकें। युवा होते बच्चों की गतिविधियों उत्सुकता बढ़ा रहे हैं, वहीं युवा-किशोरों को भ्रमित कर | पर नजर रखें, उनकी मित्रमण्डली पर ध्यान दें। यौन रहे हैं। इससे यौन विकृतियाँ ही बढ़ेगी। देखा जाये तो | जिज्ञासाएँ शांत करने में माता-पिता मित्रवत् भूमिका निभायें, एक तरह से देश की सुसंस्कृति को विकृति में बदलने | अपने फेमिली डॉक्टर की भी मदद ले सकते हैं। संबंधित का षड्यंत्र सा रचा जा रहा है। एड्स के प्रति हौवा | सारगर्भित साहित्य भी पढ़ने दें। नियमित दिनचर्या, उचित खड़ा करके आंकड़े बढ़ा चढ़ा कर पेश कर एक कुचक्र | खानपान, ध्यान आसन-प्राणायाम अपनायें। योग एवं आहार रचा जा रहा है। एड्स के कारण मलेरिया, टी० वी०, | सम्बन्धी जानकारी आज सर्वसुलभ है। योग, प्राणायाम, मधुमेह, हृदय रोगियों की बढ़ती संख्या पर ध्यान नहीं | ध्यान से शरीर व मन स्वस्थ रहता है। शरीर जहाँ तनावदिया जा रहा है। रहित रहता है वहीं मन में शुभ विचार, संकल्प जन्म यौनशिक्षा एड्स की रोकथाम के लिए ही क्यों? | लेते हैं। जब कि सरकार ने राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण बोर्ड, राष्ट्रीय हमारी संस्कृति में भोग भी संयम के साथ किया एड्स समिति का गठन किया है, जो आम जनता को | जाता है। बच्चों में यौन शिक्षा के स्थान पर नैतिक एवं एच० आई० वी० संक्रमण, प्रवृत्ति एवं विस्तार की जानकारी | योग शिक्षा पर बल दिया जाये, साथ ही उन्हें संस्कारित देते हैं तथा एड्स संबंधी प्रचार प्रसार एवं रोकथाम का | किया जाये। भारतीय संस्कृति के संवर्द्धन एवं संरक्षण कार्य भी करते हैं। सरकार ने समय-समय पर अनेक | के लिये आवश्यक है कि नयी-पीढ़ी को 'संयमः खल रूपों में कानूनी एवं अन्य सहायता की घोषणा की है। जीवनम्' आदर्श वाक्य से परिचित कराया जाये। एड्स के संक्रमण के विस्तार को देखते हुए गैर सरकारी शिक्षक आवास 6, संगठनों, स्वयंसेवी सामाजिक संस्थाओं का भी योगदान कुन्दकुन्द जैन महाविद्यालय परिसर, है। 'शरण' 'सहारा', 'प्रयास' जैसी अनेक संस्थायें एड्स खतौली (उ० प्र०) जिस प्रकार नवनीत दूध का सारभूत रूप है, वैसे ही करणलब्धि सब लब्धियों का सार है। प्रत्येक व्यक्ति के पास अपना-अपना पाप-पुण्य है, अपने द्वारा किये हुये कर्म है। कर्मों के अनुरूप ही सारा संसार चल रहा है किसी अन्य के बलबूते पर नहीं। प्रत्येक पदार्थ का अस्तित्व अलग-अलग है और सब स्वाधीन स्वतंत्र है। उस स्वाधीन अस्तित्व पर हमारा कोई अधिकार नहीं जम सकता। फोटो उतारते समय हमारे जैसे हाव-भाव होते हैं वैसा ही चित्र आता है, इसी तरह हमारे परिणामों के अनुसार ही कर्मास्रव होता है। मुनि श्री समतासागर-संकलित 'सागर बूंद समाय' से साभार 28 फरवरी 2008 जिनभाषित - Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिज्ञासा-समाधान पं. रतनलाल बैनाड़ा प्रश्नकर्ता- श्री बसन्तकुमार जी प्रतिष्ठाचार्य शिवाड़। समाधान - कर्मकाण्ड गाथा 821 के अनुसार प्रश्न- केवली के कितने प्राण होते हैं? दस क्यों | सयोगकेवली नामक 13वें गणस्थान में निम्नलिखित भाव नहीं होते? पाये जाते हैंसमाधान- धवला पु. 2 गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा 1. औपशमिक भाव - कोई नहीं। 701 के आधार से केवली के निम्नप्रकार प्राण होते हैं। 2. क्षायोपशमिक भाव - कोई नहीं। 1. सामान्य केवली-4 (वचनबल, कायबल, आयु, 3. क्षायिक भाव - 9 (क्षायिक ज्ञान, क्षायिक श्वासोच्छवास) दर्शन, क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिक चारित्र, तथा क्षायिक 2. समुद्घातगत केवली दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य) अ. दण्ड समुद्घात - 3 (कायबल, आयु, 4. औदयिक भाव- 3 (मनुष्यगति, असिद्धत्व, श्वासोच्छवास) शुक्ल लेश्या) ब. कपाट समुद्घात - 2 (कायबल, आयु) 5. पारिणामिक भाव- 2 (भव्यत्व, जीवत्व) स. प्रतर समुद्घात - 1 (आयु) उपर्युक्त चार्ट के अनुसार सयोगकेवली गुणस्थान द. लोकपूरण - 1 (आयु) में तीन औदयिक भाव होते हैं। मनुष्यगति नामकर्म का 3. अयोग केवली- एकप्राण, (आयु) | उदय होने से एक औदयिक भाव होता है। चार अघातिया दस प्राणों से कम प्राणों के होने का कारण कर्मों के विद्यमान रहने और सिद्ध अवस्था अभी प्राप्त 1. पाँच इन्द्रिय प्राण और मनोबल प्राण सामान्य | न करने के कारण असिद्धत्व रहता है, तथा ईर्यापथ केवली के क्यों नहीं होते? क्योंकि पाँच इन्द्रियप्राण तो | आश्रव एवं योगों की प्रवृत्ति होने के कारण शुक्ललेश्या इन्द्रियावरण तथा वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से होते हैं | होने से तीसरा औदयिक भाव होता है, इस प्रकार कुल तथा मनोबलप्राण नोइन्द्रियावरण के क्षयोपशम से होता | तीन औदयिक भाव पाये जाते हैं। अयोगकेवली अवस्था है। केवली भगवान् के ज्ञानावरण एवं अन्तराय के क्षयोपशम | में योगों की प्रवृत्ति का अभाव हो जाने से मात्र दो ही का अभाव हो जाने के कारण ये 6 प्राण नहीं होते। औदयिक भाव पाये जाते हैं, शुक्ललेश्या का अभाव हो उनके इन्द्रियाँ एवं द्रव्यमन तो होता है, परन्तु इनके माध्यम | जाता है। से ज्ञान अब नहीं किया जाता। उनके केवली अवस्था प्रश्नकर्ता - मनोजकुमार जैन देहली। में परोक्ष ज्ञान न होकर मात्र प्रत्यक्ष केवलज्ञान होता है। प्रश्न- क्या हम आचार्य उपाध्याय एवं साधु 2. कपाट समुद्घात में श्वासोच्छ्वास प्राण नहीं | परमेष्ठी को भगवान् कह सकते हैं? होता है। क्योंकि मिश्रकाययोग में श्वासोच्छ्वास प्राण का समाधान - 1. श्री धवला पुस्तक 13 पृष्ठ 346 सद्भाव नहीं पाया जाता है। पर भगवान् का लक्षण इस प्रकार कहा है- 'ज्ञानधर्ममाहा3. प्रतर एवं लोकपूरण समुद्घात में कायबल प्राण | त्म्यानि भगः, सोऽस्यास्तीति भगवान्।' । नहीं होता, क्योंकि इसमें कार्मण काययोग होता है। और अर्थ - ज्ञान, धर्म के माहात्म्यों का नाम भग है, कार्मण काययोग में अपर्याप्त अवस्था होने के कारण | वह जिनके है, वह भगवान् कहलाते हैं। शरीर नामकर्म के उदयजनियत नोकर्मों का ग्रहण नहीं 2. मूलाचार गाथा 1006 में इस प्रकार कहा हैहोता। भिक्कं वक्कं हिययं सोधिय जो चरदि णिच्च सो साह। 4. अयोगकेवली के शरीरनामकर्म का अनुदय तथा एसो सुट्ठिद साहू भणिओ जिण सासणे भयवं। 1006॥ उपर्युक्त प्रकार से नौ प्राणों का अभाव होने के कारण अर्थ- जो आहार, वचन और हृदय का शोधन एकमात्र आयुप्राण ही पाया जाता है। करके नित्य ही आचरण करते हैं, वे ही साधु हैं। जिन प्रश्न- केवली के औदयिक भाव कितने हैं, और | शासन में सुस्थित साधु भगवान् कहे गये हैं। क्यों? 3. संस्कृत के सर्वमान्य आप्टे शब्दकोष में भगवत् - फरवरी 2008 जिनभाषित 29 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द के अर्थ में यशस्वी, प्रसिद्ध, सम्मानित, श्रद्धेय, दिव्य, । है, उसी प्रकार से इनके शरीर में भी अतिशय सुन्दरता पवित्र. जिनका विशेषण आदि कहे गये हैं। | पायी जाती है। देवों का शरीर नाना शरीरों के बनाने ___ भगवान् शब्द के उपर्युक्त लक्षणों को दृष्टि में | में समर्थ विभिन्न प्रकार के गुणों एवं ऋद्धियों से युक्त रखते हुए आचार्य उपाध्याय एवं साधुपरमेष्ठी को भगवान् | होता है। 1055 से 56॥ कहना उचित है। प्रश्नकर्ता - बाबूलाल जी जैन जयपुर। प्रश्नकर्ता - सौ. स्वाति मेहता, पूना प्रश्न - क्या मुनिराजों को तीन काल सामायिक प्रश्न - देवों का शरीर कैसा होता होगा? कुछ | करने का विधान शास्त्रों में पाया जाता है? समझाइये। समाधान- उपर्युक्त प्रश्न के समाधान में मनियों समाधान- मूलाचार गाथा 1053 से 1056 तक | के आचार के प्ररूपण करनेवाले मूलाचार ग्रन्थ के निम्न में देवों के शरीर के सम्बन्ध में बहत अच्छा वर्णन किया | प्रमाण द्रष्टव्य हैंहै। जिसका सार इस प्रकार है 1. मूलाचार भाग-1, पृ. 395 गाथा 518 की टीकादेवों का शरीर स्वर्ण के समान, उपलेपरहित (मल- "यस्मिन काले सामायिकं करोति, सकाल: पूर्वाह्मूत्र, पसीना आदि से रहित) घ्राणेन्द्रिय को आहलादित | नादि-भेदभिन्नाः कालसामायिकं।" करनेवाले श्वासोच्छ्वास-सहित, बाल और वृद्ध पर्याय | | अर्थ- जिस काल में सामायिक करते हैं, पूर्वाह्न, से रहित, आयु पर्यन्त नित्य ही यौवन पर्याय से युक्त, | मध्याह्न और अपराह्न आदि भेदयुक्त काल, काल-सामायिक न्यून और अधिक प्रदेशों से रहित, प्रमाणवत् अवयवों | है। की पूर्णतावाले समचतुरस्र संस्थान से युक्त, धातु एवं सामायिक करने की विधि का वर्णन मूलाचार उपधातुओं से रहित परम सुगन्धीवाले दिव्य शरीर के | में इस प्रकार कहा हैधारक देव होते हैं। 1053 ।। पडिलिहियअंजलिकरो, उवजुत्तो उट्ठिऊण एयमणो। देवों के सिर, भौंह, नेत्र, नाक, कान, काँख, और अव्वारिक्तो वुत्तो करेदि सामाइयं भिक्खू॥ 538॥ गुह्य प्रदेश आदि स्थानों में बाल नहीं होते हैं। हाथ और अर्थ - प्रतिलेखन सहित अजंलि जोड़कर उपयुक्त पैर की अंगुलियों के अग्रभाग में नख नहीं होते हैं। हुआ, उठकर एकाग्रमन होकर मन को विक्षेपरहित करके मूंछ, दाढ़ी के बाल नहीं होते हैं। एवं सारे शरीर पर | मुनि सामायिक करता है। सूक्ष्म बाल अर्थात् रोम भी नहीं होते हैं। उनके दिव्य आचार्यवृत्ति - जिन्होंने पिच्छी को लेकर अंजलि शरीर में चर्म-मांस आदि को प्रच्छादित करने वाला तथा | जोड़ ली है, जो सावधान बुद्धिवाले हैं, वे मुनि खड़े मांस और हड्डियों में होने वाला चिकना रस 'वसा' | | होकर एकाग्रमन होते हुए आगमकथित विधि से सामायिक नहीं होता। उनके शरीर में वीर्य, पसीना, हड्डी और | करते हैं। अथवा पिच्छी से प्रतिलेखन करके शुद्ध होकर, शिरासमूह (नसों का जाल) भी वैक्रियिक शरीर होने | द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव शुद्धि को करके प्रकृष्ट रूप के कारण नहीं होता है। 1054॥ से अंजलि को कमलाकार बनाकर अथवा पिच्छिका सहित सर्वगुणों से विशिष्ट वैक्रियिक शरीर के योग्य | अंजलि जोड़कर सामायिक करते हैं। मूलाचार गाथा 270 उत्तम वर्ण, गन्ध, रस, और स्पर्श से युक्त अनन्त दिव्य | के अनुसार कालाचार के वर्णन में कहा गया है कि परमाणुओं से उनके शरीर के सभी अवयव बनते हैं। सूर्योदय के एक मुहर्त पहले से एक मुहर्त बाद तक वे देव मनुष्य के आकार के समान होते हैं, विविध | मध्याह्न के एक मुहूर्त पहले से एक मुहूर्त बाद तक, प्रकार के शरीर आदि को बना लेने की शक्तिवाला | सूर्यास्त के एक मुहूर्त पहले से एक मुहूर्त के बाद तक वैक्रियिक शरीर होता है। उनके शुभनाम, प्रशस्त गमन, तथा अर्धरात्रि के एक मुहूर्त पहले से एक मुहूर्त बाद सुस्वर वचन, और मनमोहक रूप होता है। उनके शरीर | तक का काल स्वाध्याय के अयोग्य माना गया है। इसका में मनुष्यों के समान केश, नख आदि के आकार सभी | भी यही कारण प्रतीत होता है, कि सामायिक के इन विद्यमान रहते हैं। जैसे स्वर्ण व पाषाण की प्रतिमा में | चार कालों में स्वाध्याय करना उचित नहीं है, इन कालों सर्व आकार बनाये जाने से वह अतिशय सुन्दर दिखती | में सामायिक करनी चाहिये। 30 फरवरी 2008 जिनभाषित Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्तमान में कुछ मुनिराज ऐसा कहते हुए दिखते । श्री से मुख्यमंत्री महोदया का दर्शन एवं चर्चा करने हेतु हैं, कि हमको सामायिक करने के लिए कोई निश्चित | आने का समय बताया, तो पूज्य आचार्यश्री ने कहा कि काल नहीं है, हमारे तो सामायिक चारित्र 24 घण्टे रहता | यह तो हमारे सामायिक का काल है। हम सामायिक है। इसलिये हम सुबह, दोपहर एवं सायंकाल सामायिक | कैसे छोड़ सकते हैं? पूज्य आचार्य श्री ने समयानुसार नहीं करते हैं। ऐसे मुनिराजों को पूज्य आचार्य विद्यासागर | अपनी सामायिक प्रारम्भ कर दी। मुख्यमंत्री महोदया जी महाराज का निम्नलिखित प्रसंग अवश्य ध्यान देने | सामायिक के दौरान आईं और दर्शन करके चली गईं। योग्य है पूज्य आचार्यश्री का उपर्युक्त प्रसंग इस बात का एकबार पूज्य आचार्यश्री के दर्शन एवं चर्चा करने | ज्ञापक है कि परिस्थिति कुछ भी हो, साधु को सामायिक हेतु एक प्रदेश की मुख्यमंत्री आनेवाली थीं। मुख्यमंत्री | के उपर्युक्त कालों में सामायिक करना परम आवश्यक महोदया ने दोपहर 12 बजे से 1 बजे तक का समय | है। कार्यकर्ताओं को बताया। जब कार्यकर्ताओं ने पूज्य आचार्य 1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी आगरा- 282002 (उ.प्र.) वेबसाइट प्रारंभ करने की योजना । दिगम्बर जैन गरुकल जबलपुर में अनेकांत ज्ञान मंदिर इंदौर। श्रीफल पत्रिका परिवार आप सभी को | शोध संस्थान बीना एवं श्रुत संवर्द्धन संस्थान मेरठ के यह बताते हुए अत्यंत हर्षित है कि हम जैन संस्कृति | संयक्त तत्त्वावधान में आशातीत सफलता के साथ के प्रचार-प्रसार हेतु एक वेबसाइट प्रारंभ कर रहे | सम्पन्न हुआ। इस सम्मेलन में पूरे देश से लगभग हैं। इसमें हम समाज के सभी विद्वानों, जैन पत्र- | 75 बाल ब्रह्मचारी भाई सम्मलित हुए, जो अनेक पत्रिकाओं और जैन सामाजिक व धार्मिक संस्थाओं सामाजिक, धार्मिक संस्थाओं, आश्रमों एवं मुनिसंघों के नाम व पते पूर्ण जानकारी के साथ देना चाहते | के मध्य रहते हए स्वपरकल्याण में संलग्न हैं। हैं। कुछ हमारे पास हैं पर हमारा प्रयास ज्यादा से | पज्य उपाध्याय श्री ज्ञानसागर जी महाराज ने ज्यादा जानकारी हमारी वेब-साइट पर देने का है।। कहा कि- आदहिदं कादव्वं, जं सक्कइ तं परहिदं अतः आपसे सहयोग की अपेक्षा है और निवेदन है पि कादव्वं। गृहत्यागी को सर्वप्रथम आत्म कल्याण कि आप सभी अपने पते व जानकारी हमें हमारे करना चाहिए, आत्म कल्याण करते हुए सम्यग्ज्ञान इंदौर कार्यालय के पते पर भेजने का कष्ट करें या | के प्रचार-प्रसार के साथ पर कल्याण में भी निमित्त जानकारी पत्र इंदौर कार्यालय से मंगवाए। जैन पत्र- | अवश्य बनना चाहिए, त्यागी व्रती में दोष निकालना पत्रिकाएँ कृपा कर अपनी एक-एक प्रति हमें भेजे | बहुत सरल है पर उस स्थान तक पहुँचना कितना ताकि हम भी उन्हें श्रीफल पत्रिका भेज सकें।। कठिन होता है, अतः कभी भी त्यागी वर्ग की निंदा पता- बा. ब्र. चक्रेश जैन | नहीं करनी चाहिए। आचार्य अकलंक-निकलंक जैसा संपादक, 'श्रीफल पत्रिका' समर्पण भाव हम सभी के अंदर आ जाये, तो यह 206, तिलक नगर एक्स. इंदौर (म.प्र.) संवाद सफल माना जावेगा। साधु संतों की अपनी अखिल भारतीय दिगम्बर जैन ब्रह्मचारी सम्मिलन सीमाएँ हैं, जितना बनता है उतना ही कार्य कर रहे सम्पन्न हैं। पर ब्रह्मचारी वर्ग अपनी भूमिकानुसार बहुत कुछ श्रमण संस्कृति के अनुरागियों को जानकर अत्यंत | कार्य संस्कृति संरक्षण एवं समाजोत्थान के कर सकता प्रसन्नता होगी कि परम पूज्य उपाध्याय श्री 108 | है। सभी प्रतिभाशाली हैं, एकता के सूत्र में बंधकर ज्ञानसागर जी महाराज के पुनीत सान्निध्य में 8-9 | यदि कार्य योजना बनती है तो बहुत कुछ संभवानायें दिसम्बर 2007 को अखिल भारतीय दिगम्बर जैन | बनती हैं। ब्रह्मचारी सम्मेलन 'संवाद' 07 के नाम से श्री वर्णी ब्र. संदीप 'सरल' -फरवरी 2008 जिनभाषित 31 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाचार अ. भारतवर्षीय श्री दिगम्बर जैन ज्ञानोदय तीर्थक्षेत्र । संगठनों को सार्थक नेतृत्व प्रदान करने का प्रयत्न किया और (नारेली) अजमेर की पावन धरा पर सभी का स्नेह प्राप्त किया। उन्होंने अपने जीवन के विकास नववर्ष 2008, 1 जनवरी को परम पूज्य उपाध्याय में पूज्य क्षुल्लक श्री गणेशप्रसाद वर्णी, माता-पिता, अग्रजश्री 108 उदारसागर जी महाराज पू. ऐलक 105 श्री समर्पणसागर डॉ० रमेशचन्द्र जैन डी०लिट्, डॉ० अशोककुमार जैन जी महाराज पू. क्षु. 105 श्री संयोगसागर जी महाराज ससंघ डी०फिल०, डॉ० नरेन्द्रकुमार जैन, तीर्थंकर पार्श्वनाथ के प्रति का मंगल प्रवेश श्री दि. जैन ज्ञानोदय तीर्थक्षेत्र पर हुआ। | भक्ति एवं गंगा के स्नेहिल स्पर्श को महत्त्वपूर्ण बताया। अध्यक्षीय नारेली तीर्थ पर दिनांक 2.1. 2008 को अपने हृदयग्राही उद्बोधन में प्रो० फूलचन्द जैन 'प्रेमी' ने कहा कि डॉ० प्रवचन में उपाध्यायश्री ने कहा कि पूज्य मुनि श्री सुधासागर सुरेन्द्र जैन 'भारती' ने अपने लगभग चार दशक के जीवन जी द्वारा इस धरा की भूमि के चयन के समय जो द्रव्य, में सात पुस्तकों का लेखन एवं २२ पुस्तकों का संपादन क्षेत्र, काल, भाव की भावना देखी और समझी गई उसी किया है। वर्तमान में वे पत्रकारिता के क्षेत्र में अग्रणी भूमिका का परिणाम है कि इसका द्रुतगति से विकास एवं ख्याति निभाते हुए 'पार्श्व ज्योति' मासिक, 'जिनभाषित' मासिक एवं विद्वद्-विमर्श त्रैमासिक जैसी उत्कृष्ट पत्रिकाओं का संपादन उपाध्यायश्री ने बतलाया कि तीर्थक्षेत्रों पर दर्शक गण, कर रहे हैं। वे अ.भा.दि. जैन विद्वत्परिषद् जैसी गरिमामयी भक्त-गण इसी आस्था और विश्वास एवं श्रद्धा के साथ आते राष्ट्रीय संस्था के सुयोग्य मंत्री हैं। उन्हें अब तक आचार्य हैं कि उस परम पावन स्थान विशेष पर उन्हें आत्मिक शान्ति | विमलसागर हीरक जयंती सम्मान, स्वयंभू पुरस्कार, वाग्भारती मिलेगी, वातावरण में विशुद्ध परिणाम होंगे, इन्हीं पवित्र उद्देश्यों पुरस्कार एवं महाकवि आचार्य ज्ञानसागर सप्तम पुरस्कार से की पूर्ति हितार्थ इस अत्यन्त प्रभावशाली, प्राकृतिक स्थान | सम्मानित किया जा चुका है। वे युवकों के लिए आदर्श पर भव्यात्मा साधना करके अपना कल्याण मार्ग प्रशस्त करेगी। एवं प्रेरणा स्रोत हैं। उनके अभिनंदन से आज महाविद्यालय ऐसे ही स्थानों पर व्यक्ति के धर्म साधना करने के भाव | स्वयं में अभिनंदित हुआ है। बनते हैं। विश्वविद्यालय में डॉ० सुरेन्द्र 'भारती' का व्याख्यान अंत में उपाध्यायश्री ने सभी महानुभाव धर्म प्रेमी बन्धुओं - संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी के श्रमण को आशीर्वाद देते हुए कहा कि ऐसे तीर्थ पर सभी को विद्या संकाय द्वारा अपने विश्वविद्यालय की स्वर्ण जयंती तन-मन-धन से समर्पण भाव रखते हुए सहयोग देना चाहिए। व्याख्यान माला के अंतर्गत जैनदर्शन विभाग के तत्त्वावधान भीकमचन्द पाटनी, उपमंत्री, में वाइस चांसलर प्रो० राम जी मालवीय की अध्यक्षता एवं श्री ज्ञानोदय तीर्थ नारेली संकायाध्यक्ष प्रो० रमेशकुमार दुबे के मुख्यातिथ्य में सेवासदन डॉ० सुरेन्द्र जैन 'भारती' का अभिनंदन महाविद्यालय, बुरहानपुर के हिन्दी विभाग में पदस्थ वरिष्ठ अ. भा. दि. जैन विद्वत्परिषद् के मंत्री डॉ. सुरेन्द्रकुमार | सहायक प्राध्यापक डॉ० सुरेन्द्रकुमार जैन 'भारती' (मंत्रीजैन 'भारती' (वरिष्ठ सहायक प्राध्यापक-हिन्दी विभाग, अ.भा.दि. जैन विद्वत्परिषद्) का दिनांक १७ दिसम्बर, ०७ सेवासदन महाविद्यालय, बुरहानपुर) का दिनांक २६ दिसम्बर | को श्रमण विद्या संकाय सभागार में जैनदर्शन की उपादेयता को वाराणसी के गंगा तटवर्ती भदैनी घाट स्थित श्री स्याद्वाद विषय पर शास्त्रीय व्याख्यान आयोजित किया गया। महाविद्यालय में प्रोफेसर फूलचन्द जैन 'प्रेमी' की अध्यक्षता अध्यक्षीय उद्बोधन में वाइस चांसलर प्रो० राम जी में हार्दिक अभिनंदन किया गया। अभिनंदन समारोह का संचालन मालवीय ने कहा कि आज डॉ० सुरेन्द्र 'भारती' ने जो धारावाहिक श्री आशीष शास्त्री (शाहगढ़) ने किया। यहाँ उल्लेखनीय व्याख्यान दिया है वह अद्वितीय है तथा हमारी शास्त्रीय है कि डॉ० जैन २७ वर्ष पूर्व इसी महाविद्यालय में रहकर मान्यताओं को वर्तमान समाज से जोड़नेवाला है। उनके विद्यार्जन कर चुके हैं। वे अपनी निजी यात्रा पर सपरिवार | | प्रस्तुतीकरण से यह सिद्ध हो रहा है। कि वे अपने क्षेत्र वाराणसी पधारे थे। स्याद्वाद महाविद्यालय परिवार ने अपने के आदर्श शिक्षक हैं। आभार व्याकरण-विभागाध्यक्ष श्री दुबे ही एक होनहार विद्यार्थी को जैनधर्म, दर्शन, समाज-संस्कृति ने व्यक्त किया। कार्यक्रम का सफल संचालन प्रो० फूलचन्द एवं हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में विगत २५ वर्षों में की गई | जैन 'प्रेमी' ने किया। व्याख्यान से पूर्व डॉ० सुरेन्द्र 'भारती' सेवाओं के लिए सम्मानित किया। का काशी की परम्परा के अनुरूप सम्मान किया गया। इस इस अवसर पर अपने सम्मान के प्रत्यत्तर में डॉ० | अवसर पर डॉ० भारती की सहधर्मिणी श्रीमती इन्द्रा जैन सुरेन्द्र 'भारती' ने बताया कि वाराणसी स्थित स्याद्वाद | | (प्रकाशिका-पार्श्व ज्योति) भी उपस्थित थीं। महाविद्यालय में रहकर उन्होंने सब सहपाठियों द्वारा प्रदत्त नरेश चन्द्र जैन, पार्श्व ज्योति मंच नेता जी उपाधि की रक्षा करते हुए अपने सभी साथियों एवं | न्यू इन्दिरा नगर, बुरहानपुर (म.प्र.) 32 फरवरी 2008 जिनभाषित Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि श्री क्षमासागर जी की कविताएँ शिकायत कागज की कश्ती कुछ देर लहरों में खेली फिर डूब गयी उसे शिकायत है कि किनारों ने उसे धोखा दिया एक ईंट पुरानी दीवार की एक ईंट और गिर गयी लगता है जैसे किसी ने पूछा हो जिन्दगी और कितनी रह गयी? नि:शेष मुझे कहना है अभी वह शब्द जिसे कहकर नि:शब्द हो जाऊँ मुझे देना है अभी वह सब जिसे देकर नि:शेष हो जाऊँ उसने कहा मौत ने आकर उससे पूछामेरे आने से पहले वह क्या करता रहा? उसने कहाआपके स्वागत में पूरे होश और जोश में जीता रहा सुना है मौत ने उसे प्रणाम किया और कहाअच्छा जियो अलविदा... मुझे रहना है अभी इस तरह कि मैं रहूँ लेकिन 'मैं' रह न जाऊँ। 'अपना घर' से साभार AND Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 . AO रजि नं. UPHIN/2006/16750 AOS OGYGOOGOD9 Mor OCOGNO.4 हरदा (म.प्र.) ने नया इतिहास रचा गजरथ के बदले मानवरथ चला संत शिरोमणि आचार्य श्री 108 विद्यासागर जी के पावन आशीर्वाद से, उनके ही यशस्वी शिष्य मुनिद्वय श्री प्रशांतसागर जी एवं निर्भयसागर जी के सान्निध्य में एवं प्रतिष्ठाचार्य ब्र. श्री विनय भैया जी बंडावालों के कुशलनिर्देशन में गत 11 से 17 फरवरी 2008तक हरदा के इतिहास में पहली बार 1008 श्री पार्श्वनाथ जिनालय (हरसूद से विस्थापित) में निर्मित नवीन वेदी, मानस्तभ एवं कलश की स्थापना एवं प्रतिष्ठा हेतु पंचकल्याणक एवं मानवरथ-महोत्सव सानंद सम्पन्न हुआ। संगीतकार दिल्ली निवासी श्री पारस जैन एवं साथियों ने सस्वर पूजनपाठ एवं भक्ति संपन्न करायी। सत्तर जोड़ों ने पूजा में भाग लेकर विधि विधान से प्रतिष्ठा में सहयोग किया। महोत्सव में घटयात्रा के लिये विशाल जलूस आयोजित किया गया, रथयात्रा के दिन हरदा में नया इतिहास रचा गया। हाथी पर लकी ड्रा में विजयी भाग्यशाली तीन दानदाता बैठे और गजरथ के स्थान पर मानवरथ चलाया गया, जिसे जैन युवासंघ के उत्साही सदस्यों और बच्चों से लेकर वृद्धों तक ने खींचकर नया इतिहास रचा। संपूर्ण धार्मिक आयोजन निश्चित समय पर संपन्न कराये गये और पांडाल की पवित्रता को अक्षुण्ण रखते हुये पूर्ण अनुशासन में सभी कार्यक्रम प्रतिष्ठाचार्य श्री विनय भैया जी के आदेशानुसार सम्पन्न कराये गये। ___ मंचीय कार्यक्रमों में स्थानीय महिलामंडल व बालिकामंडल के सदस्यों ने रोचक सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत किये। इसके अतिरिक्त मंच पर पात्रों के अलावा अन्य व्यवसायिक कलाकारों के कार्यक्रमों को शामिल न कर पंचकल्याणक संस्कृति में नया अध्याय जोड़ा गया। संगीतकार की स्वरलहरियों पर इन्द्रइन्द्रानियों और पात्रों ने भावपूर्ण भक्ति का प्रदर्शन किया। पंचकल्याणक कार्यक्रमों में बड़ी संख्या में देवास, होशंगाबाद, खण्डवा और इंदौर आदि जिलों के धर्मानुरागियों ने शामिल होकर कार्यक्रम को सफल बनाया और भूरि-भूरि प्रशंसा की। अंत में संयोजक कमलचंद जैन, पाटनी, एडवोकेट ने पंचकल्याणक को सफलतापूर्वक संपन्न कराने के लिये सभी का आभार माना। NOLOC4OOG कमलचंद जैन GOOOOOOOOOGNOD COOOOOOD स्वामी, प्रकाशक एवं मुद्रक : रतनलाल बैनाड़ा द्वारा एकलव्य ऑफसेट सहकारी मुद्रणालय संस्था मर्यादित, 210, जोन-1, एम.पी. नगर, भोपाल (म.प्र.) से मुद्रित एवं 1/205 प्रोफेसर कॉलोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) से प्रकाशित / संपादक : रतनचन्द्र जैन।