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________________ सन्दर्भ 1. यह शोधपत्र आल इण्डिया ओरियण्टल कान्फ्रेन्स, अहमदाबाद 1953, के सत्रहवें सत्र जैनधर्म विभाग में पढ़ा गया था। प्राकृत और 2. प्रवचनसार ( श्री रायचन्द्र जैन शास्त्रमाला, बम्बई, 1935), भूमिका, पृ. 1 तथा आगे । 3. प्रवचनसार, भूमिका, पृ. 5 4. एपिग्राफिया कर्नाटिका, खण्ड 5, वेलूर, 124 5. एपिग्राफिया इण्डिका, खण्ड 3, पृ. 190 । यह स्थान गुण्टकल रेल्वे स्टेशन से चार या पाँच मील की दूरी पर स्थित है । (अनुवादक) साउथ इण्डियन इन्स्क्रिप्सन्स, खण्ड 9, अंक 1, क्र. 1361 एन्युअल रिपोर्ट ऑन इण्डिन एपिग्राफी, 1916, पृ. 134। कोनकोण्डला ग्राम का भ्रमण मद्रास एपिग्राफिस्ट ऑफिस के सदस्यों द्वारा 1912 1915, 1920 और 1941 ई. में किया गया । यहाँ से प्रतिलिपि किये गये अभिलेख एन्युअल रिपोर्ट्स आन साउथ इण्डियन एपिग्राफी की सम्बन्धित वार्षिक रपटों में सूचीबद्ध किये गये हैं । उनमें से कुछ अभिलेख साउथ इण्डियन इन्स्क्रिप्सन्स खण्ड 9 अंक 1 में विधिवत प्रकाशित किये गये हैं। उक्त एपिग्राफिकल ब्रांच का सदस्य होने के नाते मैंने 1950 ई० में यह स्थान देखा और उसके पुरावशेषों का निरीक्षण किया। मैं वहाँ कुछ नये अभिलेख ढूँढ़ने में सफल हुआ। लेकिन उनकी प्रतिलिपि नहीं की जा सकी या मौसम से प्रभावित होने के कारण वे ठीक से नहीं पढ़े जा सके। इस स्थान के पुरावशेषों का संक्षिप्त वर्णन आंध्र हिस्टारिकल रिसर्च सोसायटी, खण्ड 17, पृ. 164-65 में भी उपलब्ध है। 6. 7. 8. एन्युअल रिपोर्ट्स आन साउथ इण्डियन एपिग्राफी, 1939-40, परिशिष्ट-बी, 1940-41 का क्र. 453 10. वहीं, क्र० 45 11. साउथ इण्डियन इन्स्क्रिप्सन्स, खण्ड 9, अंक 1, पूर्वोक्त क्र० 150 12. जैसा कि पहले बताया जा चुका है कि कोण्डकुन्दे नाम इसी स्थान के 1071 ई० के अभिलेख में भी मिलता है। 13. Jain Education International 9. 14. प्रवचनसार, भूमिका, पृ० 7-8 15. वही, भूमिका पृ० 104 16. एन्युअल रिपोर्ट्स आन साउथ इण्डियन एपिग्राफी, 1939-40 से 1942-43, परिशिष्ट बी क्र० 194041 का क्र. 452। मैंने इस अभिलेख की मूल छाप का परीक्षण किया है और मेरा विचार है कि तिथिहीन होने के कारण, लिपि के आधार पर इसका समय 16वीं शती निर्धारित किया जा सकता है। एपिग्राफी कर्नाटिका, खण्ड 8, नगर 46 18. प्रवचनसार, भूमिका पृ. 22 17. 19. नाथूराम प्रेमी, जैन साहित्य और इतिहास, पृ. 11 20. साउथ इण्डियन इस्क्रिप्सन्स, खण्ड 9, अंक 1, पूर्वोक्त क्र० 288 21. 12 प्रतीत होता है कि कन्नड़ में कुन्द या गुन्द और तामिल में कुण्णम् से अन्त होने वाले नाम मूलरूप से पहाड़ी से सम्बन्धित होने के कारण या उत्तुंग क्षेत्र में स्थित होने के कारण बने । यह अभिलेख मेरे अप्रकाशित व्यक्तिगत अभिलेख संग्रह में है । इस अभिलेख का पाठ प्रसिद्ध कन्नड़ वैयाकरण भट्टाकलंक द्वारा रचा गया था । फूल नहीं काँटे सर्दी का समय था एक दिन प्रातः काल आचार्य श्री के पास कुछ महाराज लोग बैठे हुए थे, ठण्डी हवा चल रही थी, ठण्डी लग रही थी, शरीर से कँपकँपी उठ रही थी । आचार्य श्री से कहा देखो आचार्य श्री जी शरीर से काँटे उठ रहे हैं। आचार्य श्री ने कहा हाँ शरीर से काँटे ही उठते हैं फूल नहीं। शरीर दुख का घर है। इसके स्वभाव को जानो और वैराग्य भाव जाग्रत करो। शरीर को नहीं बल्कि शरीर के स्वभाव को जानने से वैराग्य भाव उत्पन्न होता है । 'महावीर जयन्ती स्मारिका 75 से साभार मुनि श्री कुन्थुसागरकृत 'संस्मरण' से साभार फरवरी 2008 जिनभाषित 21 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524325
Book TitleJinabhashita 2008 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2008
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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