SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 32
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शब्द के अर्थ में यशस्वी, प्रसिद्ध, सम्मानित, श्रद्धेय, दिव्य, । है, उसी प्रकार से इनके शरीर में भी अतिशय सुन्दरता पवित्र. जिनका विशेषण आदि कहे गये हैं। | पायी जाती है। देवों का शरीर नाना शरीरों के बनाने ___ भगवान् शब्द के उपर्युक्त लक्षणों को दृष्टि में | में समर्थ विभिन्न प्रकार के गुणों एवं ऋद्धियों से युक्त रखते हुए आचार्य उपाध्याय एवं साधुपरमेष्ठी को भगवान् | होता है। 1055 से 56॥ कहना उचित है। प्रश्नकर्ता - बाबूलाल जी जैन जयपुर। प्रश्नकर्ता - सौ. स्वाति मेहता, पूना प्रश्न - क्या मुनिराजों को तीन काल सामायिक प्रश्न - देवों का शरीर कैसा होता होगा? कुछ | करने का विधान शास्त्रों में पाया जाता है? समझाइये। समाधान- उपर्युक्त प्रश्न के समाधान में मनियों समाधान- मूलाचार गाथा 1053 से 1056 तक | के आचार के प्ररूपण करनेवाले मूलाचार ग्रन्थ के निम्न में देवों के शरीर के सम्बन्ध में बहत अच्छा वर्णन किया | प्रमाण द्रष्टव्य हैंहै। जिसका सार इस प्रकार है 1. मूलाचार भाग-1, पृ. 395 गाथा 518 की टीकादेवों का शरीर स्वर्ण के समान, उपलेपरहित (मल- "यस्मिन काले सामायिकं करोति, सकाल: पूर्वाह्मूत्र, पसीना आदि से रहित) घ्राणेन्द्रिय को आहलादित | नादि-भेदभिन्नाः कालसामायिकं।" करनेवाले श्वासोच्छ्वास-सहित, बाल और वृद्ध पर्याय | | अर्थ- जिस काल में सामायिक करते हैं, पूर्वाह्न, से रहित, आयु पर्यन्त नित्य ही यौवन पर्याय से युक्त, | मध्याह्न और अपराह्न आदि भेदयुक्त काल, काल-सामायिक न्यून और अधिक प्रदेशों से रहित, प्रमाणवत् अवयवों | है। की पूर्णतावाले समचतुरस्र संस्थान से युक्त, धातु एवं सामायिक करने की विधि का वर्णन मूलाचार उपधातुओं से रहित परम सुगन्धीवाले दिव्य शरीर के | में इस प्रकार कहा हैधारक देव होते हैं। 1053 ।। पडिलिहियअंजलिकरो, उवजुत्तो उट्ठिऊण एयमणो। देवों के सिर, भौंह, नेत्र, नाक, कान, काँख, और अव्वारिक्तो वुत्तो करेदि सामाइयं भिक्खू॥ 538॥ गुह्य प्रदेश आदि स्थानों में बाल नहीं होते हैं। हाथ और अर्थ - प्रतिलेखन सहित अजंलि जोड़कर उपयुक्त पैर की अंगुलियों के अग्रभाग में नख नहीं होते हैं। हुआ, उठकर एकाग्रमन होकर मन को विक्षेपरहित करके मूंछ, दाढ़ी के बाल नहीं होते हैं। एवं सारे शरीर पर | मुनि सामायिक करता है। सूक्ष्म बाल अर्थात् रोम भी नहीं होते हैं। उनके दिव्य आचार्यवृत्ति - जिन्होंने पिच्छी को लेकर अंजलि शरीर में चर्म-मांस आदि को प्रच्छादित करने वाला तथा | जोड़ ली है, जो सावधान बुद्धिवाले हैं, वे मुनि खड़े मांस और हड्डियों में होने वाला चिकना रस 'वसा' | | होकर एकाग्रमन होते हुए आगमकथित विधि से सामायिक नहीं होता। उनके शरीर में वीर्य, पसीना, हड्डी और | करते हैं। अथवा पिच्छी से प्रतिलेखन करके शुद्ध होकर, शिरासमूह (नसों का जाल) भी वैक्रियिक शरीर होने | द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव शुद्धि को करके प्रकृष्ट रूप के कारण नहीं होता है। 1054॥ से अंजलि को कमलाकार बनाकर अथवा पिच्छिका सहित सर्वगुणों से विशिष्ट वैक्रियिक शरीर के योग्य | अंजलि जोड़कर सामायिक करते हैं। मूलाचार गाथा 270 उत्तम वर्ण, गन्ध, रस, और स्पर्श से युक्त अनन्त दिव्य | के अनुसार कालाचार के वर्णन में कहा गया है कि परमाणुओं से उनके शरीर के सभी अवयव बनते हैं। सूर्योदय के एक मुहर्त पहले से एक मुहर्त बाद तक वे देव मनुष्य के आकार के समान होते हैं, विविध | मध्याह्न के एक मुहूर्त पहले से एक मुहूर्त बाद तक, प्रकार के शरीर आदि को बना लेने की शक्तिवाला | सूर्यास्त के एक मुहूर्त पहले से एक मुहूर्त के बाद तक वैक्रियिक शरीर होता है। उनके शुभनाम, प्रशस्त गमन, तथा अर्धरात्रि के एक मुहूर्त पहले से एक मुहूर्त बाद सुस्वर वचन, और मनमोहक रूप होता है। उनके शरीर | तक का काल स्वाध्याय के अयोग्य माना गया है। इसका में मनुष्यों के समान केश, नख आदि के आकार सभी | भी यही कारण प्रतीत होता है, कि सामायिक के इन विद्यमान रहते हैं। जैसे स्वर्ण व पाषाण की प्रतिमा में | चार कालों में स्वाध्याय करना उचित नहीं है, इन कालों सर्व आकार बनाये जाने से वह अतिशय सुन्दर दिखती | में सामायिक करनी चाहिये। 30 फरवरी 2008 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524325
Book TitleJinabhashita 2008 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2008
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy