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पर भी एक-एक मिनिट कटता है, बार-बार घड़ी देखता है । सम्यग्दर्शन, ज्ञान प्राप्त होने के उपरान्त उसे रागद्वेष को मिटाने के लिये रुचि रहती ही है, अतः वह संयम / चारित्र की शरण में चला जाता है ।
चारित्र का अर्थ क्या है? आचार्य समन्तभद्र महाराज कह रहे हैं कि चारित्र का अर्थ पाँचों पापों से निवृत्ति रूप है- हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह से निवृत्ति लेना चारित्र है। ध्यान रखिये कोई भी दीक्षा लेता है, सकल / देश संयम, कोई भी चारित्र धारण करता है, तो उसका लक्ष्य क्या होना चाहिए ?- रागद्वेष मिटाने के लिये । चर्चा में, दृष्टि में, मन-वचन-काय की चेष्टा में, प्रत्येक समय यही लक्ष्य रहेगा कि यह चर्या मैं इसलिए अपना रहा हूँ कि रागद्वेष को मुझे मिटाना है। जिस चारित्र के द्वारा रागद्वेष मिटता है, वह सम्यक्चारित्र है । और जिस चारित्र के द्वारा रागद्वेष की उत्पत्ति होती है वह मिथ्याचारित्र है । सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र संसार के उन्मूलक हैं, मोक्षमार्ग स्वरूप हैं, मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र मोक्षमार्ग के खिलाफ हैं। संसार के वर्धक हैं। ऐसा दृढ़ संकल्प होना चाहिए कि जब तक रागद्वेष नहीं मिटेंगे, तब तक मैं चारित्र का सहारा नहीं छोडूंगा, जब तक कार्य की प्राप्ति नहीं होती, तब तक कारण को नहीं छोड़ा जाता । मान लो कि मथानी से मंथन कर रहे हो, कब तक करते रहते हो? जब तक नवनीत की प्राप्ति नहीं होती । इसी प्रकार संयम के क्षेत्र में भी होना चाहिए ।
रागद्वेष को मिटाना है, मिटाने का एक मात्र कारण है चारित्र, जो पाँच पापों की निवृत्ति रूप, पाँचों पापों से बचने रूप है। यह बचना एक ही दिन में होता है क्या ? एक ही घण्टे में क्या रागद्वेष पर कन्ट्रोल कर सकते हैं। ऐसा तो सम्भव नहीं । ऋषभनाथ भगवान् को 1000 वर्ष लग गये। 1000 वर्ष तक चारित्र की शरण लेकर आदिप्रभु ने जीवन गुजार दिया। रागद्वेष नहीं मिटे, छठा/सातवां, सातवाँ / छठा गुणस्थान चलता रहा, मौन साधना चलती रही रागद्वेष को मिटाने के लिए भगवान् बाहुबली की साधना एक साल तक चली, हिले नहीं, डुले नहीं, बोले नहीं, खाया पिया नहीं । इतना कठिन तप फिर भी रागद्वेष अभी तुरन्त नहीं मिटे । श्रद्धान एक क्षण में हो जाता है, लेकिन जिसके ऊपर श्रद्धान किया जाता है, उसे प्राप्त करने के लिए एक क्षण नहीं, अपितु बहुत क्षण अपेक्षित हैं, कड़ी साधना की आवश्यकता है, तब कहीं जाकर के रागद्वेष का उन्मूलन सम्भव है। यह चारित्र कौन स्वीकार करता है? साधु / सज्जन
6 फरवरी 2008 जिनभाषित
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/ भव्य । वह सज्जन जिसको ज्ञान प्राप्त हुआ है, दर्शन लाभ हुआ है, दृष्टि प्राप्त हो गई है ज्ञान श्रद्धान हुआ है मुक्ति के लिए साधन सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र ही हैं यह सुख को दे सकते हैं इसके अलावा कोई नहीं, पर में मुक्ति नहीं, पर में सुख नहीं पर को छोड़ने सुख है, पर को जोड़ने में सुख मोक्षमार्गी को नहीं, संसारी को है । संसारी का ऐसा विश्वास है अरे भैया ! अपने जीवन के अन्तिम काल का क्या पता, माता-पिता तो वृद्ध हैं ही, वे तो रहेंगे नहीं, बाल-बच्चों का भरोसा क्या? 20 वीं शताब्दी का काल चल रहा है, इसलिये अपने नाम से ही, बच्चों को बताना तक नहीं, गुदड़ी में बाँधते जाओ, काम में आता है, नहीं तो अन्त में उनका है ही । इसलिये यदि अपने जीवन में सुख चाहते हो तो जोड़कर रखो। यह जोड़ना - सोचना सांसारिक सुख है और सम्यग्दृष्टि को यह विश्वास हो जाता है कि जितना जोड़ना है, वह संसार से सम्बन्ध जोड़ना है और जितना तोड़ना है, वह मुक्ति से सम्बन्ध जोड़ना है। यही कहलाता है 'अवाप्तसंज्ञान' । महाराज ! यह तो बिल्कुल ही विपरीत दशा हो गई, यूँ कहना चाहिए कि सारी दुनिया पूरब की ओर जा रही है, तो साधक पश्चिम की ओर जा रहे हैं, यह अपूर्व दिशा है अपूर्व अर्थात् अद्वितीय दिशा सारा का सारा संसार, जो जोड़ने में लगा है, क्या हम उसे सम्यग्दृष्टि कहें, नहीं ! भले ही हमें सारा संसार पागल कह दे, तो भी भीड़ की बात नहीं माननी है। वृद्धों की बात मानो, आयु में वृद्ध नहीं 80, 90, 100 वर्ष के हों दादा जी, परदादा जी, जो पर वस्तु को जोड़ने में लगे हैं, उनकी नहीं, यहाँ पर वृद्ध का तात्पर्य है दृष्टि जिसकी समीचीन है सही वह भी ऊपर-ऊपर से नहीं भीतर से भी । बन्धुओ जोड़ना ठीक नहीं छोड़ना ही ठीक है। मिट्टी में कुछ नहीं रखा। ऊँची आसन पर बैठकर, करे धर्म की गल्ला । औरों को माया बुरी बतावे, आप बिछावे पल्ला ॥
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अरे यह सब पर है, इसमें कुछ नहीं रखा, धर्म की बात मैं कह रहा हूँ, सुनो! यह सारे के सारे संसार के कारण हैं, राग के कारण हैं बन्ध के कारण हैं, दुर्गति देनेवाले ये पर हैं, स्वभाव अलग है, ये सब विभाव हैं, संसार है, राग करना अभिशाप है, छोड़ दो, छोड़ दो । कहाँ छोड़ दें? हम पल्ला बिछा देते हैं, इसके ऊपर छोड़ दो ( श्रोताओं में हँसी) । तो वह सोचेगा कि आप तो कह रहे थे यह रखने योग्य नहीं है और आप पल्ला बिछा रहे हो। ये तो समझ में नहीं आती। बात हमारे
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