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________________ प्रवचन चरण .... आचरण की ओर प. पू. आचार्य श्री विद्यासागर जी मोह तिमिरापहरणे दर्शन लाभादवाप्तसंज्ञानः। । निवृत्त्यै' रागद्वेष की निवृत्ति के लिए चारित्र की शरण रागद्वेषनिवृत्त्यै चरणं प्रतिपद्यते साधुः॥ लेता है। यदि यह उद्देश्य गौण हो गया तो चारित्र के रत्नकरण्ड श्रावकाचार | क्षेत्र में विकास नहीं, बल्कि सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र सन्दर्भ- रत्नकरण्ड श्रावकाचार में मंगलाचरण के | का विनाश और सम्भव हो जायेगा। रागद्वेष जीव के उपरांत पूज्य आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने प्रतिज्ञा की थी| लिए अभिशाप है। ये दृष्टि को, ज्ञान को, और आचरण कि मैं समीचीन धर्म का कथन करूँगा जो दर्शन ज्ञान को समाप्त कर देने वाले हैं। थोड़ी भी रागद्वेष की भूमिका चारित्रात्मक है। प्रथम अधिकार में सम्यग्दर्शन, द्वितीय | बनी तो सम्यग्दृष्टि ज्ञानी तथा अपना हित चाहनेवाला अधिकार में सम्यग्ज्ञान का वर्णन किया है। सम्यग्दर्शन, | उस पथ से दूर होने लगता है। जब रागद्वेष को मिटाने सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये तीनों मिलकर ही धर्म | का लक्ष्य बन जाता है तो चारित्र को लेना अनिवार्य संज्ञा को प्राप्त होते हैं और उस धर्म का जो सहारा | हो जाता है। रागद्वेष अपने आप मिट जायें यह सवाल लेता है, वह संसार से ऊपर उठ जाता है, संसार से | ही नहीं उठता। अपने आप कोई काम नहीं होता, कारण दूर हो जाता है, मुक्ति सुख का भाजन बन जाता है। के द्वारा कार्य होता है। बाधक कारण को हटाकर साधक वर्णन की अपेक्षा से तो सम्यक् चारित्र तीसरे नम्बर | कारण को प्राप्त करेंगे तो हमारी कामना पूर्ण होगी। रागद्वेष पर आता है, लेकिन उत्पत्ति की अपेक्षा से ऐसा नहीं से बचना चाहते हो तो चारित्र की शरण में चले जाओ समझना चाहिए। जिस प्रकार सम्यग्दर्शन व ज्ञान दोनों | और कोई भी भूमिका नहीं है। कोई छाँवदार वृक्ष नहीं एक साथ उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार सम्यक्चारित्र भी | है, जो हमारे रागद्वेष को मिटा सके। एकमात्र चारित्र के एक साथ उत्पन्न हो सकता है ऐसा धवला, जयधवला, | णस ही यह शक्ति है। महाधवला इत्यादि ग्रन्थों में वर्णन आया है। उनमें उल्लेख | रागद्वेष को मिटाने के लिए चारित्र की शरण कब आता है कि वह भव्य जब जिनवाणी का श्रवण अथवा | लेता है वह? 'मोहतिमिरापहरणे' मोहरूपी तिमिर/अंधकार गरुओं का सान्निध्य प्राप्त कर लेता है और वह डायरेक्ट | के दूर होने पर। दर्शन का लाभ हुआ है, तो समझो (साक्षात्) एक साथ सप्तम गुणस्थान को छू लेता है। दृष्टि प्राप्त हो गई, श्रद्धान हो गया कि सुख यदि मिलेगा मोह तिमिरापहरणे दर्शन लाभादवाप्तसंज्ञानः। तो आत्मा में मिलेगा, रत्नत्रय की प्राप्ति के माध्यम से रागद्वेषनिवृत्त्यै चरणं प्रतिपद्यते साधुः॥ | ही मिलेगा। रत्नत्रय को छोडकर अन्य किसी पदार्थ को (मोह) दर्शनमोहनीय, (तिमिरापहरणे) अंधकार के | मैं नहीं लूँगा, सुख का कारण केवल अपनी आत्मा है। अपहरण होने पर, (दर्शन) सम्यग्दर्शन, (अवाप्त संज्ञानः) | दष्टि के साथ ज्ञान भी सम्यक् हो गया अब राग-द्वेष उसके साथ ही सम्यक ज्ञान प्राप्त कर लेना (रागद्वैषनिवृत्य) को मिटाना है. चारित्र को धारण करना है। जिस व्यक्ति रागद्वेष की निवृत्ति के लिए (चरणं) चारित्र की ओर | को जिस पदार्थ के प्रति रुचि होती है, जब तक वह (प्रतिपद्यते) चला जाना चाहिए/बढ़ना चाहिए। (साधु) | मिल न जाये, तब तक रात दिन चैन नहीं पड़ती, क्योंकि सज्जन/भव्य पुरुष को, अर्थात् दर्शन मोहनीय के अन्धकार | जो उपलब्ध है वह अभीष्ट नहीं है और जो अनुपलब्ध के नष्ट होने पर जिसने सम्यग्दर्शन व उसके साथ ही है वह इष्ट है। दावत में षट् रस व्यंजन हों पर जिसे सम्यग्ज्ञान को प्राप्त कर लिया है, ऐसा वह भव्य सज्जन | नमकीन ही अच्छा लगता है उसके लिए बिना उसके पुरुष रागद्वेष की निवृत्ति के लिए चारित्र की शरण में | पंगत कैसी? उसे षट्रस पकवान इष्ट नहीं हैं, क्योंकि चला जाता है। उसमें मन नहीं है। जिस व्यक्ति को जो चीज अपेक्षित चारित्र की शरण किसलिए? है उसी में रुचि रहती है। जब तक वह प्राप्त न हो ____कोई भव्य जीव चरण/चारित्र की शरण ले लेता | छटपटाहट चलती रहती है। मखमल के भी गद्दे बिछे है। किसलिये लेता है? कोई कार्य करे तो उसका प्रयोजन | हों, किन्तु जिसे सुबह मुनि दीक्षा के लिए जाना है, भी होना अनिवार्य है। यहाँ क्या प्रयोजन है? 'रागद्वेष- | तो उसे वहाँ पर भी नींद नहीं आती, मखमल के गद्दों फरवरी 2008 जिनभाषित 5 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524325
Book TitleJinabhashita 2008 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2008
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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