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________________ श्री पाहिल्ल श्रेष्ठी पं० कुन्दनलाल जैन कुछ वर्ष पूर्व खजुराहो में एक संगोष्ठी में सम्मिलित । साल्हे के पुत्र महागण, महीचन्द्र, श्रीचन्द्र, जितचन्द्र और होने का अवसर प्राप्त हुआ। वहाँ जिननाथ (आदिनाथ ) उदयचन्द्र आदि थे। श्रेष्ठी पाहिल्ल के पुत्र साहू साल्हे मन्दिर में उसके निर्माता उदार हृदय पाहिल्ल श्रेष्ठी (९५४ ने माघ सुदी ५ सं. १२१५ (ई. सन् १९५८) को खजुराहो ई.) का महती विनम्रता से भरा शिलालेख पढ़ने को में भगवान् संभवनाथ की प्रतिमा प्रतिष्ठित कराई थी। मिला, तो हृदय भर आया । इस लेख में श्रेष्ठी महोदय इस प्रतिमा के मूर्तिकार का नाम रामदेव था । यह प्रतिमा ने स्वयं को 'दासानुदास' विशेषण से संबोधित किया श्यामवर्ण पाषाण की विशाल मनोज्ञ मूर्ति है। इस मूर्ति है। का वजन लगभग चार-पाँच क्विंटल से अधिक होगा। पाहिल्ल श्रेष्ठी संबंधी प्रस्तुत शिलालेख जिननाथ मन्दिर के प्रवेशद्वार की बाईं चौखट में गहरी छेनी से उकेरा गया है जो आज ग्यारह सौ वर्ष बाद भी स्पष्ट पढ़ने में आता है। उस शिलालेख से स्पष्ट ज्ञात होता है कि भव्य पाहिल्ल श्रेष्ठी ने खर्जुरवाहक (खजुराहो) में तत्कालीन द्वितीय चन्देल नरेश धंगराज (जो महाराज यशोवर्मन प्रथम के बाद चंदेला राज्य के उत्तराधिकारी बने) के समय में इस जिननाथ मन्दिर का निर्माण कराया था तथा इसकी सुरक्षा, पूजा-पाठ, आरती आदि पुनीत कार्यों के लिए सात वाटिकाएँ-बगीचे दान में दिए थे, जिससे जिननाथ मन्दिर के सुसंचालन में किसी तरह की बाधा न आवे, साथ ही विनम्र निवेदन किया कि मेरे तथा मेरे वंश के नष्ट हो जाने के बाद जो भी भव्यपुरुष इस मंदिर की देखभाल तथा साज - सँभार कर इसकी सुरक्षा करता रहेगा, उसका यह पाहिल्ल श्रेष्ठी युगों-युगों तक दासों का दास बना रहेगा। कितनी उदार और विनम्र भावना है पाहिल्ल श्रेष्ठी की, कि स्वनिर्मित जिन मन्दिर की सुरक्षा करनेवालों के प्रति वे इतनी अधिक कृतज्ञता और विनम्रता प्रकट करते हैं। इसी शिलालेख के साथ ३४ के जोड़वाला यंत्र भी उत्कीर्ण है । यह नौ घरोंवाला है जो संभवतः नवकार मंत्र का प्रतीक हो, इसमें अंकित अंकों को किसी भी तरफ से जोड़ों, सबका जोड़ ३४ ही आयेगा। संभव यह ३४ की संख्या अरहंत के ३४ अतिशयों की द्योतक I धन कुबेर पाहिल्ल श्रेष्ठी गृहपति ( गहोई ) वंश में उत्पन्न हुए थे। बुन्देलखण्ड के धन कुबेर पाड़ासाह भी गृहपति वंशान्वयी थे। पाहिल्ल श्रेष्ठी के पिता का नाम देदू था और पुत्र का नाम साहू साल्हे था । साहू Jain Education International इस मूर्ति-लेख में वर्णित पाहिल्ल श्रेष्ठी तथा जिननाथ मन्दिर के निर्माणकर्त्ता पाहिल्ल श्रेष्ठी में लगभग दो सौ वर्षों का अन्तर दिखाई देता है। इससे यह अनुमान किया जाता है कि इस मूर्ति की प्रतिष्ठापना के समय पाहिल्ल श्रेष्ठी दिवगंत हो गये होंगे, उनके पुत्र साहू साल्हे तथा पौत्रों ने अपने पिता व दादा की पुण्य स्मृति को चिरकाल तक जीवित रखने के लिए उनका नाम इस मूर्ति के पाद- पीठ में अंकित करा दिया होगा। इस समय चन्देल वंश उन्नति और समृद्धि के चरम शिखर पर था, इनमें से कई राजा तो जैनधर्म के प्रति बड़े उदार और अनुरागी थे। उनके शासनकाल में जैनधर्म को खूब फलने-फूलने का अवसर मिला । यहाँ हम उन चन्देल राजाओं का संक्षिप्त-सा विवरण दे देना अनुचित नहीं समझते, जिनके राज्य में जैनधर्म को प्रश्रय और संरक्षण मिला, जिससे जैनधर्म के साथसाथ जैनशिल्प, जैनसाहित्य और जैनकला पल्लवित एवं पुष्पित हुई और उन्नति एवं अभिवृद्धि के चरम शिखर पर पहुँची। बुन्देलखण्ड में चन्देल वंश की नींव सर्वप्रथम नन्नुक चन्देला ( नवमी सदी) ने स्थापित की, जिसने कल्याणकटकपुर (कालिंजर) में किले का निर्माण कराया था। यह नन्नुक चंदेला गोल्लदेश का निवासी था । जब गोल्लदेशाधिप पड़ौसी राज्य से पराजित हो गोल्लाचार्य बन गये तो नन्नुक गोल्लदेश से भागकर कालिंजर का प्रथम चन्देल राजा बना। इसने गोल्लदेश निवासी गोलालारों, गोलापूर्वी एवं गोल्लभृंगों को आश्रय दिया और अपने राज्य में बसाया? ये लोग जैन धर्मानुयायी थे। इनके लिए गोल्लपुर विशेष रूप से बसाया गया जो महोबा के पास था । लखनऊ म्यूजियम के मूर्ति-लेखों में यह तथ्य उपलब्ध है । For Private & Personal Use Only फरवरी 2008 जिनभाषित 25 www.jainelibrary.org
SR No.524325
Book TitleJinabhashita 2008 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2008
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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