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________________ इसी चन्देलवंश में यशोवर्मन प्रथम नामक प्रतापी । मिलता है। मदनवर्मदेव के बाद उसका पुत्र यशोवर्म राजा हुआ। यह बड़ा न्यायप्रिय राजा था। इसने अपने | द्वितीय हुआ, जो अपने पिता के सामने ही दिवंगत हो महल के मुख्य द्वार पर न्याय-घंटिका लगवा रखी थी, गया था। अतः मदनवर्मदेव के पश्चात् चन्देलवंश का जिसे कोई भी दुखियारा बजाकर न्याय की माँग कर | उत्तराधिकारी परमर्दिदेव हुआ। मदनवर्मदेव के समय में सकता था- "कल्याणकटके पुरे यशोवर्मनृपतिस्तेन | ही 'अहार' में, जिसे 'मदनेस सागरपुर' कहा जाता था, धवलगृहद्वारे न्यायघण्टा बद्धा।" लगता है इस घटना से | तीर्थंकर शान्तिनाथ की प्रसिद्ध ऐतिहासिक प्रतिमा पाड़ासाह प्रभावित हो आगे चलकर बादशाह जहाँगीर ने भी इस | के वंशजों ने प्रतिष्ठित कराई थी। मदनवर्मदेव ने अपना प्रथा को कायम रखा। इसी यशोवर्मन प्रथम के पुत्र धंगराज | राज्य मालवा तक फैला दिया था। इसलिए परमर्दिदेव ने चन्देल राज्य की सीमाओं को बढ़ाकर अपनी कीर्ति | 'दशार्णाधिपति' की उपाधि से सुशोभित हैं। विस्तृत और चिरस्थायी बनाई थी। इसी के राज्य में हमारे महोबा से प्राप्त सं. १२२४ की जैनमूर्ति में परमर्दिदेव इस लेख के नायक पाहिल्ल श्रेष्ठी ने खजराहो में जिननाथ-को प्रवर्द्धमानकल्याणविजयराज्ये' से सम्बोधित किया गया मंदिर बनवाया था तथा इसी राजा के नाम पर विकसित है। अहार से प्राप्त एक जैनमुर्ति सं. १२३७ में भी राजा और निर्मित धंग वाटिका अन्य छः वाटिकाओं के साथ | परमर्दिदेव का उल्लेख है। परमर्दिदेव के बाद चंदेलवंश स्वनिर्मित जिननाथमंदिर के लिए दान में दी थी। का उत्तराधिकारी त्रैलोक्यवर्मन हआ जिसने छत्तीस वर्ष धंगराज के बाद उसका पुत्र गंडराज और फिर | राज्य किया था। पर जैनधर्म-संबंधी किसी कार्य का उसका पुत्र विद्याधर चन्देलवंश का उत्तराधिकारी हुआ। उल्लेख इतिहास में नहीं मिलता है। त्रैलोक्यवर्मन के विद्याधर का उल्लेख दूबकुण्ड (ग्वालियर) के विशाल बाद चंदेलवंश का अन्तिम राजा वीरवर्मदेव हुआ जिसका शिलालेख में है, जो एक जैनमन्दिर के निर्माण के समय उल्लेख अजयगढ़ (पन्ना) के तीर्थंकर शान्तिनाथ के महाराज विक्रमसिंह के राज्यकाल में लिखा गया था। मंदिर में है, जिसकी नींव आचार्य कुमुद्रचन्द्र ने सं. विद्याधर के बाद इस राज्य का उत्तराधिकारी विजयपाल १३३१ में रखी थी। अजयगढ में श्रेष्ठी सोढल द्वारा हुआ और उसके बाद कीर्तिवर्मा, जिसने सं. ११५४ के प्रतिष्ठित सं. १३३५ में तीर्थंकर शान्तिनाथ की प्रतिमा लगभग लुअच्छगिरि नाम से प्रसिद्धि प्राप्त देवगढ़ का | के पादपीठ में भी महाराज वीरवर्मदेव का नामोल्लेख नाम कीर्तिनगर रखा था और यहाँ जैनशिल्प का विकास | है। इस तरह चंदेलवंश के लगभग चार सौ वर्षों के कराकर इसे जैनशिल्प का प्रसिद्ध केन्द्र बना दिया था। | शासन में दस राजा हुए, जिनके प्रश्रय और संरक्षण से कीर्तिवर्मा की एक पीढ़ी के बाद चन्देलवंश का | जैनधर्म को बुन्देलखण्ड में खूब फलने-फूलने का अवसर उत्तराधिकारी मदनवर्मन हुआ जो बड़ा प्रतापी और उत्कृष्ट | प्राप्त था। शासक था। इसके राज्यकाल में जैनधर्म की बड़ी प्रगति अन्त में हम चन्देलों के धन-कुबेर पाहिल्ल श्रेष्ठी हई। पपौरा में स्थित मर्ति-लेखों से इसकी जैनधर्मप्रियता का पुण्य स्मरण करते हए उनकी उदार एवं विनम्र मिलता है। खजुराहो-स्थित मूर्तियों में भी | सदवृत्ति का गुणानुवाद करते हैं और शत-शत नमन इस राजा का उल्लेख है, जो श्रेष्ठी पणिधर ने निर्मित | करते हैं, जिसे हजार वर्ष बाद भी नहीं भूल सके हैं, कराई थीं। भावी-पीढ़ी भी उनका आदर करती रहेगी। कोक्कल के शिलालेख में भी इन (मदनवर्मदेवस्य श्री कुन्दनलाल जैन-कृत प्रवर्द्धमान विजयराज्य) का उल्लेख मिलता है। महोबा 'जैन इतिहास के प्रेरक व्यक्तित्व भाग १' से प्राप्त मूर्तियों में भी महाराज मदनवर्मदेव का नामोल्लेख से साभार दानं भोगो नाशस्तिस्त्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य। यो न ददाति न भुङ्क्ते तस्य तृतीया गतिर्भवति॥ धन की तीन गतियाँ होती हैं- दान, भोग और नाश। जो न दान करता है, न भोग उसके धन की तीसरी गति होती है। 26 फरवरी 2008 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524325
Book TitleJinabhashita 2008 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2008
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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