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________________ फिर क्यों उसके प्रति सम्बन्ध रखना, क्योंकि पर पदार्थ | था। सम्यग्दर्शन का अर्थ ही यही है कि इस प्रकार का से सम्बन्ध रखना दुःख विकल्प का कारण है। । मजबूत श्रद्धान बनाना कि पर पदार्थ मेरे नहीं हैं। हेय इस सभा में अभी कोई आकर आवाज दे- सीताराम | का विमोचन और उपादेय का ग्रहण, इसमें जो सहायक जी! मान लो सभा में चार सीताराम हैं। आवाज होते बनता है वही सम्यग्ज्ञान है और इन्द्रियों के विषयों से ही चारों के कान सतर्क हो जाते हैं, देखते हैं कौन है? | उपेक्षा होना ही ज्ञान का वास्तविक फल है, जिसे चारित्र किसने आवाज दी? और जैसे ही देखा अमुक व्यक्ति | कहते हैं। ज्ञान होने के उपरान्त भी उसका विषयों की ने आवाज दी, ओह मुनीम जी! तो तीन सीताराम जी ओर धावमान होना बह जाना, वह ज्ञान, ज्ञान नहीं है। की आकुलता समाप्त हो जाती है। क्यों? क्योंकि उनका | बस समझ लो- 'ओरों को तो माया बुरी बतावे आप उन मुनीम जी से कोई सम्बन्ध नहीं है। और जिन सीताराम | बिछावे पल्ला'। दूसरे के लिये जो बुरी है वह तुम्हारे जी के मुनीम जी हैं उन सीताराम जी को आकुलता | लिये भी तो बुरी है, लेकिन वास्तविकता तो यह है कि परेशानी होती है वह खिसकने लगते हैं। उठ जायें कि अपनी दृष्टि में बुरी लग नहीं रही है, बस कहता जा नहीं, शास्त्र तो समाप्त हुआ नहीं। मुनीम जी का चेहरा रहा है। पंचेन्द्रियों के विषय जब तक जीवन में रुचिकर कैसा है, हँस रहे हैं या विषाद/चिन्ता युक्त हैं। पता नहीं । अच्छे लग रहे हैं तब तक सम्यग्ज्ञान नहीं है। संसार क्या हो गया। लगता है बॉम्बे में सौदा हुआ था उसमें | शरीर भोगों से जब तक उदासीनता नहीं आयेगी, तब गड़बड़ दिखती है। ये सब क्यों? क्योंकि सम्बन्ध है। तक समझो अभी बात बनी नहीं। संसार की ओर मुड़ना जिस सीताराम जी का मुनीम जी से सम्बन्ध है, उनके | और संसार से मुड़ना बहुत अन्तर है इसमें। मन में उथल-पुथल है, बाकी के तीन बिल्कुल शांत | दर्शन मोहनीय की सत्ता/क्षय को जानना हमारे वश वीतरागी/निर्विकल्प समाधि जैसे बैठे हैं।' की बात नहीं प्रत्येक व्यक्ति का सम्बन्ध किसी बाहरी पदार्थ अब दूसरी बात यहाँ पर है। दर्शनमोह व चारित्रसे जुड़ा है। उस पदार्थ के संयोग में, वियोग में, उसके | मोह क्या है? उसे हम आगम से जान रहे हैं। हमें उसका बारे में कुछ वार्ता सुनते हैं, तो नियम से कुछ हर्ष-क्षयोपशम हुआ कि नहीं, उसका ज्ञान इस अवस्था में विषाद होता है और इस हर्ष-विषाद को ही राग-द्वेष | 'न भूतो न भविष्यति'। आगम यह कहता है कि दर्शनकहते हैं। इस राग-द्वेष और हर्ष-विषाद की प्रणाली को | मोहनीय व चारित्रमोहनीय वह कर्म है, जिसको हम इन यदि मिटाना है, तो पदार्थों से सम्बन्ध को तोडना होगा। आँखों से नहीं देख सकते. हाथों से टटोल कर छ नहीं व्यक्ति सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान प्राप्त करने के उपरान्त सकते, उसके पास कोई गंध नहीं, जो अपनी नासिका जितना-जितना बाहरी पदार्थों से सम्बन्ध तोड़ता है, उतना | ग्रहण कर ले। छद्मस्थ के लिये, हमारे जैसे जो मंदबुद्धिही उतना वह अपने निकट पहुँचता चला जाता है और | वाले हैं क्षायोपशमिक ज्ञान के साथ चलनेवाले उनके लिए एक समय आता है, जब वह आकिंचन्य रह जाता है, वह अमूर्त जैसे हैं। माईक्रोस्कोप में भी दिखनेवाले नहीं, किसी पदार्थ से सम्बन्ध नहीं रखता वह। कितना | फिर हम कैसे जानें कि हम पुरुषार्थशील होगा वह, उसकी दृष्टि, उसका ज्ञान, उसकी / उपशम/क्षयोपशम हुआ कि नहीं हुआ? कोई कहे कि वृत्ति कितनी निर्मल होगी, कितना साहसी है वह! दुनिया जब तक कर्म का उपशमादि नहीं होगा तब तक चारित्र किसी प्रकार सहारा लेने का प्रयास कर रही है, लेकिन | लेना बेकार है, क्योंकि उसमें समीचीनता तभी आ सकती वह निराधार, एक मात्र अपनी ही आत्मा का सहारा लेता है जब दर्शनमोहनीय का क्षय/उपशम/क्षयोपशम हुआ है। जो कुछ कर्म के अनुसार मिलेगा वह ही मेरे लिए | हो। इसका ज्ञान हो तो चारित्र लें, क्योंकि मिथ्याचारित्र मान्य है और कुछ नहीं। यह मानना साहस का काम तो हम अंगीकार कर नहीं सकेंगे, महाराज! अरे भाई है। राग-द्वेष को मिटाने का रास्ता है, तो बस यही एक | सम्यक्चारित्र कब धारण करोगे? सम्यक्दर्शन की पहचान रास्ता है। अन्धकार मिट गया। सूर्य का प्रकाश आता | आ जाये तब। सम्यक्चारित्र पहिचान में तभी आ सकेगा है, पदार्थ अपने आप प्रकाशित हो जाते हैं। अभी तक | जब दर्शनमोहनीय की आपको पहिचान हो। वह होती अन्धकार में हाथ मार रहे थे जहाँ-तहाँ गिर रहे थे। ज्ञानरूपी | नहीं तो बड़ी उलझन है। आचार्य कहते हैं उलझन तो प्रकाश आ गया। अपना कौन? पराया कौन? सारा का | तुम्हारी है। यह उलझन की बात ही नहीं, रुचि की बात सारा देखने में आ गया। वह पदार्थ वह रास्ता मेरा नहीं | है। दर्शनमोहनीय के क्षय/उपशम/क्षयोपशम के जानने 8 फरवरी 2008 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524325
Book TitleJinabhashita 2008 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2008
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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