Book Title: Jinabhashita 2002 12
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनभाषित वीर निर्वाण सं. 2529 TEEO तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ भगवान् चारणाद्रि पहाड़-मंदिर एलोरा (महाराष्ट्र) मार्गशीर्ष वि.सं. 2059 दिसम्बर 2002 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रजि.नं. UP/HIN/29933/24/1/2001-TC डाक पंजीयन क्र.-म.प्र./भोपाल/588/2002 दिसम्बर 2002 जिनभाषित मासिक वर्ष 1, अङ्क 11 । सम्पादक प्रो. रतनचन्द्र जैन अन्तस्तत्त्व - आपके पत्र: धन्यवाद कार्यालय 137. आराधना नगर. भोपाल-462003 (म.प्र.) फोन नं. 0755-776666 . सम्पादकीय : भोजपुर में सन्त और वसन्त प्रवचन : शास्त्राराधना : आचार्य श्री विद्यासागर जी 4 . लेख सहयोगी सम्पादक .. पं. मूलचन्द्र लुहाड़िया पं. रतनलाल बैनाड़ा 'डॉ. शीतलचन्द्र जैन डॉ. श्रेयांस कुमार जैन प्रो. वृषभ प्रसाद जैन । डॉ. सुरेन्द्र जैन 'भारती' • मल्लेखना : मुनि श्री प्रमाण सागर जी6 .नौकरों से पूजन कराना : पं. जुगल किशोर जी मुख्तार 9 . • इसे भक्ति कहें या नियोग : पं. मिलापचन्द्र जी कटारिया 11 शिरोमणि संरक्षक श्री रतनलाल कँवरीलाल पाटनी (मे. आर.के.मार्बल्स लि.) किशनगढ़ (राज.) श्री गणेश राणा, जयपुर • स्वाभिमानी मैना सुन्दरी डॉ. नीलम जैन 12 .डिब्बाबन्द खाद्य अभक्ष्य : डॉ. श्रीमती ज्योति जैन द्रव्य-औदार्य श्री गणेशप्रसाद राणा जयपुर .मधुरवचन अनमोल : सुशीला पाटनी • प्रकृति के समीप लौट चलें : डॉ. वन्दना जैन .आप खानपान में कितने सावधान? : प्रो. डॉ. के.जे.अजाबिया 19 प्रकाशक सर्वोदय जैन विद्यापीठ 1/205. प्रोफेसर्स कॉलोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) फोन : 0562-351428, 352278 .शाकाहार की बहार : 'जिनेन्दु' से साभार 23 . जिज्ञासा-समाधान : पं. रतनलाल बैनाड़ा 24 .बालवार्ता: हथेली पर बाल क्यों नहीं : डॉ. सुरेन्द्र कुमार जैन 'भारती' 15 सदस्यता शुल्क शिरोमणि संरक्षक 5,00,000 रु. परम संरक्षक 51,000 रु. संरक्षक 5,000 रु. आजीवन 500 रु. वार्षिक 100 रु. एक प्रति 10 रु. सदस्यता शुल्क प्रकाशक को भेजें। .ग्रन्थ समीक्षा 3.13 .समाचार 2, 26, 27-32 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपके पत्र, धन्यवाद : सुझाव शिरोधार्य सितम्बर माह का जिनभाषित का अंक पढ़ा। आपकी । के माध्यम से हर महीने अवगत होते रहते हैं। यह पत्रिका अभी पत्रिका नियमित समय पर प्राप्त हो रही है । सम्पादकीय में 'उच्चतम | तक तो अपनी सर्वोच्चता सिद्ध करती रही है, आगे भी इसका न्यायालय का सराहनीय निर्णय' पढकर बहत अच्छा लगा। मैं | भविष्य ऐसा ही रहे, यह हम सभी की प्रार्थना उपर वाले से है। छत्तीसगढ़ प्रांत के आदिवासी अंचल सरगुजा में रहती हूँ यहाँ आप सबों की मेहनत से पत्रिका और भी निखरेगी तथा जैन जैनों की संख्या बहुत कम है फिर भी सामाजिक, साहित्यिक | विचारकों को दिशा निर्देश देगी, मेरी यह पूर्ण धारणा और सदिच्छा संस्थाओं में एवं कार्यक्रमों में जाने के मौके मिलते रहते हैं। वहाँ | डॉ. विनोद कुमार तिवारी, कभी-कभी धर्म के विषय में चर्चा छिड़ जाती है. तो लोग जैनधर्म रीडर व अध्यक्ष, इतिहास विभाग, के विषय में अज्ञानतापूर्ण बातें करने लगते हैं। यदि हमारे जैन बंधु यू.आर.कॉलेज, रोसड़ा (बिहार) ऐसा प्रयास करें कि हर कक्षा की हिन्दी पाठ्यपुस्तक में जैन "जिनभाषित"मासिक पत्रिका का अक्टूबर-नवम्बर 2002 संस्कृति का एक पाठ व तीर्थंकरों से संबंधित जानकारी दे सकें तो | का संयुक्तांक मिला। अनुगृहीत हूँ। पत्रिका का मुख-पृष्ठ सहज तरीके से सही जानकारी लोगों तक प्रेषित हो सकेगी। (आवरण)व अन्तिम पृष्ठ दोनों ही सामयिक और सुदर्शनीय हैं। आप अपनी पत्रिका में बहुत ही अच्छे लेखों का संकलन प्रात: वन्द्य आचार्य श्री विद्यासागर जी की “गुरु महिमा" देशना कर पाठकों तक पहुँचाते हैं। में मानव-जीवन में सदगुरु का महत्त्व अपरिहार्य है। मुनिश्री पंडित मूलचंद लुहाड़िया का लेख "और मौत हार गई" | विशुद्धसागरजी का 'श्रमण संस्कृति में सल्लेखना', पं. जुगल हृदय को छू लेने वाली सत्य घटना है जो आत्मबल के साथ-साथ किशोर जी मुख्तार का 'उपवास', सुश्री सुशीला पाटनी का 'जैसा प्रेरणा भी देती है। हर स्तर व हर पीढ़ी के लोगों को आपकी | करोगे वैसा भरोगे' लेख पठनीय हैं। परन्तु भर्त्सना-प्रस्ताव, भगवान पत्रिका रुचिकर लगती है। आपको बहुत-बहुत बधाई। महावीर की जन्मभूमि विषयक विवादास्पद लेखद्वय जिनभापित इन पंक्तियों के साथ पत्रिका के योग्य नहीं हैं। आपसे अनुरोध है कि कृपया जिनभापित जिनभाषित के कुछ लेख चिंतन, को "जिनभाषित" ही रहने दें। इसे विवादग्रस्त पत्रिका न बनायें। करने करते विवश, ऐसे विवादों के लिये अन्य पत्रिकायें ही बहुत हैं। इसमें तो कुछ देने आत्मबल की प्रेरणा "जिनभाषित" लेख ही प्रकाशित हों। खोजने से मिलती नहीं, डॉ. प्रेमचन्द्र रावका वह जानकारी देती है पत्रिका। पूर्व प्रोफेसर व प्राचार्य, राजकीय संस्कृत कॉलेज, जयपुर-बीकानेर सम्पादकीय हर बार नये रूप में, 'जिनभाषित' सितम्बर 2002 अंक मिला, अगस्त अंक पाठकों की पढ़ने की बढ़ा देती है लालसा। की प्रतीक्षा में हूँ। सम्पादकीय-उच्चतम न्यायालय का सराहनीय श्रीमती उषा फुसकेले 'किरण' सम्भागीय अध्यक्ष निर्णय दिशा बोधक है। धार्मिक शिक्षा सरकारी सहायता प्राप्त अ.भा. दिग. जैन महिला परिषद् स्कूलों और अल्पसंख्यकों द्वारा संचालित शिक्षा संस्थाओं में भी छत्तीसगढ़, अम्बिकापुर (सरगुजा) लागू की जा सकती है इस निर्देश/निर्णय के अनुसार समाज को "जिनभाषित" का सितम्बर 2002 अंक आज ही प्राप्त शिक्षण संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा देना प्रारम्भ करना चाहिये। जैन हुआ और इसे एक ही बैठक में पढ़कर अभी-अभी समाप्त किया है। पिछले अंकों की तरह ही यह अंक अपनी मनमोहक साज धर्म भाव एवं स्वाध्याय (शिक्षा) प्रधान है। पूज्य वर्णीजी ने इस सज्जा के साथ कई विशिष्ट लेख-कविताएँ लिए हुए है। आपने उद्देश्य हेतु जीवन समर्पित कर दिया, इससे सभी परिचित है। उच्चतम न्यायालय के निर्णय को सराह कर वैसे लोगों का उत्साह वर्तमान में इस ओर किसी का भी ध्यान नहीं है। पाठशालाएँ बंद बढ़ाया है जो स्कूली पुस्तकों में इतिहास की घटनाओं को सही है। शिक्षण संस्थाओं की स्थिति दयनीय है। जड़निर्माण में समाज रूप में पाना चाहते हैं। डॉ. वन्दना जैन की कविता तो दो बार का धन लग रहा है, जो अति चिंता का विषय है। सम्पादकीय में दुहरा कर ही मुझे याद हो गई। उन्हें विशेष धन्यवाद। आचार्यश्री आपने इसे रेखांकित किया है। विश्वास है कि समाज के विद्यासागर जी महाराज के विचारों को हर जैन-अजैन को स्वीकार श्रमण/श्रावक इस ओर ध्यान देंगे, अपने साधन धार्मिक शिक्षा के करना चाहिए। मुनि श्री समतासागर जी ने पर्युषण पर नई दृष्टि | प्रचार-प्रसार में लगा देंगे, सदभावना पूर्वक। डाली है, जबकि कुमारी समता जैन ने युवाओं के कर्त्तव्यों को पू. आचार्य श्री शांति सागर जी महाराज का आलेख हृदय समझाया है। जैन जगत के समाचारों से भी हम सभी इस पत्रिका | स्पर्शी है। पहले उत्कृष्ट श्रावक के व्रत अंगीकार करो' दिशाबोधक -दिसम्बर 2002 जिनभाषित । Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर समस्या का समाधान है जिनभाषित। संयमित कृति का प्रमाण है जिनभाषित। आगमप्रमाणित होता है जिनभाषित। स्वयं अनुशासित है जिनभाषित। डॉ. सुरेश के. गोसावी __ मेडीकल आफीसर औरंगाबाद ( महाराष्ट्र) एवं मान्य परम्परा सूचक है। श्री शांतिसागर जी सभी के थे किसी वर्ग/क्षेत्र विशेष में नहीं सिमटे-जुड़े। उन्हें सादरनमन । बूढ़ी गाय की आत्मकथा अंदर बोल रही है। यह आपकी अनंत करुणा का सूचक है। जीवन रूपांतरण के अध्यात्म आलेख मार्ग दर्शक हैं। सभी को अमिवादन राजेन्द्र कुमार बंसल, अमलाई बहुत दिनों से जिनभाषित पर लिखने की इच्छा थी, सो आज प्रत्यक्ष रूप से उतर आई। मुखपृष्ठ ही इतना भा गया कि हम भावों को न रोक पाये और लिख दिया अपने टूट-फूटे शब्दों में। हमने हर अंक के मुख पृष्ठ को अच्छी तरह निहारा है. सराहा है, चिन्तन किया है। सभी हमें अच्छे लगे। एक सुझाव हम आपके सामने रखते हैं। हर अंक में मुख पृष्ठ पर एक सिद्धक्षेत्र का चित्र प्रकाशित करें तो अच्छा होगा। जैसे एक स्त्री को माँ बनने पर खुशी होती है, एक कवि को अपनी कविता की सराहना होने पर खुशी होती है, एक लेखक को अपनी कृति के प्रकाशित होने पर होती है वैसे ही हमें "जिनभाषित" आने पर होती है। आज तक जितने भी जिनभाषित प्रकाशित हुए हैं. उन्हें यदि 'वर्तमानयोग' कहा जाय तो किसी भी स्वाध्यायी को आपत्ति नहीं होगी। 'जिनभाषित' इतना अच्छा निकलता है कि हर उलझन को सुलझाता है जिनभाषित। |श्री वर्णी जैन प्रशान्तमति पाठशाला का शुभारंभ दमोह / सन्त शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी का 56वाँ जन्म दिवस "शरद पूर्णिमा" को श्री पार्श्वनाथ जैन मंदिर, नेमीनगर दमोह के भव्य सुसज्जित हॉल में विविध आयोजनों के साथ मनाया गया। इस शुभ प्रसंग पर आचार्य श्री की प्रथम शिष्या आर्यिकारत्न प्रशान्तमति माता जी की प्रेरणा से संकल्पित 'श्री वर्णी जैन प्रशान्तमति पाठशाला' का विधिवत् शुभारंभ पृज्य वर्णी जी महाराज के शिष्य प्रोफेसर (डॉ.) भागचंद | जैन 'भागेन्दु' की अध्यक्षता में प्रतिष्ठाचार्य पं. अमृतलाल जी |शास्त्री के मुख्य आतिथ्य में सम्पन्न हुआ। सुरेन्द्र कुमार जैन, को. बैंक जैनधर्म अल्पसंख्यक : उच्च न्यायालय औरंगाबाद (महाराष्ट्र) : जैनधर्म को अल्पसंख्यक का | पारसी को अल्पसंख्यक माना जाता है। संविधान की धारा | दर्जा देने की एक याचिका की सुनवाई के अंतर्गत 10 अक्तूबर | 30(1) में धर्म पर आधारित इस तत्त्व के अनुसार ये कानून को औरंगाबाद खंडपीठ के न्यायाधीश एस.बी. म्हसे तथा बनाया गया है। इसके विपरीत विवाह, जन्म, दत्तक, पालन न्यायाधीश डी.एस. झोटिंग में जैनधर्म को संविधान की धारा 30 पोषण आदि से सम्बन्धित कानून का समावेश हिन्दु धर्म में है। के अंतर्गत अल्पसंख्यक समझा जाता है ऐसा निर्णय दिया। साथ ही, केन्द्र प्रशासन ने राष्ट्रीय अल्पसंख्यकों से संबंधित श्री अमोलकचंद विद्याप्रसारक मंडल कडा (बीड) कमीशन एक्ट (1992) की धारा 2 के अन्र्तगत अध्यादेश के संचालित श्रीमती शंताबाई कांतिलाल गांधी कला. धनराजजी द्वारा मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद व पारसी धर्मियों को गांधी भगिनी शास्त्र, पन्नालाल, हीरालाल गांधी वाणिज्य अल्पसंख्यक माना है। महाविद्यालय को 'अल्पसंख्यक दर्जा प्रमाणपत्र' देने से इन्कार न्याय॒र्ति झोटिंग व न्या. म्हसे द्वारा अपने निर्णय में इस के निर्णय के विरुद्ध उक्त संस्था की ओर से एडवोकेट सतीश कानून व संविधान की धारा 30 में धर्म व भाषा पर आधारित तलेकर के द्वारा यह याचिका दाखिल की गयी। अल्पसंख्यकों को शैक्षणिक संख्यायें स्थापित व संचालित करने महाराष्ट्र सरकार की ओर से शपथपत्र दाखिल किया । के दिये गये अधिकार के अन्तर्निहित उद्देश्य, धारा 30 पर दिये | गया था कि जैन धर्म हिंदू धर्म का भाग होने के कारण स्वतंत्र | गये मूलभूल अधिकारों को सीमित नहीं करता। फलस्वरूप, नहीं समझा जाता। धारा 30 को ध्यान में रखते हुए कमीशन एक्ट (1992) का राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग की रिपोर्ट के अनुसार कानुन माना नहीं जायेगा. ऐसा प्रतिपादन एडवोकेट सतीश भारत में कल पाँच धर्मों सिख, मुस्लिम, क्रिश्चियन, बौद्ध तथा । तलकर न किया। जिनवर'30. अक्टूबर, 2002 से साभार 2 दिसम्बर 2002 जिनभाषित Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय भोजपुर में सन्त और वसन्त आखिर भोजपुर (भोपाल म. प्र. ) में सन्त ने वसन्त का संचार कर दिया। वहाँ की पावन धरती, आस-पास की जनता और कभी टैक्सी चलाते हुए, तीर्थ के जीर्णोद्धार एवं विकास की आकांक्षा सँजोए, एक-एक रुपया दान में माँगते हुए बाबा लालचन्द्र जी चिरकाल से प्रतीक्षा कर रहे थे उन विश्वप्रसिद्ध, अद्वितीय दिगम्बर जैन मुनि आचार्य विद्यासागर जी की, जिनके चरण पड़ते ही बीरान नन्दन बन जाता है और रेगिस्तान मधुवन । ग्रीष्मकाल में तो आचार्य भगवन्त ने भोजपुर में कुछ ही घंटे बिताये थे, किन्तु भोजपुर की पावनता और रमणीयता उनके मन में बस गयी थी। इसलिए चातुर्मास सम्पन्न कर नेमावर से लौटते हुए उन्होंने यहाँ कुछ समय व्यतीत करने का मन बना लिया है। षट्खण्डागम की सोलहवीं पुस्तक की वाचना आरम्भ हो गई है। अब भोजपुर के भाग्य जाग उठे हैं। उसके एक सर्वसुविधासम्पन्न सुरम्य तीर्थ बन जाने के दिन आ गये हैं। राजधानी के निकट होने से उसके एक भव्य जैनविद्यापीठ एवं शोध संस्थान के रूप में विकसित होने की प्रचुर सम्भावनाएँ हैं। भोजपुर की धरती पर अपने परमप्रिय, परमश्रद्धेय और परमपूज्य गुरुवर आचार्य श्री विद्यासागर जी एवं उनके मुनिसंघ को पाकर हमारा रोम-रोम आह्लादित है। उनके चरणों में शत-शत नमन । रतनचन्द्र जैन ग्रन्थ समीक्षा जीवनोपयोगी संग्रहणीय कृति ' समीक्ष्य कृति पर्युषण के दश दिन (प्रवचन / आलेखों का संग्रह ) लेखक - मुनि श्री समता सागरजी सम्पादन ब्र. प्रदीप शास्त्री 'पीयूष' आलेखन कु. रूपाली जैन, कु. संगीता जैन ललितपुर प्रकाशन प्राञ्जल प्रकाशन, सागर लागत मूल्य- 21/पू. सं. 180, आकार 14 x 22 से.मी. दशलक्षण धर्मों से सम्बन्धित सरल, सुबोध, रोचक सामग्री के साथ यह कृति विलक्षण दशधर्म के आगमांत ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में अनूठी है। यद्यपि दश धर्मों पर अनेक ग्रन्थ और पुस्तकें हस्तगत हो चुकी हैं परन्तु कुछ तो शास्त्रीय गूढ़ता तथा क्लिष्टता के कारण शास्त्र भण्डारों की शोभा के रूप में ही विराजमान हैं तो कुछ सम्पूर्ण सामग्री या रोचकता के अभाव के कारण अधिक लोकप्रिय नहीं है। प्रस्तुत पुस्तक में लेखक ने पर्व पूर्व की "भूमिका में आगमोक्त उद्धरणों के द्वारा शाश्वत पर्वराज को सृष्टि के शान्तिमय सृजन का प्रथम दिन बताया है, महा तूफानी विषमताओं में मानवीय भाव परिवर्तन, आशा, श्रद्धा और चमत्कार स्वरूप प्रो. डॉ. विमला जैन जीवन रक्षा के बाद धर्म चेतना जाग्रत होती है, नव प्रकाश में नव उत्साह के साथ उत्तम क्षमादि दश धर्म उसके स्वभाव में आनन्दानुभूतियाँ देते हैं, इसे लेखक ने बड़े समीचीन ढंग से आलखित किया है। विकारों और विकृतियों के विभाव पर आत्मस्वभाव स्वरूप क्षमा, मार्दव, आर्जवादि भाव क्यों और कैसे प्रस्फुटित होकर स्थायित्व ले सकते हैं? शौच और सत्य के द्वारा चिन्तन मनन को कैसे मोड़ा जा सकता है ? लेखक ने दृष्टान्तों के साथ सिद्धान्त की स्वादिष्ट खीर ही परोस दी है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण में वीतराग विज्ञान की रश्मियाँ आभान्वित हैं। उत्तम संयम, तप, त्याग के निश्चय व्यवहार के महत्त्व को स्पष्ट करते हुये आन्तरिक और बाह्य विशुद्धि को बड़े ही रोचक व प्रभावोत्पादक ढंग से प्रस्तुत किया है। आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य को मुक्तिपथ के पाथेय के रूप में भव्यात्माओं की पूँजी कहा है। अंत में विश्वमैत्री पर्व 'क्षमावाणी' का महत्त्व और स्वरूप समझाया है। पुस्तक ज्ञान रंजक के साथ मन रंजक व्यवहारिक तथा जनसामान्य जैन जैनेतर तथा विद्वान मनीषियों को भी पठनीय है। मुख्यतः पर्युषण पर्व पर प्रवचन करने वाले विद्वानों के लिये अत्यधिक उपयोगी होगी। समीक्षक प्रो. (डॉ.) विमला जैन, फिरोजाबाद -दिसम्बर 2002 जिनभाषित 3 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्राराधना पू. आचार्य श्री विद्यासागर जी पिछले प्रवचनों में देव और गुरुपर प्रकाश डाल चुका हूँ। । प्रवृत्यात्मक नहीं । निवृत्यात्मक भाव ही निर्जरा का कारण होता है आज शास्त्र पर कुछ कहना चाहता हूँ। शास्त्र, सम्यग्ज्ञान का प्रवृत्तात्मक अंश आस्रव का साधन होता है। शास्त्र, हमें सचेत साधन है। जिस प्रकार मार्ग में चलने वाले मानव को पाथेय | करते रहते हैं कि बाह्यपदार्थों का ग्रहण न करो। आवश्यक होता है, उसी प्रकार मोक्षमार्ग में चलने वाले के लिये श्रुतको सूत्र कहते हैं कि और सूत्र का एक अर्थ सृत भी शास्त्र ज्ञान एक प्रकार का पाथेय है। इस पाथेय के रहते हुये मोक्ष | होता है। जिस तरह सूतसहित सुई गुमती नहीं है, इसी तरह सूत्रमार्ग के पथिक-को कोई कष्ट नहीं होता। शास्त्रज्ञानसहित जीव गुमता नहीं। अन्यथा चौरासी लाख योनियों शास्त्र की उद्भूति अपने आप नहीं होती किंतु केवलज्ञानी | में पता नहीं चलता है कि कहाँ पड़ा हुआ है यह जीव । जिसने श्रुत से होती है। जो केवलज्ञानी होता है वह वीतराग अवश्य होता है को आत्मसात नहीं किया वह ग्यारह अंग और नौ पूर्व का पाठी क्योंकि वीतराग हुये बिना केवल-ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता। होकर भी अनंत काल तक संसार में भटकता रहता है और जो श्रुत केवल-ज्ञानी ने अपने ज्ञानदर्पण में सब कुछ देखकर हमें संबोधित को आत्मसात् कर लेता है वह अंतमूर्खत में भी सर्वज्ञ बनकर किया है। भगवत् पद की प्राप्ति केवल-ज्ञान से ही होती है, श्रुत- | संसार भ्रमण से सदा के लिये छूट जाता है। जिस प्रकार रस्सी के ज्ञान से नहीं। श्रुतज्ञान बारहवें गुणस्थान के आगे नहीं जाता है, | बिना कुएँ का पानी प्राप्त नहीं हो सकता है, उसी प्रकार जिनागम फिर भी उसमें इतनी क्षमता है कि वह आपको पृथक्त्व वितर्क के अभ्यास के बिना तत्त्वज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता। वीचार और एकत्ववितर्क नामक शुक्लध्यान की प्राप्ति में सहायक देव और गुरु से सम्बन्ध छूट सकता है परन्तु शास्त्र से होता है। उत्कृष्टता की अपेक्षा उपर्युक्त दोनों शुक्लध्यान पूर्वविद् सम्बन्ध नहीं छूटता। शुक्लध्यान की प्राप्ति में देव और गुरु का के ही होते हैं। कहा है- “शुक्ले चाद्ये पूर्वविदः।" आलंबन नहीं रहता, परन्तु श्रुत या शास्त्र का आलंबन अनिवार्य भगवान् महावीर को केवल ज्ञान हो गया परन्तु 66 दिन रूप से लेना पड़ता है। स्वाध्याय को तप कहा हैं। और तप क्या तक दिव्यध्वनि नहीं खिरी। समवशरण रचा गया। उसमें विराजमान है? जीवकी अप्रमत्त दशा ही तप है। यह अप्रमत्त दशा संयत के ही महावीर को देखकर लोगों के नेत्र तो तृप्त हो गये। परन्तु श्रोत्र संभव है, असंयत के नहीं। तप कर्म और तप आराधना भी संयत अतृप्त बने रहे। इंद्र के मध्यम से गौतम समवशरण में पहुँचे। के होती है, असंयत के नहीं। उनके पहुँचने पर दिव्यध्वनि खिरी और उसे उन्होंने गणधर बनकर जिस प्रकार मृदंग बजाने वाला व्यक्ति अपने आपको उसके पंथरूप में, शास्त्र रूप में परिवर्तित कर हम लोगों को सुनाया। इस | लय के साथ तन्मय कर रहा है, उसी प्रकार भव्यप्राणी को श्रुत तरह शास्त्र की समुद्भूति भगवान् महावीर की दिव्य ध्वनि से प्रतिपादित ज्ञान से अपने आपको तन्मय कर लेना चाहिये। इस हुयी है। तन्मयी भाव के बिना श्रुताध्ययन की सार्थकता नहीं है। मृदंग, जिनवचन अर्थात् जिन शास्त्र एक प्रकार की औषधि है बजाने वाले के हाथ का स्पर्श पाये बिना नहीं बजता, पर मृदंग और ऐसी औषधि है जो विषय सुख का विरेचन करने वाली है स्वयं बजने की इच्छा नहीं रखता। इसी प्रकार नि:स्पृह कवली तथा जन्ममरण के रोग दूर करने वाली है। आचार्य में एक अवपीडक भगवान् दिव्यध्वनि के द्वारा भव्यजीवों को कल्याण का मार्ग दिखाते नामक का गुण होता है उस गुण के कारण वे शिष्य के हृदय में हैं, पर उससे उनका कोई प्रयोजन नहीं रहता। कुंदकुंद, समंतभद्र छिपे हुये विकार को बाहर निकालकर दूर कर देते हैं। शास्त्र भी आदि आचार्यों ने जो ग्रंथ रचना की है वह भी ख्याति लाभ आदि आचार्यों के वचन है। उनमें भी अवपीडक गुण विद्यमान है अत: की आकांक्षा से रहित होकर की है। वीतराग जिनेंद्र की वाणी को वे शिष्य के अन्तरस्थल में छिपे हुये रागादि विकारी भावों को दूर वीतराग ऋषियों ने अब तक सुरक्षित और प्रसारित किया है। इसी करते हैं। से हम लोगों का कल्याण हो सकता है। णमो अरहंताणं णमो सिद्धाणं- आदि मंत्र का लय के साथ संसारी प्राणी के अंतस्तल में चिरसंचित रागादि विकारी उच्चारण करना पाठ कहलाता है। पुनः अरहंतादि परमेष्ठियों का भावरूप मल सड़कर अस्वस्थता उत्पन्न कर रहा है। इसे विरेचन स्मरण करना जाप कहलाता है। अंरहत आदि परमेष्ठियों का क्या करने वाला कौन है? जिनवाणी है। वही बार-बार कथन करती है स्वरूप है? अरहंत आदि पद कैसे प्राप्त किया जा सकता है? यह कि हे प्राणी! तू रागद्वेष के कारण ही आज तक संसार में भटक जानना ज्ञान है। और चित्त का उन्हीं के साथ एकीभाव हो जाना हा है तथा उन्हीं रागद्वेष के कारण तूने आज तक सरागी देव की ध्यान है। यह सब विशेषतायें हमें शास्त्र से ही ज्ञात होती हैं। शास्त्र शरण पकड़ी है। अब अपने वीतराग स्वभाव का आलंबन ले और पढ़ने का नाम आचार्यों ने स्वाध्याय रंक्खा है। स्वाध्याय का शब्दार्थ इन औपाधिक विकारी भावों को दूर करने का प्रयत्न कर। होता है स्व अथवा अपने आपको प्राप्त करना। जिसने अनेक स्वाध्याय परम तप है। अंतरंग तपों में इसे सम्मलित | शास्त्रों को पढ़कर भी स्व को प्राप्त नहीं किया उसका शास्त्र पढ़ना किया गया है। यह कर्म निर्जरा का प्रमुख कारण है। कुंदकुंद | सार्थक नहीं है। कहने का तात्पर्य यही है कि मोक्षमार्ग की स्वामी ने इसे षडावश्यकों में शामिल नहीं किया है। किंतु उसके | साधना में देव और गुरु के समान शास्त्र का परिज्ञान भी महत्त्वपूर्ण बदले अभ्यंतर तपों में शामिल किया है। तप निवृत्यात्मक होता है | स्थान रखता है। 4 दिसम्बर 2002 जिनभाषित Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सल्लेखना मुनि श्री प्रमाण सागर जी सल्लेखना का उद्देश्य करने चाहिए, ताकि मुझे बार-बार शरीर धारण न करना पड़े और सूरज और चाँद के उदय और अस्त होने की तरह जन्म | मैं अपने अभीष्ट सुख को प्राप्त कर सकूँ। यह सोचकर वह बिना और मृत्यु प्रकृति के शाश्वत नियम हैं। जन्म लेने वाले का मरण किसी विषाद के चित्त की प्रसन्नतापूर्वक आत्मचिन्तन के साथ निश्चित है। संसार में कोई व्यक्ति अमर नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति | आहार आदि का क्रमश: परित्याग कर देहोत्सर्ग करने को उत्सुक के मरना पड़ता है। इस मृत्यु से अपरिचय और वर्तमान जीवन के | होता है, इसी का नाम "सल्लेखना' है। प्रति व्यामोह रहने के कारण व्यक्ति उसके नाम से ही डरते हैं। | सल्लेखना आत्मघात नहीं उससे बचने के अनेक उपाय करते हैं, किन्तु बड़ी-बड़ी औषधि, | देह त्याग की इस प्रक्रिया को नहीं समझ पाने के कारण चिकित्सा, मन्त्र-तन्त्र आदि का प्रयोग करने के बाद भी कोई बच | कुछ लोग इसे आत्मघात कहते हैं, किन्तु सल्लेखना आत्मघात नहीं सकता। बड़े-बड़े महाबली योद्धाओं का बल भी इस कालबली नहीं है। जैन धर्म में आत्मघात को पाप, हिंसा एवं आत्मा का के सामने निरर्थक सिद्ध होता है और एक दिन सभी इस काल के अहितकारी कहा गया है। यह ठीक है कि आत्मघात और सल्लेखना गाल में समाकर अपनी जीवन-लीला समाप्त कर देते हैं। आत्मा दोनों में प्राणों का विमोचन होता है, पर दोनों की मनोवृत्ति में की अमरता और शरीर की नश्वरता को समझने वाला जैन- महान् अन्तर है। आत्मघात जीवन के प्रति अत्यधिक निराशा एवं साधक मृत्यु के कारण उपस्थित होने पर भी उनसे घबराता नहीं तीव्र मानसिक असन्तुलन की स्थिति में किया जाता है, जबकि है, अपितु उसके स्वागत में मृत्यु को भी मृत्यु -महोत्सव में बदल सल्लेखना परम उत्साह से समभाव धारण करके की जाती है। देता है। वह यह सोचता है कि मरने से तो मृत्यु से कोई बच नहीं आत्मघात कषायों से प्रेरित होकर किया जाता है, तो सल्लेखना सकता, चाहे वह राजा हो या रंक, मन्त्री हो या सन्त्री, पण्डित हो | का मूलाधार समता है। आत्मघाती को आत्मा की अविनश्वरता या मूर्ख, धनी हो या निर्धन, सभी को मरना है। यदि मैं प्रसन्नतापूर्वक | का भान नहीं होता, वह तो दीपक के बुझ जाने की तरह शरीर के मरता हूँ, तो भी मुझे मरना है और यदि विषादपूर्वक मरता हूँ, तो | विनाश को ही जीवन की मुक्ति समझता है, जबकि सल्लेखना का भी मुझे मरना है। जब सब परिस्थितियों में मरण अनिवार्य और | प्रमुख आधार आत्मा की अमरता को समझकर अपनी परलोक अपरिहार्य है तो मैं ऐसे क्यों न मरूँ कि मेरा सुमरण हो जाये। इस | यात्रा को सुधारना है। सल्लेखना जीवन में अन्त समय में शरीर मरण का ही मरण हो जाये। यह सोचकर वह सल्लेखना या की अत्यधिक निर्बल, अनुपयुक्तता, भार-भूतता अथवा मरण के समाधिमरण धारण कर लेता है। किसी अन्य कारण के आने पर मृत्यु को अपरिहार्य मानकर की सल्लेखना क्या है? जाती है। जबकि आत्मघात जीवन में किसी भी क्षण किया जा "सल्लेखना" (सत्+लेखना)अर्थात् अच्छी तरह से काया | सकता है। आत्मघाती के परिणामों में दीनता, भीति और उदासी और कषायों को कृश करने को "सल्लेखना" कहते हैं। इसे ही | पायी जाती है; तो सल्लेखना में परम उत्साह, निर्भीकता और समाधिमरण भी कहते हैं। मरणकाल समुपस्थित होने पर सभी | वीरता का सद्भाव पाया जाता है। आत्मघात विकृत चित्तवृत्ति का प्रकार के विषाद को छोड़कर समतापूर्वक देह-त्याग करना ही परिणाम है; तो सल्लेखना निर्विकार मानसिकता का फल है। समाधिमरण या सल्लेखना है। जैन साधक मानव शरीर को अपनी आत्मघात में जहाँ मरने का लक्ष्य है; तो सल्लेखना का ध्येय मरण साधना का साधन मानते हुए, जीवन पर्यन्त उसका अपेक्षित रक्षण के योग्य परिस्थिति निर्मित होने पर अपने सद्गुणों की रक्षा का है, करता है, किन्तु अत्यन्त वृद्धापन, इन्द्रियों की शिथिलता, अत्यधिक | अपने जीवन के निर्माण का है। एक का लक्ष्य अपने जीवन को दुर्बलता अथवा मरण के अन्य कोई कारण उपस्थित होने पर जब बिगाड़ना है तो दूसरे का लक्ष्य जीवन को सँवारने/सँभालने का है। शरीर उसके संयम में साधक न होकर बाधक दिखने लगता है, आचार्य श्री पूज्यपाद "स्वामी' ने सर्वार्थसिद्धि में एक उसे अपना शरीर अपने लिए ही भार भूत-सा प्रतीत होने लगता | उदाहरण से इसी बात को स्पष्ट करते हुए कहा है कि- किसी है, तब वह सोचता है कि यह शरीर तो मैं कई बार प्राप्त कर चुका | गृहस्थ के घर में बहुमूल्य वस्तु रखी हो और कदाचित् भीषण हूँ। इसके विनष्ट होने पर भी यह पुनः मिल सकता है। शरीर के अग्नि से घर जलने लगे तो वह येन-केन-प्रकारेण उसे बुझाने का छूट जाने पर मेरा कुछ भी नष्ट नहीं होगा. किन्तु जो व्रत, संयम प्रयास करता है। पर हर सम्भव प्रयास के बाद भी, यदि आग और धर्म मैंने धारण किये हैं ये मेरे जीवन की अमूल्य निधि हैं। बेकाबू होकर बढ़ती ही जाती है, तो उस विषम परिस्थिति में वह बड़ी दुर्लभता से इन्हें मैंने प्राप्त किया है। इनकी मुझे सुरक्षा करनी | चतुर व्यक्ति अपने मकान का ममत्व छोड़कर बहुमूल्य वस्तुओं चाहिए। इन पर किसी प्रकार की आँच न आए ऐसे प्रयास मुझे | को बचाने में लग जाता है। उस गृहस्थ को मकान का विध्वंसक - -दिसम्बर 2002 जिनभाषित 5 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उसने तो अपनी ओर से रक्षा करने | प्रकार के खान-पान का त्याग करा देने से साधक को अनेक की पूरी कोशिश की, किन्तु जब रक्षा असम्भव हो गयी तो एक | कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है। कभी-कभी तो उसे कुशल व्यक्ति के नाते बहुमूल्य वस्तुओं का संरक्षण करना ही अपने संयम से च्युत भी हो जाना पड़ता है। अतः साधक को उसका कर्त्तव्य बनता है। इसी प्रकार रोगादिकों से आक्रान्त होने | किसी भी प्रकार की आकुलता न हो और वह क्रमश: अपनी पर एकदम से सल्लेखना नहीं ली जाती। वह तो शरीर को अपनी | काया और कषायों को कृश करता हुआ, देहोत्सर्ग की दिशा में साधना का विशेष साधन समझ यथासम्भव उसका योग्य | आगे बढ़े. इसका ध्यान रखकर ही सल्लेखना की विधि बनायी गयी उपचार/प्रतिकार करता है, किन्तु पूरी कोशिश करने पर भी, जब | है। वह असाध्य दिखता है, और नि:प्रतिकार प्रतीत होता है तो वह सल्लेखना की विधि में कषायों को कृश करने का उपाय उस विषम परिस्थिति में मृत्यु को अवश्यम्भावी जानकर अपने बताते हुए कहा गया है कि साधक को सर्वप्रथम अपने कुटुम्बियों, व्रतों की रक्षा में उद्यत होता हुआ, अपने संयम की रक्षा के लिए परिजनों एवं मित्रों से मोह, अपने शत्रुओं से बैर तथा सब प्रकार के समभावपूर्वक मृत्युराज के स्वागत में तत्पर हो जाता है। बाह्य पदार्थों से ममत्व का शुद्ध मन से त्यागकर, मिष्ट वचनों के . सल्लेखना को आत्मघात नहीं कहा जा सकता। यह तो साथ अपने स्वजनों और परिजनों से क्षमा याचना करनी चाहिए देहोत्सर्ग की तर्कसंगत और वैज्ञानिक पद्धति है, जिससे अमरत्व तथा अपनी ओर से भी उन्हें क्षमा करनी चाहिए। उसके बाद की उपलब्धि होती है। सल्लेखना की इसी युक्तियुक्तता एवं वैज्ञानिकता किसी योग्य गुरु (निर्यापकाचार्य) के पास जाकर कृत, कारित से प्रभावित होकर बीसवीं शताब्दी के विख्यात सन्त "आचार्य | अनुमोदन से किये गये सब प्रकार के पापों की छलरहित आलोचना विनोबा भावे" ने जैनों की इस साधना को अपनाकर सल्लेखना | कर, मरणपर्यन्त के लिए महाव्रतों को धारण करना चाहिए। उसके पूर्वक देहोत्सर्ग किया था। साथ ही उसे सब प्रकार के शोक, भय, सन्ताप, खेद, विषाद, सल्लेखना का महत्त्व कालुष्य, अरति आदि अशुभ भावों को त्याग कर अपने बल, सल्लेखना को साधना की अन्तिम क्रिया कहा गया है। वीर्य, साहस और उत्साह को बढ़ाते हुए गुरुओं के द्वारा सुनाई अन्तिम क्रिया यानि मृत्यु के समय की क्रिया को सुधारना अर्थात् जाने वाली अमृत-वाणी से अपने मन को प्रसन्न रखना चाहिए। काय और कषाय को कृश करके सन्यास धारण करना, यही कषायसल्लेखना का यह संक्षिप्त रूप है। इसका विशेष कथन जीवन भर के तप का फल है। जिस प्रकार वर्ष भर विद्यालय में | ग्रन्थों से जानना चाहिए। जाकर अध्ययन करनेवाला विद्यार्थी, यदि परीक्षा में नहीं बैठता, इस प्रकार ज्ञानपूर्वक कषायों को कृश करने के साथ वह तो उसकी वर्ष भर की पढ़ाई निरर्थक रह जाती है, उसी प्रकार | अपनी काया को कश करने हेतु सर्वप्रथम स्थूल/ठोस आहार जीवन भर साधना करते रहने के उपरान्त भी यदि सल्लेखनापूर्वक दाल-भात, रोटी जैसे का त्याग करता है तथा दुग्ध, छाछ आदि मरण नहीं हो पाता, तो साधना का वास्तविक फल नहीं मिल पेय पदार्थों पर निर्भर रहने का अभ्यास बढ़ाता है। धीरे-धीर जब पाता। इसलिए प्रत्येक साधक को सल्लेखना अवश्य करनी चाहिए। दृध, छाछ आदि पर रहने का अभ्यास हो जाता है, तब वह उनका मुनि और श्रावक दोनों के लिए सल्लेखना अनिवार्य है। यथाशक्ति भी त्याग कर मात्र गर्म जल ग्रहण करता है। इस प्रकार चित्त की इसके लिए प्रयास करना चाहिए। जिस प्रकार युद्ध का अभ्यासी स्थिरतापूर्वक अपने उक्त अभ्यास और शक्ति को बढ़ाकर, पुरुष रणाङ्गण में सफलता प्राप्त करता है उसी प्रकार पूर्व में किये धीरजपूर्वक, अन्त में उस जल का भी त्याग कर देता है और गये अभ्यास के बल से ही सल्लेखना सफल हो पाती है। अत: अपने व्रतों को निरतिचार पालन करते हुए 'पञ्च-नमस्कार' मन्त्र जब तक इस भव का अभाव नहीं होता तब तक हमें प्रति समय का स्मरण करता हुआ शान्तिपूर्वक इस देह का त्यागकर परलोक "समतापूर्वक मरण हो" इस प्रकार का भाव और पुरुषार्थ करना को प्रयाण करता है। चाहिए। वस्तुतः सल्लेखना के बिना साधना अधूरी है। जिस सल्लेखना के अतिचार प्रकार किसी मन्दिर के निर्माण के बाद जब तक उस पर कलशारोहण सल्लेखनाधारी साधक को अपनी, सेवाशुश्रूषा होती देखकर नहीं होता, तब तक वह शोभास्पद नहीं लगता; उसी प्रकार जीवन अथवा अपनी इस साधना से बढ़ती हुई प्रतिष्ठा के लोभ में ओर भर की साधना, सल्लेखना के बिना अधूरी रह जाती है। सल्लेखना अधिक जीने की आकांक्षा नहीं करनी चाहिए। "मैंने आहारादि साधना के मण्डप में किया जाने वाला कलशारोहण है। का त्याग तो कर दिया है, किन्तु मैं अधिक समय तक रहूँ, तो मुझे सल्लेखना की विधि भूख प्यास आदि की वेदना भी हो सकती है, इसलिए अब और सल्लेखना या समाधि का अर्थ एक साथ सब प्रकार के अधिक न जीकर शीघ्र ही मर जाऊँ तो अच्छा है।'' इस प्रकार खान-पान का त्याग करके बैठ जाना नहीं है, अपितु उसका एक मरण की आकांक्षा भी नहीं करनी चाहिए। “सल्लेखना तो धारण निश्चित क्रम है। उस क्रम का ध्यान रखकर ही सल्लेखना कर ली है, पर ऐसा न हो कि क्षुधा आदि की वेदना बढ़ जाए और करनी/करानी चाहिए। इसका ध्यान रखे बिना एक साथ ही सब | मैं उसे सह न पाऊँ,'' इस प्रकार का भय भी मन से निकाल देना 6 दिसम्बर 2002 जिनभाषित Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाहिए। “अब तो मुझे इस संसार से विदा होना ही है, किन्तु एक । मरण प्राप्त करता है, वह अति शीघ्र मोक्ष को प्राप्त करता है। जैन बार में अपने अमुक मित्र से मिल लेता तो बहुत अच्छा होता.'' शास्त्रों के अनुसार सल्लेखनापूर्वक मरण करने वाला साधक या इस प्रकार का भाव मित्रानुराग है। सल्लेखनाधारी साधक को | तो उसी भव से मुक्त हो जाता है या एक या दो भव के अन्तराल इससे भी बचना चाहिए। "मुझे इस साधना के प्रभाव से आगामी से। ऐसा कहा गया है कि सल्लेखनापूर्वक मरण होने से अधिक से जन्म में विशेष भोगोपभोग की सामग्री प्राप्त हो", इस प्रकार का अधिक सात-आठ भवों में तो मुक्ति हो ही जाती है। इसीलिए जैन विचार करना निदान है। साधक को इससे भी बचना चाहिए। साधना में सल्लेखना को इतना महत्त्व दिया गया है तथा प्रत्येक जीने-मरने की चाह, भय, मित्रों के अनुराग और निदान ये पाँचों साधक " श्रावक और मुनि दोनों" को जीवन के अन्त में प्रीतिपूर्वक सल्लेखना को दूषित करने वाले अतिचार हैं। साधक को इनसे | सल्लेखना धारण करने का उपदेश दिया गया है। बचना चाहिए। जो एक बार अतिचाररहित होकर सल्लेखनापूर्वक __ 'जैनधर्म और दर्शन' से साभार जयपुर में प्रतिभा सम्मान विमला जैन, । जिला एवं सत्र न्यायाधीश परम पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज इस युग | इस अवसर पर श्रीमती सरयू दफतरी ने अपने ममत्व एवं के महान आचार्य के रूप में विश्वविश्रुत हो चुके हैं। उनकी मातृत्व से ओतप्रोत उद्बोधन में छात्रों को प्रेरित किया कि वे त्याग, तपस्या और संघ संचालन की क्षमता अद्भुत है। उन्होंने अपने लौकिक जीवन में जैन धर्म की मौलिक जीवन शैली के आत्महित के साथ-साथ जो लोक हितकारी कार्यों के लिए महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं- जल छानकर पीना, जैन भोजन करना, प्रेरणा और प्रोत्साहन दिया है, वह अनुकरणीय एवं प्रशंसनीय | सामायिक करना, अपने गुरु के प्रति श्रद्धा भाव रखना आदि को हैं । ऐसे महान आचार्य के प्रबुद्ध एवं संवदेनशील शिष्य हैं मुनि | सदैव ध्यान में रखकर पालन करें। श्री क्षमासागर जी। क्षमासागर जी मैत्री और प्रेम के अनूठे और छात्रों को उद्बोधन देते हुए मैत्री समूह के संचालक श्री अद्भुत चितेरे हैं। उन्होंने अपनी मृदता और रसमयी अनुभूतियों सुरेश जैन ने कहा कि प्रतिभा भले ही जन्मजात होती हो, किन्तु को अपने लेखन में सहजता और सरलता से अभिव्यक्त किया | आध्यात्मिक आशीर्वाद और भौतिक प्रोत्साहन से उसमें अत्यधिक है। उन्होंने अपनी कविताओं में प्रकृति और जीवन के रिश्तों की निखार आ जाता है। हमारे जीवन के चतुर्मुखी विकास में धार्मिक बारीक बुनावट की है। आचार्य श्री विद्यासागर जी की जीवनी आदर्शों एवं नैतिक मूल्यों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। आत्मान्वेषी उनकी अनुपम कृति है। किसी साहित्यकार ने इस अद्भुत प्रवचन शैली के माध्यम से क्षमासागर जी ने कृति की समीक्षा करते हुए लिखा है कि मातृत्व की अनुभूति आध्यात्मिक चेतना को सामाजिक/शैक्षणिक सरोकारों से जोड़ते और आध्यात्मिकता का रसास्वादन कराने वाली यह कृति गोरकी हुए शैक्षणिक जागत के उदीयमान नक्षत्रों को अत्यधिक प्रभावित के विश्व प्रसिद्ध उपन्यास माँ के समान ऊचाइयाँ प्राप्त करेगी। किया और भावी जीवन में सर्वोच्च सफलता प्राप्त करने हेतु उन्हें मुनिश्री के सान्निध्य में जयपुर में आयोजित यंग जैन | अत्यंत भावविह्वल होकर अपना स्नेह-आशीर्वाद दिया। अनेक अवार्ड 2002 का कार्यक्रम निर्धारित समयावधि में सानन्द और छात्र अनुपम गुणों से सुशोभित उनके आंतरिक व्यक्तित्व की सफलतापूर्वक सफल हुआ। इस कार्यक्रम का समय प्रबंधन, | ओर आकर्षित हए और उनके प्रति पूर्ण श्रद्धा प्रकट करते रहे। सरसता और शालीनता अत्यंत सराहनीय एवं अनुकरणीय रही श्री नरेश सेठी, अध्यक्ष चातुर्मास समिति,जयपुर और है। इस समारोह के लिए 1050 छात्रों की प्रविष्टियाँ प्राप्त हुई और उनके सहयोगी पदाधिकारियों, डॉ., शीला जैन और उनकी सहयोगी उनमें से 400 छात्रों को जयपुर आमंत्रित किया गया। जयपुर में महिला संघों, मैत्री समूह के संरक्षक श्री शांतिलाल जैन भोपाल, उपस्थित 327 छात्रों को देश की सुप्रसिद्ध उद्योगपति श्रीमती श्री पन्नालाल बैनाड़ा, आगरा, श्री पारस कासलीवाला, जयपुर श्री सरयू दफतरी, मुम्बई द्वारा सम्मानित किया गया और सर्वोच्च उजास जैन जयपुर, डॉ. निशा जैन भोपाल, डॉ. एस.पी. जैन एवं सफलता प्राप्त करने वाले छात्रों को सर्वोच्च कोटि की 6 रजत श्री राजेश जैन, बड़कुल, छतरपुर, श्रीमती मोना सोगानी, जयपुर शील्ड, 54 रजत शील्ड और उपस्थित सभी 327 छात्र/छात्राओं एवं उनके सभी साथियों का निष्ठापूर्ण सहयोग अत्यधिक सराहनीय को मैडल, घड़ी, पुस्तकें, आकर्षक उत्तरीय परिधान एवं मार्ग और अनुकरणीय रहा। व्यय प्रदान किया गया। 35 महाविद्यालयनीय छात्र/छात्रओं को 30, निशात कॉलोनी, अपना अध्ययन करने हेतु छात्रवृत्तियाँ प्रदान की गईं। भोपाल , म.प्र.- 462003 -दिसम्बर 2002 जिनभाषित 7 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नौकरों से पूजन कराना स्व. पं. जुगल किशोर जी मुख्तार जैनियों में दिन पर दिन यह बात बढ़ती जाती है कि मंदिरों । पृजन-द्वारा खुशामद करके हिन्दू, मुसलमान और ईसाइयों की में पूजा के लिए नौकर रक्खे जाते हैं- श्वेताम्बर मदिरों में तो | तरह परमात्मा को राजी और प्रसन्न रखने की चेष्टा करते हैं तो आमतौर पर अजैन ब्राह्मण इस काम के लिए नियुक्त किये जाते हैं समझना चाहिए कि वे वास्तव में जैनी नहीं है: जैनियों के वेप में और उन्हीं से जिनेन्द्र भगवान् का पूजन कराया जाता है । पुजारियों हिन्दू, मुसलमान या ईसाई हैं। उन्होंने परमात्मा के स्वरूप को नहीं के लिए अब समाचारपत्रों में खुले नोटिस भी आने लगे हैं। समझ समझा और न वास्तव में जैनधर्म के सिद्धांतों को ही पहचाना है। में नहीं आता कि जो लोग मंदिर बनवाने, प्रतिष्ठा कराने, रथयात्रा ऐसे लोगों को पिछले निबन्ध 'जिनपृजाधिकारमीमांसा' में निकालने और मंदिरों में अनेक प्रकार की सजावट आदि के | 'पृजनसिद्धान्त' को पढ़ना और उसे अच्छी तरह से समझना चाहिए। सामान इकट्ठा करने में हजारों और लाखों रुपये खर्च करते हैं वे इसके सिवाय, यदि इस प्रकार के (किराये के) आदमियों द्वारा फिर इतने भक्तिशृन्य और अनुरागरहित क्यों हो जाते हैं, जो अपने | पूजन की गरज पुण्य-संपादन करना कही जाय तो वह भी निरी पृज्य की उपासना अर्थात् अपने करने का काम नौकरों से कराते भूल है और उससे भी जैनधर्म के सिद्धान्तों की अनभिजता पाई है? क्या उनमें वस्तुत: अपने पृजन के प्रति भक्ति का भाव ही नहीं जाती है। जैन सिद्धान्तों की दृष्टि से प्रत्येक प्राणी अपने शुभाऽशुभ होता और वे जो कुछ करते हैं वह सब लोकदिखावा. नुमायश, भावों के अनुसार पुण्य और पाप का संचय करता है। ऐसा अंधेर रुढ़िपालन और बाहरी वाहवाही लूटने तथा यशप्राप्ति के लिए ही नहीं है कि शुभ भाव तो कोई करे और उसके फलस्परूप पृण्य का होता है। कुछ भी हो, सच्चे जैनियों के लिए यह एक बड़े ही सम्बन्ध किसी दूसरे ही व्यक्ति के साथ हो जाय । पृजन में परमात्मा कलंक और लज्जा की बात है! लोक में अपने अतिथियों तथा के पुण्य-गुणों के स्मरण से आत्मा में जो पवित्रता आती और पापों इष्टजनों की सेवा के लिए नौकर जरूर नियुक्त किये जाते हैं, से जो कुछ रक्षा होती है उसका लाभ उसी मनुष्य को हो सकता जिसका अभिप्राय और उद्देश्य होता है-अतिथियों तथा इष्टजनों है जो पृजन-द्वारा परमात्मा के पुण्य-गुणों का स्मरण करता है। को आराम और सुख पहुँचाना, उनकी प्रसन्नता प्राप्त करना और | इसी बात को स्वामी समंतभद्र ने अपने उपर्युक्त पद्य के उत्तरार्ध में उन्हें अप्रसन्नचित न होने देना। परन्तु यहाँ मामला इससे बिल्कुल भले प्रकार से सूचित किया है। इससे स्पष्ट है कि सेवक द्वारा ही विलक्षण है। जिनेन्द्रदेव की पूजा से जिनेंद्र भगवान् को कुछ किये हुए पूजन का फल कभी उसके स्वामी को प्राप्त नहीं हो सुख या आराम पहुँचाना अभीष्ट नहीं होता - वे स्वत: सकता; क्योंकि वह उस पृजन में परमात्मा के पुण्यगुणों का अनंतसुखस्वरूप हैं- और न इससे भगवान की प्रसन्नता या अप्रसन्नता स्मरणकर्ता नहीं है। ऐसी हालत में नौकरों से पूजन कराना बिलकुल का ही कोई सम्बन्ध है। क्योंकि जिनेंद्रदेव पूर्ण वीतरागी हैं- व्यर्थ है और वह अपने पूज्य के प्रति एक प्रकार से अनादर का उनके आत्मा में राग या द्वेष का अंश भी विद्यमान नहीं है- वे भाव भी प्रगट करता है। तब क्या होना चाहिए? जैनियों को स्वयं किसी की स्तुति, पूजा तथा भक्ति से प्रसन्न नहीं होते और न किसी पृजन करना और पृजन के स्वरूप को समझना चाहिए। अपने को निन्दा, अवज्ञा या कटुशब्दों पर अप्रसन्नता लाते हैं। उन्हें किसी पृज्य के प्रति आदर-सत्काररूप प्रवर्तने का नाम पूजन है। उसक की पूजा की जरूरत नहीं और न निन्दा से कोई प्रयोजन है। जैसा लिए अधिक आडम्बर की जरूरत नहीं है। वह पृज्य के गुणों में कि स्वामी समन्तभद्र के निम्न वाक्य से प्रगट है अनुरागपूर्वक बहुत सीधा सादा और प्राकृतिक होना चाहिए। पृजन न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे न निन्दया नाथ विवान्तवैरे। । में जितना ही अधिक बनावट, दिखावट और आडम्बर से काम तथापि ते पुण्यगुणस्मृतिर्नः पुनाति चित्तं दुरिताऽञ्जनेभ्यः॥ | लिया जायगा उतना ही अधिक वह पूजन के सिद्धान्त से गिर -बृहत्स्वयंभूस्तोत्र जायगा। जब से जैनियों में बहुआडम्बरयुक्त पृजन प्रचलित हुआ ऐसी हालत में कोई वजह मालूम नहीं होती कि जब है तभी से उन्हें पूजा के लिए नौकर रखने की जरूतर पड़ी है। हमारा स्वयं पूजन करने के लिए उत्साह नहीं होता तब वह पूजन अन्यथा जिनेन्द्र भगवान् की सच्ची और प्राकृतिक पूजा के लिए क्यों किराये के आदमियों द्वारा संपादन कराया जाता है। क्या इस किराये के आदमियों की कुछ भी जरूरत नहीं है। जैनियों के विषय में हमारे ऊपर किसी का दबाव और जब्र है? अथवा हमें प्राचीन साहित्य की जहाँ तक खोज की जाती है, उससे भी यही किसी के कुपित हो जाने की कोई आशंका है? यदि ऐसा कुछ भी मालूम होता है, कि पुराने जमाने में जैनियों में वर्तमान-जैसा नहीं है तो फिर यह व्यर्थ का स्वांग क्यों रचा जाता है? और यदि बहुआडम्बरयुक्त पृजन प्रचलित नहीं था। उस समय अर्हतभक्ति, सचमुच ही पूजन न होने से जैनियों को परमात्मा के कुपित हो सिद्धभक्ति, आचार्यभक्ति और प्रवचनभक्ति आदि अनेक प्रकार जाने का कोई भय लगा हुआ है और इसलिए जिस तिस प्रकार के | की भक्तियों द्वारा, जिनके संस्कत और प्राकत के कछ प्राचीन 8 दिसम्बर 2002 जिनभाषित Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ अब भी पाये जाते हैं, पूज्य की पूजा और उपासना की जाती । की क्रियायें हैं। हिन्दुओं के यहाँ वेदों तक में देवताओं का आवाहन थी। श्रावक लोग मंदिरों में जाकर प्राय: जिनेन्द्र प्रतिमा के सम्मुख, | और विजर्सन पाया जाता है। वे लोग ऐसा मानते हैं कि देवता लोग खड़े होकर अथवा बैठकर , अनेक प्रकार के समझ में आने योग्य | बुलाने से आते, बैठते, ठहरते और अपना यज्ञभाग ग्रहण करके, स्तोत्र पढ़ते तथा भक्तिपाठों का उच्चारण करते थे और परमात्मा के रुखसत करने पर, वापिस चले जाते हैं। इससे हिन्दुओं के यहाँ गुणों का स्मरण करते हुए उन में तल्लीन हो जाते थे। कभी-कभी आवाहन और विजर्सन का यह सब कथन ठीक बन जाता है। वे ध्यानमुद्रा से बैठकर परमात्मा की मूर्ति को अपने हृदयमन्दिर में परन्तु जैनियों की ऐसी मान्यता नहीं है। इसीलिए जैनधर्म से इनका विराजमान करके नि:शब्द-रूप से गुणों का चिन्तवन करते हुए मेल नहीं मिलता और ये सब क्रियायें बिल्कुल बेजोड़ मालूम परमात्मा की उपासना किया करते थे। प्रायः यही सब उनका होती हैं। इसी प्रकार की, पूजन सम्बंध में और भी बहुत सी द्रव्य-पूजन था और यही भावपूजन । उस समय के जैनाचार्य वचन क्रियायें हैं जो हिन्दुओं से उधार लेकर रक्खी गईं अथवा उनके संस्कारों से संस्कारित होकर पीछे से बना ली गई हैं। और जिन और शरीर को अन्य व्यापारों से हटाकर उन्हें अपने पूज्य के प्रति, सबका जैनसिद्धान्तों से प्राय: कुछ भी मेल नहीं हैं। यहाँ इस छोटे स्तुतिपाठ करने और अंजुलि जोड़ने आदि रूप से, एकाग्र करने से लेख में उन सब पर विचार नहीं किया जा सकता और न इस को 'द्रव्यपूजा' और उसी प्रकार से मन के एकाग्र करने को समय उनके विचार का अवसर ही प्राप्त है। अवसर मिलने पर उन 'भावपूजा' मानते थे, जैसा कि श्रीअमितगति आचार्य के पर फिर कभी प्रकाश डाला जाएगा। परन्तु इतना जरूर कहना निम्नलिखित वाक्य से प्रगट है होगा कि वर्तमान का पूजन इन्हीं सब क्रियाओं के कारण बिल्कुल वचोविग्रहसंकोचो द्रव्यपूजा निगद्यते। अप्राकृतिक तथा आडम्बरयुक्त बना गया है और उससे जैनियों की तत्र मानससंकोचो भावपूजा पुरातनैः॥१२-१२॥ आत्मीय प्रगति, एक प्रकार से, रुक गई है। यदि सचमुच ही हमारे -उपासकाचार जैनी भाई अपने परमात्मा की पूजा, भक्ति और उपासना करना जब से हिन्दुओं के प्राबल्यद्वारा जैनियों पर हिन्दूधर्म का चाहते हैं तो उन्हें सब आडम्बरों को छोड़कर पूजन की अपनी प्रभाव पड़ा है और उन्होंने हिन्दुओं की देखादेखी उनकी बहुतसी वही पुरानी, प्राकृतिक और सीध-सादी पद्धति जारी करनी चाहिए। ऐसी बातों को अपने में स्थान दिया है, जिनका जैन सिद्धान्तों से | जिसका ऊपर उल्लेख किया गया है। ऐसा करने पर पुजारियों को प्राय: कुछ भी सम्बन्ध नहीं है, तभी से जैन समाज में | नौकर रखने की भी फिर कुछ जरूरत नहीं रहेगी और आत्मोन्नतिबहुआडम्बरयुक्त पूजन का प्रवेश प्रारंभ हुआ है और उसने बढ़ते- | सम्बन्धी वह सब लाभ अपने को प्राप्त होने लगेगा, जिसको लक्ष्य बढ़ते वर्तमान का रूप धारण किया है, जिसमें बिना पुजारियों के करके ही मूर्तिपूजा का विधान किया गया है और जिसका परिचय नौकर रक्खे नहीं बीतती। आजकल इस पूजन में मुक्ति को प्राप्त | पाठकों का, 'जिनपूजाधिकारमीमांसा' के 'पूजनसिद्धान्त' प्रकरण हुए, जिनेन्द्र भगवान् का आवाहन और विसर्जन भी किया जाता को पढ़ने से भले प्रकार मिल सकता है। विपरीत इसके यदि जैनी है। उन्हें कुछ मंत्र पढ़कर बुलाया. बिठलाया, ठहराया और फिर लोग अपनी वर्तमान पूजनपद्धति न बदलने के कारण नौकरों से नैवेद्यादिक अर्पण करने के बाद रुखसत किया जाता है-कहा पूजन कराना जारी रक्खेंगे तो इसमें संदेह नहीं कि वह समय भी जाता है कि महाराज! अब आप तो अपने स्थान पर तशरीफ़ ले | शीघ्र निकट हा जायगा जब उन्हें दर्शन, सामायिक, स्वाध्याय, जाइए और हमारा अपराध क्षमा कीजिए; क्योंकि हम लोग ठीक तप, जप, शील,संयम, व्रत, नियम और उपवासादिक सभी धार्मिक तौर से आवाहन, पूजन और विसर्जन करना नहीं जानते। जरा कामों के लिये नौकर रखने या उन्हें सर्वथा छोड़ देने की जरूरत सोचने की बात है कि, जैनधर्म से इन सब क्रियाओं का क्या पड़ने लगेगी। और तब उनका धर्म से बिल्कुल ही पतन हो जायगा। सम्बन्ध है? जिन सिद्धान्त के अनुसार मुक्त तीर्थंकर अथवा जिनेन्द्र | इसलिए जैनियों को शीघ्र ही सावधान होकर अपनी वर्तमान पूजन भगवान् किसी के बुलाने से नहीं आते; न किसी के कहने से कहीं पद्धति में आवश्यक सुधार करके उसे सिद्धान्तसम्मत बना लेना बैठते, ठहरते या नैवेद्यादि ग्रहण करते हैं; और न किसी के रुखसती चाहिए। और नौकरों के द्वारा पूजन की प्रथा को एकदम उठा (विसर्जनात्मक) शब्द उच्चारण करने पर वापिस ही चले जाते देना चाहिए। आशा है कि, समाज के नेता और विद्वान् लोग इस हैं। ऐसी हालत में जैनधर्म से इन आवाहन और विसर्जनसम्बन्धी विषय की ओर खास तौर से ध्यान देंगे। क्रियाओं का कोई मेल नहीं है । वास्तव में ये सब क्रियायें हिन्दूधर्म 'युगवीर निबन्धावली' से साभार गुणदोष समाहारे दोषान् गृह्णन्त्यसाधवः । • अदोषामपि दोषाक्तां पश्यन्ति रचनां खलाः । मुक्ताफलानि संत्यज्य काकमांसमिव द्विपात्। रविमूर्तिमिवोलूकास्तमालदलकालिकाम्॥ भावार्थ- जिस प्रकार कौआ हाथियों के गण्डस्थल भावार्थ- जिस प्रकार उलूक पक्षी सूर्य की मूर्ति को से मुक्ताफलों को छोड़कर केवल मांस ही ग्रहण करता है, | तमाल पत्र के समान काली काली ही देखते हैं, उसी प्रकार दष्ट | उसी प्रकार दुर्जन गुण और दोषों के समूह में से केवल दोषों । पुरुष निर्दोष रचना को भी दोष युक्त ही देखते हैं। को ही ग्रहण करते हैं। पद्मपुराण -दिसम्बर 2002 जिनभाषित 9 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसे भक्ति कहें या नियोग? स्व. पं. मिलापचन्द्र जी कटारिया तीर्थंकरों के कल्याणकों में उनकी या उनके माता पिताओं । जिनके सम्यक्त्व नहीं होता वे देव तो भगवान् की सेवा की मात्र की सेवा के लिए दिक्कुमारी,रुचकवासिनी, इन्द्राणी आदि देवियाँ ड्यूटी अदा करते हैं। तीर्थंकरों के सेवाकार्य के अतिरिक्त भी कई और सौधर्मेन्द्र, कुबेर, यक्ष आदि देव उपस्थित होते हैं ऐसा कथन | धार्मिक कार्य ऐसे हैं जिन्हें सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि देव देवगति जैन शास्त्रों में पाया जाता है और वह इस ढंग से पाया जाता है कि की परम्परा के माफिक समानरूप से करते हैं। जैसे देवगति में किसी भी एक तीर्थंकर का जिस किस्म का सेवा कार्य जिन-जिन कोई भी देव जन्म लेगा तो वह जन्म होते ही प्रथम जिनपूजा के नाम के देव-देवियों ने किया उसी किस्म का सेवा कार्य उन्हीं नाम | लिये वहाँ के चैत्यालय में जावेगा। अष्टाह्निकपर्व आने पर प्रायः के देवदेवियों ने सभी तीर्थंकरों का किया है। यह रीति अनादिकाल सभी देव नंदीश्वरद्वीप में पूजा करने को जायेंगे एवं किसी तीर्थकर से होते आये तीर्थंकरों के साथ समान रूप से होती रही है। जैसे का कहीं कोई कल्याणक होगा तो उसके समारोह में भी उन्हें भगवान् ऋषभदेव की माता की सेवा श्री, ह्री, धृति आदि दिक्कुमारी शामिल होना पड़ेगा। इत्यादि कार्यों में भाग लेने का देवगति में देवियों ने की, इसी तरह इन्हीं देवियों ने शेष तीर्थंकर-माताओं की एक रिवाज सा चला आ रहा है। इसलिए ये सब उन्हें करने पड़ते भी सेवा की है, बल्कि अनादिकाल से होती आई सभी जिनमाताओं | हैं। इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि ऐसा वे सम्यग्दृष्टि होने की की भी सेवा इन्हीं श्री, ही आदि देवियों ने की है। ऐसा आगम के वजह से करते हैं। अगर ऐसा ही माना जाये तो देवों में फिर कोई पाठी मानते आ रहे हैं। यही हाल तीर्थंकरों के अन्य सेवा कार्यों मिथ्यादृष्टि देव ही होना सम्भव न हो सकेगा। यह बात त्रिलोकप्रज्ञप्ति का भी है। जन्मकल्याणक में सौधर्मेन्द्र का भगवान् को गोदी में | की निम्न गाथाद्वय से भी सिद्ध होती है बैठाना, ईशानेन्द्र का भगवान् पर छत्र लगाना, सनत्कुमार और कम्मखपणणिमित्तं णिब्भरभत्तीए विवहदव्वेहिं। माहेन्द्र का चमर ढोरना आदि अन्यान्य कार्य भी जो एक तीर्थंकर सम्माइट्ठीदेवा जिणिंदपडिमाओ पूजंति ।।16।। के साथ हुआ वही कार्य इन्हीं इंद्रादि द्वारा अन्य सभी तीर्थंकरों के एदे कुलदेवा इय मण्णंता देववोहणवलेण। साथ हुआ है। जैन शास्त्रों के इस प्रकार के कथनों पर जब हम मिच्छाइट्ठी देवा पूयंति जिणिंद पडिमाओ॥17॥ गहराई के साथ विचार करते हैं तो हम इस तथ्य पर पहुँचते हैं कि -६वाँ अधिकार तीर्थंकरों की सेवाओं में भाग लेने वाले इन देवों व देवियों का अर्थ- सम्यग्दृष्टि देव कर्मक्षय के निमित्त गाढ़ भक्ति से प्रधान कारण जिनभक्ति नहीं है। भगवान् की भक्ति ही कारण विविध द्रव्यों के द्वारा उन जिनप्रतिमाओं की पूजा करते हैं । अन्य होती है तो भगवान् की विविध सेवाओं में से कोई सेवा कभी कोई | देवों के समझााने से मिथ्यादृष्टि देव भी 'ये कुल देवता हैं' ऐसा देव करता और कभी कोई देव। सो ऐसा न बताकर सर्वदा के मानकर उन जिनप्रतिमाओं को पूजते हैं। लिये किन्हीं देव-विशेषों के लिये भगवान् की किसी खास सेवा इसलिये जो लोग यह कहते हैं कि "तीर्थंकरों की सेवा का प्रोग्राम निश्चित सा बंधा हुआ है। भगवान् को गोदी में बैठाना, का नियोग जिन देव देवियों पर है वे सब सम्यग्दृष्टि ही होते हैं" उन पर छत्र लगाना, चमर ढोरना ये कार्य क्या उक्त इंद्रों के सिवा | उनका ऐसा कहना ठीक नहीं है। उन्हें इस सम्बन्ध में अभी गंभीर अन्य स्वर्गों के इन्द्र नहीं कर सकते हैं? नहीं कर सकते तो क्यों विचार करने की जरूरत है। तीर्थंकरों के चरित्रों में तीर्थकरों की व नहीं कर सकते हैं। क्या इन जैसी उनमें भक्ति नहीं है। यदि कहो उनके माता-पिताओं की देव-देवियों द्वारा जो सेवा करने का कि सौधर्मेन्द्र एकभवावतारी होता है तो एक भवावतारी तो सभी कथन किया गया है, वह एकमात्र उन तीर्थंकरों की महिमा प्रदर्शन दक्षिणस्वर्गों के इंद्र भी माने गये हैं, जैसा कि त्रिलोकसार की निम्न के उद्देश्य से किया है, न कि देव-देवियों की भक्तिप्रदर्शनार्थ । यह गाथा से प्रकट है चीज विचारकों के खास ध्यान में रहने की है। 'भूपाल चतुर्विंशतिका' सोदम्मो वरदेवी सलोगवाला व दक्खिणमरिंदा। स्तोत्र में लिखा है कि - लोयंतिय सव्वट्ठा तदो चुदा णिव्वुदिं जंति ।।548 ।। देवेन्द्रास्तव मजनानि विदधर्वेवांगना मंगलाअर्थ- सौधर्मेन्द्र, उसकी शची, उसके लोकपाल व न्यापेठुः शरदिंदुनिर्मलयशो गंधर्वदेवा जगुः । सनत्कुमारादि दक्षिण इन्द्र, लोकांतिकदेव और सर्वार्थसिद्धि के शेषाश्चापि यथानियोगमखिला: सेवां सुराश्चक्रिरे, देव ये सब वहाँ से चयकर मनुष्य हो मोक्ष जाते हैं। तत् किं देव वयं विद्धम इति नश्चितं तु दोलायते ।।22 ।। इससे हमें यही मानने को बाध्य होना पड़ता है कि जो अर्थ- इन्द्रों ने आपका अभिषेक किया, देवियों ने मंगल देवी-देव तीर्थंकरों के सेवाकार्य में भाग लेते हैं वे भक्तिवश नहीं | पाठ पढ़े, गंधर्वो ने आपका यशोगान किया और बाकी बचे समस्त किन्तु सदा से जो सेवा का काम जिन देवी-देवों द्वारा होता आ रहा देवों ने भी जैसा जिसका अधिकार था वैसी आपकी सेवा की। है वह कार्य आगे भी उन्हीं को करना पड़ता है। ड्यूटी इनके लिये अब हमलोग आपकी कौन सी सेवा करें? इस प्रकार हमारा मन अनादि से चली आ रही है। चाहे भक्ति हो या न हो और वे | सोच में झूल रहा है। सम्यक्त्वी हों या नहीं, उस ड्यूटी का पालन करना उनके लिये इस कथन से भी यही सिद्ध होता है कि भगवान् की सेवा आवश्यक होता है। देवगति में जन्म लेनेवालों का ऐसा ही नियोग अलग-अलग देवों के लिये अलग-अलग नियत थी। वह सेवा है। अलबत्ता इनमें जो सम्यग्दृष्टि देव होते हैं वे भगवान् की सेवा उनको भक्ति हो या न हो अवश्य ही करनी पड़ती थी। का अपना नियोग बहुत कुछ भक्तिभावपूर्वक साधते हैं। किन्तु | 'जैन निबन्ध रत्नावली' से साभार 10 दिसम्बर 2002 जिनभाषित Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वाभिमानी मैना सुन्दरी डॉ. नीलम जैन मैना नाम है उस स्पष्टवादिनी, प्रगल्भा, निर्भीक तरुणी | कोमल छाया डालती है। मैना सुन्दरी एक तपी हुई वनिता है जो का, जो सहिष्णुता और आत्म-विश्वास, दृढ़ता और कर्मठता, प्रणय के सच्चे मार्ग पर भी सबलता से प्रतिष्ठिापित होती है। सबके मर्यादा और त्याग का अभूतपूर्व संगम बनकर आज भी जन-जन | प्रभाव से विलग अपना अस्तित्व अपनी साधना से बनाती है। मैना के मन में बसी हुई है। वर्ष में तीस बार आठ-आठ दिवस मैना ने पिता पुहुपाल द्वारा प्रदत्त नरक को भी अपने समर्पण से स्वर्ग सबको समर्पित, श्रद्धान्वित जिन शक्ति का स्मरण करा देती है। बना डाला। व्यावहारिक ज्ञान से सम्पन्न मधुरभाषिणी मैना का व्यक्तित्व राजा पुहुपाल पश्चात्ताप की अग्नि में प्रतिपल जलते रहे, विशद है। पिता की आज्ञा मानना धर्म है, किन्तु एक निश्चित | परन्तु मैना उस अग्नि में धधक-धधककर निखरती रही। भले ही सीमा तक। पिता के भी अभिमान, अंहकार को ललकारने वाली | कुछ की सहानुभूति राजा के साथ भी रही होगी, मैना को वाचाल, मैना कर्मों के सम्मुख तमाम राजपाट को तृणवत् नकार देती है। | बड़बोली धृष्ट का भी विशेषण मिला ही होगा। पर सत्य यह भी है वह सिंहगर्जना करती है- "पिता ने जन्म दिया, लेकिन इसका | कि इतिहास रचने वालों के साथ होता भी कुछ नया ही है। अर्थ यह तो नहीं कि कर्मों के भी नियन्ता बन बैठे?" युवतियों को तो मैना का रूप कहीं अन्दर तक शीतलता दे गया कल्पना करें उस क्षण की जब मैना सुन्दरी ने भरे दरबार होगा। लड़की को गाय समझकर खूटे से बाँध देने वालों के में अपने पिता के श्रम को छिन्न-भिन्न किया होगा। एक बहन सिर | लिए मैना सुन्दरी का चरित्र एक स्पीड ब्रेकर है। उन्हें तो बारझुकाए चापलूसी कर रही है- "हाँ पिताजी, सुख-दुःख आपकी बार रुककर सोचना ही पड़ा होगा और अपने दर्पण में झाँककर कृपा पर निर्भर हैं। हमारा सौभाग्य आप ही निश्चित कर सकते भी स्वयं को परखना होगा। लड़कियाँ भी अपने ही भाग्य का हैं । हम सब के भविष्य निर्धारक आप ही हैं।" और तभी इन सब | खाती हैं। यह बात पिता पुहुपाल के साथ भी कुष्ठ रोगी श्रीपाल ने मधुरालापों को हवा में उड़ाकर मैना पल भर में एक ओर कर देती | भी भली-भाँति समझी होगी और यह भी जान लिया होगा जिस है और सारी श्रृंखला एकदम विच्छिन्न और विशृंखल होकर नवीन कन्या के साथ पाणिग्रहण हो रहा है वह सामान्य संकेतमात्र पर ही वातावरण निर्मित कर देती है। नाचने वाली कठपुतली नहीं है। उसके पास एक सबल मस्तिष्क भले ही मैना उस समय वाचाल कही गई होगी। किसी ने | भी है तथा उसमें अंगुली के अग्रभाग के व्यर्थ नाखून की भाँति कल्पना भी नहीं की होगी यों राजा के सम्मान को अंजुलिबद्ध | सब कुछ पल में काटकर फेंक देने का सामर्थ्य भी। और आत्मभिमान करके एक साथ उड़ेल डालेगी- राजा पुहुपाल के आँखों के | यही वह पूँजी थी जो मैना ने सदैव साथ रखी। जीवन की अंगारे मैना को समूल ही भस्म करने को उद्यत हो गए। सत्य | वास्तविकता यह है कि अपने जीवन को सिद्धान्तानुरूप ढालने में सहना भी सरल तो नहीं। राजहठ को चुनौती, वह भी पुत्री के | जरा कठिनाई होती है। पर एक बार ढल जाए तो सहजता से द्वारा, उस कन्या के द्वारा जिसे बचपन से पिता की प्रत्येक आज्ञा | किसी में भी नकारने की सामर्थ्य नहीं होती। प्रति पग मैना भारतीय को स्वीकार करने की शिक्षा दी जाती है। प्रतिवाद की तो कोसों परम्परा का अनुवर्तन करती है। पिता द्वारा तिरस्कृता मैना पति दूर तक गुंजाइश नहीं थी। पिता से पुत्री के संघर्ष की ऐसी अनोखी द्वारा सम्मानिता बनती है। श्रीपाल को उसके रोग का जरा भी घटना का इतिहास में कोई अन्य उदाहरण ढूँढे से नहीं मिलता। अहसास न कराने वाली मैना भारतीय परम्परा का अनुवर्तन करती मैना को राजवैभव, सुखभोग त्यागने का दुःख नहीं प्रत्युत श्रीपाल | है। अनिष्ट की शान्ति के लिए दीर्घ प्रवास पर तीर्थ यात्राएँ भी की विषम दशा से चिन्तित है। ऐसे पतिव्रत का वर्णन मिलना करती है। श्रीपाल को उसके रोग का जरा भी अहसास न कराने नितान्त दुर्लभ है। वह जीवन संघर्ष से भागती नहीं और न ही | वाली मैना का चरित्र स्वयं उसके मानवी जीवन को ईश्वर तत्त्व से जीवन की समस्याओं को सुलझाने से विमुख होती है। वह समग्र जोड़ देता है। आद्यन्त तक मैना कहीं भी सुबकती-सिसकती मानवी बनकर जीवन के महनीय और माननीय आदर्शों को सर्वदा नहीं, श्रीपाल के लिए उसका जीवन समर्पित था। वह 'सिद्ध चक्र जागरूकता के साथ अपने हृदय में धारण करती है, चरित्र में | विधान' करके कुष्ठ रोग दूर करती है। पुनः समस्त राजपाट प्राप्त क्रियान्वित करती है। छाया की भाँति श्रीपाल का अनुसरण करने | कर पटरानी बनती है। श्रीपाल चले जाते हैं। एक-एक पल वह वाली मैना की तत्परता और सुकुमारता कठोर मन पर भी अपनी | जिनाराधना में बिता देती है। यहीं मैना का चरित्र सर्वथा -दिसम्बर 2002 जिनभाषित 11 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थी। अनूठा,प्रशंसनीय एवं स्पृहणीय बन जाता है । वह ऐसा कोई कार्य | भैया ने ऐसा सुझफुर वातावरण प्रचार किया है जिसमें दुलार है, नहीं करती जिससे नारी की मर्यादा धूमिल हो या पतित हो। प्यार है, सेवा है, त्याग है तथा प्रेरणा देने की अपूर्व क्षमता है। भृमण्डल पर उसका संस्कृति और सभ्यता को नवीन उर्वर देता | नारी जीवन का मापदण्ड पतिव्रताओं के लिए मैना ही है। यह रहा। सर्वात्मना अनुपम मैना में शाीनता कूट-कूटकर भरी हुई | मूक नारी के संकल्पों पतिव्रताओं के लिए मैना ही है। यह मृकनारी के संकल्पों की दृढ़ व्यक्ति है। महिलाभूषण मैना ने श्रीपाल के मैना का चरित्र स्पष्ट: का है कि सिद्धान्तों के लिए रूप में कर्मों का भूभूत ही देखा और उसे अपनी प्रज्ञा छैनी से समझौता सही नहीं, भले ही वह पता ही क्यों न हो? परन्तु | विश्वसनीय आकृति दी। मैना के विवाह की बेला जो कारुणिक मर्यादाहीनता भी उचित नहीं। प्रा न मैना के सामने जीवन- | चित्रण उकेरती है वही उसकी त्याग तपस्या उसे विश्वसनीय मरण की समस्या रही। वह न पित ो दोष देती है, न पति को। | आकृति देकर सतत स्मरणीय व संग्रहणीय बना देती है। इस बस भाग्य को ही दोषी ठहराती उसकी इसी तपस्या का, | प्रकार मैना का संतुल जीवनवृत्त अलौकिक तत्त्वों की दिकता से सिद्धान्तनुसारिता का ही परिणाम ? के वह पति को निरोग कर सम्पन्न मनो-मुग्धकारी है। देती है, तो समस्त सुखभोग को प्रा. कर लेती है। श्रद्धा, ममता और सौन्दर्य की साकार प्रतिमा इस मधुरभाषिणी प्रज्ञावती मैना ने यदि तनिक भी अपने वचनों | वीरांगना ने जितना कठिन संघर्ष अपने अस्तित्व को सुरक्षित के लिए क्षमा माँग ली होती, आसन्न विपत्तियों से घबरा गई होती रखने के लिए इस जगती तल पर किया उतना किसी ने नहीं। तो वह भी अपनी युगीन नारियों की भीड़ में ही खो जाती। उसके सहिष्णुता की प्रतिमूर्ति इस देवी ने अत्याचार सहा, तथा नरक सदाचार, व्यवहार और कर्म सत्ता पर अटल विश्वास का ही यातनाओं को भी सहर्ष अंगीकार किया लेकिन अपने व्यक्तित्व परिणाम था कि वह विपरीत स्थितियों में भी शान्त और निर्विकार को मिटने नहीं दिया। स्वयं नीलकण्ठी बन इस तेजस्विनी ने रहती है। पृथ्वी सदृश उसकी क्षमाशीलता और सहिष्णुता दर्शनीय युग को जीवन दान दिया। अपनी प्रतिभा, अलौकिक बुद्धि, अपरिमित क्षमता, है। जिस धैर्य और सरलता से उसने अपना कर्त्तव्य निभाया उससे अपूर्व साहस और अथक परिश्रम से इस वीर बाला ने अपना कोई भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। जैनागम मैना जैसी आर्य पथ प्रशस्त किया। ललनाओं के ही पावन चरित से उज्ज्वल है, धन्य है। इनके रूप के.एच.-216, कविनगर में नारियों को अपूर्व साहस और चेतना मिली है अपने चारों और गाजियाबाद ग्रन्थ-समीक्षा लोकोत्तर साधना डॉ. जयकुमार'जलज' कृति-लोकोत्तर साधना, लखक- प्राचार्य निहालचंद । के पूर्व दी गई संक्षिप्त टिप्पणियों को नये शाब्दिक संस्कार जैन, बीना, प्रकाशक-जैनधर्म सं न संस्थान, अहमदाबाद। देकर घटनाओं के मर्म को ही नहीं जैनधर्म/दर्शन के अनेक प्रथम संस्करण-2001 । 107. मूल्य 25/- | सूक्ष्म रहस्यों को भी स्पष्ट किया है। प्रस्तावना/आमुख-प्रो. (डॉ.) रर न्द्र जैन। प्रधान सम्पादक जैन पारिभाषिक शब्दों की नवीन मान्यताएँ प्रभावित 'जिनभाषित' भोपाल प्रस्तुत वृ चारित्र चक्रवर्ती आचार्य करती हैं। जैसे-हिंसा पराभव व पराजय की पर्याय है। भक्ति में परमपूज्य श्री शान्तिसागर महाराज जीवन से सम्बन्धित 115 तर्क का उपालम्भ नहीं होता। महान संत की जीवन पुस्तक का घटनाओं/संस्मरणों का साहित्यिर ली में विवेचन है। प्रथम पृष्ठ करुणा के अक्षरों से लिखा होता है। निर्मल मन-- __ पूज्य आचार्यश्री के लोको वन/तपसाधना को प्रस्तुत सम्यक्त्व की भी है। करने का सार्थक प्रयास पं. नि चंदजैन (प्राचार्य) बीना कृति अनेकबार पठनीय है। (म.प्र.) ने किया । लेखक अनेक यों के सर्जक हैं। घटनाओं 12 दिसम्बर 2002 जिनभाषित Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिब्बाबंद खाद्य अभक्ष्य डॉ. श्रीमती ज्योति जैन जिनभाषित अगस्त, 2002 में शाकाहारी चिह्न के सन्दर्भ । पालन किया जा सकता है। "जैसा खावे अन्न वैसा होवे मन" में आपका जानकारी पूर्ण विज्ञापन देखा। हमें विचार करना है कहावतें वर्षों से हमारी संस्कृति में यूं ही नहीं समायी हैं। आज कि- उपभोक्तावादी और उदारीकरण के इस दौर में हम जो जीवन | आहार विशेषज्ञों का भी कहना है कि आहार का हमारे शरीर शैली अपना रहे हैं उससे हमारी आहार व्यवस्था/संस्कार कहीं | पर ही नहीं वरन् हमारे मानसिक क्रियाकलपाप और हमारे पीछे छूटते जा रहे हैं। फास्ट होती इस जीवन शैली की देन है संवेगों पर भी पूरा प्रभाव पड़ता है। फास्ट फूड/जंक फ़ूड/ डिब्बाबंद भोज्य पदार्थ, अधिकांश लोगों खाने-पीने की चीजों की भरमार आज आधुनिकता और की आहार चर्या में इन सबने अपनी गहरी पैठ बना ली है। | संपन्नता की प्रतीक बन गयी है। आज के यंग पपीज' फास्ट फूड अनगिनत व्यंजनों, राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय भोजन स्वादों ने खाने पीने | पार्लर में खड़े-खड़े खाया पैसा फेंका और चल दिये। आहार की भरमार कर दी है। फूड कंपनियों के चकाचौंध करते विज्ञापन व्यवस्था के इस दोष से अभिभावक भी नहीं बच सकते, जो बच्चों एवं इनके प्रचारतंत्र के मायाजाल ने उपभोक्ताओं की जिह्वा एवं में इस तरह की आदतों को बढ़ावा दे रहे हैं। कोई भी अवसर हो, स्वाद की लालसाओं को उकसाकार अपने मोहपाश में बाँध लिया | धार्मिक प्रवचन हो, शादी समारोह हो, सांस्कृतिक कार्यक्रम हो या है और हमारे सामने स्वाद का एक अनंत सागर सा लहराने लगा सफर, अधिकांश बच्चों के हाथ में चिप्स आदि स्नेक्स जंक फूड है। आज आधुनिक खानपान ने होटल संस्कृति को बढ़ावा दिया के पेकिट देखे जा सकते हैं। सेंडविच, मैगी न्यूडल्स तो अधिकांश है। होटल संस्कृति में बस खाया पीया पैसा फेंका और चल दिये, बच्चों के टिफिनों में अपना स्थान बना चुके हैं। "मैगी न्यूडल्स 2 न पौष्टिकता का ध्यान न स्वास्थ्य का और तो और न भक्ष्य- मिनिट" ने तो हर बच्चे को दीवाना बना दिया है और हम भी अभक्ष्य का विचार । इसीलिये आज हमारी शाकाहारी व्यवस्था अपने लाडले को बिना नुकसान की परवाह किये देते चले जाते है पर कुठाराघात के बादल मँडरा रहे हैं। कैलोरी लदा, चिकनाई में डूबा, रेशाविहीन भोजन, बड़ी आंत, आज की व्यस्ततम लाइफ में तुरंत तैयार भोज्य पदार्थों का | पित्ताशय, मलाशय और गर्भाशय कैंसर की जोखिम बढ़ा रहे हैं। महत्त्व बढ़ता जा रहा है। कामकाजी महिलाओं ने तो इन्हें लोकप्रिय | | "चाऊमिन" जो पहले चाइनीज रेस्टोरेंट तक ही समिति था आज बनाया ही है, आम गृहिणी भी इस मामले में पीछे नहीं है। इस | जगह-जगह स्टालों पर दिखाई देने लगे हैं। सामूहिक भोज, बर्थडे तरह पूरा परिवार ही इस खाने की चपेट में आ गया है। तुरंत तैयार | पार्टी, विवाह समारोह आदि में भी महत्त्वपूर्ण स्थान बना लिया है। खाद्य पदार्थों ने भोजन को सुविधाजनक बना दिया, बस आपको | इन स्टालों के इर्द-गिर्द जमा भीड़ इसकी लोकप्रियता सिद्ध करते अपनी पंसद चुनना है और निर्देशानुसार उसे ठंडा या गर्म करना | हैं। है। इस तरह के रेडीमेड भोज्य पदार्थ आज अधिकांश डाइनिंग | चाइनीज डिसेस में प्रयुक्त रसायन लंबे समय तक उपयोग टेबिल पर अपना स्थान बना चुके हैं। करने में स्वास्थ्य के लिये नुकसानदेह हैं। रसायन सोडियम ग्लूटामेट फास्ट फूड/जंक फूड/डिब्बाबंद भोज्य पदार्थों को बनाने | जो न्यूडल्स को अधिक समय तक खाने योग्य बनाये रखते है, यह में अनेक हानिकारक रसायनों और न जाने किन-किन मसालों रसायन स्वयं तो स्वादरहित है हमारी स्वााद कोशिकाओं को भी का उपयोग होता है। आज शाकाहारी भोज्य पदार्थों में अभक्ष्य | भ्रमित कर देता है और हमें अहसास होता है कि खाने में स्वाद ही पदार्थों की मिलावट होने लगी है। अनेक फूड कंपनियाँ अपने | स्वाद है। चाऊमिन आदि भोज्य पदार्थों का प्रमुख मसाला है पेकिंग पर कुछ इस तरह लिखती हैं कि जन साधारण समझ ही 'अजीनोमातो'। यह रसायन मस्तिष्क के हाइपोथेलेमस को प्रभावित नहीं पाते हैं। कुछ तो लिखती ही नहीं है। होटल की महँगी | करता है। हाइपोथेलेमस शरीर में हारमोनों के उत्पादन और संचालन सलाद, सूप, आइसक्रीम, टॉफी, चाकलेट, बेकरी उत्पाद इत्यादि का नियंत्रण करता है। जरा सोचिए रसायन का क्या प्रभाव हमारे तो संदेह के घेरे में थे ही, अब तो सेंडविच, बर्गर, पराठा, कुलचा, | शरीर पर पड़ता होगा। खाद्य पदार्थों में मिलाये जाने वाले रसायन डबलरोटी आदि शाकाहारी चीजों पर अभक्ष्य पदार्थों की काली उसी का अंग बन जाते हैं। इनके लगातार प्रयोग से सेहत पर असर छाया मँडरा रही है। पड़ता है। परिणाम दीर्घकाल में प्रकट होते है, अत: व्यक्ति कुछ खाद्य पदार्थों को लेकर हमारी संस्कृति, हमारी दिनचर्या समझ ही नहीं पाता। डॉक्टर्स भी नित नयी बीमारियों को देख संयमित, नियमित एवं सादगीपूर्ण रही है। जिसमें न केवल स्वाद | हैरान हैं। का, अपितु सेहत का भी भरपूर ध्यान रखा जाता है। आहार बदलते परिवेश में महिलाओं की रसोईघर संबंधी भूमिका संबंधी कुछ नियम, संयम आचार-विचार हैं जिनका सहजता से | कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण हो गयी है। आधुनिकता की लहर में -दिसम्बर 2002 जिनभाषित 13 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेक रसायनों फ्लेवरों और नये-नये मसालों का खूब प्रयोग हो । अधिकाधिक प्रयोग को हानिकारक बताया है। अभी हाल में ही रहा है। और हम खुश होते हैं कि हम अंतर्राष्ट्रीय भोजन शैली मेकडोनाल्ड कंपनी को भी शाकाहारी भावना को ठेस पहुँचाने के अपना रहे हैं। ध्यान रहे रसोई की शुद्धता आज आवश्यक हो गयी एवज में अच्छा खासा हर्जाना देना पड़ा था। वहाँ पर खान-पान है। खान-पान के मामले में स्वयं दृढ़ रहें और परिवार को भी विशेषज्ञ बड़ी तत्परता से कार्य कर अपना निष्कर्ष देते हैं। यही संस्कारित करें। जागरूकता हम सबको भी विकसित करनी है। 'जिनभाषित' सहित अनेक पत्र-पत्रिकाओं ने खाद्य पदार्थों को हरे लाल रंग से चिह्नित करने वाली संपूर्ण जानकारी दी है, पर खान-पान पर आयी विकृतियों पर हमारे आचार्य. साधु, कंपनियाँ अपना दायित्व कितना निभा रही हैं यह हम सब देख रहे | विद्वान, आहार विशेषज्ञ, डॉक्टर्स समय-समय पर ध्यान आकर्षित हैं? आवश्यकता है उपभोक्ता जागरूक बनें और आवाज बुलंद कर उचित मार्गदर्शन देते रहते हैं। अत: हमें स्वयं जागरूक बनना करें। खाद्य पदार्थों में क्या है, कंपनियाँ अवश्य लिखें ताकि हमारी | है, और विवेक रखना है कि क्या खायें क्या नहीं। विशेषकर बच्चों शाकाहारी भावना आहत होने से बचे। अमेरिका में जंक फूड, में आहार सबंधी उचित संस्कार डालें, ताकि भावी पीढ़ी एक कोला, सोडा, सॉसेज, वर्गर, पिज्जा आदि के विरुद्ध तेजी से | स्वस्थ समाज के निर्माण में सहायक हो। अभियान चल रहा है। आहार विशेषज्ञों ने अपने शोध से इनके । शिक्षक आवास 6, कुन्दकुन्द महाविद्यालय परिसर खतौली-251201 (उ.प्र.) बालवार्ता हथेली पर बाल क्यों नहीं? डॉ. सुरेन्द्र कुमार जैन, 'भारती' एक बार बादशाह अकबर ने बीरबल से पूछा-"बीरबल, | उन्हें इस बात का इल्म ही नहीं होता कि वे सम्पन्नता की राह हथेली पर बाल क्यों नहीं हैं?" | पकड़ें। वे तो मात्र छल-बल से ही सम्पन्नता चाहते हैं। सामाजिक बीरबल ने उत्तर दिया- "बादशाह, सिक्कों की रगड़ के असमानता का कारण भी इसी से है और लोगों के दुःख का कारण हथेली पर बाल नहीं है।" कारण भी यही है। यह कहते-कहते अकबर जैसे किसी गहन अकबर ने बीरबल का यह उत्तर सुनकर फिर पूछा- | विचार में डूब गया हो।" "बीरबल, यदि सिक्कों की रगड़ के कारण हथेली पर बाल नहीं बीरबल ने कहा- "हाँ, बादशाह, आप ठीक कहते हैं। है तो फिर उनकी हथेली पर बाल क्यों नहीं होते, जिनके नसीब योग्यता और सामर्थ्य तदनुकूल पुरुषार्थ से ही आती है। चींटी भी में सिक्कों का स्पर्श लिखा ही नहीं है या जो नितान्त गरीब हैं, अपना भरण-पोषण स्वयं कर लेती है फिर मनुष्य तो पंचेन्द्रिय किसी प्रकार भीख माँग-माँगकर अपनी क्षुधा पूर्ति करते हैं, सम्पन्न प्राणी है। यदि वह ठान ले तो पहाड़ को भी पददलित कर जिनकी आँखों में आशा की चमक भी बिजली की रेखा के सकता है और न चाहे, अकर्मण्य बैठा रहे तो अपना पेट भी नहीं समान क्षीण हो चुकी है, किन्तु आयु शेष होने के कारण जो भर सकता। सब अपनी शक्ति को पहचानकर अच्छी करनी से अपने शरीर को ढोने के लिए विवश हैं?" होगा।" बीरबल ने उत्तर दिया - "बादशाह ! ऐसे लोगों की हथेलियों पर बाल इसलिए नहीं हैं कि जब धनिक लोग सिक्के अकबर यह सुनकर बहुत खुश हुआ। वह गर्व से सभासदों गिन रहे होते हैं, तब वे उनकी धनसम्पन्नता से चिढ़कर अपनी की ओर देखने लगा मानो कह रहा हो कि जिस सभा में बीरबल निर्धनता के वशीभूत हो ईर्ष्यावश हाथ मलते रहते हैं।" जैसा गुणी नररत्न है उसके पास सब कुछ है। . "हाँ बीरबल, तुम ठीक कहते हो। यहाँ विचारणीय है | बच्चो ! हमें मूल कारणों की खोजकर उचित समाधान कि जो दूसरे की धनसम्पन्नता देखकर ईर्ष्या से जलते हैं वे यह | पाना चाहिए। दूसरों की धनसम्पन्नता उनके अपने कार्यों से है क्यों नहीं विचारते कि धन की प्राप्ति नेक कार्यों और उचित हमें भी खूब मेहनत कर पुण्य कमाना चाहिए ताकि पुण्य का पुरुषार्थ करने से होती है। जिनका विवेक मर चुका हैं उन्हें | फल धन-वैभव हमें मिल सके। कौन समझाये। वे तो दिन-रात खोटे विचारों में ही डूबे रहते हैं पता: एल. 65, न्यू इन्दिरा नगर, ए, बुरहानपुर (म.प्र.) 14 दिसम्बर 2002 जिनभाषित Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मधुर वचन अनमोल प्रस्तुति-सुशीला पाटनी फैले प्रेम परस्पर जग में मोह दूर ही रहा करे।। थोड़ा सा धन का लोभ दें, वह झूठी गवाही देने को तैयार हो अप्रिय कटुक कठोर शब्द नहीं कोई मुख से कहा करे॥ | जायेगा। थोड़ा सा लोभ दे दो, आदमी कुछ भी करने के लिए हमने सुना है कि महाभारत भी वचनों के कारण ही हुआ | तैयार हो जायेगा। था। द्रौपदी के ये वचन कि "अन्धों के अन्धे ही होते हैं। | तीसरा है भय, भय के कारण आदमी झूठ बोल देता है। दुर्योधन के हृदय में चुभ गये, परिणाम महाभारत हुआ। जिह्वा में | जब व्यक्ति पर कोई दबाव होता है तो आदमी को कहना कुछ अमृत भी है और जहर भी है। जिह्वा की मधुरता वाणी को होता है और कह कुछ देता है। भय बहुत अच्छी चीज़ नहीं है। आकर्षक बनाती है। ऐसे लोगों की वाणी में ऐसा आकर्षण उत्पन्न | चौथा कारण है मजाक- हँसी मजाक में आदमी न जाने होता है कि सभी पर अपना जादू सा असर छोड़ती है। एक ही क्या बोलता है। आप थोड़ा सा अपने मन को टटोलना कि सुबह आवाज में हर व्यक्ति भीतर तक प्रभावित हो जाता है। एक ही से शाम तक आपका जो समय जाता है, लोगों से बातचीत करते आवाज में लाखों लोग अपनी जान न्यौछावर करने को तैयार हो हैं, उसमें आप कितना झूठ बोलते हैं और जितना झूठ बोलते हैं जाते हैं। हर व्यक्ति उसका प्रशंसक, अनुगामी और हित चिन्तक उसका 80% मजाक का होगा। कहते हैं कि “रोग की जड़ बन जाता है। वाणी में ऐसी सामर्थ्य है कि वह पानी में आग लगा खाँसी और झगड़े की जड़ हाँसी" हँसी-हँसी में आदमी झगड़ा दे। वाणी एक ऐसा वशीकरण है जो लाखों को एक साथ जोड़ कर लेता है। देती है, तथा वाणी ही एक ऐसी शक्ति है जो लाखों को तोड़ भी पाँचवाँ हेतु है आदत-आदत एक ऐसी प्रवृत्ति है जो व्यक्ति देती है। एक आवाज पर लाखों का संहार हो जाता है तो एक | पर हावी हो जाती है Habit के संबंध में कहा जाता है कि आवाज पर लाखों के संहार को रोका भी जा सकता है । नीतिकारों | Habit कभी जाती नहीं। Habit में से H निकला दो abit रहेगा। ने कहा है abit में से "a" निकाल दो bit तो रहेगा और bit में से "b" जिह्वा में अमृत बसे, विष भी तिसके पास। निकाल दो तो it रहेगा, थोड़ा बहुत तो रहेगा, आदत जाती नहीं। इक बोले तो लाख ले, इकते लाख विनाश। आदत के कारण व्यक्ति अप्रिय शब्दों का प्रयोग कर देता है। जिह्वा से अमृत भी उड़ेला जा सकता है, तो जीभ से जहर, बन्धुओ, जिह्वा मिली है- ये जिह्वा तो प्रभु के गीत गाने के भी उगला जा सकता है। हमें अपनी वाणी पर सदैव अंकुश रखना | लिए मिली है। जिह्वा से प्रभु का गीत गाओ, गाली मत दो। जो चाहिए। संत कहते हैं- बोलो, पर बोलने से पूर्व विचार कर लो। | गाली बकते हैं वो अपनी वाणी का दुरुपयोग करते हैं, उनकी जो व्यक्ति बोलने से पूर्व विचार करता है उसे फिर कभी पुनर्विचार | वाणी एक दिन कुंठित हो जाती है। नहीं करना पड़ता। और जो व्यक्ति बिना विचारे बोल देता है उसे प्रियवाक्यप्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति जन्तवः । जीवन पर्यन्त विचार करने को बाध्य होना पड़ता है। वह पूरे तस्मात्तदैव वक्तव्यं वचने का दरिद्रता। जीवन पछताता रहता है। अरे भइया ! जब तुम्हारे मीठे बोलने से सब संतुष्ट होते हैं मधुर वचन हैं औषधि कटुक वचन हैं तीर। तो वही बोलो न, वचनों में क्या दरिद्रता करना? क्या तुम्हारे कर्णद्वारत संचरै,साले सकल शरीर॥ बोलने पर पैसा लगता है? क्या तुम्हारे पास शब्द संपदा की कमी एक वचन है जो औषधि का कार्य करता है और एक है? अरे शब्द का तो अपूर्व भण्डार है तुम्हारे अंदर, उस भंडार का वचन है जो तीर की तरह हृदय को चीर देता है। प्रयोग करो। अच्छे शब्दों का प्रयोग करो, बुरे शब्द अपने मुख से जब आदमी क्रोधाविष्ट होता है तो आपे से बाहर आ जाता कभी न निकालो। हमेश मधुर बोलो और इस भावना को हमेशा अपने सामने रखो - है, उसे कुछ भी होश नहीं रहता। तम-तमाया रहता है, न जाने फैले प्रेम परस्पर जग में मोह दूर ही रहा करे। क्या बोल देता है, पर शांत दिल से वह विचार करे तो खुद पछताये अप्रिय कटुक कठोर शब्द नहीं कोई मुख से कहा करे। कि वह क्या कह रहा है। इसलिए व्यक्ति को अपने क्रोध पर हमारे मुख से हे भगवन्! कभी भी अप्रिय शब्द न निकलें, नियंत्रण रखने की आवश्यकता है। हमारे मुख में मिठास भरे, हमारे मुख में मधुरता भरे और हमारे दूसरा है, लोभ! लोभ के सम्बन्ध में कहा जाता है कि सारे संबंध मधुर बनें- इस भावना से आज अपनी चर्चा को यहीं लोभ आदमी की जिह्वा छीन लेता है। लोभ के कारण व्यक्ति क्या पर विराम दे रहे हैं। नहीं बोलता। ये लोभ ही ऐसा कारण है जिससे अपने को पराया आर.के.मार्बल्स लि., और पराये को अपना कहने में भी व्यक्ति नहीं चूकता। आदमी को मदनगंज-किशनगढ़ -दिसम्बर 2002 जिनभाषित 15 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकृति के समीप लौट चलें डॉ. वन्दना जैन यदि कोई शक्ति है जो पर्वतों को भी हिला सकती है तो । नियमों के पालन करने से मनुष्य सही अर्थों में स्वस्थ होता है। वह शक्ति है आत्म विश्वास ! यदि हम आत्म विश्वास नहीं है तो | प्राकृतिक चिकित्सा में दवाओं का प्रयोग नहीं किया जाता वरन् हमें अपने आप को मनुष्य कहने का कोई अधिकार नहीं है। यदि प्रा. चि. स्वयं दवाइयाँ पैदा करती है हमारे शरीर से। सिर्फ हमारा हम स्वस्थ रहना चाहते हैं तो अपने अंदर स्वस्थता का विश्वास लीवर 500 प्रकार की दवाईयाँ बनाता है। पित्ताशय दर्जनों दवाइयाँ पैदा करना होगा। स्वामी रामतीर्थ ने ठीक ही कहा है कि यदि पैदा करता है, हमारा शरीर ही दवाओं का कारखाना है। वह स्वयं आप अपने आप को पापी कहेंगे तो पापी हो जावेंगे और मूर्ख अपना चिकित्सक है। जरूरत है उसे सहयोग करने की। स्वास्थ्य कहेंगे तो मूर्ख । यदि अपने आप को शक्तिमान कहेंगे तो शक्तिमान हमारा स्वरूपसिद्ध अधिकार है, जिसे हमें प्राप्त करके ही रहना है, बन जायेंगे, अनुभव कीजिए, आप शक्तियों के भंडार है आप | वह होगानिर्बल नहीं, आप रोगी नहीं हो सकते। प्रश्न होता है कि हम 1. सम्यक आहार विहार। बीमार क्यों होते हैं? इसका उत्तर है कि हम स्वस्थता का आत्म 2. सम्यक रहन सहन। विश्वास खो बैठते हैं, प्रकृति के नियमों का उल्लंघन करते हैं तभी 3. सम्यक चिंतन मनन से. हम बीमार होते हैं। बीमार होने के तीन कारण माने गये है। जरूरत है सिर्फ अपने आप को बदलने की, प्रकृति के 1. गलत आहार-बिहार। नियमों के पालन करने की, प्रकृति की ओर लौटने की, इससे हम 2. गलत रहन-सहन।। रोगों से बचे रह सकते हैं। 3. गलत चिन्तन-मनन। "रोग के समय प्रकृति हमारे शरीर से विष को निकालना आज मनुष्य उत्तेजक एवं मादक द्रव्यों का सेवन करता है, | चाहती है, फोड़ा-फुसी, सर्दी-जुकाम, दस्त-बुखार आदि के रूप ठूस-ठूस कर अनाप-शनाप खाता है, व्यायाम नहीं करता तथा | में। प्रकृति की इसी चेष्टा का नाम रोग है।" एक प्रसिद्ध प्राकृतिक निर्मल सूर्य प्रकाश तथा स्वच्छ वायु आदि प्राकृतिक उपादानों का | चिकित्सक का कथन है कि तुम मुझे ज्वर दो, मैं तुम्हें स्वास्थ्य उचित रूप से सेवन नहीं करता। दूषित मानसिकता से ग्रस्त रहता | देता हूँ। अर्थात् मल पूरित शरीर को मल रहित करने के लिए है। इन गलत आदतों से शरीर में तीन तरह के विकार पैदा होते | ज्वर आदि तीव्र रोग ही एक मात्र सच्चा उपाय है। अत: तीव्र रोग शत्रु नही, हमारे मित्र होते हैं। 1. शरीर में विजातीय द्रव्य (टाक्सिन मेटर) या विष "डॉ. लिण्डल्हार के अनुसार प्रत्येक तथाकथित तीव्र रोग इकट्ठा होता है। प्रकृति द्वारा शरीर शोधन और उपचारात्मक प्रयत्न का फल है। जो 2.जीवनी शक्ति (वॉइटल पावर) कम हो जाता है अर्थात् हमें स्वास्थ्य देने आते हैं, लेने नहीं।" । रोग प्रतिरोधक क्षमता घट जाती है। प्राकृतिक चिकित्सा में सभी रोगों का एक ही कारण माना 3. शरीर में रक्त घटक असमान्य हो जाते हैं। जाता है, उसकी चिकित्सा को भी एक ही माना जाता है। कवि इससे बचने के लिए हमें प्राकृतिक चिकित्सा को अपनाना रवीन्द्र ने एक जगह लिखा है- भारत की सदा से यही चेष्टा देखी होगा। प्राकृतिक चिकित्सा वह पद्धति है जो वर्षों से चली आई है जाती है, वह अनेक मार्गों को एक ही लक्ष्य की ओर अभिमुख और आज भी जिसका निरंतर विकास जारी है। जो एक | करना चाहता है। वह बहुतों के बीच किसी एक को अन्तरतम अतिवैज्ञानिक प्रणाली है और जिसमें निदान डॉक्टर दबाइयाँ और रूप से उपलब्ध करना चाहता है। उसका सिद्धांत यह है कि बाहर अस्पताल प्रधान न होकर मरीज या कष्ट पीड़ित व्यक्ति प्रधान | जो विभिन्नता दीख पड़ती है उसे नष्ट करके उसके भीतर जो निगूढ़ होता है तथा उसका कष्ट जड़ से दूर करने का प्रयास किया जाता | संयोग दिखाई पड़ता है उसे प्राप्त करना चाहिए। है। इसमें रोग के वास्तविक कारण की खोज की जाती है और | उपर्युक्त कथन में शतप्रतिशत सत्यता विद्यमान है। आत्म कष्ट को दूर करने के लिए सबसे सरल, सबसे प्राकृतिक तथा | तत्त्व एक है, उसे जान लेने पर कुछ भी जानना शेष नहीं रह जाता सर्वाधिक वृद्धिसंगत उपाय किए जाते है। यह सिर्फ एक चिकित्सा है। प्राकृतिक चिकित्सा विज्ञान भी एक दर्शन है, जिसके पद्धति ही नहीं, वरन एक सम्पूर्ण जीवन दर्शन है, व स्वस्थ जीवन | सिद्धांतानुसार समस्त रोग वस्तुत: एक ही है तथा उनकी प्राकृतिक जीने की कला है, जिसमें प्रकृति के समीप रहना सिखाया जाता | चिकित्सा भी एक ही है। एक स्वर्ण जिस प्रकार विविध नाम व है। क्योंकि प्राकृतिक चिकित्सा प्रकृति से ही उद्भूत हुई है। | आभूषणों के रूप में प्रकट होता है, उसी प्रकार प्राकृतिक चिकित्सा प्रकृति के पंचमहाभूतों का सम्यक् प्रयोग करते हुए प्रकृति के | विज्ञान का यह अटल सिद्धांत है कि मानव शरीर में स्थित एक ही 16 दिसम्बर 2002 जिनभाषित Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजातीय द्रव्य अनेक रोगों के रूप में प्रकट और विख्यात होता | मन और आत्मा से बड़ा घनिष्ठ होता है। सुकरात कहा करता था अगर मनुष्य केवल बलवान हो तो इसमें उसकी कोई विशेषत सूक्ष्म रूप में देखने और विचार करने से मनुष्य को सताने | नहीं, मृतक मनुष्य नहीं है शव मात्र है, परन्तु जीवित मनुष्य के वाले विभिन्न प्रकार के रोगों में एकरूपता प्रत्यक्ष रूप से परिलक्षित शरीर और मन का अविच्छेद संबंध होता है दोनों को मिलाकर होती है। मनुष्य अप्राकृतिक व कृत्रिम साधनों का प्रयोग कर एक समझना होगा और एक को छोड़कर दूसरे का विकास किय गलत राह पर चलकर अपने शरीर में विषाक्त दूषित मल (जिसे | भी नहीं जा सकता। मस्तिष्क को उन्नत रखते हुए शरीर को प्राकृतिक चिकित्सा की भाषा में विजातीय द्रव्य कहते हैं) से भर | बलशाली करने वाला शरीर सुख के मार्ग पर होता है। जाता है। परिणाम यह होता है कि मनुष्य को देर सबेर बीमार प्राकृतिक जीवन, प्राकृतिक रहन-सहन, प्राकृतिक खान होना ही पड़ता है ताकि प्रकृति को रोगों के रूप में उनके भीतर | पान हमारे जीवन में सात्त्विकता लाकर हमें ऊपर उठाते हैं। मन स्थित उस विजातीय द्रव्य को निकालने और उन्हें स्वस्थ बना देने | का संयम करके हम अध्यात्म की ओर लौट जावेंगे। यह सच है का मौका मिले। कि अगर मानव जाति प्राकृतिक चिकित्सा का अनुकरण करे और चिकित्सा की अन्य पद्धितियों में रोग की चिकित्सा पर उसे अपनाये तो निर्दयता, पाशविकता, पैशाचिकता संसार से एकदम जोर दिया जाता है, परन्तु प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति में रोगी के | उठ जावे और पृथ्वी पर स्वर्ग उतर आवे। रोगी शरीर निर्बल समृचे शरीर की चिकित्सा करके उसे नया बनाया जाता है, जिससे | आत्मा और कलुषित मन तीनों की चिकित्सा के लिए प्रार्थना रोगों के चिन्ह आप से आप गायब हो जाते हैं। जिसे अन्य पद्धितियाँ ध्यान, मंत्र अथवा प्रभु नाम जप, जो कि प्राकृतिक चिकित्सा का रोग कहती है, प्राकृतिक चिकित्सा में उसे रोग का चिन्ह कहा | प्रमुख अंग है, राम बाण चिकित्सा है। जाता है। वास्तिविक रोग तो शरीर में इकट्ठा विजातीय द्रव्य या | संक्षेप में प्राकृतिक चिकित्सा का तात्पर्य रोगों से मुक्ति विष होता है। सिर दर्द होने पर केवल सिर दर्द की दबा नहीं होनी एवं स्वस्थ समाज के लिए आम आदमी को अपने आहार बिहार, चाहिए, अपितु सिरदर्द के कारण स्वरूप पाचन प्रणाली के दोष आचार-विचार, चिंतन मनन और व्यवहार में परिवर्तन करना या समूचे शरीर के रक्त दोष की होनी चाहिए, जिसके दूर होने पर होगा। सीधी सरल सहज एवं स्वाभाविक सच्चाई यह है कि सिरदर्द आप से आप चला जावेगा। समस्त रोगों का कारण आहार-विहार एवं विचारों के खराब होने मन, शरीर और आत्मा तीनों के स्वास्थ्य सामंजस्य का से विजातीय पदार्थ का प्रकृति द्वारा शरीर से विकार मुक्ति का नाम पूर्ण स्वास्थ्य है। प्राकृतोपचार में तीनों की स्थास्थ्योन्नति पर | | सहज प्रयास ही रोग है। आधुनिक चिकित्सा में रोग को दबाओं बराबर ध्यान रखा जाता है। यह प्राकृतिक चिकित्सा प्रणाली की द्वारा दबा दिया जाता है जिससे तुरंत राहत (रिलीफ) मिल जाती सबसे बड़ी विशेषता है- प्राकृतिक चिकित्सा मनुष्य के मानसिक | है किन्तु बाद में दबा हुआ रोग घातक जीर्ण एवं चिरकालिक स्वास्थ्य को उसके शरीरिक स्वास्थ से अधिक आवश्यक और | (क्रोनिक) के रूप में सामने आता है, ऐसी स्थिति में राहत शामत गुरुतर समझती है। और आत्मिक स्वास्थ या आत्मबल को सर्वोपरि | बन जाती है तथा रिलीफ ग्रीफ बन जाता है। एवं गुरूतम। प्राकृतिक चिकित्सा दमनात्मक एवं सप्रेसिव नहीं बल्कि कोई भी बीमारी पहले मन में उपजती है और फिर तन में | अपनयन मूलक एवं पुर्नजीवन प्रदान करने वाली संजीवनी है पनपती है, इसलिए एक प्राकृतिक चिकित्सक की नजर में शारीरिक | ऐसी संजीवनी को पाने के लिए हमें आज नहीं तो कल प्रकृति के स्वास्थ का अर्थ केवल रोगरहित शरीर ही नहीं होता, अपितु वह | समीप लौटना ही होगा। यह भी जानता है कि मनुष्य के शरीर के स्वास्थ का संबंध उसके भाग्योदय तीर्थ, सागर (म.प्र.) सूचना 1. कुछ सदस्यों से जानकारी प्राप्त हो रही है कि उनको 'जिनभाषित' के अंक नियमित रूप से नहीं मिल रहे हैं। हमको भी प्रतिमाह 15-20 पत्रिकाएँ पता ठीक न होने के कारण वापिस प्राप्त हो रही है। अतः सभी सदस्यों से अनुरोध है कि वे अपना पूरा पता पिनकोड एवं रसीद नम्बर सहित लिखकर हमारे पास भेजें, ताकि उन्हें जिनभाषित नियमित रूप से प्राप्त हो सके। 2. जिन वार्षिक सदस्यों का एक वर्ष पूर्ण हो चुका है, वे वार्षिक सदस्यता शुल्क सौ रुपये प्रकाशक के पते पर भेजने की कृपा करें अथवा पाँच सौ रुपये भेजकर आजीवन सदस्यता का लाभ उठायें। -दिसम्बर 2002 जिनभाषित 17 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आप खान-पान में कितने सावधान? प्रो. डॉ. के.जे. अजाबिया मुम्बई की एक सेवाभावी संस्था विनियोग-परिवार की ओर से 'आइसक्रीम-रोटी-ब्रेड, जिनेटिक के बारे में सच्ची जानकारी' नामक पुस्तिका में भिन्न-भिन्न प्रामाणिक लेखों का संकलन किया गया है। उस संकलन के कुछ उपयोगी अंशों का पुन: संकलन संक्षेप में इस लेख में किया गया है, इससे आप अनजाने में ही हो जाने वाले मांसाहार और हिंसा के पाप से बच जायेंगे। आइसक्रीम और उसके पदार्थ आइसक्रीम में हानिकारक रसायनों का मिश्रण - श्रीमती आइसक्रीम जिस तरह बनता है वह प्रक्रिया यदि समझी मेनका गाँधी आइसक्रीम में फ्लेवर (विशिष्ट प्रकार की सुवास जाय तो जीवनमें कभी उसे खाने की इच्छा ही न होगी। एक और विशिष्ट प्रकार के स्वाद) के लिये विभिन्न प्रकार के हानिकारक आर्टिकल में बताया गया है कि कितने ही आइसक्रीमों में हम 55 रसायनों के मिश्रण को स्पष्ट करती हुई बताती हैंप्रतिशत तो हवा के ही पैसे देते हैं तथा 35 प्रतिशत गंदे और यह मांसाहारी मिश्रण अनेक प्रकार के विषों से भरा हुआ अपेय पानी के पैसे देते हैं। तात्पर्य यह है कि आइसक्रीम में 90 | हैप्रतिशत तो प्रदूषित हवा एवं पानी ही होता है और शेष मांसाहारियों (1)डाई-एथिल ग्लुकोज- अण्डों के स्थान पर उपयोग के लिये भी अखाद्य अर्थात् जिसे मांसाहारी भी नहीं खाते, ऐसे में लाया जाने वाला यह सस्ता रसायन एण्टीफ्रीज दर्द निवारक पशुओं के नाक, कान और गुदा के भाग-जो कत्लखानों की फर्श | औषधियों में होता है। पर दुर्गन्धयुक्त हालतमें पड़े हुए होते हैं उनसे आइसक्रीम का (2) पेपरानोल - वेनिला के स्थान पर आइसक्रीम में ऊपरी स्तर बनाया जाता है, जो मुँह में डालने के साथ ही आसानी | पेपरानोल प्रयुक्त किया जाता है, जिसका उपयोग नँ अथवा लीखों से गले में उतर जाता है। को मारने के लिए भी किया जाता है। आइसक्रीम-शाकाहारी खाद्य नहीं-उसी आर्टिकल में इस (3) एल्डिहाईड- आइसक्रीम में विशिष्ट प्रकार का स्वाद प्रकार बताया गया है और सुगन्ध लाने के लिए एल्डिहाईड सी-17 नाम का पदार्थ प्रथम बात तो यह है कि आइसक्रीम शाकाहारी खाद्य | मिलाया जाता है, जिसका प्लास्टिक और रबर में भी उपयोग पदार्थ नहीं है। किया जाता है। यदि उसके ऊपर 'इसमें आमिष नहीं है'- ऐसा स्पष्टत: (4) एथिल एसिटेट- आइसक्रीम में अनानास का स्वाद लिखा न हो तो आइसक्रीम बनाने की शुरुआत चरबी के एक स्तर और उसकी सुगन्ध लाने के लिए एथिल एसिटेट मिलाया जाता से होती है। चरबी के स्तर को कड़क और रबर-जैसा छिद्रवाला है। वास्तव में यह रसायन चमड़ों और कपड़ों को साफ करने के बनाया जाता है ताकि उसके छिद्रों में ज्यादा हवा का समावेश हो लिए उपयोग में लाया जाता है । इसके धुएँ से फेफड़ों, लीवर और सके। यह प्रक्रिया अतिशय शीतल कमरेमें की जाती है। चरबी के हृदय को सदा के लिए हानि पहुँचती है। ढेर (स्तर)-को काटते समय जो छोटे-छोटे टुकड़े जमीन पर गिर (5) ब्युटेल्डिहाईड- आइसक्रीम में मिलाया जाने वाला जाते हैं, उन्हें एकत्रित करके सुगन्धयुक्त बनाकर चॉकलेट के रूप यह रसायन रबर और सीमेण्ट में प्रयुक्त होता है। में बेचा जाता है ताकि जमीन पर गिरे हुए और मजदूरों के पैरों से (6) एमिल एसिटेट - आइसक्रीम में केले का स्वाद कुचले इन चरबी के टुकड़ों में स्वादविकृति आ जाती है, वह दब लाने के लिए एमिल एसिटेट मिलाया जाता है जो ऑयल पेन्ट का जाय। द्रावक पदार्थ (Solvent) है। ___हवा और चरबी का यह मिश्रण नरम बने और चम्मच पर (7) बेन्झिल एसिटेट - स्ट्रॉबेरी का स्वाद लाने के चिपक सके, इसलिये प्राणियों के स्तन (Udder), नाक, पुच्छ लिय यह मिलाया जाता है, जो एक प्रकार का नाइट्रट साल्वन्ट और गुदा की चमड़ी-जैसे अखाद्य अङ्गों को उबालकर प्राप्त किया | (द्रावक पदार्थ) है। हुआ एक चिकना (Sticky; Greasy) पदार्थ उसमें मिला दिया इस प्रकार अपने प्यारे लाड़लों को आप अत्यन्त प्रेम से जाता है। यह चिकना पदार्थ चरबी के प्रत्येक छिद्र में फैल जाता आइसक्रीम नामक जो वस्तु खिलाते हैं, वह वास्तव में प्राणियों के है। उसी वहज से आइसक्रीम जीभ और तालु के बीच दबाये जाने अवयवों से उत्पन्न किया हुआ चिपचिपा,दुर्गन्धयुक्त जल, एन्टीफ्रीज, पर सरलता से पिघल जाती है। यह जाननेपर भी क्या आपको ऑयल पेन्ट, नाइट्रेट सॉल्वेन्ट, केशकीटों को मारने वाला रसायन आइसक्रीम खाना है? फलों का रस तो अब पुराना माना जाने लगा | और हवा का मिश्रण ही है। है, किंतु जो आइसक्रीम शक्कर, अण्डे, चरबी, दूध और एसेंस-इन अस्तु, घर पर पुरानी पद्धति से शरबत बनाओ और सबका जुगुप्साजनक मिश्रण है, उसे बड़े चाव से खाया जाता है।' | आइसक्रीम खाना हमेशा के लिए छोड़ दो। 18 दिसम्बर 2002 जिनभाषित Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कछ आइसक्रीमों में अण्डों का रस और जिलेटिन । होती है। अत: स्वाद के लिये सदा अधिक मात्रा में खाने से बच्चों आइसक्रीमों में अण्डे मिश्रित करने की कानून ने मंजूरी दे | का आहार कम हो जाता है, जिससे बच्चे विटामिन और प्रोटीन से दी है, किंतु अण्डों का रस यदि मिश्रित किया गया हो तो उसका वञ्चित रह जाते हैं। विज्ञापन (Declaration) करने का कोई नियम नहीं है। किसी (2) दाँतों को हानि - अधिक मात्रा में चॉकलेट खाने भी शाकाहारी के लिए मांस जितना वर्ण्य है उतने ही अण्डे भी | से बच्चों को दाँत की तकलीफ भी होती है। दन्त चिकित्सकों के वर्ण्य हैं। यदि अण्डों के मिश्रण का विज्ञापन अनिवार्य बनाया मतानुसार भोजन में शक्करवाले पदार्थ खाने से दाँत में केविटी जाय तो भी कुछ प्रयोजन सिद्ध नहीं होगा, क्योंकि ऐसा विज्ञापन | (छिद्र) हो जाती है। इस खोल (Cavity) में मीठे पदार्थों के कौन पढ़ेगा? (छोटे अक्षरों में दिये गये) इस निवेदन या सूचना के सेवन से सूक्ष्म जीवाणु बढ़ जाते हैं और जीवाणुओं के साथ शक्कर प्रति किसका ध्यान जायगा? जिलेटिन भी बेशक मांसाहारी पदार्थ | मिलने से एसिड बन जाता है जो दाँतों के लिये अत्यधिक हानिकारक है, जो प्राणियों की हड्डियों और टिस्सुओं से बनाया जाता है। कई उत्पादक आइसक्रीम में जिलेटिन भी मिश्रित करते हैं। (3) पाचनतन्त्र में तकलीफ और स्वभाव में आइसक्रीम के बारे में इस जानकारी के बाद निष्कर्ष यह | चिड़चिड़ाहट- चॉकलेट आदि खाने से बच्चों का पेट साफ नहीं है कि रहता। वे सुस्त रहते हैं और चिड़चिड़े स्वभाववाले बन जाते हैं। (1) कुछ आइसक्रीम अण्डों के रस, चरबी और जिलेटिन इन सबका मूल कारण चॉकलेट ही है। बाजार में बिकनेवाला हर से युक्त होने के कारण शाकाहारियों के लिए त्याज्य हैं। माल अच्छा ही होता है, ऐसा मानने की भूल कभी नहीं करनी (2) अण्डे इत्यादि से रहित और सिर्फ दूध से ही बनायी | चाहिये। गयी आइसक्रीम में भी यदि उत्पादक ने प्राणिजन्य चिकने पदार्थों (4) हिंसा और समाजविरोधी व्यवहारों में वृद्धिका मिश्रण ज्ञात-अज्ञात रीति से, आइसक्रीम चम्मच पर चिपकी केलिफोर्निया में 800 प्रयोगों के बाद सिद्ध हुआ है कि बाल रहे इसलिये किया हो तो भी त्याज्य ही है। अपराधियों और किशोर वय के अपराधियों की एक संस्था में मिष्ट (3) अण्डों का उपयोग जिसमें नहीं किया गया हो, ऐसी भोजन कम और चॉकलेट बिलकुल बंद कर देने से अपराधी आइसक्रीम भी त्याज्य है; क्योंकि अति उष्ण और अति शीत बालकों में हिंसा और समाजविरोधी प्रवृत्तियाँ आधी हो गईं। पदार्थों का भोजन रोगकारक माना गया है। आइसक्रीम, बर्फ, चॉकलेट में निकल ( Nickel)- लखनऊ की पर्यावरण फ्रिज में रखे हुए शीतयुक्त पदार्थ-ये सब प्रदीप्त जठराग्नि को नष्ट प्रयोगशाला में वैज्ञानिक श्री एस.सी. सक्सेना द्वारा किये गये शोध कर देते हैं। से ज्ञात हुआ है कि चॉकलेट में ज्यादा निकल होने से बच्चों को तात्पर्य यह है कि शाकाहारियों के आरोग्य के लिये कैंसर भी हो सकता है। इसके अतिरिक्त यकृत (Liver), पित्ताशय हानिकारक तथा शंकास्पद इस आइसक्रीम नाम के पदार्थ से दूर पर भी बहुत खराब असर होता है, चर्मरोग भी हो सकते हैं और रहना ही हितकारी है। बाल भी अकाल ही श्वेत हो जाते हैं। श्री सक्सेना दावे के साथ चॉकलेट और बछड़ों का मांस कहते हैं कि भारत की चॉकलेटों में अमेरिकी चॉकलेटों की ___'नेस्ले लिमिटेड' की किटकैट नाम की चॉकलेट आज अपेक्षा निकल की मात्रा अधिक होती है। सामान्यत: 40 ग्राम की बच्चों में बहुत प्रिय है और प्रायः शाकाहारियों के घरों में भी बड़े चॉकलेट में 160 माइक्रोग्राम निकल होनी चाहिये, किंतु यहाँ तो पैमाने पर खायी जाती है। किटकैट छोटे-छोटे बछड़ों को मारकर 600 से 1340 माइक्रोग्राम निकल देखने में आता है। संक्षेप में उनके शरीर से प्राप्त किये गये रेनेट से बनायी जाती है। 'नेस्ले कहा जाय तो चार से दस गुना अधिक निकल होता है। यू.के. लिमिटेड' की न्यूट्रीशन ऑफिसर श्रीमती वाल एन्डरसन चॉकलेट में 11 रंग और रसायन ने एक पत्र के जवाब में लिखा था कि 'किटकैट में कोमल बछड़ों टॉफियों में कृत्रिम रंगों के रूप में 1-पोन सो, 2-कार्मोसिन, का रेनेट (मांस) होने से शाकाहारियों के लिये किटकैट अखाद्य 3-फ्रास्ट रेड ई, 4-अमारंध, 5-एरी प्रीसीन, 6-टाइड्रोजीन 7पदार्थ है।' यह पत्र 'यंग जैन्स' नाम के अन्तर्राष्ट्रीय मैगजीन में सनसेट येलो, 8- ईंडिगो कारमीन, 9-लिंट ब्लू, 10-ग्रीन रस प्रकाशित हुआ है। और 11-फ्रास्ट ग्रीन मिलाये जाते हैं। इन 11 रंगों के अतिरिक्त चॉकलेट, लॉलीपॉप, टॉफी और च्युईंगम रंगों का उपयोग गैरकानूनी माना जाता है। इन नियत किये गये रंगों यदि आपको अपने बच्चे प्यारे हैं तो उन्हें कभी चॉकलेट, की मात्रा भी एक किलोग्राम पदार्थ में 0.2 ग्राम से अधिक नहीं टॉफी आदि खाने के लिये मत देना। बालकों को चॉकलेट. होनी चाहिये । यद्यपि 'विश्व स्वास्थ्य संगठन' (डब्ल्यू.एच.ओ.) लॉलीपॉप, टॉफी और च्युईंगम की भारी चाह होती ही है। किंतु | ने अमारंध रंग को मान्य नहीं किया है तथापि आज इसका उपयोग इससे निम्नलिखित हानियाँ होती हैं ज्यादा हो रहा है। कनाडा, रूस और अमेरिका में किये गये (1) आहार कम हो जाता है - बालकों के विकास के | विश्लेषण से ज्ञात हुआ है कि अमारंध रंग सिर्फ कैंसर की उत्पत्ति लिये पौष्टिक आहार की आवश्यकता होती है, किंतु चॉकलेट | ही नहीं, अपितु गर्भस्थ शिशुओं में भी जन्मजात विकृति और सिर्फ केलोरी ही होती है। चॉकलेट और टॉफी में पूर्णत: शक्कर | न्यूनता उत्पन्न कर सकता है। इसी तरह जर्मनी में वैज्ञानिक पद्धति -दिसम्बर 2002 जिनभाषित 19 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से किये गये परीक्षण के अनुसार सनसेट येलो का अधिक सेवन ब्रेड किसके लिये भयावह है ? अन्धत्व (Blindness) ला सकता है। ये रसायन बच्चों के विकास सी.ई.आर.सी. की पत्रिका 'इनसाइट' की सम्पादिका प्रीति में बाधक बनते हैं। पाचनशक्ति भी मंद हो जाती है। फिर ऐसी | शाह ने लिखा है- 'एक प्रकारसे विचार करने पर मालूम होता है हानिकारक रंग-बिरंगी टॉफियों और चॉकलेटों का लुभावना विज्ञापन | कि विषयुक्त रसायनों की मिलावट से अधिक भय तो छोटे बच्चों देकर बच्चों को क्यों धोखे में डाला जाता है? करीब 40 प्रतिशत | को, गर्भवती स्त्रियों को, वृद्ध व्यक्तियों को और कम प्रतिकारक बच्चे तो विज्ञापनों से आकृष्ट होकर ही इन्हें खरीदते हैं। शक्तिवाले रोगियों को बना रहता है।' चरबी से बनाई गई कुछ चॉकलेटें। सी.ई.आर.सी. ने ब्रेड की 13 ब्राण्डों का नामोल्लेख भ कुछ चॉकलेटें चरबी के गिरे हुए टुकड़ों से कैसे बनायी | किया है, जिनका परीक्षण किया गया था। यदि ऐसी प्रख्यात जाती हैं, उसे श्रीमती मेनका गाँधी ने भी स्पष्ट किया है (देखिए । ब्राण्डों में भी ऐसे जहरीले रसायन हों तो यत्र-तत्र तैयार की जाती उनके लेख का प्रथम भाग) सुन्दर और मनोहर पैकिंगवाली तथा आकर्षक विज्ञापनोंवाली दूसरी उपर्युक्त हकीकतों से स्पष्ट हो जाता है कि ब्रेडों की तो बात ही क्या करना? आप और आपके बच्चे पाव (1) कुछ चॉकलेटें चरबीजन्य होने से शाकाहारियों को | ब्रेड और बिस्किट खाने के पहले वे जिन चीजों से बनाये जाते हे स्वयं तथा अपने बच्चों को लेकर सावधान रहना चाहिये ताकि | इसका विचार करें तो इनसे बच जाएँगे। अनजान में होने वाले मांसाहार से बचा जा सके। बिस्किट के बारे में यह भी विचारिये। (2) चॉकलेटों में उपयोग में लाये जाने वाले निकल एवं खाद्य पदार्थ-मिलावट-प्रतिबन्धक नियम अ-18/07 के रसायन वैज्ञानिक शोधों के अनुसार हानिकारक हैं और कुछ | अनुसार आइसक्रीम की तरह बिस्किटों में भी अण्डों का उपयोग खतरनाक तथा असाध्य रोग भी उत्पन्न कर सकते हैं। करने की अनुमति दी गयी है, किंतु बिस्किट में अण्डों का मिश्रण (3) चॉकलेट आदि खाने वालों के दाँत, पाचन, स्वास्थ्य करने पर उसकी सूचना अथवा विज्ञापन भी जारी करना अनिवार भी बिगड़ जाते हैं। नहीं है। अत: शाकाहारी लोग अपने बच्चों को बड़े चाव से यति तो क्या आप मीठी चॉकलेटों के कटु और हानिकारक बिस्किट खिलायें तो धोखे में ही रहेंगे। बेबी फूड्स के बारे परिणाम जानने पर भी अपने बच्चों को ये देंगे? क्लोड अल्वारीस लिखते हैं कि 'बच्चों को मार डालने के लिये ब्रेड, बिस्किट और बच्चे अनेक मार्ग हैं, बेबी फूड्स इनमें से एक है।' जो बात बेबी फूड्स आप और आपके बच्चे बड़े चाव से स्वादिष्ट ब्रेड और | के लिये सच है वही बात बिस्किट और आइसक्रीम के बारे में में बिस्किट खाते हैं। किंतु 'INTELLIGENT INVENTOR' | उतनी ही सच है। आटा पचाने के लिये भी क्षमता नहीं रखनेवालं में दिनाङ्क 9-8-2000 के अङ्क में छपे हुए एक लेख में निवेदिता बच्चों के पाचन-तन्त्र पर जब मैदे से बनाये हुए बिस्किटों क मुकर्जी क्या कहती हैं, इस पर एक दृष्टिपात कीजिये आक्रमण होता है, तब वे मर न जाएँ तो भी बीमार तो हो हं आप अपने परिवार को गेहूँ का जो तैयार आटा खिलाते हैं जाएँगे। वेजीटेबल घी और मैदे से बनाये गये बिस्किटों की अपेक्ष वह विषयुक्त होता है। 'The Consumer Education and शुद्ध देशी घी, गुड़ और गेहूँ के आटे से बनायी जानेवाली सुखर्ड Research' ने अभी समग्र देश में से खरीदे हुए 13 प्रकार के | कहीं सस्ती और अच्छी है। आटों के सेम्पलों की परीक्षा की थी और देखने में आया कि इन बिस्किट और ब्रेड की बला से बचिये सभी में डी.डी.टी. सहित लींडेन, एल्ड्रीन और इथोन- जैसे 'मुम्बई समाचार के दिनाङ्क 16 जनवरी, 2000 के अङ्क जन्तुनाशक रसायनों के अंश मिले हुए थे। डॉ. केतन झवेरी' 'स्वस्थ जीवनशैली' में लिखते हैं कि 'यरि ब्रेड आटे में डी.डी.टी. और लीडेन-जैसे जन्तुनाशक रसायन आप अपनी तन्दुरुस्ती बनाये रखना चाहते हैं तो बेकरी के उत्पाद किस तरह आ गये, इसके बारे में कौन नहीं जानता? क्योंकि को दूर से ही सलाम कर दें। मैदे और वनस्पति घी से बनती प्राय फसल उगाने के समय इन द्रव्यों के उपयोग पर पाबंदी होने पर | सभी खाद्य चीजों (ब्रेड, पाव, केक, बटर के स्तरवाली नानखटाई भी इनका उपयोग किया जाता है। टोस्ट, डोग्गी बिस्किट इत्यादि)- से दूर रहने में ही सलामती है। ध्यान दीजिये कि बेकरी के उत्पादों में हानिकारक पदार्थ (1) डी.डी.टी. मस्तिष्क और ज्ञानतन्त्र को हानि पहुँचाता बेकरी के अधिकतम उत्पादों में मुख्यतया दो हानिकारव खाद्य पदार्थ होते हैं- (1) वनस्पति घी और (2) मैदा। ये दोनों पदार्थ आपके स्वास्थ्य को हानि पहुँचाते हैं (2) एल्ड्रीन से कैंसर होने का भय होता है। बेकरी से मिलती स्तरवाली बटर बिस्किट में करीब आधा तं (3) इथोन-जैसे ऑर्गेनो फॉस्फेट्स से श्वसन-तन्त्र के वनस्पति घी होता है। नान खटाई में लगभग 35 से 40 प्रतिशत ऊपरवाले भाग में मवाद (Pus) हो जाता है, पेट में पीड़ा उत्पन्न | वनस्पति घी. 20 प्रतिशत शक्कर और शेष मैदा होता है। अधिकत होती है, चक्कर आते हैं, वमन भी होता है, सिर में झटके लगते हैं, बेकरियों में तैयार किये जाते टोस्ट और कम घीवाले कहला अँधेरा-सा प्रतीत होता है और मन में कमजोरी महसूस होती है। | डोग्गी बिस्किट में भी प्राय: 20 से 25 ग्राम वनस्पति घी डाल 20 दिसम्बर 2002 जिनभाषित Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाता है। 'इण्डियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च' के कुछ प्रयोगों के अनुसार एक स्वस्थ भारतीय व्यक्ति को आहार में "प्रतिदिन घी, तेल इत्यादि के रूप में 20 से 25 ग्राम ही चरबी (चिकनाई) मिलनी चाहिये। इससे अधिक लेने से यह शरीर को हानि पहुँचाती है और हाई ब्लडप्रेशर, डायबिटीज, स्थूलता एवं हृदयरोग इत्यादि को आमन्त्रित करती है। अब यदि 50 ग्राम वजन के स्तरवाले बटर-बिस्किट या नानखटाई खाने से ही आवश्यक चरबी शरीर में पहुँच जाती है तो ऐसी स्थिति में नित्य प्रति रसोई में उपयोग में लिये जाने वाले घी और तेल इत्यादि आवश्यकता से ज्यादा ही हो जाते हैं ये मेद-वृद्धि से प्रारंभ करके धमनियों को कठिन और संकुचित बना देते और एथेरोस्क्लेरोसीसतक की अनेक तकलीफें शुरू कर देते हैं। 1 वनस्पति घीकी चरबी वनस्पति घी में कठिन की हुई चरबी होती है जो 'ट्रॉन्सफेटी एसिड' के नाम से विख्यात है। वनस्पति घी में प्रायः 30 से 50 प्रतिशत ट्रॉन्सफेटी एसिड होता है यह शरीर में बहुत ही हानि पहुँचाता है। 'न्यू इंग्लैण्ड जर्नल ऑफ मेडिसिन' में प्रसिद्ध हुए एक प्रयोग के अनुसार आहार में ट्रॉन्सफेटी एसिड लेने से रक्त में हानिकारक (एल.डी.एल.) कोलेस्ट्रॉल की मात्रा बहुत ही बढ़ जाती है। इसके अतिरिक्त यह हृदयरोग के लिये कारणभूत माने जानेवाले एल. बी. लाइपोप्रोटीन की मात्रा को भी बढ़ा देता है और शरीर के लिये लाभदायी एच.डी.एल. कोलेस्ट्रॉल की मात्रा कम हो जाती है। इस तरह वनस्पति घी में रहे हुए ट्रॉन्सफेटी एसिड से तीन प्रकार का नुकसान होता है। मैदे की मर्मभेदकता चरबी के अतिरिक्त बेकरी के उत्पादों में दूसरा हानिकारक पदार्थ है मैदा मैदा गेहूँ के आटे को रिफाइंड करने से अर्थात् गेहूँ तुष-भाग को निकालकर बनाया जाता है। मैदा बनाने की प्रक्रिया में गेहूँ में रहे हुए रेशे प्राय: निकाल दिये जाते हैं। रेशे मनुष्य को मलावरोध से बचाते हैं। आँतों के सामान्य कार्य के लिये आहार में रेशों का होना अत्यन्त जरूरी है, जो आँतों की गति और मल के स्वरूप को भी अच्छी तरह से निभाते हैं । रक्त के ग्लूकोज ओर कोलेस्ट्रॉल को नियन्त्रण में रखने के लिये भी रेशे आवश्यक हैं। I 'डायबिटीज और हृदयरोगी के रोगियों की बीमारी ज्यादा कोलेस्ट्रॉलयुक्त मैदे-जैसे रेशाहीन आहार से बहुत बढ़ जाती है। इसी तरह कब्ज के मरीजों के लिये भी मैदा बहुत हानि करता है और मलावरोध को बढ़ा देता है। मेरे एक मित्र ने मुझे लिखा था कि 'मैदा और काँच दोनों पाचन के लिये समान हैं।' तात्पर्य यह है कि जैसे काँच खाने में पेट में भारी हानि होती है वैसी ही हानि मैदे की चीजें खाने से भी होती है । स्वास्थ्य के लिये हानिकारक ये दो पदार्थ- वनस्पति और मैदा- जब एकत्रित हो जाते हैं तब स्वस्थ मनुष्य को भी रोगी बनाने का सामर्थ्य पा लेते हैं। नित्य सिर्फ 50 ग्राम बटरयुक्त बिस्किट खानेवाले मनुष्य के लिये हृदयरोग होने का भय उसको नहीं खानेवाले (तथा अन्य किसी स्वरूप में वनस्पति घी नहीं खानेवाले) आदमी की अपेक्षा चौगुना अधिक रहता है। मटनटेलो और फरसान! आज बड़े, चाव से और जाने-अनजाने में भी घर-घर मांसभक्षण हो रहा है। कुछ समय पहले एक अंग्रेजी अखबार में आये समाचार के अनुसार वसई के नजदीक एक फैक्ट्री में मुम्बई के मरे हुए प्राणियों का शव इकट्ठा करके उनकी चरबी को प्रोसेस करके उसमें से मटनटेलो बनाया जाता है। यह मटनटेलो 17 से 22 रुपयों में 1 किलोग्राम बिकता है जो तेल और घी में आसानी से मिश्रित हो सकता है। एक किलो तेल का मूल्य 40 से 50 रुपये है नित्य प्रति वहाँ हजारों किलोग्राम मटनटेलो की पहले से बुकिंग होती है। विनियोग-परिवार के अग्रणी कार्यकर्ताओं ने जब उस फैक्ट्री के मैनेजर से पूछा कि आपकी फैक्ट्री से यह सब और इतना ज्यादा माल नित्य कौन ले जाता है। तब उन्होंने सच्चे भाव से निर्दोष उत्तर दिया था कि 'हमारे पास से सब मटनटेलो मुम्बई के फरसानवाले और होटलवाले ले जाते हैं।' बड़े शहरों में वेफर, फराली चिवड़ा, हलवे, सोनपपड़ी, गाँठिये, भजिये इत्यादि चीजों का उपयोग करने में सावधान रहने की आवश्यकता है जिनमें तेल, वनस्पति घी आदि का उपयोग होता है। उपसंहार बारे में उपर्युक्त प्रमाणभूत विचार आप और आपके प्रिय बच्चे इससे (1) आइसक्रीम के और निरीक्षण को देखते हुए दूर रहें, यही हितकारी है। (2) आइसक्रीम पाचनतंत्र को बिगाड़ देता है। फिर भी यदि लेना ही है तो आप फ्रिज में दूध, मलाई, चीनी, बादाम, पिश्ता, केसर आदि मिलाकर रख दें। बाजार से आइसक्रीम बनाने का जिलेटिनयुक्त पाउडर इत्यादि कुछ भी न डालें। जब तैयार हो जाय तब मर्यादित मात्रा में ही लें। (3) डेरियों में अथवा अन्यत्र जहाँ आइसक्रीम बनाया जाता है और बेचा जाता है उसके बनानेवालों को भी शायद मालूम न होगा कि वे कौन-सी चीज मिश्रित करते हैं। अत: उन्हें भी सावधान रहना चाहिए की आइसक्रीम बनाने में वे जो तैयार पाउडर अथवा अन्य कुछ बाजार से लेकर मिश्रित करते हैं; उन बीजों में कोई चरबीजन्य पदार्थ अथवा ऐसा ही कोई प्रोसेस तैयार किया हुआ पदार्थ, रूपान्तरित जिलेटिन अथवा अण्डों के रस से बनाए गए अन्य स्वरूप में मिलते हुए पदार्थ जाने-अनजाने से भी उपयोग में न लें। ऐसे किसी भी पदार्थ का उपयोग न करनेवाले उत्पादक भी जनसुरक्षा को ध्यान में रखकर उपर्युक्त संकलन में निर्दिष्ट हानिकारक रसायनों का उपयोग न करें, यह आवश्यक है। (4) चॉकलेट, ब्रेड, बिस्किट आदि चीजों से अहिंसा और कल्याण की दृष्टि से भी दूर रहना हितकर हैं। (5) बाजार में मिलनेवाली तली हुई चीजों और फरसान की फराली चीजों को छोड़कर घर पर बनायीं गई शुद्ध चीजों का उपयोग करें और सम्बन्धियों, मित्रों आदि से भी करायें। 'कल्याण' से साभार -दिसम्बर 2002 जिनभाषित 21 . Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाकाहार की बहार आज पश्चिमी देशों में प्रश्न उठाया जा रहा है कि क्या | मांसाहार करने वालों की तुलना में सलाद, फल और सब्जियाँ स्वस्थ रहने के लिए शाकाहार जरूरी है? अमेरिका और योरोपीय | खाने वाले अधिक नैतिक, शान्त और समझदार होते हैं। इसी तरह देशों की यह पारम्परिक मान्यता कि मांसाहार स्वास्थ्य के लिए पेन्सिलवेनिया विश्वविद्यालय के पाल रेज़िन का कहना है कि जरूरी है, आज सहसा वैज्ञानिकों एवं चिकित्सकों द्वारा कठघरे में | लगभग सौ साल पहले मांसाहारी भोजन स्वास्थ्य के लिए जरूरी लाई जा रही है। इन देशों में मांसाहार भोजन शैली का अपरिहार्य | माना जाता था, पर आज के बच्चे इस पीढ़ी की उस संस्कृति में हिस्सा है। मांस के दर्जनों रूपान्तरित उत्पाद इन देशों के राष्ट्रीय | पहली बार आए हैं जहाँ शाकाहार सामान्य माना जाता है और इसे आहार रहे हैं, पर अचानक कुछ वर्षों से यह महसूस किया जा | पर्यावरण और स्वास्थ्य के आधार पर सार्वजनिक रूप से बढ़ावा रहा है कि स्वास्थ्य की दृष्टि से भी मांसाहार हानिकारक है। मिल रहा है। अमेरिकी पत्रिका टाइम में तो कुछ लोगों के विचारों को उद्धृत | मांसाहारी उत्पाद से जुड़े उद्योगपति शाकाहार के प्रति नये करते हुए कहा गया है कि पशुमांस या गोमांस एक गंदा भोज्य दृष्टिकोण से चिन्तित हैं । नेशनल पोर्क बोर्ड और नेशनल कैटलमेन्स पदार्थ-आब्सीन क्वेजिन है। शायद इसका कारण मैडकाउ रोग | बीफ एसोसिएशन जो मांसाहार के अमेरिका में बड़े समर्थक हैं, का अव्यक्त भय और ई-कोली नामक बैक्टीरिया के शरीर में शाकाहार से कुपोषण बढ़ने की संभावना की चर्चा कर रहे हैं। फैलने की संभावना भी है, जिसने चिकित्सा जगत में इस तरह के उनके अनुसार इससे कैल्शियम की कमी के साथ-साथ त्वचा में आहार पर नियंत्रण की सलाह दी है। हरी सब्जियाँ, भिगोए हुए पीलापन व बालों का गिरना भी शुरू हो सकता है। दूसरी ओर अंकुरित अनाज, फल और सलाद अमेरिका में आज युवा वर्ग में | आमिष और सामिष भोजन के जारी मीडिया युद्ध में मांसाहार के जिस तरह लोकप्रिय हो रहा है उसने पिछली पीढ़ी के अधेड़ खतरों में कैन्सर, हृदय रोग, मोटापा और बढ़े हुए कोलेस्ट्रोल के लोगों को भी चकित कर दिया है। टाइम ने एक जनमत संग्रह के कारण अनेक गंभीर रोगों के होने की संभावना प्रकट की जाती है। कार्यक्रम में 10,000 वयस्कों के विचारों के आधार पर यह निष्कर्ष पर्यावरण संरक्षण से जुड़े विशेषज्ञ शाकाहार को स्वाभाविक मानते निकाला है कि इस समय लगभग एक करोड़ अमेरिकी शाकाहारी हुए कह रहे हैं कि जितना अनाज मांस को प्राप्त करने के लिए हो गए हैं और दूसरे दो करोड़ कभी न कभी शाकाहारी रह चुके पशुओं के पालन में खिलाया जाता है उससे 800 मिलियन लोगों हैं। एक जमाना वह था जब मांसाहार के पक्ष में शाकाहारियों की | का भरण-पोषण हो सकता है और यही अन्न यदि अमेरिका खुलकर भर्त्सना की जाती थी, जैसे कि शाकाहारी ज्यादा दिन निर्यात करे तो प्रति वर्ष 80 विलियन डालर की विदेशी मुद्रा कमा जीवित नहीं रहते हैं और वे शुरु से ही बूढ़े लगते हैं और यदि पशु | सकता है। कौरनेल विश्वविद्यालय के डेविड पीमेन्टल ने यह खाए जाने के लिए नहीं बने हैं तो उन्हें मांस से भरा-पूरा क्यों निष्कर्ष हाल के अध्ययन में दिया है। उनके अनुसार मांसाहार के बनाया गया है? रेच या डेरी फार्म के मालिक तो, पत्र-पत्रिकाओं | लिए पाले हुए पशुओं से प्रति किलो ग्राम मांस पाने के लिए में यहाँ तक प्रचार करते थे कि यदि शाकाहारियों की संख्या | 10000 लीटर पानी खर्च होता है जबकि इतनी ही सोयाबीन की बढ़ेगी तो हम लोग दिवालिया हो जाएंगे, पर आज अमेरिका में ही | मात्रा उपजाने के लिए 2000 लीटर जल खर्च होता है। डेविड लाखों लोग गाय या सुअर के मांस के अलावा मुर्गे या मछली पीमेन्टल ने एक और आश्चर्यजनक तथ्य प्रकाशित किया है। खाना भी छोड़ रहे हैं और इसको अमानवीय और अनैतिक भी उनके अनुसार पशुधन की संख्या, जिसमें गाय, भैंस, मुर्गी, तीतर, मानते हैं। अमेरिका डाइटेटिक संगठन अपने प्रचार साहित्य में भेड़ और सुअर शामिल है, अमेरिका की कुल जनसंख्या द्वारा लिखता है कि शाकाहारी भोजन स्वास्थ्य की कुंजी है, क्योंकि | प्रयुक्त अनाज से पाँच गुना अधिक अन्न खा जाते हैं । अमेरिका में वह पोषण के लिए पर्याप्त होने के साथ-साथ कई रोगों से लड़ने | जितनी गाजार या दूसरी सब्जियाँ व मक्का जैसा अनाज पशुओं में भी सहायक होता है। बच्चों से लेकर बूढ़ों तक हर आयु और | को खिलाया जाता है उससे आधे अफ्रीका महाद्वीप का पेट भरा हर तरह का श्रम करने वालों को भी सही शाकाहारी आहार | जा सकता है। आज कल निरीह पशुओं के अधिकारों की चर्चा मांसाहार की तुलना में अधिक स्वस्थ्य रख सकता है, यह अनेक | भी संवेदनशीलता से की जा रही है। जानवरों से प्यार और लगाव अमेरिकी डाक्टरों का निष्कर्ष है। बच्चों, किशोरों और युवाओं में के कारण भी अमेरिका में मांसाहार पर पुनर्विचार हो रहा है। नैतिक आधार और गाय या दूसरे शान्त पशुओं के प्रति प्यार खाद्य पदार्थों का स्वास्थ्य पर प्रभाव तथा सब्जी और फलों द्वारा बढ़ाकर भी मांसाहारी बनने से रोका जा सकता है, इसकी वकालत विभिन्न रोगों की चिकित्सा के विषय में अमेरिका में चिकित्सकों कुछ अमेरिकी पत्र कर रहे हैं। टीनेज रिसर्च अनलिमिटेड नामक द्वारा जिस प्रकार शोध की जा रही है वह विस्मयजनक है। अमेरिका एक संस्थान ने एक सर्वेक्षण के आधार पर बताया है कि 25 में होने वाला यह परिवर्तन काफी महत्त्वपूर्ण है। यद्यपि वहाँ प्रतिशत अमेरिकी किशोर और अवयस्क, माता-पिता के मांसाहार शाकाहारियों का प्रतिशत अभी भी नगण्य है, पर अधिक से के आग्रह के बावजूद शाकाहारी बनना पसंद करेंगे। एरिजोना स्टेट यूनीवर्सिटी के मनोविज्ञान के दो प्रोफेसरों रिचर्ड स्टीन और अधिक लोग शाकाहार की ओर आकर्षित हो रहे हैं। केरोल नेमेरोफ ने एक अध्ययन द्वारा यह निष्कर्ष निकाला है कि ___ 'जिनेन्दु' समाचार पत्र से साभार 22 दिसम्बर 2002 जिनभाषित Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिज्ञासा-समाधान पाठकों से निवेदन है कि वे अपनी जिज्ञासाएँ समाधान हेतु पं. रतनलाल बैनाड़ा के पास नीचे लिखे पते पर भेजने की कृपा करें। पं. रतनलाल बैनाडा प्रश्नकर्ता-आशीष जैन, बांसबाड़ा की चर्चा पाई जाती है। जिज्ञासा-नवधाभक्ति में प्रदक्षिणा देने का विधान नहीं | समाधान- आपका कथन बिल्कुल सत्य है। आचार्य कहा है, तो क्या प्रदक्षिणा देना आगमसंगत है? पूज्यपाद ने इष्टोपदेश की उपर्युक्त गाथा में तथा आचार्य कुन्दसमाधान- यद्यपि यह ठीक है कि नवधाभक्ति में तीन | कुन्द ने वारसाणुवेक्खा की उपर्युक्त गाथा में, जीव के द्वारा सभी प्रदक्षिणा देने को गर्भित नहीं किया है, परन्तु फिर भी प्रथमानुयोग । पुद्गलों को भोगकर छोड़ने का वर्णन पाया जाता है, लेकिन हमें के अनेक प्रसंगों में मुनिराज को आहार देते समय प्रदक्षिणा देने | उस वर्णन की अपेक्षा निम्नप्रकार समझनी चाहिए। पुद्गल द्रव्य का विधान पाया जाता है। कुछ प्रमाण इस प्रकार हैं: दो प्रकार का होता है, 1. सादिद्रव्य, 2. अनादिद्रव्य। उसमें से 1. आदिपुराण सर्ग 20/72 अतीत काल में जीव के द्वारा जो पुद्गल द्रव्य ग्रहण कर लिया साध्यं पाद्यं निवेद्यानयोः परीत्य च जगद्गुरुम्। गया हो उसे सादि द्रव्य कहते हैं और अनादिकाल से जीव ने तौ परं जग्मतुस्तोषं निवाविव गृहागते ।।72 ।। जिसको कभी भी ग्रहण नहीं किया ऐसे पुद्गल द्रव्य को अनादिद्रव्य अर्थ- उन्होंने भगवान् के चरण कमलों में अर्घसहित जल | | कहते हैं। समस्त पुद्गल द्रव्य में कितना पुद्गल द्रव्य सादि है समर्पित किया, अर्थात् जल से पैर धोकर अर्घ चढ़ाया, जगद्गुरु | और कितना अनादि, इस संबंध में कर्मकाण्ड गाथा-188 में इस भगवान् वृषभदेव की प्रदक्षिणा दी और यह सब कर वे दोनों ही | प्रकार कहा हैइतने सन्तुष्ट हुए मानो उनके घर निधि ही आयी हो ।।72 ।। जेट्टै समयपबद्धे अतीदकाले हदेण सव्वेण। 2. उत्तरपुराण पुराण सर्ग 74/319 में इस प्रकार कहा है जीवेण हदे सव्वं सादी होदिति णिद्दिटुं188 ।। कूलनाम महीपालो दृष्ट्वा तं भक्तिभावितः। अर्थ- उत्कृष्ट समयप्रबद्ध के प्रमाण को अतीतकालीन प्रियङ्गकुसुमागाभस्त्रिः परीत्य प्रदक्षिणाम्॥319॥ | समयों से गुणा करने पर जो प्रमाण हो, सर्वजीव राशि के प्रमाण से अर्थ- प्रियंगु के फूल के समान कांतिवाले कूल नाम के गुणा करें, जो प्रमाण प्राप्त होवे वह सर्व सादिद्रव्य का प्रमाण है। राजा ने भक्तिभाव से युक्त हो उनके दर्शन किये और तीन प्रदक्षिणाएँ विशेषार्थ- (पूज्य आर्यिका आदिमति जी कृत)- एक समय में उत्कृष्ट प्रबद्धप्रमाण पुद्गल द्रव्य को ग्रहण करे तो 3. वीरवर्धमान चरित्र अधिकार 13/7-8 में इस प्रकार संख्यातावली से सिद्धराशि या गुणा करने पर जो प्रमाण हो उतने कहा है अतीतकाल के समयों में कितने पुद्गल द्रव्य को ग्रहण करेगा? तत्र कूलाभिधो राजा वीक्ष्य पात्रोत्तमं जिनम्। इस प्रकार त्रैराशिक करना। निधानमिव दुष्प्राप्यं प्राप्यानन्दं परं हृदि॥7॥ प्रमाण राशि एकसमय, फलराशि उत्कृष्ट समयप्रबद्ध, त्रिः परीत्य प्रणम्याशु धृत्वाङ्गपंचकं भुवि। इच्छाराशि अतीतकाल के समयों का प्रमाण जो सिद्ध राशि से तिष्ठ-तिष्ठ मुदेत्युक्त्वा प्रतिजग्राह धर्मधीः॥8॥ असंख्यातगुणा है। फलराशि से इच्छाराशि को गुणा करके प्रमाणराशि अर्थ- वहाँ पर कूल नामक धर्मबुद्धि राजा ने सर्वपात्रों में | का भाग देने पर जो प्रमाण हो उतना एक जीव का सादिपुद्गल श्रेष्ठ वीर जिनको देखकर दुष्प्राप्य निधान को पाने के समान हदय | द्रव्य है। इसको सर्वजीवराशि के प्रमाण से गुणा करने पर जो में परम आनन्द मानकर उन्हें तीन प्रदक्षिणा देकर और शीघ्र पंच | प्रमाण हो उतना सर्वजीवों का सादिपुद्गल द्रव्य जानना। इस अंगों को भूमि पर रखते हुए नमस्कार करके "हे भगवन्, तिष्ठ- प्रमाण को सर्वपुद्गल राशि से प्रमाण में से घटाने पर जो शेष रहे तिष्ठ'' ऐसा कहकर अति हर्षित होते हुए उन्हें पडिगाहा।।7-8 ।। | वह अनादिपुद्गल द्रव्य का प्रमाण है। प्रश्नकर्ता- अनिल कुमार जैन, आगरा इससे यह सिद्ध होता है कि सर्वजीवों के द्वारा भी अतीतकाल जिज्ञासा- क्या हमारे द्वारा भूतकाल में समस्त पुद्गल में सर्वपुद्गल द्रव्य नहीं भोगा गया। द्रव्य भोग लिया गया है या नहीं? इष्टोपदेश की गाथा नं. 30 जिज्ञासा- द्वादशानुप्रेक्षादि में जो कहा गया है कि एक (भुक्तोज्झिता......) तथा वारसाणुवेक्खा गाथा-25 में | जीव ने सर्वपुद्गल द्रव्य को अनन्तबार भोगकर छोड़ दिया वह (सव्वेविपोग्गलाखलु.....) में तो समस्त पुद्गल द्रव्य को भोगने | कैसे संभव है? -दिसम्बर 2002 जिनभाषित 23 दी। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधान- उन गाथाओं में "असर्व"अर्थात् यहाँ 'कुछ' | अमृतरूप औषधि है, जरामरण व्याधि को दूर करने वाली है तथा के लिए 'सर्व' शब्द का प्रयोग हुआ है । जैसे अंगारे पर पाँव रखा | समस्त दु:खों का क्षय करने वाली है। जाने से पाँव का एक भाग जलता है, तथापि यही कहा जाता है श्री कुन्दकुन्द आचार्य तो इस तरह तीर्थंकर की वाणी की कि पाँव जल गया। इस प्रकार एक भाग में भी सर्व का प्रयोग जगत का कलयाण करने वाली कहते हैं और कुन्दकुन्द आचार्य होता है। (देखें-श्री धवला पु. ४ पृष्ठ ३२६) में अपनी गहरी श्रद्धा भक्ति प्रकट करने वाले कानजी स्वामी जिज्ञासा - क्या प्राचीन जिनमूर्तियों का जीर्णोद्धार किया | कुन्दकुन्द आचार्य के उक्त कथन के विरुद्ध कहते हैं कि "तीर्थंकर जाना चाहिए या उनको जल आदि में विसर्जित कर देना चाहिए? | की वाणी से किसी को लाभ नहीं होता"। कानजी स्वामी का यह समाधान- यदि कोई प्राचीन प्रतिमा जीर्णोद्धार के योग्य उल्लेख कितना अनर्थकारी असत्य है? इसको जैन सिद्धांत के है तो उसका जीर्णोद्धार अवश्य करना चाहिए। शास्त्रों में ऐसे | ज्ञाता विद्वान स्वयं अनुभव करें। "यदि संसार में तीर्थंकर की प्रमाण उपलब्ध हैं वाणी से भी लाभ नहीं हुआ तो क्या उसके विपरीत कानजी स्वामी 1. वसुनन्दिश्रावकाचार गाथा 446 में इस प्रकार कहा है- | के कथन से जनता का लाभ हो सकेगा?" यह एक प्रश्न है, जिस एवं चिरंतणाणं पिकट्टिमाकट्टिमाण पडिमाणं। | पर सर्वसाधारण को विचार करके निर्णय करना चाहिये। जं कीरइ बहुमाणं ठ्वणापुजं हि तं जाण ।।446॥ चर्चा- चर्चासागर ग्रंथ में पृष्ठ-178 पर गोबर से आरती अर्थ- (पं. हीरालाल जी सिद्धांतालंकार) इसी प्रकार | करने का विधान बताया गया है। यह प्रकरण क्या उचित माना चिरंतन अर्थात् पुरातन कृत्रिम और अकृत्रिम प्रतिमाओं का भी जो | जाए? यदि नहीं तो चर्चासागर को प्रमाणीक ग्रंथ मानना चाहिए? बहुत सम्मान किया जाता है, अर्थात् पुरानी प्रतिमाओं पर जीर्णोद्धार, समाधान- चर्चासागर के रचयिता, पाण्डे चम्पालाल जी अविनय आदि से रक्षण, मेला, उत्सव आदि किया जाता है, वह | हैं, वे विशेष विद्वान नहीं थे, परन्तु शिथिलाचार के पक्के समर्थक सब स्थापना पूजा जानना चाहिए। थे। उपर्युक्त ग्रंथ चर्चासागर, जब प्रकाशित हुआ था तो सारे जैन 2. सम्यक्त्व कौमुदी, श्लोक नं. 13 में इस प्रकार कहा संसार में उसका भयंकर विरोध किया गया। पं. जिनेश्वरदासजी, एटा निवासी से सभी जैनसमाज अच्छी तरह परिचित हैं, वे जीर्ण जिनगृहं बिम्बं पुस्तकं श्राद्धमेव वा। जैनसिद्धांत के अच्छे जानकार थे, साथ ही अच्छे कवि भी थे। उद्धार्य स्थापनं पूर्व पुण्यतोऽधिकमुच्यते ॥213।। उनके पद आज भी लोग बड़ी रुचि से गाते हैं। उन्होंने जब इस अर्थ- जीर्ण जिनमंदिर, जिनबिम्ब, पुस्तक और श्राद्ध का | ग्रंथ को देखा तो तुरंत कह दिया था कि, "यह ग्रंथ भ्रष्ट ग्रंथ है। उद्धार कर फिर से स्थापित करना पूर्व पुण्य से अधिक कहलाता मूल संघ के आम्नाय को मलिन करने वाला है। इसका स्वाध्याय है।।213॥ करना पाप है।" (चर्चासागर के शास्त्रीय प्रमाणों पर विचार लेखकयदि प्रतिमा का जीर्णोद्धार संभव न हो तो उसे गहरे जल | श्री गजाधरलाल जी शास्त्री) में विसर्जित कर देना चाहिये। हम जानते हैं कि पूजा और आरती के समय पवित्र और प्रश्नकर्ता- पं. मनोजकुमार शास्त्री, सागर सुगंधित द्रव्य ही काम में लिये जाते हैं, तब जिसकी उत्पत्ति विष्टा जिज्ञासा- मोक्षमार्ग किरण पृष्ठ 212 पर कान्जी स्वामी | मार्ग में हुई हो, वह भगवान् की आरती आदि के योग्य कैसे हो के प्रवचनों में इस प्रकार कहा है सकता है। पं. दौतलतराम जी ने क्रियाकोष में इस प्रकार लिखा "तीर्थंकर की वाणी से किसी को लाभ नहीं होता" क्या । हैऐसा लिखना शास्त्र विरुद्ध नहीं है? नहीं छीबै गोवर, गोमूत्र, मल-मूत्रादि महा अपूत। समाधान- जगत का मोह अज्ञान अंधकार तीर्थंकर की छाणा ईधन काज अजोग, लकड़ी हू बीधी नहीं जोग।पृष्ठ-14।। दिव्यध्वनि (वाणी) से दूर होकर जगत में धर्म का तथा सत्ज्ञान अर्थ- गोबर और गोमूत्र ये मल-मूत्र हैं। महा अपवित्र हैं। का प्रचार होता है, भव्य जीवों का मिथ्यात्व, भ्रम, संशय आदि दूर | इनको स्पर्श भी नहीं करना चाहिए। गोबर के कण्डे भी ईधन के होता है। इसी कारण सुर, नर, पशु रुचि के साथ समवशरण में | रूप में इस्तेमाल न करें। घुनी हुई लकड़ी भी प्रयोग नहीं करनी आकर तीर्थकर की वाणी को सुनकर आत्महित करते हैं,समयसार | चाहिए। पं. किशनलालजी कृत क्रियाकोष में इस प्रकार कहा हैआदि ग्रन्थ भगवान् महावीर की वाणी के अनुसार ही लिखे गये गोबर तिनको है नित सोई, अपने गेह न थापै कोई। हैं। श्रीकुन्दकुन्द आचार्य अष्टपाहुड में लिखते हैं औरन को मांग्यो नहीं देय, त्रस सिताव जामें उपजेई ।। जिणवयणमोसहमिणं विसयसुहविरेयणं अमियभूयं । अर्थ- पशुओं का जो गोबर है उसे कण्डे बनाने के लिए जरमरणवाहिहरणं खयकरणं सव्वदुक्खाणं॥17॥ | अपने घर में न रखें। माँगने वालों को भी गोबर न दें। क्योंकि अर्थ- तीर्थंकर जिनेन्द्र की वाणी सांसारिक विषयसुख | उसमें बहुत जल्दी ही त्रस जीव पड़ जाते हैं। रूपी रोग का विरेचन कराने के लिये (मलत्याग कराने के लिये) | पं. सुखदासजी ने इस प्रकार कहा है- गौ के बांधने में 24 दिसम्बर 2002 जिनभाषित Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा जाक गोबर में मृत्र में असंख्यात जीव उपजे हैं। सत्तोपशम से तथा देशघाति स्पर्धकों के उदय से उत्पन्न होने के यदि चर्चा सागर के अलावा अन्य भी किसी ग्रंथ में गोबर | कारण क्षायोपशमिक कहलाने वाला वीर्य बढ़ता है, तब उस वीर्य rसे पूजा का विधान मिलता है, उसे बिलकुल अनुचित मानना को पाकर चूँकि जीव प्रदेशों का संकोच-विकोच बढ़ता है, इसलिए चाहिए। गोबर आदि का उपयोग लौकिक शुद्धि के लिए तो किया | योग क्षायोपशमिक कहा गया है। जा सकता है. लेकिन गोबर को भगवान् जिनेन्द्र की आरती की अर्थात् वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से होने के कारण सामग्री बताना महाभूल है। कथंचित क्षायोपशमिक भाव है। वास्तव में चर्चासागर ग्रन्थ को आगम प्रमाण नहीं मानना 3. योग में पारणामिकभावपना- (अ) श्री धवला पु. 5. चाहिए। उपरोक्त प्रसंग के अलावा इस ग्रंथ में और भी बहुत से पृष्ठ-225 पर इस प्रकार कहा है- "योग न तो औपमिक भाव प्रसंग आगम विरुद्ध लिखे गये हैं। जिन भाइयों को चर्चासागर ग्रंथ है, क्योंकि मोहनीय के उपशम नहीं होने पर भी योग पाया जाता की असलियत जाननी हो वे कृपया पं. परमेष्ठीदास जी एवं पं. है।'' (आ) न वह क्षायिक भाव है, क्योंकि आत्मस्वरूप से रहित गजाधरलाल जी शास्त्री द्वारा लिखित चर्चासागर समीक्षा पढ़ने का योग की, कर्मों के क्षय से उत्पत्ति मानने में विरोध आता है। (इ) कष्ट करें। योग घातिकर्मोदय जनित भी नहीं है, क्योंकि घातिकर्मोदय के नष्ट जिज्ञासा- योग कौन सा भाव है? होने पर भी सयोगकेवली में योग का सद्भाव पाया जाता है तथा समाधान आचार्यों ने योग को विभिन्न अपेक्षाओं से योग अघातिकर्मोदयजनित भी नहीं है, क्योंकि अघातिकर्मोदय के कथंचित् औदयिक भाव, कथंचित पारिणामिक भाव और कथंचित् रहने पर भी अयोगकेवली में योग नहीं पाया जाता। योग शरीर क्षायोपशमिक भाव माना है। इन तीनों भावों की अपेक्षा निम्नप्रकार नामकर्मोदयनित भी नहीं है, क्योंकि पुद्गलविपाकी प्रकृतियां समझ लेनी चाहिए। के जीवपरिस्पंदन का कारण होने में विरोध है। (ई) योग घातिको 1. योग का औदयिकपना- श्रीधवला पु. 5. पृष्ठ-226 के क्षयोपशम से भी उत्पन्न नहीं है क्योंकि इससे भी सयोग केवली में इस प्रकार कहा है- "योग औदयिक भाव है, क्योंकि शरीर में योग के अभाव का प्रसंग आ जाएगा। केवली भगवान के कोई नाम कर्म के उदय का विनाश होने के पश्चात् ही योग का विनाश भी क्षायोपशामक भाव नहीं होता। अत: यदि योग को क्षायोपशमिक पाया जाता है।'' श्री धवला पु. 9. पृष्ठ 316 में इस प्रकार कहा है भाव माना जाए तो वह केवली में नहीं होना चाहिए, जबकि 13वें "योग मार्गणा भी औदयिक है, क्योंकि वह नामकर्म की उदीरणा गुणस्थान में सयोगकेवली के योग पाया जाता है। व उदय से उत्पन्न होती है।" श्री धवल पु. 10, पृष्ठ-436 में इस उपर्युक्त प्रमाणों के द्वारा श्रीधवलाकार ने स्पष्ट किया है प्रकार कहा है- "योग की उत्पत्ति तत्प्रायोग्य अघातिया कर्मोदय कि कथंचित योग के औपशमिक, क्षायिक, औदयिक तथा से होती है, इसीलिये यहाँ औदयिक भाव स्थान है।" क्षायोपशमिक भावपना न होने से पारणामिक भावपना घटित होता 2. योग में क्षायोपशमिकभावपना- श्रीधवला पु. 5, है। उपर्युक्त अपेक्षाओं को समझने से पारस्परिक कोई भी विरोध पृष्ठ-75 में इस प्रकार कहा है- "जब शरीर नामकर्म के उदय से | उत्पन्न नहीं होता। शरीर के योग्य बहुत से पुद्गलों का संचय होता है और वीर्यान्तराय 1/205 , प्रोफैसर्स कालोनी कर्म के सर्वघाति स्पर्धकों के उदयाभाव से वे उन्हीं स्पर्धकों के आगरा- 282002 (उ.प्र.) पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव 6 दिसम्बर, 2002 से 10 दिसम्बर, 2002 तक) 1008 देवाधिदेव श्री भगवान् विमलनाथ के गर्भ, जन्म, । कम्पिल जी कैसे पहुँचे - तप एवं ज्ञान कल्याणकों से पवित्र कम्पिल (जि. फरुर्खावाद) कम्पिल जी कानपुर, कासगंज आगरा मीटर गेज के में मंगल आशीर्वाद : संत शिरोमणि प.पू. 108 आ. श्री कायमगंज स्टेशन के पास स्थित है। यहाँ से कम्पिल जी के विद्यासागर जी महाराज मंगल सान्निध्य: प.पू. 108 मुनि श्री लिये हर समय साधन उपलब्ध है। समता सागर जी महाराज, प.पू. मुनि श्री प्रमाण सागर जी कम्पिल जी आगरा से 150 कि.मी., दिल्ली से 325 महराजा, प.पू. ऐलक श्री निश्चय सागर जी महाराज, कि.मी. और कानपुर 180 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। प्रतिष्ठाचार्य : पं. सनतकुमार विनोद कुमार शास्त्री, पं. सुनील शास्त्री, 962, सेक्टर-7 रजवांस (सागर) आवास विकास कॉलोनी, आगरा फोन- 2277092 -दिसम्बर 2002 जिनभाषित 25 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्रमाण-पत्र सांगानेर सांगानेर सांगानेर पर हाय तौबा मचाने वाले जैन संस्कृति रक्षा मंच वालो अतिशय क्षेत्र सांगानेर पर प्रतिष्ठित प्रमुख हस्तियों की क्या भावना है। 1. लोकायुक्त श्री मिलापचंद जैन (राजस्थान सरकार, । काम करने की बुद्धि किसी की हो ही नहीं सकती है। कमेटी के जयपुर ) का कहना है कि- सांगानेर संघी जी मन्दिर के दर्शनों | सदस्य भी इस बात के लिये सचेष्ट हैं कि मन्दिर के पुरातन स्वरूप का मुझे आज सौभाग्य प्राप्त हुआ। मूलनायक भगवान आदिनाथ | को कोई क्षति नहीं पहुँचे। अत: वे सभी अक्षय पुण्य अर्जन कर की प्रतिमा के दर्शन करके मुझे बड़ी शान्ति मिली। मन्दिर की | रहें हैं। मन्दिर के समीप होने वाले नवनिर्माण के बारे में विशेषज्ञों प्राचीनता भी हृदय को प्रभावित करने वाली है। मन्दिर में काफी | से राय लेना अभीष्ट होगा ताकि सम्पूर्ण परिसर गरिमामय व आभावान काम हुआ है। मुझे यह नहीं ज्ञात होता है कि प्राचीनता का कोई बन सके। मन्दिर के दर्शन कर अपने पुरातन गौरव से मन प्रफुल्लित विनाश या विध्वंस हुआ हो। यहाँ पर दर्शनार्थियों की संख्या | होने के साथ गौरव से भर उठा है। धन्य है हमारे पुरखे जिन्होंने निरन्तर बढ़ती रही है। व्यवस्था भी अच्छी है। दर्शनों का लाभ | ऐसी अमूल्य दौलत से हमें नवाजा, एक बार पुन: इस मन्दिर से पाकर जीवन में सभी को सुख व शान्ति मिलती है। जीवन सफल | जुड़े समस्त कमेटी सदस्य भूतपूर्व एवं वर्तमान को मेरा नमन। होता है। 3. अखिल भारतीय दिगम्बर जैन परिषद्, नई दिल्ली - दिनांक 27.5.2001 15.5.2000 आज मुझे अपने साथी इन्दौर के प्रसिद्ध अभिभाषक मिलाप चन्द जैन | श्री शान्तिलाल जी जैन एवं डॉ. श्री राजेन्द्र कुमार जी जैन, पूर्व । लोकायुक्त, राजस्थान मंत्री प.पू. शासन के साथ श्री दिगम्बर जैन मन्दिर संघी जी में "क्या कहा है हमारे प्रातः स्मरणीय धर्म गुरु ने" आकर प.पू. तीर्थंकरों के दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ इस प.पू. वात्सल्य रत्नाकर सधर्म प्रवर्तक आचार्यरत्न श्री 108 | मन्दिर के दर्शन कराने व इसके महत्त्व को समझाने में मन्दिर बाहुबलि जी महाराज। 8.2.2002, सांगानेर अतिशय क्षेत्र महा | कर्मचारियों का सहयोग उल्लेखनीय रहा। मैं यहाँ आकर अपने प्राचीन है सांगानेर में ही 7 जिन मन्दिर हैं। तीस वर्ष पूर्व गुरुदेव आप को धन्य मानता हूँ। प्राचीन मूर्तियाँ होने के साथ ही ऐसा आचार्य देशभूषण जी महाराज के साथ में इन सभी मन्दिर जिन | प्रतीत होता है कि यह अति विशिष्ट भी है व एक समय यह स्थान भगवानों का एवं बुहार में विराजमान रत्नआदि प्राचीन जिनमृर्तियों समस्त भारतवर्ष में ही नहीं, अपितु आस-पास के सभी देशों में के दर्शन हुए हैं। हम पुनीत हुए हैं। इस क्षेत्र का सुधार बहुत कुछ भी प्रसिद्ध रहा है। इसी कारण यहाँ विदेशों से भी यात्री आते हैं। हो रहा है और आगे भी क्षेत्र उन्नति करे यही हमारी और पूरे मुनि | आज ही मैंने इटली से आकर दर्शन कर रहे एक परिवार को संघ का क्षेत्र को, क्षेत्र कमेटी को सभी दानी एवं कार्यकर्ताओं को देखा। सांगानेर व उसका यह जैन मन्दिर अति प्राचीन एवं एक शुभाशीर्वाद। तीर्थ स्थान है। यहाँ पर नवीन निर्माण कार्य आचार्य श्री प.पू. श्री 2. अशोक बड़जात्या। राष्ट्रीय अध्यक्ष- दिगम्बर जैन | विद्या सागर जी महाराज की प्रेरणा से हुआ है वह भी अति सुन्दर सोशल ग्रुप फैडरेशन । राष्ट्रीय कार्याध्यक्ष-दिगम्बर जैन महासमिति।। व प्रभावशील हैं मैं पुन: सपरिवार आकर दर्शन करने की इच्छा 2.7.2001 आज श्री मन्दिर जी एवं बाबा आदिनाथ के रखता हूँ। दर्शन किये। आनन्द की ऐसी अनुभूति हुई जो जीवन में कम ही साहू रमेश चंद जैन डॉ. राजेन्द्र जैन पूर्व मंत्री म.प्र. समय पर होती है। मन्दिर निर्माण एवं जीर्णोद्धार देखकर अध्यक्ष महामंत्री प्रबंधकारिणी कमेटी को मैं हार्दिक धन्यवाद एवं साधुवाद देना 'सिर्फ एक ही पृष्ठ बहुत है ( अतुल चाहता हूँ। बाबा के पुण्य प्रताप से कोई हानिकारक एवं अनिष्ट गोधा कोटा द्वारा प्रकाशित) से साभार सूचना वेदीप्रतिष्ठा, सिद्धचक्रविधान एवं अन्य विधान, दशलक्षणपर्व, आष्टाह्निका, मांगलिक कार्यों आदि को आगमोक्त विधि से सम्पन्न कराने हेतु प्रशिक्षित विद्वान श्री दिगम्बर जैन श्रमण संस्कृति संस्थान, सांगानेर से आमंत्रित कर सकते हैं। सम्पर्क सूत्र - सुकान्त जैन , व्यवस्थापक श्री दिगम्बर जैन श्रमण संस्कृति संस्थान, जैन नसियाँ रोड, वीरोदय नगर,सांगानेर जयपुर (राजस्थान) फोन-(0141)730552 फैक्स (0141) 314428 26 दिसम्बर 2002 जिनभाषित Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाबास जैन समाज हाल ही में रफीगंज (बिहार) में हुई राजधानी एक्सप्रेस की दिल दहला देने वाली भयानक रेल दुर्घटना ने सभी को चौंका दिया। यह ट्रेन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ट्रेन है। अधिकांश वी.आई.पी. ही इसमें सफर करते हैं। रफीगंज दिल्ली-हावड़ा लाइन के मुगलसराय- गया के बीच का स्टेशन है जो गया से लगभग 40 कि.मी. (रेलवे से) दिल्ली की ओर है। यहाँ आने-जाने का सुगम साधन ट्रेन ही है। बस में आने-जाने पर जी.टी. रोड स्थित शिवगंज गाँव से बीस कि.मी. कच्ची-पक्की सड़क से अन्दर जाना पड़ता है। लगभग 20 हजार की आबादी वाले इस कस्बे में 40-45 घर जैन समाज के हैं। लगभग सभी राजस्थान के मूल निवासी हैं। कपड़ा, गल्ला, चावल आदि का व्यवसाय प्रमुख है। इस वर्ष दशलक्षण पर्व पर हमें रफीगंज की समाज ने आमंत्रित किया था । हम किसी तरह मुगलसराय से डेयरी आन सोन तथा वहाँ से टैक्सी से रफीगंज पहुँच सके। जैन समाज अपनी सेवा भावना के लिए सुविख्यात है। हमें इस घटना के बाद रफीगंज समाज की सेवा-भावना को करीब से देखने का अवसर मिला। पटना से प्रकाशित होने वाले दैनिक हिन्दुस्तान, 'आज' तथा जागरण आदि समाचार पत्रों ने जैन समाज या जैन सभा के कार्यों की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। 'आज तक' टी.वी. चैनल ने भी इन कार्यों की प्रशंसा की है। औरंगाबाद के डी.एम. तथा एस.पी. ने भी समाज के लोगों को धन्यवाद दिया। इण्डिया टुडे (25 सित, 2002) के पृष्ठ एक पर जो चित्र छपा है उसमें श्री सुन्दरलाल जैन छावड़ा को एक महिला की मदद करते हुए दिखाया गया है। रेलवे विभाग की ओर से रफीगंज के कुछ सेवा भावी नागरिकों को सम्मान-पत्र देने की योजना की चर्चा है, जिनमें अनेक जैन बन्धु हैं। हमारे साथ प्रतिदिन पूजन करने वाले श्री सुन्दरलाल व अन्य बन्धुओं ने इस त्रासदी की चर्चा की एक विशेष बात यह रही कि इस समय किसी का कोई सामान चोरी नहीं गया, पुलिस बहुत देर बाद पहुँची। जैन समाज ने सामान सुरक्षित रखने के लिए भी एक कैम्प लगा दिया था। ऐसी घटनाओं में स्थानीय लोग ही जल्दी आ पाते हैं समाज, विशेषत: जैन समाज ने सेवा भावना का जो परिचय दिया वह सचमुच अनुकरणीय है। प्रशंसनीय भी है । हमने समाज के कुछ सेवाभावी लोगों से चर्चा की। श्री गुलझारी लाल गंगवाल कहते हैं- "हमें रात दो बजे पता चला, तीनों लड़के गये सुबह सुधीर आ गया बोला दुकान खोलना है। मैंने कहा- आज कोई दुकान नहीं खुलेगी। सुधीर फिर चला गया। उस दिन पूरा बाजार बंद रहा। गुलझारी लाल जी का फोन डॉ. कपूरचंद जैन, खतौली दो दिन लगातार निःशुल्क सेवायें देता रहा। पुत्र ललित व विनोद तो हमारे सामने भी रोज किसी न किसी का सामान दिलाने या डेड बॉडी का प्रमाण-पत्र दिलाने में भागा दौड़ी करते देखे गये। ललित जैन कहते हैं- 'हमने प्रातः ही चाय--रस का स्टाल लगा दिया था सोचा इसका व्यय मैं व मेरे एक साथी कर लेंगे' पर ऐसी स्थिति नहीं आई। सभी सामान लोग अपने-आप आकर देते गये। ललित जी के अनुसार स्टेशन मास्टर (परिचित होने के कारण ) ने रात में हमें सूचना दे दी थी। सुन्दरलाल छावड़ा कहते हैं रात एक-डेढ बजे शहर में तहलका सा मच गया था। मैं घटना स्थल पहुँचा और लोग भी पहुँच चुके थे । दृश्य भयानक था मेरे एक साथी (जैन) ने तो सीढ़ी लगाकर जान की परवाह न करते हुए पुल से लटकते डिब्बे से लोगों को निकाला। श्री दयालचंद जैन कहते हैं मेरी धर्मपत्नी ने घर में जितना आटा था सभी की पूरियाँ बनाकर भेज दीं। (दयालचंद जी की धर्मपत्नी ने दस दिन के उपवास किये हैं ।) एक स्थानीय जैन बन्धु की एस.टी.डी. पर रात 11.30 पर लोग फोन करने आये, उन्हें पता चला और जितने जैन बन्धुओं के नम्बर उनके पास थे सभी को फोन कर दिया। 3-4 बजे तक अधिकांश लोग घटना स्थल पर पहुँच गये थे। पंचमी और पष्टी को दशलक्षण के दौरान भी पूजा या आरती में किसी प्रकार के वाद्य नहीं बजाये गये। स्थानीय जैन समाज के अधिकांश सदस्यों के अनुसार तत्काल पहुँचने वालों में श्री चन्दनमल जैन व उनके पुत्र श्री विकास जैन, श्री निर्मल कुमार हसपुरा, जितेन्द्र काला ( सीढ़ी लगाकर लोगों को निकाला ), विजय कुमार काला आदि थे । इनके अतिरिक्त अन्य लोगों में श्री दयालचंद जैन, श्री स्वरूप चंद गंगवाल, श्री पवन काला, श्री पवन बड़जात्या, श्री संजय जैन, श्री कपूरचंद कासलीवाल, श्री निर्मल कासलीवाल, श्री विजय कासलीवाल, श्री शान्तिलाल काला, श्री अरुण जैन, श्री शिखरचंद कासलीवाल आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। जैन महिलाओं ने भी सामान बनाकर भेजने में विशेष सहयोग दिया। ऐसी घटनायें कभी भी और किसी भी स्थान पर घट सकती हैं। घटना का कारण चाहे जो हो। ऐसे प्रकरणों से जैन समाज को प्रेरणा लेकर निःस्वार्थ भाव से सेवा करनी चाहिए। दया, सेवाभाव और करुणा जैनत्व की पहचान हैं। " अध्यक्ष संस्कृत विभाग कुन्दकुन्द जैन (पी.जी.) कॉलेज खतौली- 251201 (उ.प्र.) -दिसम्बर 2002 जिनभाषित 27 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाचार अहिंसा सम्मेलन का भव्य आयोजन इस अवसर पर श्री व्ही. के. जैन कार्यपालन यंत्री के दृष्टिकोण से बरेला (जबलपुर ) यहाँ के इतिहास में प्रथम बार आचार्य 'अनेकान्त' को स्वतंत्र और मंदिरों, मठों एवं प्रदर्शनों से हटकर श्री 108 विद्यासागर जी महाराज की प्रथम शिष्या विदुषी विचारकों एवं बुद्धिजीवियों का सशक्त संगठन बनाया जाये। यह आर्यिकारत्न प्रशान्तमति माताजी के ससंघ सान्निध्य में राष्ट्रपिता भी सर्वसम्मति से तय किया गया कि जहाँ मध्यप्रदेश के प्रमुख महात्मा गाँधी जयन्ती के सुअवसर पर अहिंसा सप्ताह के अन्तर्गत शहरों में अनेकान्त' की कमेटियाँ सक्रिय हों वहीं देश के अन्य 5 अक्टूबर, 2002 को 'अहिंसा सम्मेलन' का भव्य आयोजन प्रान्तीय राजधानियों में भी अनेकान्त' की सुदृढ़ शाखायें ग्थापित हुआ। नगर की सभी शिक्षा संस्थाओं तथा आम जनता की भागीदारी की जायें. जिससे जैन धर्म, 'जनधर्म' बन सके। से कार्यक्रम बहुत सफल रहा। अहिंसा सम्मेलन की अध्यक्षता सभा की अध्यक्षता साहित्यकार श्री कैलाश मड़वैया ने प्राच्य विद्याओं तथा जैन जगत के मूर्धन्य मनीषी प्रोफेसर डॉ. | की एवं संचालन श्री आर.सी. जैन इंजीनियर ने किया। भागचन्द्र जी जैन 'भागेन्दु' दमोह ने की। आर्यिकारत्न प्रशान्तमति व्ही.के. जैन, कार्यालयीन यंत्री एफ-89/20, तुलसीनगर, भोपाल माताजी का ससंघ सान्निध्य प्राप्त होने से कार्यक्रम में 'सोने में अनेकान्त अकादमी भोपाल सुहागा' की उक्ति चरितार्थ हो उठी। हेमचन्द्र जैन बरेला सन्मति यूथ क्लब जैनत्व प्रतियोगिता का पुरातात्त्विक तीर्थों से अवैधानिक कब्जे हटाए पुरस्कार वितरण संपन्न शिवपुरी सन्मति यूथ क्लब (रजि.) द्वारा आयोजित भव्य जाएँ- अनेकान्त अकादमी की पुरजोर माँग धार्मिक प्रतियोगिता जैनत्व का पुरस्कार वितरण एवं सम्मान समारोह भोपाल, 15 अक्टूबर, विजयादशमी के पुनीत अवसर पर भव्य गरिमा के साथ संपन्न हुआ। प्रतियोगिता में कुल 1254 राष्ट्रीय अनेकान्त अकादमी की केन्द्रीय समिति की बैठक 75. प्रविष्टियाँ प्राप्त हुई थीं जिनमें से 258 प्रतियोगियों ने 49 अंक प्राप्त चित्रगुप्त नगर, कोटरा के सभा भवन में सम्पन्न हुई जिसमें सर्वसम्मति किये थे। इन प्रतिभागियों में से 24 प्रतिभागियों को पुरस्कार प्रदान से यह प्रस्ताव पारित किया गया, कि गुजरात में जूनागढ़ स्थित किये गये। प्रथम पुरस्कार श्री अजय जैन, द्वितीय पुरस्कार श्री सुप्रसिद्ध जैन तीर्थ पुरातत्त्व "गिरनार" पर्वत पर कुछ अराजक जयकुमार जैन, तृतीय कु. पारुल जैन ने प्राप्त किये एवं सांत्वना तत्त्वों द्वारा अवैधानिक कब्जा कर जैन दर्शनार्थियों को पूजन दर्शन पुरस्कार के रूप में 21 प्रतियोगियों को पुरस्कृत किया गया। आदि में अवरोध उत्पन्न किया जाता है, जिससे संपूर्ण देश के जैन . अरविंद जैन,सचिव, शिवपुरी समाज में आक्रोश है। परन्तु प्रान्तीय एवं केन्द्रीय सरकार इस विषय पर मौन है। योजना आयोग द्वारा नई मांस-योजना अस्वीकृत "अनेकान्त" की उक्त सभा में श्री कैलाश मड़वैया द्वारा महोदय, भारतवर्ष की दसवीं पंचवर्षीय योजना अपनी सप्रमाण ऐतिहासिक भौगोलिक पुरातात्त्विक एवं सामाजिक लेख तैयारी के अंतिम चरण में है। आगामी पाँच वर्षों हेतु देश की मांस प्रस्तुत किया गया, जिस पर सर्व-सम्मति से उपरोक्त प्रस्ताव नीति बनाने के लिए भारत सरकार के योजना आयोग द्वारा एक पारित किया गया। इस अवसर पर विद्वानों द्वारा यह भी मत व्यक्त उप समिति बनाई गई थी। समिति में अल्लाना समूह के चेयरमैन किया गया कि भोपाल जैसे अनेक नगरों में प्राचीन जैन साहित्य | इरफान अल्लाना (अध्यक्ष), सतीश सबरवाल (अलकबीर का की सूचियाँ बनाकर उन्हें दशलक्षण जैसे चिन्तन के अवसरों पर मालिक), तीन सरकारी प्रतिनिधि तथा भारतीय अहिंसा महासंघ सर्वसाधारण को अध्ययन हेतु उपलब्ध कराया जाये और महत्त्वपूर्ण | के महामंत्री एवं इंडियन वेजीटेरियन कांग्रेस पूर्वांचल के अध्यक्ष ग्रन्थों की बेबसाइट तैयार की जाये। डॉ. चिरंजीलाल बगड़ा, इस प्रकार छः सदस्य थे। इस समिति में विचार सभा में बोलते हुए कवि श्री विनोद कुमार "नयन" पाँच सदस्य एकमत थे। एकमात्र डॉ. चिरंजीलाल वगड़ा एक ऐसे ने कहा कि महावीर स्वामी की 2600वीं जयंती के संदर्भ में सदस्य थे जिन्होंने बयालीस पृष्ठीय अपना लिखित प्रतिवाद अनेकों बुन्देलखण्ड के जैन तीर्थों पर एक डाक्यूमेन्टरी फिल्म तैयार की | दस्तावेजों एवं पुस्तकों को संलग्न करके प्रस्तुत किया था। उपसमिति जाये, जिसके लिए केन्द्रीय शासन से उपलब्ध राशि में से व्यवस्था ने पूरे देश में करोड़ों रु. के विनियोजन से गाँव-गाँव में बूचड़खानों की जाना वांछनीय है। प्रोफेसर निर्मल जैन ने कहा कि गिरनार का जाल बिछा देने की सिफारिश की थी। 50 निर्माणाधीन तीर्थ की सुरक्षा हेतु वहाँ के स्थानीय लोगों के सहयोग से सरकार | बूचड़खानों को शीघ्र पूरा करना, 10 महानगरों में, 50 बड़े शहरों से पर्वत पर से अवांछनीय तत्त्वों को हटाने हेतु अपील की जाये।। में, 500 मध्यम शहरों में तथा 1000 ग्रामीण इलाकों में नए 28 दिसम्बर 2002 जिनभाषित Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बूचड़खाने बनाना, साथ ही 50 शहरों में सूअर मारने वाले कत्लखाने खोलना तथा 1000 चिकन ड्रेसिंग केंद्र खोलना आदि के अलावा मांस उद्योग को प्रोत्साहन देने वाले अनेक सुझाव भी दिए गए थे। अनेक अप्रत्यक्ष दबावों एवं देश के अनेक सक्रिय व्यक्तियों, संस्थाओं एवं साधु-संतों के प्रबल विरोध के चलते डॉ. चिरंजीलाल बगड़ा के लिखित प्रतिवाद को आधार बनाकर योजना आयोग ने उक्त उपसमिति के प्रस्तावों का पुनर्मूल्यांकन कराना स्वीकार किया तथा अंतत: उन्होंने नए बूचड़खाने निर्माण की समस्त प्रस्तावित योजनाओं को अस्वीकृत कर दिया। योजना आयोग ने अधिकृत सूचना जारी कर इसकी पुष्टि भी की है। योजना आयोग ने स्पष्ट घोषणा की है कि उक्त रिपोर्ट में सदस्यों की व्यक्तिगत पक्षविपक्ष में राय देखते हुए मांस उपसमिति की सिफारिशों को योजना आयोग अमान्य घोषित करता है।' अहिंसा की संगठित शक्ति की यह एक महत्त्वपूर्ण विजय है। हमें आगे भी इसी प्रकार सक्रिय एवं संगठित बने रहने की बेहद आवश्यकता है। डॉ. चिरंजीलाल बगड़ा, 46, स्ट्राण्ड रोड, कोलकाता म.प्र. में अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थाओं को पूरी मदद दिग्विजय सिंह मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने घोषणा की है कि मध्यप्रदेश में अल्पसंख्यकों की शैक्षणिक संस्थाओं की स्थापना के लिये हर संभव सहायता दी जाएगी। उन्होंने कहा कि पूरे प्रदेश में ऐसी संस्थाओं को शुरू करके लिए राज्य सरकार द्वारा मुफ्त जमीन के साथ-साथ एक करोड़ रुपये की ग्रान्ट दी जाएगी। श्री सिंह ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के संस्थापक सर सैयद अहमद खान के 185 वें जन्मदिन पर आयोजित कार्यक्रम में कहा कि कक्षा सात से पोस्ट ग्रेजयुट स्तर तक की ऐसी संस्थाओं को मध्यप्रदेश सरकार पूरी मदद देगी। श्री सिंह ने कहा कि साम्प्रदायिकता की राजनीति देश के सामने सबसे बड़ा खतरा है। साम्प्रदायिक संघर्ष को बढ़ावा देने वाली राजनीति को तत्काल रोकने की जरूरत है। साम्प्रदायिकता और धार्मिक कट्टरवाद की दोहरी समस्या से निपटने के लिये सैयद अहमद खान के आदर्शों का पालन किया जाना चाहिए। मुख्यमंत्री श्री सिंह ने कहा कि देश में साम्प्रदायिता के माहौल को समाप्त करने में बहुसंख्यक समाज को अग्रणी भूमिका निभाने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि किसी भी राज्य के मुख्यमंत्री में यदि दृढ़ इच्छाशक्ति हो तो कोई कारण नहीं है कि साम्प्रदायिक तनाव फैलाने वाले मुट्ठीभर लोगों को न रोका जा सके। उन्होंने कहा कि कानून का पालन कराने वाली मशीनरी को साम्प्रदायिक सद्भाव बिगाड़ने वाले प्रत्येक व्यक्ति को अपराधी मानकर व्यवहार करना चाहिए न कि उसे हिंदू या मुसलमान मानकर उन्होंने कहा कि साम्प्रदायिकता को रोकने में असत्य जानकारी और अफवाहों के प्रति कानूनी व्यवस्था बनाने वाली एजेंसियों को सजग रहना चाहिए। बाद में पत्रकारों से चर्चा में श्री सिंह ने कहा कि एनसीईआरटी द्वारा तैयार की गई उन पाठ्यपुस्तकों को पाठ्यक्रम में शामिल नहीं किया जायेगा जिनमें इतिहास को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत किया गया है। उन्होंने कहा कि राज्य सरकार प्रतिष्ठित विद्वानों का एक पैनल गठित करेगी जो इन किताबों की समीक्षा करेगा। इस पैनल की अनुशंसा के बाद ही राज्य इन किताबों को पाठ्यक्रम में शामिल करने की अनुमति देगी। मुनि श्री चिन्मय सागर जी की जीवनी जबलपुर / आचार्य श्री 108 विद्यासागर जी महाराज के सुशिष्य मुनिवर श्री 108 चिन्मय सागर जी महाराज की जीवनी पुस्तक के रूप में दैनिक भास्कर पत्र समूह के स्थानीय संपादक श्री सुशील तिवारी जी तैयार कर रहे हैं। तकरीबन 6 माह से इस श्रमसाध्य लेखन कार्य में तिवारी जी पूर्ण श्रद्धा एवं लगन के साथ लगे हुए हैं। मुनिवर श्री 108 चिन्मय सागर जी महाराज जंगल वाले बाबा के नाम से प्रसिद्ध हैं। मुनि श्री का जहाँ-जहाँ भी चातुर्मास एवं वाचना या अल्पप्रवास हुआ है वहाँ के श्रद्धालु भक्तों से विनम्र निवेदन है कि मुनिवर से संबंधित जो भी जानकारी. स्मरण एवं फोटो उनके पास हों, शीघ्र से शीघ्र अमित पड़रिया (संवाददाता- जिनभाषित) पांडे चौक जबलपुर (म.प्र.) पिन482002 के पते पर भेजने का अनुग्रह करें। फोन द्वारा 652661 पर भी सूचित कर सकते हैं। अमित पड़रिया 'राष्ट्रीय जैन महिला संघ' की स्थापना परम पूज्य सराकोद्धारक 108 उपाध्याय श्री ज्ञानसागर जी महाराज के आशीर्वाद से एवं ब. लवलेश जैन शास्त्री की प्रेरणा से एटा में 4 नवम्बर, 2002 दीपावली के शुभअवसर पर 'राष्ट्रीय जैन महिला संघ' की स्थापना हुई। इस संघ का उद्देश्य धर्म का प्रचार-प्रसार करना, शिक्षण शिविर का आयोजन, कुरीतियों को दूर करना, शाकाहार का प्रचार करना, स्वाध्याय, गोष्ठी आदि कार्यक्रम करना कराना है। 'राष्ट्रीय जैन महिला संघ' का प्रथम आयोजन 'श्री दिगम्बर जैन तीर्थ क्षेत्र कम्पिल जी में जो कि भगवान विमलनाथ के चार कल्याणकों से पूजित है, पंचकल्याणक प्रतिष्ठा के अवसर पर 'भ्रूणहत्या निषेध-अहिंसा - शाकाहार प्रदर्शनी लगाना है। इसकी सहयोगी संस्था' अखिल भारतीय दि. जैन महिला संगठन' एटा के संयुक्त तत्त्वधान में यह प्रदर्शनी लगाई जा रही है। श्रीमती बबीता जैन 'प्रेरणा' जैन नगर, एटा मंदिर के पुनर्निमाण हेतु अनुदान पूज्य मुनि श्री पुलक सागर जी महाराज की पहल पर ग्वालियर निवासी प्रदेश के पूर्व मंत्री श्री भगवानसिंह यादव ने मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री श्री दिग्विजय सिंह का ध्यान जबलपुर जिले के ऐतिहासिक दिगम्बर जैन मंदिर की ओर दिलाया जो कि -दिसम्बर 2002 जिनभाषित 29 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ARRERAPRA मिडकी गाँव में था तथा अवंतीबाई सागर परियोजना के डूब क्षेत्र ।। में आ गया था। इस पहल से राज्य सरकार ने मंदिर पुननिर्माण के लिए 33.80 लाख रुपये तत्काल रिलीज करने के आदेश दिए हैं। रवीन्द्र जैन, पत्रकार भोपाल एलोरा में पिच्छी-परिवर्तन समारोह प.पू. 108 आचार्य श्री विद्यासागर महाराज की सुशिष्या पू. 105 आर्यिका अनन्तमति एवं प.पू. 105 आर्यिका आदर्शमति - माताजी का 28 आर्यिकाओं 20 संघस्थ ब्रह्मचारिणी बहनों तथा 65 प्रतिभामंडल की बहनों के साथ चातुर्मास महाराष्ट्र स्थित श्री पार्श्वनाथ ब्रह्मचर्याश्रम गुरुकुल एलोरा में सानन्द सम्पन्न हुआ। इस चातुर्मास समापन पर दि. 10/11/02 रविवार को पिच्छीपरिवर्तन मूल कार्यक्रम 'पिच्छी परिवर्तन के संचालन हेतु कार्यक्रम समारोह मनाया गया जिसमें महाराष्ट्र एवं अन्य प्रांतों के बहुत से के सूत्र आर्यिका निर्मलमतीमाता जी को सौंपे गये। मानो आचार्य श्रद्धालुओं की उपस्थिति थी। श्री का आशीर्वाद पाकर बड़े आनन्द के साथ नई पिच्छी अपनी दि. 10/11/2002 रविवार को पिच्छियों का गाँव में जुलूस चोंच में धारण कर नृत्य करता हुआ मयूर माताजी के पास पहुँचता, निकाला गया। इसी अवसर पर चातुर्मास स्थापना कलश श्री निर्मल पिच्छी देकर फिर से दूसरी पिच्छिका लेने हेतु आचार्य श्री के पास कुमार जी निशांत कुमार जी ठोले के घर तथा ज्ञानसागर कलश श्री जाता- इस कल्पना को साकार करने का सफल प्रयास श्री शांतिलालजी संदीप कुमार जी अजमेरा के घर ससम्मान पहुँचाया वसंतरावजी मनोरकर द्वारा किया गया। नई पिच्छी का विमोचन गया। इस जुलूस में प्रतिभा मंडल की बहनें तथा अन्य स्थानों से विभिन्न स्थानों से आये हुए प्रतिष्ठितों द्वारा किया गया। सभी आये हुए मेहमान बड़ी संख्या में उत्साह के साथ उपस्थित थे। । आर्यिकायें अपनी पिच्छी आर्यिका अन्तमती माताजी को सौंपतीकार्यक्रम का शुभारंभ प्रतिभा मंडल की बहनों द्वारा गाये पश्चात् नई पिच्छिका संयम धारण किए हुए श्रावकों द्वारा प्रदान गये सुमधुर मंगलाचरण से हुआ। तदुपरांत फोटो-अनावरण-दीप की जाती। पश्चात संयम धारण किए हुए अन्य श्रावक-श्राविकाओं प्रजवलन-2 शास्त्रप्रदान की इस प्रकार 4 बोलियाँ हुई। आचार्यश्री को पुरानी पिच्छी आर्यिका अनन्तमति माताजी प्रदान करतीं। इस के फोटो का अनावरण, ध. श्री महावीर कुमार जी विजयकुमार प्रकार पिच्छी परिवर्तन कार्य पूरे संयममय मांगलिक वातावरण में जी काला, कोपरगाँव द्वारा तथा दीपप्रज्ज्वलन का कार्य ध. श्री सम्पन्न हुआ। सूत्र संचालन में आर्यिका आदर्शमती एवं आर्यिका निर्मलमती माताजी द्वारा वैराग्य प्रेरक दोहे- तात्त्विक चर्चाविमलकुमार जी भंवरलाल जी पारणी बहाणपुर के करमलों से उपदेश दिया गया। पिच्छी परिवर्तन कार्यक्रम की विशेषता यह हुआ। तदोपरांत प.पू. आर्यिका अनन्तमती माताजी को ध. श्री रही कि पिच्छी प्रदान करने की या ग्रहण करने की बोली नहीं की बाबुलाल जी कासलीवाल तथा प.पू. आदर्शमति माताजी को ध. गई बल्कि संयमधारण करने वालों को ही दी गई। श्री प्रमोदकुमार जी अंकेश कुमार जी जैन, कुम्भराज जि. गुना अंत में आर्यिका अनन्तमती माताजी का पिच्छी की महत्ता (म.प्र.) द्वारा शास्त्रभेंट किया गया। पश्चात् संस्था सचिव श्री बतानेवाला मार्मिक वैराग्यमय प्रवचन हुआ। इस प्रवचन में ही पन्नालाल जी गंगवाल ने अपने प्रास्ताविक में संस्था का परिचय माताजी ने इस सफल चातुर्मास के संयोजकों की भूरि-भूरि तथा चातुर्मास की सानन्द समाप्ति के लिए प्रसन्नत व्यक्त की। प्रशंसा की। गुरुकुल में अध्ययन करने वाले छात्रों की तरफ समाज चातुर्मास कमेटी के संयोजक डॉ. प्रेमचन्द्र जी पाटणी ने अपने को विशेष ध्यान देने की प्रेरणा पूरे चातुर्मास में माताजी द्वारा की प्रास्ताविक में पिच्छीपरिवर्तन कार्यक्रम की रूपरेखा एवं सम्पूर्ण गई। चातुर्मास व्यवस्था का उल्लेख किया। जिनवाणी स्तुति के बाद संस्था अध्यक्ष श्री तनसुखलालजी प्रतिभा मंडल की बहनों को अध्ययन कराने हेतु भोपाल | गणेशलालजी ठोले द्वारा धन्यवाद ज्ञापन किया गया। धर्मलाभ लेने से पधारे हुए पं. श्री रतनचन्द्र जी जैन का स्वागत श्री पन्नालाल जी | हेत् पधारे अतिथियों को सुबह का भण्डारा ध. श्री राजकुमार जी जैन द्वारा किया गया। अपने मनोगत में पं. रतनचद्र जी ने इस | काला, गलज तथा सायं का भण्डारा श्री दि. जैन पंचायत, लासूर चातुर्मास को "न भूतो न भविष्यति" की उपमा दी। इसी अवसर | द्वारा दिया गया। पर पंडित जी द्वारा सम्पादित 'जिनभाषित' मासिक पत्रिका का | कार्यक्रम का सूत्रसंचालन प्रधानाध्यापक श्री निर्मलकुमार विमोचन संस्था उपाध्यक्ष श्री वर्धमान जी पाण्डे के द्वारा किया | जी ठोले तथा पर्यवेक्षक श्री गुलाबचंद बोरालकर द्वारा किया गया। इस अवसर पर मासिक पत्रिका के 24 नए सदस्य भी बने। | गया। विद्यामंदिर के स्टॉफ, संयोजक एवं विश्वस्तों के परिश्रम 30 दिसम्बर 2002 जिनभाषित Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से कार्यक्रम सफलतापूर्व सम्पन्न हुआ। डॉ. जयकुमार जैन (मुजफ्फर नगर), प्रो. हीरालाल पाँड़े ( भोपाल ). पन्नालाल गंगवाल | पं. लालचन्द जैन राकेश (गंजबसौदा), पं. रतनलाल बैनाडा सचिव- पा. ब्र. आश्रम गुरुकुल, एलोरा (आगरा). पं. उत्तमचन्द राकेश (ललितपुर), डॉ. नरन्द्रकुमार अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत्परिषद जैन ( सनावद). डॉ. शोभालाल जैन (जयपुर), पं. सुनीलकुमार का 23वाँ साधारण सभा-अधिवेशन सम्पन्न जैन ( भगवा). पं. शिखरचन्द जैन, पं. शीतलचन्द्र जैन (सागर), पं. छोटेलाल जैन (झाँसी). पं. सरमनलाल दिवाकर ( हस्तिनापुर ) ___ श्री दिगम्बर जैन पार्श्वनाथ अतिशय क्षेत्र बिजौलिया (जिला आदि विद्वानों ने सम्बोधित किया।। भीलवाड़ा) राज. में परम जिनधर्मप्रभावक, तीर्थजीर्णोद्धारक, दि. 15 अक्टूबर की रात्रि में वरिष्ठ विद्वान डॉ. अशोककुमार आध्यात्मिक सन्त, मुनिपुंगव श्री सुधासागर जी महाराज, पूज्य क्ष. जैन ( लाडन)का “विसंवादों के बीच शान्ति का उपाय: अनेकान्त" श्री गम्भीरसागर जी महाराज एवं क्षु. श्री धैर्यसागर जी महाराज के विषय पर शास्त्रीय व्याख्यान हुआ। सान्निध्य एवं विद्वत्प्रवर डॉ. फूलचन्द्र जैन 'प्रेमी' (वाराणसी) की अ.भा.दि.जैन विद्वत्परिषद् साधारण सभा द्वारा गहन विचार अध्यक्षता में प.पू. क्षु. श्री गणेशप्रसाद वर्णी की प्रेरणा से सन् विमर्श के बाद सर्व सम्मति से प्रस्ताव पास कर संतशिरोमणि 1944 में संस्थापित दिगम्बर जैन विद्वानों की शीर्ष संस्था अ.भा.दिग. आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज एवं मुनिपुंगव श्री सुधासागर जैन विद्वत्परिषद् का 23वाँ अधिवेशन दि. 15 से 17 अक्टूबर जी महाराज की प्रेरणा से विभिन्न तीर्थ क्षेत्र कमेटियों द्वारा किय 2002 तक भव्य गरिमा के साथ सम्पन्न हुआ; जिसमें 125 विद्वानों गये जीर्णोद्धार कार्यों की सराहना की गयी तथा तथाकथित एवं 75 श्रमण संस्कृति संस्थान के विद्यार्थियों ने भाग लिया। जैनसंस्कृति संरक्षण मंच द्वारा प्रकाशित “जागिये, उठिये और सम्पूर्ण अधिवेशन का संचालन/संयोजन पार्श्व ज्योति (मासिक) आगे बढ़िये" तथा "जैनपुरातत्त्व के विध्वंस की कहानी" द्वारा के प्रधान सम्पादक डॉ. सुरेन्द्रकुमार जैन 'भारती' (मन्त्री) ने समाज को भ्रामक जानकारी देनेवाली पुस्तकें मानते हुए इन प्रकाशनों किया। को घोर निन्दा एवं भर्त्सना की गयी तथा इनके वितरक एकान्तवादी इस अधिवेशन में जैनप्रचारक (मासिक) के सम्पादक संगठनों के प्रति तीव्र रोष प्रकट किया गया। अन्य प्रस्तावों के एवं वरिष्ठ विद्वान डॉ.सुरेशचन्द्र जैन (दिल्ली) को 5101/- रुपये माध्यम से भगवान पार्श्वनाथ पर कमठकृत उपसर्ग स्थली एवं का पृ. क्षु. गणेशप्रसाद वर्णी स्मृति पुरस्कार भव्य प्रशस्ति मञ्जूषा केवलज्ञानोत्पत्ति भूमि बिजौलियाँ (जो वहाँ प्राप्त शिलालेखों से के साथ प्रदान किया गया तथा पार्श्व ज्योति (मासिक) के वरिष्ठ पुष्ट होती है) को मान्यता प्रदान करते हुए वहाँ तीर्थ संरक्षण हेतु सम्पादक, युवामनीषी, विद्यारत्न डॉ. नरेन्द्रकुमार जैन (सनावद) किये जा रहे विकास कार्यों की सराहना की गयी। परिषद ने यह को उनकी शोधकृति "जैन दर्शन में रत्नत्रय का स्वरूप' पर भी प्रस्ताव किया कि पंचकल्याणक प्रतिष्ठाओं से प्राप्त आय से 5101/- रुपये का गुरुवर्य गोपालदास वरैया स्मृति पुरस्कार जैन पाठशालायें खोली जायें ताकि समाज एवं धर्म का उन्नयन भव्य प्रशस्ति मंजूषा के साथ प्रदान किया गया। यह पुरस्कार श्री हो। परिषद् ने समाज का आह्वान किया कि वह अपने अपने नगरों लाभचन्द्र जैन, श्री प्रकाश गोधा, श्री प्रकाश पटवारी, श्री ऋषभ में करणानुयोग के प्रख्यात मनीषी स्व. पं. रतनचन्द्र मुख्तार का मोहिवाल, डॉ. फूलचन्द्र प्रेमी (अध्यक्ष) एवं डॉ. सुरेन्द्र कुमार जन्मशताब्दी समारोह आयोजित करें। जैन (मन्त्री) ने अपने कर कमलों से प्रदान किए। पुरस्कृत विद्वानों विद्वत्परिषद् की ओर से बिजौलियाँ तीर्थ की रक्षा एवं का परिचय एवं समारोह का संचालन अनेकान्त (मासिक) के विकास में प्राणपण से संलग्न श्री भंवरलाल पटवारी (बिजौलियाँ) सम्पादक डॉ. जयकुमार जैन (मुजफ्फर नगर) ने किया। यह एवं संयोजक श्री ऋषभ मोहिवाल (कोटा) का हार्दिक अभिनन्दन पुरस्कार प्रतिवर्ष प्रदान किये जायेंगे। किया गया। अधिवेशन के मध्य संगोष्ठी एवं विचार-विमर्श क्रम में तीर्थक्षेत्र बिजौलिया के विशाल शिलालेख एवं भगवान पार्श्वनाथ प्रत्येक सत्र में मुनिपुंगव श्री सुधासागर जी महाराज एवं का जीवन दर्शन, पुरातत्त्व संरक्षण एवं तीर्थ जीर्णोद्धार तथा सायंकाल पू.क्ष. श्री गम्भीर सागर जी महाराज के मार्मिक प्रवचन समसामयिक परिदृश्य पर विस्तृत चर्चा हुई। अधिवेशन को अ.भा. हुए। दि. जैन विद्वत्परिषद् के पूर्व अध्यक्ष डॉ. रमेशचन्द्र जैन डी.लिट. इस अवसर पर विद्वानों को दिए गए विशेष प्रबोधन में (बिजनौर) एवं वर्तमान अध्यक्ष डॉ. फूलचन्द 'प्रेमी' (वाराणसी), परमपूज्य मुनिश्री सुधासागर जी महाराज ने कहा कि विद्वान समाज डॉ. शीतल चन्द्र जैन-उपाध्यक्ष (जयपुर), डॉ. सुरेशचन्द्र जैन- की रीढ़ हैं। वे अपने वैदुष्य एवं चारित्र से जैनधर्म एवं समाज का 'पूर्व उपाध्यक्ष (दिल्ली), डॉ. सुरेन्द्रकुमार जैन भारती-मन्त्री महनीय विकास कर सकते हैं। प्राचीन तीर्थ हमारी संस्कृति के वे (बुरहानपुर), डॉ. विमला जैन- संयुक्त मन्त्री (फिरोजाबाद), | आयाम हैं जिनकी रक्षा करना हम सबका कर्त्तव्य है। मैं इसी डॉ. नेमिचन्द्र जैन-उपमन्त्री (खुरई), डॉ. कमलेशकुमार जैन- | पुनीत भावना से समाज एवं कमेटियों द्वारा मांगने पर तीर्थ विकास प्रकाशन मन्त्री (वाराणसी), प्राचार्य निहालचन्द जैन (बीना). | हेतु अपना आशीर्वाद देता हूँ। विद्वान् विभिन्न तीर्थक्षेत्रों पर जायें -दिसम्बर 2002 जिनभाषित 31 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और वहाँ हो रहे जीर्णोद्धार के कार्यों पर अपनी स्पष्ट राय से | एकान्तवादी संगठनों, व्यक्तियों के द्वारा अपनी संस्थाओं से उक्त समाज को अवगत करायें। विषैली तथा समाज को भ्रामक जानकारी देने वाली कृतियों के, आभार, श्री ऋषभ मोहिवाल- संगोष्ठी संयोजक (कोटा) वितरण करने पर रोष प्रकट करती है। यद्यपि उनका यह कार्य पूर्व ने व्यक्त किया। बिजौलिया तीर्थक्षेत्र कमेटी के सभी पदाधिकारियों घोषित मुनिविरोध का ही एक और कदम है। किन्तु वे यह जान एवं सदस्यों ने विद्वानों का हार्दिक सम्मान किया। लें कि जागरूक मुनि भक्त समाज उनके इस वहकावे में आने -डॉ. सुरेन्द्र कुमार जैन 'भारती' वाला नहीं है। हमारा समाज परम दिगम्बर मुनियों के प्रति आस्थावान मन्त्री, अ.भा.दि.जैन विद्वत्परिषद् था और सदैव रहेगा। हमारा समाज से आग्रह है कि वह ऐसी एल. 65, न्यू इन्दिरा नगर, ए, बुरहानपुर, म.प्र. कृतियों, इनके लेखकों तथा वितरकों से सावधान रहें तथा सम्बन्धित अ.भा. दि. जैन विद्वत्परिषद् द्वारा पारित प्रस्ताव | तीर्थ क्षेत्रों पर स्वयं जाकर यथार्थ स्थिति से साक्षात्कार करें। अ.भा. दि. जैन विद्वतपरिषद् साधारण सभा का यह प्रस्तावक - पं. लालचन्द जैन 'राकेश" अधिवेशन यह प्रस्ताव करता है कि परमपूज्य संत शिरोमणि आचार्य गंज बसौदा श्री विद्यासागर जी महाराज एवं उनके सुयोग्य शिष्य मुनि पुंगव समर्थक - पं. महेन्द्र कुमार जैन, प्राचार्य मुरैना श्री सुधासागर जी महाराज ने श्री दि.जैन अतिशय क्षेत्र देवगढ़ श्री दि.जैन सिद्ध क्षेत्र कुण्डलपुर, श्री दि. जैन मन्दिर संघी जी सांगानेर एक महनीय कृति का लोकार्पण श्री दि. जैन मन्दिर रैवासा, श्री दिग. जैन मन्दिर, बैनाड़ श्री दि. खांदूकालोनी (बांसवाड़ा) 27, अक्टूबर 2002, यहाँ जैन अतिशय क्षेत्र चांदखेड़ी एवं श्री दि. जैन अतिशय क्षेत्र पार्श्वनाथ | 16.10.02 से आयोजित जैन विद्या संस्कार शिक्षण शिविर के बिजौलिया आदि में सम्बन्धित तीर्थक्षेत्र समितियों के द्वारा बनायी | समापन के अवसर पर सहस्राधिक छात्रों और श्रावकों के मध्य गयी योजनानुसार अपने क्षेत्र के संरक्षण, संवर्धन हेतु चाहे गये गुरुवर आचार्य विद्यासागर जी महाराज के सुशिष्य ऐलक आशीर्वाद के फलस्वरूप इन स्थानों पर जो भी तीर्थ जीर्णोद्धार सिद्धान्तसागर जी महाराज के पावन सानिध्य में पं. सनतकुमार, विषयक कार्य हुए हैं उनकी सराहना एवं समर्थन करता है। पूज्य विनोदकुमार रजवांस, सागर द्वारा अनूदित श्री सिद्धचक्र विधान मुनिसंघों के आगमन से इन तीर्थों पर विकास की गंगा बहने लगी (अर्थ सहित) का लोकार्पण श्री विनोद कुमार दोशी, वागीदौरा के है तथा इन तीर्थों पर लाखों श्रद्धालुओं का आगमन होने लगा है द्वारा किया गया। इस अवसर पर प्रतिष्ठाचार्य पं. जयकुमार तथा पुण्यार्जन की विशेष स्थिति बन गयी है पूज्य मुनि श्री के "निशांत" टीकमगढ़ ने भातद्वय का परिचय दिया। शुभाशीर्वाद एवं सम्यक् प्रेरणा का यह सुफल मानते हुए सम्पूर्ण पूज्य ऐलकश्री ने दोनों भाइयों को आशीर्वाद दिया और जनता के स्वर में स्वर मिलाते हुए इस अधिवेशन में उपस्थित कहा कि सिद्धचक्र विधान के रहस्यमय छन्दों का सरलीकरण सभी विद्वान् पू. मुनिश्री के प्रति हार्दिक कृतज्ञता व्यक्त करते हैं। करके इन विद्वानों ने समाज एवं साहित्य की सेवा कर गरिमामय बीसवीं शताब्दी के अन्तिम दशक तथा इक्कीसवीं शती | कार्य किया है। के पूर्वार्द्ध को इस दृष्टि से सदियों तक याद किया जायेगा कि प.पू. चातुर्मास समिति खांदू कालोनी आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज एवं पूज्य मुनिपुंगव श्री सुधासागर बांसबाड़ा (राज.) जी महाराज की प्रेरणा से जहाँ अनेक तीर्थोद्धार हुए वहीं पुरातत्त्विक समवशरण महामण्डल विधान समापन धरोहरों को सुरक्षा भी मिली है। सिरोंज। श्रमण सूर्य, 108 आचार्य श्री विद्यासागर जी की हमें यह खेद के साथ कहना पड़ रहा है कि कुछ व्यक्ति आज्ञानुवर्ती शिष्या आर्यिका रत्न 105 गुणमति माताजी के ससंघ उक्त तीर्थ क्षेत्रों पर हुए निर्माण कार्यों में स्वयं को कोई भूमिका न सान्निध्य एवं प्रतिष्ठाचार्य ब्र.त्रिलोक जी जबलपुर के विधानाचार्यत्व मिलने और मुनिश्री के प्रति निरन्तर बढ़ रही श्रद्धा से विचलित हो में अतिशय क्षेत्र नसियाँजी में 1008 समवशरण विधान सानन्द कर द्वेषपूर्ण, भ्रामक, अनर्गल बयानबाजी कर रहे हैं। ऐसे स्वार्थी सम्पन्न हुआ। तत्त्वों से सावधान रहने की आवश्यकता है। समापन समारोह में विशाल जन समुदाय को सम्बोधित कुछ दिन पूर्व तथाकथित जैन संस्कृति रक्षा मंच द्वारा करते हुए पूज्य माता जी ने कहा कि विधान की सानन्द सफलता प्रकाशित "जागिये, उठिये और आगे बढिये" तथा 'जैन पुरातत्त्व से हर्षित इन्द्र इन्द्राणी आचार्य श्री को अर्घ चढ़ाने नेमावर जा रहे के विध्वंस की कहानी' जैसी पुस्तकों तथा इन्हीं से सम्बन्धित हैं। ये सोने पे सुहागे जैसी बात है क्योंकि गुरु आशीष के बिना , लोगों द्वारा कुछेक पत्र-पत्रिकाओं द्वारा मुनि श्री के विरुद्ध की जा जीवन में सफलता के द्वार नहीं खुलते। रही अशोभनीय टिप्पणियों तथा जीर्णोद्धार विषयक कपोल कल्पित मंत्री कहानियों के प्रकाशन की घोर निन्दा एवं भर्त्सना करता है तथा श्री दि. जैन अतिशय क्षेत्र ऐसी कृतियों के बहिष्कार का आह्वान करता है। यह अधिवेशन | नसियाँ ट्रस्ट, सिरोंज 32 दिसम्बर 2002 जिनभाषित Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कैंसर के कारणों से सावधान __ भारत में तम्बाकू का प्रयोग CLAY PIPE Og OVORICO TOOTHPASTE TORACCO TOTCOTPUR TOBACCO DATE SNUFF DHUMM HOOKAHS बीड़ी, सिगरेट, चुट्टा, चुरुट, चिलम, धुमती व हुक्का के रूप में धूम्रपान। चूना व सुपारी सहित पान के साथ। दंतमंजन व मशेरी रुप में दांत सफाई के लिये। नसवार के रुप में सूंघने के लिये। तम्बाकू-सेवन के ये सभी प्रकार हानिकारक हैं एवं कैंसर को बढ़ावा देने का कारण बनते हैं। इनके प्रयोग से बचिए। भारत में समस्त कैंसर मरीजों में से एक तिहाई लोग तम्बाकू का सेवन करते हैं (प्रतिवर्ष दो लाख प्रकरण)। हमारे देश में 15 वर्ष से अधिक उम्र के 14.2 करोड़ पुरुष एवं 7.2 करोड़ महिलायें तम्बाकू का सेवन करती है। भारत सरकार हर 5 वर्ष में तम्बाकू से संबंधित कैंसर के उपचार में 1000 करोड खर्च करती है। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रजि.नं. UP/HIN/29933/24/1/2001-TC डाक पंजीयन क्र.-म.प्र./भोपाल /5812002 PEAKE IFIL TATED एलोरा गुफा क्र. 30 का बाह्य दृश्य / LIS स्वामी, प्रकाशक एवं मुद्रक :रतनलाल बैनाड़ा द्वारा एकलव्य ऑफसेट सहकारी मुद्रणालय संस्था मर्यादित, जोन-I, महाराणा प्रताप भोपाल (म.प्र.) से मुद्रित एवं सर्वोदय जैन विद्यापीठ 1/205, प्रोफेसर्स कालोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) से प्रकाशित /