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________________ नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उसने तो अपनी ओर से रक्षा करने | प्रकार के खान-पान का त्याग करा देने से साधक को अनेक की पूरी कोशिश की, किन्तु जब रक्षा असम्भव हो गयी तो एक | कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है। कभी-कभी तो उसे कुशल व्यक्ति के नाते बहुमूल्य वस्तुओं का संरक्षण करना ही अपने संयम से च्युत भी हो जाना पड़ता है। अतः साधक को उसका कर्त्तव्य बनता है। इसी प्रकार रोगादिकों से आक्रान्त होने | किसी भी प्रकार की आकुलता न हो और वह क्रमश: अपनी पर एकदम से सल्लेखना नहीं ली जाती। वह तो शरीर को अपनी | काया और कषायों को कृश करता हुआ, देहोत्सर्ग की दिशा में साधना का विशेष साधन समझ यथासम्भव उसका योग्य | आगे बढ़े. इसका ध्यान रखकर ही सल्लेखना की विधि बनायी गयी उपचार/प्रतिकार करता है, किन्तु पूरी कोशिश करने पर भी, जब | है। वह असाध्य दिखता है, और नि:प्रतिकार प्रतीत होता है तो वह सल्लेखना की विधि में कषायों को कृश करने का उपाय उस विषम परिस्थिति में मृत्यु को अवश्यम्भावी जानकर अपने बताते हुए कहा गया है कि साधक को सर्वप्रथम अपने कुटुम्बियों, व्रतों की रक्षा में उद्यत होता हुआ, अपने संयम की रक्षा के लिए परिजनों एवं मित्रों से मोह, अपने शत्रुओं से बैर तथा सब प्रकार के समभावपूर्वक मृत्युराज के स्वागत में तत्पर हो जाता है। बाह्य पदार्थों से ममत्व का शुद्ध मन से त्यागकर, मिष्ट वचनों के . सल्लेखना को आत्मघात नहीं कहा जा सकता। यह तो साथ अपने स्वजनों और परिजनों से क्षमा याचना करनी चाहिए देहोत्सर्ग की तर्कसंगत और वैज्ञानिक पद्धति है, जिससे अमरत्व तथा अपनी ओर से भी उन्हें क्षमा करनी चाहिए। उसके बाद की उपलब्धि होती है। सल्लेखना की इसी युक्तियुक्तता एवं वैज्ञानिकता किसी योग्य गुरु (निर्यापकाचार्य) के पास जाकर कृत, कारित से प्रभावित होकर बीसवीं शताब्दी के विख्यात सन्त "आचार्य | अनुमोदन से किये गये सब प्रकार के पापों की छलरहित आलोचना विनोबा भावे" ने जैनों की इस साधना को अपनाकर सल्लेखना | कर, मरणपर्यन्त के लिए महाव्रतों को धारण करना चाहिए। उसके पूर्वक देहोत्सर्ग किया था। साथ ही उसे सब प्रकार के शोक, भय, सन्ताप, खेद, विषाद, सल्लेखना का महत्त्व कालुष्य, अरति आदि अशुभ भावों को त्याग कर अपने बल, सल्लेखना को साधना की अन्तिम क्रिया कहा गया है। वीर्य, साहस और उत्साह को बढ़ाते हुए गुरुओं के द्वारा सुनाई अन्तिम क्रिया यानि मृत्यु के समय की क्रिया को सुधारना अर्थात् जाने वाली अमृत-वाणी से अपने मन को प्रसन्न रखना चाहिए। काय और कषाय को कृश करके सन्यास धारण करना, यही कषायसल्लेखना का यह संक्षिप्त रूप है। इसका विशेष कथन जीवन भर के तप का फल है। जिस प्रकार वर्ष भर विद्यालय में | ग्रन्थों से जानना चाहिए। जाकर अध्ययन करनेवाला विद्यार्थी, यदि परीक्षा में नहीं बैठता, इस प्रकार ज्ञानपूर्वक कषायों को कृश करने के साथ वह तो उसकी वर्ष भर की पढ़ाई निरर्थक रह जाती है, उसी प्रकार | अपनी काया को कश करने हेतु सर्वप्रथम स्थूल/ठोस आहार जीवन भर साधना करते रहने के उपरान्त भी यदि सल्लेखनापूर्वक दाल-भात, रोटी जैसे का त्याग करता है तथा दुग्ध, छाछ आदि मरण नहीं हो पाता, तो साधना का वास्तविक फल नहीं मिल पेय पदार्थों पर निर्भर रहने का अभ्यास बढ़ाता है। धीरे-धीर जब पाता। इसलिए प्रत्येक साधक को सल्लेखना अवश्य करनी चाहिए। दृध, छाछ आदि पर रहने का अभ्यास हो जाता है, तब वह उनका मुनि और श्रावक दोनों के लिए सल्लेखना अनिवार्य है। यथाशक्ति भी त्याग कर मात्र गर्म जल ग्रहण करता है। इस प्रकार चित्त की इसके लिए प्रयास करना चाहिए। जिस प्रकार युद्ध का अभ्यासी स्थिरतापूर्वक अपने उक्त अभ्यास और शक्ति को बढ़ाकर, पुरुष रणाङ्गण में सफलता प्राप्त करता है उसी प्रकार पूर्व में किये धीरजपूर्वक, अन्त में उस जल का भी त्याग कर देता है और गये अभ्यास के बल से ही सल्लेखना सफल हो पाती है। अत: अपने व्रतों को निरतिचार पालन करते हुए 'पञ्च-नमस्कार' मन्त्र जब तक इस भव का अभाव नहीं होता तब तक हमें प्रति समय का स्मरण करता हुआ शान्तिपूर्वक इस देह का त्यागकर परलोक "समतापूर्वक मरण हो" इस प्रकार का भाव और पुरुषार्थ करना को प्रयाण करता है। चाहिए। वस्तुतः सल्लेखना के बिना साधना अधूरी है। जिस सल्लेखना के अतिचार प्रकार किसी मन्दिर के निर्माण के बाद जब तक उस पर कलशारोहण सल्लेखनाधारी साधक को अपनी, सेवाशुश्रूषा होती देखकर नहीं होता, तब तक वह शोभास्पद नहीं लगता; उसी प्रकार जीवन अथवा अपनी इस साधना से बढ़ती हुई प्रतिष्ठा के लोभ में ओर भर की साधना, सल्लेखना के बिना अधूरी रह जाती है। सल्लेखना अधिक जीने की आकांक्षा नहीं करनी चाहिए। "मैंने आहारादि साधना के मण्डप में किया जाने वाला कलशारोहण है। का त्याग तो कर दिया है, किन्तु मैं अधिक समय तक रहूँ, तो मुझे सल्लेखना की विधि भूख प्यास आदि की वेदना भी हो सकती है, इसलिए अब और सल्लेखना या समाधि का अर्थ एक साथ सब प्रकार के अधिक न जीकर शीघ्र ही मर जाऊँ तो अच्छा है।'' इस प्रकार खान-पान का त्याग करके बैठ जाना नहीं है, अपितु उसका एक मरण की आकांक्षा भी नहीं करनी चाहिए। “सल्लेखना तो धारण निश्चित क्रम है। उस क्रम का ध्यान रखकर ही सल्लेखना कर ली है, पर ऐसा न हो कि क्षुधा आदि की वेदना बढ़ जाए और करनी/करानी चाहिए। इसका ध्यान रखे बिना एक साथ ही सब | मैं उसे सह न पाऊँ,'' इस प्रकार का भय भी मन से निकाल देना 6 दिसम्बर 2002 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524268
Book TitleJinabhashita 2002 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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