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________________ स्वाभिमानी मैना सुन्दरी डॉ. नीलम जैन मैना नाम है उस स्पष्टवादिनी, प्रगल्भा, निर्भीक तरुणी | कोमल छाया डालती है। मैना सुन्दरी एक तपी हुई वनिता है जो का, जो सहिष्णुता और आत्म-विश्वास, दृढ़ता और कर्मठता, प्रणय के सच्चे मार्ग पर भी सबलता से प्रतिष्ठिापित होती है। सबके मर्यादा और त्याग का अभूतपूर्व संगम बनकर आज भी जन-जन | प्रभाव से विलग अपना अस्तित्व अपनी साधना से बनाती है। मैना के मन में बसी हुई है। वर्ष में तीस बार आठ-आठ दिवस मैना ने पिता पुहुपाल द्वारा प्रदत्त नरक को भी अपने समर्पण से स्वर्ग सबको समर्पित, श्रद्धान्वित जिन शक्ति का स्मरण करा देती है। बना डाला। व्यावहारिक ज्ञान से सम्पन्न मधुरभाषिणी मैना का व्यक्तित्व राजा पुहुपाल पश्चात्ताप की अग्नि में प्रतिपल जलते रहे, विशद है। पिता की आज्ञा मानना धर्म है, किन्तु एक निश्चित | परन्तु मैना उस अग्नि में धधक-धधककर निखरती रही। भले ही सीमा तक। पिता के भी अभिमान, अंहकार को ललकारने वाली | कुछ की सहानुभूति राजा के साथ भी रही होगी, मैना को वाचाल, मैना कर्मों के सम्मुख तमाम राजपाट को तृणवत् नकार देती है। | बड़बोली धृष्ट का भी विशेषण मिला ही होगा। पर सत्य यह भी है वह सिंहगर्जना करती है- "पिता ने जन्म दिया, लेकिन इसका | कि इतिहास रचने वालों के साथ होता भी कुछ नया ही है। अर्थ यह तो नहीं कि कर्मों के भी नियन्ता बन बैठे?" युवतियों को तो मैना का रूप कहीं अन्दर तक शीतलता दे गया कल्पना करें उस क्षण की जब मैना सुन्दरी ने भरे दरबार होगा। लड़की को गाय समझकर खूटे से बाँध देने वालों के में अपने पिता के श्रम को छिन्न-भिन्न किया होगा। एक बहन सिर | लिए मैना सुन्दरी का चरित्र एक स्पीड ब्रेकर है। उन्हें तो बारझुकाए चापलूसी कर रही है- "हाँ पिताजी, सुख-दुःख आपकी बार रुककर सोचना ही पड़ा होगा और अपने दर्पण में झाँककर कृपा पर निर्भर हैं। हमारा सौभाग्य आप ही निश्चित कर सकते भी स्वयं को परखना होगा। लड़कियाँ भी अपने ही भाग्य का हैं । हम सब के भविष्य निर्धारक आप ही हैं।" और तभी इन सब | खाती हैं। यह बात पिता पुहुपाल के साथ भी कुष्ठ रोगी श्रीपाल ने मधुरालापों को हवा में उड़ाकर मैना पल भर में एक ओर कर देती | भी भली-भाँति समझी होगी और यह भी जान लिया होगा जिस है और सारी श्रृंखला एकदम विच्छिन्न और विशृंखल होकर नवीन कन्या के साथ पाणिग्रहण हो रहा है वह सामान्य संकेतमात्र पर ही वातावरण निर्मित कर देती है। नाचने वाली कठपुतली नहीं है। उसके पास एक सबल मस्तिष्क भले ही मैना उस समय वाचाल कही गई होगी। किसी ने | भी है तथा उसमें अंगुली के अग्रभाग के व्यर्थ नाखून की भाँति कल्पना भी नहीं की होगी यों राजा के सम्मान को अंजुलिबद्ध | सब कुछ पल में काटकर फेंक देने का सामर्थ्य भी। और आत्मभिमान करके एक साथ उड़ेल डालेगी- राजा पुहुपाल के आँखों के | यही वह पूँजी थी जो मैना ने सदैव साथ रखी। जीवन की अंगारे मैना को समूल ही भस्म करने को उद्यत हो गए। सत्य | वास्तविकता यह है कि अपने जीवन को सिद्धान्तानुरूप ढालने में सहना भी सरल तो नहीं। राजहठ को चुनौती, वह भी पुत्री के | जरा कठिनाई होती है। पर एक बार ढल जाए तो सहजता से द्वारा, उस कन्या के द्वारा जिसे बचपन से पिता की प्रत्येक आज्ञा | किसी में भी नकारने की सामर्थ्य नहीं होती। प्रति पग मैना भारतीय को स्वीकार करने की शिक्षा दी जाती है। प्रतिवाद की तो कोसों परम्परा का अनुवर्तन करती है। पिता द्वारा तिरस्कृता मैना पति दूर तक गुंजाइश नहीं थी। पिता से पुत्री के संघर्ष की ऐसी अनोखी द्वारा सम्मानिता बनती है। श्रीपाल को उसके रोग का जरा भी घटना का इतिहास में कोई अन्य उदाहरण ढूँढे से नहीं मिलता। अहसास न कराने वाली मैना भारतीय परम्परा का अनुवर्तन करती मैना को राजवैभव, सुखभोग त्यागने का दुःख नहीं प्रत्युत श्रीपाल | है। अनिष्ट की शान्ति के लिए दीर्घ प्रवास पर तीर्थ यात्राएँ भी की विषम दशा से चिन्तित है। ऐसे पतिव्रत का वर्णन मिलना करती है। श्रीपाल को उसके रोग का जरा भी अहसास न कराने नितान्त दुर्लभ है। वह जीवन संघर्ष से भागती नहीं और न ही | वाली मैना का चरित्र स्वयं उसके मानवी जीवन को ईश्वर तत्त्व से जीवन की समस्याओं को सुलझाने से विमुख होती है। वह समग्र जोड़ देता है। आद्यन्त तक मैना कहीं भी सुबकती-सिसकती मानवी बनकर जीवन के महनीय और माननीय आदर्शों को सर्वदा नहीं, श्रीपाल के लिए उसका जीवन समर्पित था। वह 'सिद्ध चक्र जागरूकता के साथ अपने हृदय में धारण करती है, चरित्र में | विधान' करके कुष्ठ रोग दूर करती है। पुनः समस्त राजपाट प्राप्त क्रियान्वित करती है। छाया की भाँति श्रीपाल का अनुसरण करने | कर पटरानी बनती है। श्रीपाल चले जाते हैं। एक-एक पल वह वाली मैना की तत्परता और सुकुमारता कठोर मन पर भी अपनी | जिनाराधना में बिता देती है। यहीं मैना का चरित्र सर्वथा -दिसम्बर 2002 जिनभाषित 11 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524268
Book TitleJinabhashita 2002 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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