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________________ इसे भक्ति कहें या नियोग? स्व. पं. मिलापचन्द्र जी कटारिया तीर्थंकरों के कल्याणकों में उनकी या उनके माता पिताओं । जिनके सम्यक्त्व नहीं होता वे देव तो भगवान् की सेवा की मात्र की सेवा के लिए दिक्कुमारी,रुचकवासिनी, इन्द्राणी आदि देवियाँ ड्यूटी अदा करते हैं। तीर्थंकरों के सेवाकार्य के अतिरिक्त भी कई और सौधर्मेन्द्र, कुबेर, यक्ष आदि देव उपस्थित होते हैं ऐसा कथन | धार्मिक कार्य ऐसे हैं जिन्हें सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि देव देवगति जैन शास्त्रों में पाया जाता है और वह इस ढंग से पाया जाता है कि की परम्परा के माफिक समानरूप से करते हैं। जैसे देवगति में किसी भी एक तीर्थंकर का जिस किस्म का सेवा कार्य जिन-जिन कोई भी देव जन्म लेगा तो वह जन्म होते ही प्रथम जिनपूजा के नाम के देव-देवियों ने किया उसी किस्म का सेवा कार्य उन्हीं नाम | लिये वहाँ के चैत्यालय में जावेगा। अष्टाह्निकपर्व आने पर प्रायः के देवदेवियों ने सभी तीर्थंकरों का किया है। यह रीति अनादिकाल सभी देव नंदीश्वरद्वीप में पूजा करने को जायेंगे एवं किसी तीर्थकर से होते आये तीर्थंकरों के साथ समान रूप से होती रही है। जैसे का कहीं कोई कल्याणक होगा तो उसके समारोह में भी उन्हें भगवान् ऋषभदेव की माता की सेवा श्री, ह्री, धृति आदि दिक्कुमारी शामिल होना पड़ेगा। इत्यादि कार्यों में भाग लेने का देवगति में देवियों ने की, इसी तरह इन्हीं देवियों ने शेष तीर्थंकर-माताओं की एक रिवाज सा चला आ रहा है। इसलिए ये सब उन्हें करने पड़ते भी सेवा की है, बल्कि अनादिकाल से होती आई सभी जिनमाताओं | हैं। इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि ऐसा वे सम्यग्दृष्टि होने की की भी सेवा इन्हीं श्री, ही आदि देवियों ने की है। ऐसा आगम के वजह से करते हैं। अगर ऐसा ही माना जाये तो देवों में फिर कोई पाठी मानते आ रहे हैं। यही हाल तीर्थंकरों के अन्य सेवा कार्यों मिथ्यादृष्टि देव ही होना सम्भव न हो सकेगा। यह बात त्रिलोकप्रज्ञप्ति का भी है। जन्मकल्याणक में सौधर्मेन्द्र का भगवान् को गोदी में | की निम्न गाथाद्वय से भी सिद्ध होती है बैठाना, ईशानेन्द्र का भगवान् पर छत्र लगाना, सनत्कुमार और कम्मखपणणिमित्तं णिब्भरभत्तीए विवहदव्वेहिं। माहेन्द्र का चमर ढोरना आदि अन्यान्य कार्य भी जो एक तीर्थंकर सम्माइट्ठीदेवा जिणिंदपडिमाओ पूजंति ।।16।। के साथ हुआ वही कार्य इन्हीं इंद्रादि द्वारा अन्य सभी तीर्थंकरों के एदे कुलदेवा इय मण्णंता देववोहणवलेण। साथ हुआ है। जैन शास्त्रों के इस प्रकार के कथनों पर जब हम मिच्छाइट्ठी देवा पूयंति जिणिंद पडिमाओ॥17॥ गहराई के साथ विचार करते हैं तो हम इस तथ्य पर पहुँचते हैं कि -६वाँ अधिकार तीर्थंकरों की सेवाओं में भाग लेने वाले इन देवों व देवियों का अर्थ- सम्यग्दृष्टि देव कर्मक्षय के निमित्त गाढ़ भक्ति से प्रधान कारण जिनभक्ति नहीं है। भगवान् की भक्ति ही कारण विविध द्रव्यों के द्वारा उन जिनप्रतिमाओं की पूजा करते हैं । अन्य होती है तो भगवान् की विविध सेवाओं में से कोई सेवा कभी कोई | देवों के समझााने से मिथ्यादृष्टि देव भी 'ये कुल देवता हैं' ऐसा देव करता और कभी कोई देव। सो ऐसा न बताकर सर्वदा के मानकर उन जिनप्रतिमाओं को पूजते हैं। लिये किन्हीं देव-विशेषों के लिये भगवान् की किसी खास सेवा इसलिये जो लोग यह कहते हैं कि "तीर्थंकरों की सेवा का प्रोग्राम निश्चित सा बंधा हुआ है। भगवान् को गोदी में बैठाना, का नियोग जिन देव देवियों पर है वे सब सम्यग्दृष्टि ही होते हैं" उन पर छत्र लगाना, चमर ढोरना ये कार्य क्या उक्त इंद्रों के सिवा | उनका ऐसा कहना ठीक नहीं है। उन्हें इस सम्बन्ध में अभी गंभीर अन्य स्वर्गों के इन्द्र नहीं कर सकते हैं? नहीं कर सकते तो क्यों विचार करने की जरूरत है। तीर्थंकरों के चरित्रों में तीर्थकरों की व नहीं कर सकते हैं। क्या इन जैसी उनमें भक्ति नहीं है। यदि कहो उनके माता-पिताओं की देव-देवियों द्वारा जो सेवा करने का कि सौधर्मेन्द्र एकभवावतारी होता है तो एक भवावतारी तो सभी कथन किया गया है, वह एकमात्र उन तीर्थंकरों की महिमा प्रदर्शन दक्षिणस्वर्गों के इंद्र भी माने गये हैं, जैसा कि त्रिलोकसार की निम्न के उद्देश्य से किया है, न कि देव-देवियों की भक्तिप्रदर्शनार्थ । यह गाथा से प्रकट है चीज विचारकों के खास ध्यान में रहने की है। 'भूपाल चतुर्विंशतिका' सोदम्मो वरदेवी सलोगवाला व दक्खिणमरिंदा। स्तोत्र में लिखा है कि - लोयंतिय सव्वट्ठा तदो चुदा णिव्वुदिं जंति ।।548 ।। देवेन्द्रास्तव मजनानि विदधर्वेवांगना मंगलाअर्थ- सौधर्मेन्द्र, उसकी शची, उसके लोकपाल व न्यापेठुः शरदिंदुनिर्मलयशो गंधर्वदेवा जगुः । सनत्कुमारादि दक्षिण इन्द्र, लोकांतिकदेव और सर्वार्थसिद्धि के शेषाश्चापि यथानियोगमखिला: सेवां सुराश्चक्रिरे, देव ये सब वहाँ से चयकर मनुष्य हो मोक्ष जाते हैं। तत् किं देव वयं विद्धम इति नश्चितं तु दोलायते ।।22 ।। इससे हमें यही मानने को बाध्य होना पड़ता है कि जो अर्थ- इन्द्रों ने आपका अभिषेक किया, देवियों ने मंगल देवी-देव तीर्थंकरों के सेवाकार्य में भाग लेते हैं वे भक्तिवश नहीं | पाठ पढ़े, गंधर्वो ने आपका यशोगान किया और बाकी बचे समस्त किन्तु सदा से जो सेवा का काम जिन देवी-देवों द्वारा होता आ रहा देवों ने भी जैसा जिसका अधिकार था वैसी आपकी सेवा की। है वह कार्य आगे भी उन्हीं को करना पड़ता है। ड्यूटी इनके लिये अब हमलोग आपकी कौन सी सेवा करें? इस प्रकार हमारा मन अनादि से चली आ रही है। चाहे भक्ति हो या न हो और वे | सोच में झूल रहा है। सम्यक्त्वी हों या नहीं, उस ड्यूटी का पालन करना उनके लिये इस कथन से भी यही सिद्ध होता है कि भगवान् की सेवा आवश्यक होता है। देवगति में जन्म लेनेवालों का ऐसा ही नियोग अलग-अलग देवों के लिये अलग-अलग नियत थी। वह सेवा है। अलबत्ता इनमें जो सम्यग्दृष्टि देव होते हैं वे भगवान् की सेवा उनको भक्ति हो या न हो अवश्य ही करनी पड़ती थी। का अपना नियोग बहुत कुछ भक्तिभावपूर्वक साधते हैं। किन्तु | 'जैन निबन्ध रत्नावली' से साभार 10 दिसम्बर 2002 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524268
Book TitleJinabhashita 2002 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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