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________________ पाठ अब भी पाये जाते हैं, पूज्य की पूजा और उपासना की जाती । की क्रियायें हैं। हिन्दुओं के यहाँ वेदों तक में देवताओं का आवाहन थी। श्रावक लोग मंदिरों में जाकर प्राय: जिनेन्द्र प्रतिमा के सम्मुख, | और विजर्सन पाया जाता है। वे लोग ऐसा मानते हैं कि देवता लोग खड़े होकर अथवा बैठकर , अनेक प्रकार के समझ में आने योग्य | बुलाने से आते, बैठते, ठहरते और अपना यज्ञभाग ग्रहण करके, स्तोत्र पढ़ते तथा भक्तिपाठों का उच्चारण करते थे और परमात्मा के रुखसत करने पर, वापिस चले जाते हैं। इससे हिन्दुओं के यहाँ गुणों का स्मरण करते हुए उन में तल्लीन हो जाते थे। कभी-कभी आवाहन और विजर्सन का यह सब कथन ठीक बन जाता है। वे ध्यानमुद्रा से बैठकर परमात्मा की मूर्ति को अपने हृदयमन्दिर में परन्तु जैनियों की ऐसी मान्यता नहीं है। इसीलिए जैनधर्म से इनका विराजमान करके नि:शब्द-रूप से गुणों का चिन्तवन करते हुए मेल नहीं मिलता और ये सब क्रियायें बिल्कुल बेजोड़ मालूम परमात्मा की उपासना किया करते थे। प्रायः यही सब उनका होती हैं। इसी प्रकार की, पूजन सम्बंध में और भी बहुत सी द्रव्य-पूजन था और यही भावपूजन । उस समय के जैनाचार्य वचन क्रियायें हैं जो हिन्दुओं से उधार लेकर रक्खी गईं अथवा उनके संस्कारों से संस्कारित होकर पीछे से बना ली गई हैं। और जिन और शरीर को अन्य व्यापारों से हटाकर उन्हें अपने पूज्य के प्रति, सबका जैनसिद्धान्तों से प्राय: कुछ भी मेल नहीं हैं। यहाँ इस छोटे स्तुतिपाठ करने और अंजुलि जोड़ने आदि रूप से, एकाग्र करने से लेख में उन सब पर विचार नहीं किया जा सकता और न इस को 'द्रव्यपूजा' और उसी प्रकार से मन के एकाग्र करने को समय उनके विचार का अवसर ही प्राप्त है। अवसर मिलने पर उन 'भावपूजा' मानते थे, जैसा कि श्रीअमितगति आचार्य के पर फिर कभी प्रकाश डाला जाएगा। परन्तु इतना जरूर कहना निम्नलिखित वाक्य से प्रगट है होगा कि वर्तमान का पूजन इन्हीं सब क्रियाओं के कारण बिल्कुल वचोविग्रहसंकोचो द्रव्यपूजा निगद्यते। अप्राकृतिक तथा आडम्बरयुक्त बना गया है और उससे जैनियों की तत्र मानससंकोचो भावपूजा पुरातनैः॥१२-१२॥ आत्मीय प्रगति, एक प्रकार से, रुक गई है। यदि सचमुच ही हमारे -उपासकाचार जैनी भाई अपने परमात्मा की पूजा, भक्ति और उपासना करना जब से हिन्दुओं के प्राबल्यद्वारा जैनियों पर हिन्दूधर्म का चाहते हैं तो उन्हें सब आडम्बरों को छोड़कर पूजन की अपनी प्रभाव पड़ा है और उन्होंने हिन्दुओं की देखादेखी उनकी बहुतसी वही पुरानी, प्राकृतिक और सीध-सादी पद्धति जारी करनी चाहिए। ऐसी बातों को अपने में स्थान दिया है, जिनका जैन सिद्धान्तों से | जिसका ऊपर उल्लेख किया गया है। ऐसा करने पर पुजारियों को प्राय: कुछ भी सम्बन्ध नहीं है, तभी से जैन समाज में | नौकर रखने की भी फिर कुछ जरूरत नहीं रहेगी और आत्मोन्नतिबहुआडम्बरयुक्त पूजन का प्रवेश प्रारंभ हुआ है और उसने बढ़ते- | सम्बन्धी वह सब लाभ अपने को प्राप्त होने लगेगा, जिसको लक्ष्य बढ़ते वर्तमान का रूप धारण किया है, जिसमें बिना पुजारियों के करके ही मूर्तिपूजा का विधान किया गया है और जिसका परिचय नौकर रक्खे नहीं बीतती। आजकल इस पूजन में मुक्ति को प्राप्त | पाठकों का, 'जिनपूजाधिकारमीमांसा' के 'पूजनसिद्धान्त' प्रकरण हुए, जिनेन्द्र भगवान् का आवाहन और विसर्जन भी किया जाता को पढ़ने से भले प्रकार मिल सकता है। विपरीत इसके यदि जैनी है। उन्हें कुछ मंत्र पढ़कर बुलाया. बिठलाया, ठहराया और फिर लोग अपनी वर्तमान पूजनपद्धति न बदलने के कारण नौकरों से नैवेद्यादिक अर्पण करने के बाद रुखसत किया जाता है-कहा पूजन कराना जारी रक्खेंगे तो इसमें संदेह नहीं कि वह समय भी जाता है कि महाराज! अब आप तो अपने स्थान पर तशरीफ़ ले | शीघ्र निकट हा जायगा जब उन्हें दर्शन, सामायिक, स्वाध्याय, जाइए और हमारा अपराध क्षमा कीजिए; क्योंकि हम लोग ठीक तप, जप, शील,संयम, व्रत, नियम और उपवासादिक सभी धार्मिक तौर से आवाहन, पूजन और विसर्जन करना नहीं जानते। जरा कामों के लिये नौकर रखने या उन्हें सर्वथा छोड़ देने की जरूरत सोचने की बात है कि, जैनधर्म से इन सब क्रियाओं का क्या पड़ने लगेगी। और तब उनका धर्म से बिल्कुल ही पतन हो जायगा। सम्बन्ध है? जिन सिद्धान्त के अनुसार मुक्त तीर्थंकर अथवा जिनेन्द्र | इसलिए जैनियों को शीघ्र ही सावधान होकर अपनी वर्तमान पूजन भगवान् किसी के बुलाने से नहीं आते; न किसी के कहने से कहीं पद्धति में आवश्यक सुधार करके उसे सिद्धान्तसम्मत बना लेना बैठते, ठहरते या नैवेद्यादि ग्रहण करते हैं; और न किसी के रुखसती चाहिए। और नौकरों के द्वारा पूजन की प्रथा को एकदम उठा (विसर्जनात्मक) शब्द उच्चारण करने पर वापिस ही चले जाते देना चाहिए। आशा है कि, समाज के नेता और विद्वान् लोग इस हैं। ऐसी हालत में जैनधर्म से इन आवाहन और विसर्जनसम्बन्धी विषय की ओर खास तौर से ध्यान देंगे। क्रियाओं का कोई मेल नहीं है । वास्तव में ये सब क्रियायें हिन्दूधर्म 'युगवीर निबन्धावली' से साभार गुणदोष समाहारे दोषान् गृह्णन्त्यसाधवः । • अदोषामपि दोषाक्तां पश्यन्ति रचनां खलाः । मुक्ताफलानि संत्यज्य काकमांसमिव द्विपात्। रविमूर्तिमिवोलूकास्तमालदलकालिकाम्॥ भावार्थ- जिस प्रकार कौआ हाथियों के गण्डस्थल भावार्थ- जिस प्रकार उलूक पक्षी सूर्य की मूर्ति को से मुक्ताफलों को छोड़कर केवल मांस ही ग्रहण करता है, | तमाल पत्र के समान काली काली ही देखते हैं, उसी प्रकार दष्ट | उसी प्रकार दुर्जन गुण और दोषों के समूह में से केवल दोषों । पुरुष निर्दोष रचना को भी दोष युक्त ही देखते हैं। को ही ग्रहण करते हैं। पद्मपुराण -दिसम्बर 2002 जिनभाषित 9 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524268
Book TitleJinabhashita 2002 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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