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________________ नौकरों से पूजन कराना स्व. पं. जुगल किशोर जी मुख्तार जैनियों में दिन पर दिन यह बात बढ़ती जाती है कि मंदिरों । पृजन-द्वारा खुशामद करके हिन्दू, मुसलमान और ईसाइयों की में पूजा के लिए नौकर रक्खे जाते हैं- श्वेताम्बर मदिरों में तो | तरह परमात्मा को राजी और प्रसन्न रखने की चेष्टा करते हैं तो आमतौर पर अजैन ब्राह्मण इस काम के लिए नियुक्त किये जाते हैं समझना चाहिए कि वे वास्तव में जैनी नहीं है: जैनियों के वेप में और उन्हीं से जिनेन्द्र भगवान् का पूजन कराया जाता है । पुजारियों हिन्दू, मुसलमान या ईसाई हैं। उन्होंने परमात्मा के स्वरूप को नहीं के लिए अब समाचारपत्रों में खुले नोटिस भी आने लगे हैं। समझ समझा और न वास्तव में जैनधर्म के सिद्धांतों को ही पहचाना है। में नहीं आता कि जो लोग मंदिर बनवाने, प्रतिष्ठा कराने, रथयात्रा ऐसे लोगों को पिछले निबन्ध 'जिनपृजाधिकारमीमांसा' में निकालने और मंदिरों में अनेक प्रकार की सजावट आदि के | 'पृजनसिद्धान्त' को पढ़ना और उसे अच्छी तरह से समझना चाहिए। सामान इकट्ठा करने में हजारों और लाखों रुपये खर्च करते हैं वे इसके सिवाय, यदि इस प्रकार के (किराये के) आदमियों द्वारा फिर इतने भक्तिशृन्य और अनुरागरहित क्यों हो जाते हैं, जो अपने | पूजन की गरज पुण्य-संपादन करना कही जाय तो वह भी निरी पृज्य की उपासना अर्थात् अपने करने का काम नौकरों से कराते भूल है और उससे भी जैनधर्म के सिद्धान्तों की अनभिजता पाई है? क्या उनमें वस्तुत: अपने पृजन के प्रति भक्ति का भाव ही नहीं जाती है। जैन सिद्धान्तों की दृष्टि से प्रत्येक प्राणी अपने शुभाऽशुभ होता और वे जो कुछ करते हैं वह सब लोकदिखावा. नुमायश, भावों के अनुसार पुण्य और पाप का संचय करता है। ऐसा अंधेर रुढ़िपालन और बाहरी वाहवाही लूटने तथा यशप्राप्ति के लिए ही नहीं है कि शुभ भाव तो कोई करे और उसके फलस्परूप पृण्य का होता है। कुछ भी हो, सच्चे जैनियों के लिए यह एक बड़े ही सम्बन्ध किसी दूसरे ही व्यक्ति के साथ हो जाय । पृजन में परमात्मा कलंक और लज्जा की बात है! लोक में अपने अतिथियों तथा के पुण्य-गुणों के स्मरण से आत्मा में जो पवित्रता आती और पापों इष्टजनों की सेवा के लिए नौकर जरूर नियुक्त किये जाते हैं, से जो कुछ रक्षा होती है उसका लाभ उसी मनुष्य को हो सकता जिसका अभिप्राय और उद्देश्य होता है-अतिथियों तथा इष्टजनों है जो पृजन-द्वारा परमात्मा के पुण्य-गुणों का स्मरण करता है। को आराम और सुख पहुँचाना, उनकी प्रसन्नता प्राप्त करना और | इसी बात को स्वामी समंतभद्र ने अपने उपर्युक्त पद्य के उत्तरार्ध में उन्हें अप्रसन्नचित न होने देना। परन्तु यहाँ मामला इससे बिल्कुल भले प्रकार से सूचित किया है। इससे स्पष्ट है कि सेवक द्वारा ही विलक्षण है। जिनेन्द्रदेव की पूजा से जिनेंद्र भगवान् को कुछ किये हुए पूजन का फल कभी उसके स्वामी को प्राप्त नहीं हो सुख या आराम पहुँचाना अभीष्ट नहीं होता - वे स्वत: सकता; क्योंकि वह उस पृजन में परमात्मा के पुण्यगुणों का अनंतसुखस्वरूप हैं- और न इससे भगवान की प्रसन्नता या अप्रसन्नता स्मरणकर्ता नहीं है। ऐसी हालत में नौकरों से पूजन कराना बिलकुल का ही कोई सम्बन्ध है। क्योंकि जिनेंद्रदेव पूर्ण वीतरागी हैं- व्यर्थ है और वह अपने पूज्य के प्रति एक प्रकार से अनादर का उनके आत्मा में राग या द्वेष का अंश भी विद्यमान नहीं है- वे भाव भी प्रगट करता है। तब क्या होना चाहिए? जैनियों को स्वयं किसी की स्तुति, पूजा तथा भक्ति से प्रसन्न नहीं होते और न किसी पृजन करना और पृजन के स्वरूप को समझना चाहिए। अपने को निन्दा, अवज्ञा या कटुशब्दों पर अप्रसन्नता लाते हैं। उन्हें किसी पृज्य के प्रति आदर-सत्काररूप प्रवर्तने का नाम पूजन है। उसक की पूजा की जरूरत नहीं और न निन्दा से कोई प्रयोजन है। जैसा लिए अधिक आडम्बर की जरूरत नहीं है। वह पृज्य के गुणों में कि स्वामी समन्तभद्र के निम्न वाक्य से प्रगट है अनुरागपूर्वक बहुत सीधा सादा और प्राकृतिक होना चाहिए। पृजन न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे न निन्दया नाथ विवान्तवैरे। । में जितना ही अधिक बनावट, दिखावट और आडम्बर से काम तथापि ते पुण्यगुणस्मृतिर्नः पुनाति चित्तं दुरिताऽञ्जनेभ्यः॥ | लिया जायगा उतना ही अधिक वह पूजन के सिद्धान्त से गिर -बृहत्स्वयंभूस्तोत्र जायगा। जब से जैनियों में बहुआडम्बरयुक्त पृजन प्रचलित हुआ ऐसी हालत में कोई वजह मालूम नहीं होती कि जब है तभी से उन्हें पूजा के लिए नौकर रखने की जरूतर पड़ी है। हमारा स्वयं पूजन करने के लिए उत्साह नहीं होता तब वह पूजन अन्यथा जिनेन्द्र भगवान् की सच्ची और प्राकृतिक पूजा के लिए क्यों किराये के आदमियों द्वारा संपादन कराया जाता है। क्या इस किराये के आदमियों की कुछ भी जरूरत नहीं है। जैनियों के विषय में हमारे ऊपर किसी का दबाव और जब्र है? अथवा हमें प्राचीन साहित्य की जहाँ तक खोज की जाती है, उससे भी यही किसी के कुपित हो जाने की कोई आशंका है? यदि ऐसा कुछ भी मालूम होता है, कि पुराने जमाने में जैनियों में वर्तमान-जैसा नहीं है तो फिर यह व्यर्थ का स्वांग क्यों रचा जाता है? और यदि बहुआडम्बरयुक्त पृजन प्रचलित नहीं था। उस समय अर्हतभक्ति, सचमुच ही पूजन न होने से जैनियों को परमात्मा के कुपित हो सिद्धभक्ति, आचार्यभक्ति और प्रवचनभक्ति आदि अनेक प्रकार जाने का कोई भय लगा हुआ है और इसलिए जिस तिस प्रकार के | की भक्तियों द्वारा, जिनके संस्कत और प्राकत के कछ प्राचीन 8 दिसम्बर 2002 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524268
Book TitleJinabhashita 2002 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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