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________________ समाधान- उन गाथाओं में "असर्व"अर्थात् यहाँ 'कुछ' | अमृतरूप औषधि है, जरामरण व्याधि को दूर करने वाली है तथा के लिए 'सर्व' शब्द का प्रयोग हुआ है । जैसे अंगारे पर पाँव रखा | समस्त दु:खों का क्षय करने वाली है। जाने से पाँव का एक भाग जलता है, तथापि यही कहा जाता है श्री कुन्दकुन्द आचार्य तो इस तरह तीर्थंकर की वाणी की कि पाँव जल गया। इस प्रकार एक भाग में भी सर्व का प्रयोग जगत का कलयाण करने वाली कहते हैं और कुन्दकुन्द आचार्य होता है। (देखें-श्री धवला पु. ४ पृष्ठ ३२६) में अपनी गहरी श्रद्धा भक्ति प्रकट करने वाले कानजी स्वामी जिज्ञासा - क्या प्राचीन जिनमूर्तियों का जीर्णोद्धार किया | कुन्दकुन्द आचार्य के उक्त कथन के विरुद्ध कहते हैं कि "तीर्थंकर जाना चाहिए या उनको जल आदि में विसर्जित कर देना चाहिए? | की वाणी से किसी को लाभ नहीं होता"। कानजी स्वामी का यह समाधान- यदि कोई प्राचीन प्रतिमा जीर्णोद्धार के योग्य उल्लेख कितना अनर्थकारी असत्य है? इसको जैन सिद्धांत के है तो उसका जीर्णोद्धार अवश्य करना चाहिए। शास्त्रों में ऐसे | ज्ञाता विद्वान स्वयं अनुभव करें। "यदि संसार में तीर्थंकर की प्रमाण उपलब्ध हैं वाणी से भी लाभ नहीं हुआ तो क्या उसके विपरीत कानजी स्वामी 1. वसुनन्दिश्रावकाचार गाथा 446 में इस प्रकार कहा है- | के कथन से जनता का लाभ हो सकेगा?" यह एक प्रश्न है, जिस एवं चिरंतणाणं पिकट्टिमाकट्टिमाण पडिमाणं। | पर सर्वसाधारण को विचार करके निर्णय करना चाहिये। जं कीरइ बहुमाणं ठ्वणापुजं हि तं जाण ।।446॥ चर्चा- चर्चासागर ग्रंथ में पृष्ठ-178 पर गोबर से आरती अर्थ- (पं. हीरालाल जी सिद्धांतालंकार) इसी प्रकार | करने का विधान बताया गया है। यह प्रकरण क्या उचित माना चिरंतन अर्थात् पुरातन कृत्रिम और अकृत्रिम प्रतिमाओं का भी जो | जाए? यदि नहीं तो चर्चासागर को प्रमाणीक ग्रंथ मानना चाहिए? बहुत सम्मान किया जाता है, अर्थात् पुरानी प्रतिमाओं पर जीर्णोद्धार, समाधान- चर्चासागर के रचयिता, पाण्डे चम्पालाल जी अविनय आदि से रक्षण, मेला, उत्सव आदि किया जाता है, वह | हैं, वे विशेष विद्वान नहीं थे, परन्तु शिथिलाचार के पक्के समर्थक सब स्थापना पूजा जानना चाहिए। थे। उपर्युक्त ग्रंथ चर्चासागर, जब प्रकाशित हुआ था तो सारे जैन 2. सम्यक्त्व कौमुदी, श्लोक नं. 13 में इस प्रकार कहा संसार में उसका भयंकर विरोध किया गया। पं. जिनेश्वरदासजी, एटा निवासी से सभी जैनसमाज अच्छी तरह परिचित हैं, वे जीर्ण जिनगृहं बिम्बं पुस्तकं श्राद्धमेव वा। जैनसिद्धांत के अच्छे जानकार थे, साथ ही अच्छे कवि भी थे। उद्धार्य स्थापनं पूर्व पुण्यतोऽधिकमुच्यते ॥213।। उनके पद आज भी लोग बड़ी रुचि से गाते हैं। उन्होंने जब इस अर्थ- जीर्ण जिनमंदिर, जिनबिम्ब, पुस्तक और श्राद्ध का | ग्रंथ को देखा तो तुरंत कह दिया था कि, "यह ग्रंथ भ्रष्ट ग्रंथ है। उद्धार कर फिर से स्थापित करना पूर्व पुण्य से अधिक कहलाता मूल संघ के आम्नाय को मलिन करने वाला है। इसका स्वाध्याय है।।213॥ करना पाप है।" (चर्चासागर के शास्त्रीय प्रमाणों पर विचार लेखकयदि प्रतिमा का जीर्णोद्धार संभव न हो तो उसे गहरे जल | श्री गजाधरलाल जी शास्त्री) में विसर्जित कर देना चाहिये। हम जानते हैं कि पूजा और आरती के समय पवित्र और प्रश्नकर्ता- पं. मनोजकुमार शास्त्री, सागर सुगंधित द्रव्य ही काम में लिये जाते हैं, तब जिसकी उत्पत्ति विष्टा जिज्ञासा- मोक्षमार्ग किरण पृष्ठ 212 पर कान्जी स्वामी | मार्ग में हुई हो, वह भगवान् की आरती आदि के योग्य कैसे हो के प्रवचनों में इस प्रकार कहा है सकता है। पं. दौतलतराम जी ने क्रियाकोष में इस प्रकार लिखा "तीर्थंकर की वाणी से किसी को लाभ नहीं होता" क्या । हैऐसा लिखना शास्त्र विरुद्ध नहीं है? नहीं छीबै गोवर, गोमूत्र, मल-मूत्रादि महा अपूत। समाधान- जगत का मोह अज्ञान अंधकार तीर्थंकर की छाणा ईधन काज अजोग, लकड़ी हू बीधी नहीं जोग।पृष्ठ-14।। दिव्यध्वनि (वाणी) से दूर होकर जगत में धर्म का तथा सत्ज्ञान अर्थ- गोबर और गोमूत्र ये मल-मूत्र हैं। महा अपवित्र हैं। का प्रचार होता है, भव्य जीवों का मिथ्यात्व, भ्रम, संशय आदि दूर | इनको स्पर्श भी नहीं करना चाहिए। गोबर के कण्डे भी ईधन के होता है। इसी कारण सुर, नर, पशु रुचि के साथ समवशरण में | रूप में इस्तेमाल न करें। घुनी हुई लकड़ी भी प्रयोग नहीं करनी आकर तीर्थकर की वाणी को सुनकर आत्महित करते हैं,समयसार | चाहिए। पं. किशनलालजी कृत क्रियाकोष में इस प्रकार कहा हैआदि ग्रन्थ भगवान् महावीर की वाणी के अनुसार ही लिखे गये गोबर तिनको है नित सोई, अपने गेह न थापै कोई। हैं। श्रीकुन्दकुन्द आचार्य अष्टपाहुड में लिखते हैं औरन को मांग्यो नहीं देय, त्रस सिताव जामें उपजेई ।। जिणवयणमोसहमिणं विसयसुहविरेयणं अमियभूयं । अर्थ- पशुओं का जो गोबर है उसे कण्डे बनाने के लिए जरमरणवाहिहरणं खयकरणं सव्वदुक्खाणं॥17॥ | अपने घर में न रखें। माँगने वालों को भी गोबर न दें। क्योंकि अर्थ- तीर्थंकर जिनेन्द्र की वाणी सांसारिक विषयसुख | उसमें बहुत जल्दी ही त्रस जीव पड़ जाते हैं। रूपी रोग का विरेचन कराने के लिये (मलत्याग कराने के लिये) | पं. सुखदासजी ने इस प्रकार कहा है- गौ के बांधने में 24 दिसम्बर 2002 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524268
Book TitleJinabhashita 2002 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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