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________________ सम्पादकीय भोजपुर में सन्त और वसन्त आखिर भोजपुर (भोपाल म. प्र. ) में सन्त ने वसन्त का संचार कर दिया। वहाँ की पावन धरती, आस-पास की जनता और कभी टैक्सी चलाते हुए, तीर्थ के जीर्णोद्धार एवं विकास की आकांक्षा सँजोए, एक-एक रुपया दान में माँगते हुए बाबा लालचन्द्र जी चिरकाल से प्रतीक्षा कर रहे थे उन विश्वप्रसिद्ध, अद्वितीय दिगम्बर जैन मुनि आचार्य विद्यासागर जी की, जिनके चरण पड़ते ही बीरान नन्दन बन जाता है और रेगिस्तान मधुवन । ग्रीष्मकाल में तो आचार्य भगवन्त ने भोजपुर में कुछ ही घंटे बिताये थे, किन्तु भोजपुर की पावनता और रमणीयता उनके मन में बस गयी थी। इसलिए चातुर्मास सम्पन्न कर नेमावर से लौटते हुए उन्होंने यहाँ कुछ समय व्यतीत करने का मन बना लिया है। षट्खण्डागम की सोलहवीं पुस्तक की वाचना आरम्भ हो गई है। अब भोजपुर के भाग्य जाग उठे हैं। उसके एक सर्वसुविधासम्पन्न सुरम्य तीर्थ बन जाने के दिन आ गये हैं। राजधानी के निकट होने से उसके एक भव्य जैनविद्यापीठ एवं शोध संस्थान के रूप में विकसित होने की प्रचुर सम्भावनाएँ हैं। भोजपुर की धरती पर अपने परमप्रिय, परमश्रद्धेय और परमपूज्य गुरुवर आचार्य श्री विद्यासागर जी एवं उनके मुनिसंघ को पाकर हमारा रोम-रोम आह्लादित है। उनके चरणों में शत-शत नमन । रतनचन्द्र जैन ग्रन्थ समीक्षा जीवनोपयोगी संग्रहणीय कृति ' समीक्ष्य कृति पर्युषण के दश दिन (प्रवचन / आलेखों का संग्रह ) लेखक - मुनि श्री समता सागरजी सम्पादन ब्र. प्रदीप शास्त्री 'पीयूष' आलेखन कु. रूपाली जैन, कु. संगीता जैन ललितपुर प्रकाशन प्राञ्जल प्रकाशन, सागर लागत मूल्य- 21/पू. सं. 180, आकार 14 x 22 से.मी. दशलक्षण धर्मों से सम्बन्धित सरल, सुबोध, रोचक सामग्री के साथ यह कृति विलक्षण दशधर्म के आगमांत ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में अनूठी है। यद्यपि दश धर्मों पर अनेक ग्रन्थ और पुस्तकें हस्तगत हो चुकी हैं परन्तु कुछ तो शास्त्रीय गूढ़ता तथा क्लिष्टता के कारण शास्त्र भण्डारों की शोभा के रूप में ही विराजमान हैं तो कुछ सम्पूर्ण सामग्री या रोचकता के अभाव के कारण अधिक लोकप्रिय नहीं है। प्रस्तुत पुस्तक में लेखक ने पर्व पूर्व की "भूमिका में आगमोक्त उद्धरणों के द्वारा शाश्वत पर्वराज को सृष्टि के शान्तिमय सृजन का प्रथम दिन बताया है, महा तूफानी विषमताओं में मानवीय भाव परिवर्तन, आशा, श्रद्धा और चमत्कार स्वरूप Jain Education International प्रो. डॉ. विमला जैन जीवन रक्षा के बाद धर्म चेतना जाग्रत होती है, नव प्रकाश में नव उत्साह के साथ उत्तम क्षमादि दश धर्म उसके स्वभाव में आनन्दानुभूतियाँ देते हैं, इसे लेखक ने बड़े समीचीन ढंग से आलखित किया है। विकारों और विकृतियों के विभाव पर आत्मस्वभाव स्वरूप क्षमा, मार्दव, आर्जवादि भाव क्यों और कैसे प्रस्फुटित होकर स्थायित्व ले सकते हैं? शौच और सत्य के द्वारा चिन्तन मनन को कैसे मोड़ा जा सकता है ? लेखक ने दृष्टान्तों के साथ सिद्धान्त की स्वादिष्ट खीर ही परोस दी है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण में वीतराग विज्ञान की रश्मियाँ आभान्वित हैं। उत्तम संयम, तप, त्याग के निश्चय व्यवहार के महत्त्व को स्पष्ट करते हुये आन्तरिक और बाह्य विशुद्धि को बड़े ही रोचक व प्रभावोत्पादक ढंग से प्रस्तुत किया है। आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य को मुक्तिपथ के पाथेय के रूप में भव्यात्माओं की पूँजी कहा है। अंत में विश्वमैत्री पर्व 'क्षमावाणी' का महत्त्व और स्वरूप समझाया है। पुस्तक ज्ञान रंजक के साथ मन रंजक व्यवहारिक तथा जनसामान्य जैन जैनेतर तथा विद्वान मनीषियों को भी पठनीय है। मुख्यतः पर्युषण पर्व पर प्रवचन करने वाले विद्वानों के लिये अत्यधिक उपयोगी होगी। समीक्षक प्रो. (डॉ.) विमला जैन, फिरोजाबाद -दिसम्बर 2002 जिनभाषित For Private & Personal Use Only 3 www.jainelibrary.org
SR No.524268
Book TitleJinabhashita 2002 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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