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________________ प्रकृति के समीप लौट चलें डॉ. वन्दना जैन यदि कोई शक्ति है जो पर्वतों को भी हिला सकती है तो । नियमों के पालन करने से मनुष्य सही अर्थों में स्वस्थ होता है। वह शक्ति है आत्म विश्वास ! यदि हम आत्म विश्वास नहीं है तो | प्राकृतिक चिकित्सा में दवाओं का प्रयोग नहीं किया जाता वरन् हमें अपने आप को मनुष्य कहने का कोई अधिकार नहीं है। यदि प्रा. चि. स्वयं दवाइयाँ पैदा करती है हमारे शरीर से। सिर्फ हमारा हम स्वस्थ रहना चाहते हैं तो अपने अंदर स्वस्थता का विश्वास लीवर 500 प्रकार की दवाईयाँ बनाता है। पित्ताशय दर्जनों दवाइयाँ पैदा करना होगा। स्वामी रामतीर्थ ने ठीक ही कहा है कि यदि पैदा करता है, हमारा शरीर ही दवाओं का कारखाना है। वह स्वयं आप अपने आप को पापी कहेंगे तो पापी हो जावेंगे और मूर्ख अपना चिकित्सक है। जरूरत है उसे सहयोग करने की। स्वास्थ्य कहेंगे तो मूर्ख । यदि अपने आप को शक्तिमान कहेंगे तो शक्तिमान हमारा स्वरूपसिद्ध अधिकार है, जिसे हमें प्राप्त करके ही रहना है, बन जायेंगे, अनुभव कीजिए, आप शक्तियों के भंडार है आप | वह होगानिर्बल नहीं, आप रोगी नहीं हो सकते। प्रश्न होता है कि हम 1. सम्यक आहार विहार। बीमार क्यों होते हैं? इसका उत्तर है कि हम स्वस्थता का आत्म 2. सम्यक रहन सहन। विश्वास खो बैठते हैं, प्रकृति के नियमों का उल्लंघन करते हैं तभी 3. सम्यक चिंतन मनन से. हम बीमार होते हैं। बीमार होने के तीन कारण माने गये है। जरूरत है सिर्फ अपने आप को बदलने की, प्रकृति के 1. गलत आहार-बिहार। नियमों के पालन करने की, प्रकृति की ओर लौटने की, इससे हम 2. गलत रहन-सहन।। रोगों से बचे रह सकते हैं। 3. गलत चिन्तन-मनन। "रोग के समय प्रकृति हमारे शरीर से विष को निकालना आज मनुष्य उत्तेजक एवं मादक द्रव्यों का सेवन करता है, | चाहती है, फोड़ा-फुसी, सर्दी-जुकाम, दस्त-बुखार आदि के रूप ठूस-ठूस कर अनाप-शनाप खाता है, व्यायाम नहीं करता तथा | में। प्रकृति की इसी चेष्टा का नाम रोग है।" एक प्रसिद्ध प्राकृतिक निर्मल सूर्य प्रकाश तथा स्वच्छ वायु आदि प्राकृतिक उपादानों का | चिकित्सक का कथन है कि तुम मुझे ज्वर दो, मैं तुम्हें स्वास्थ्य उचित रूप से सेवन नहीं करता। दूषित मानसिकता से ग्रस्त रहता | देता हूँ। अर्थात् मल पूरित शरीर को मल रहित करने के लिए है। इन गलत आदतों से शरीर में तीन तरह के विकार पैदा होते | ज्वर आदि तीव्र रोग ही एक मात्र सच्चा उपाय है। अत: तीव्र रोग शत्रु नही, हमारे मित्र होते हैं। 1. शरीर में विजातीय द्रव्य (टाक्सिन मेटर) या विष "डॉ. लिण्डल्हार के अनुसार प्रत्येक तथाकथित तीव्र रोग इकट्ठा होता है। प्रकृति द्वारा शरीर शोधन और उपचारात्मक प्रयत्न का फल है। जो 2.जीवनी शक्ति (वॉइटल पावर) कम हो जाता है अर्थात् हमें स्वास्थ्य देने आते हैं, लेने नहीं।" । रोग प्रतिरोधक क्षमता घट जाती है। प्राकृतिक चिकित्सा में सभी रोगों का एक ही कारण माना 3. शरीर में रक्त घटक असमान्य हो जाते हैं। जाता है, उसकी चिकित्सा को भी एक ही माना जाता है। कवि इससे बचने के लिए हमें प्राकृतिक चिकित्सा को अपनाना रवीन्द्र ने एक जगह लिखा है- भारत की सदा से यही चेष्टा देखी होगा। प्राकृतिक चिकित्सा वह पद्धति है जो वर्षों से चली आई है जाती है, वह अनेक मार्गों को एक ही लक्ष्य की ओर अभिमुख और आज भी जिसका निरंतर विकास जारी है। जो एक | करना चाहता है। वह बहुतों के बीच किसी एक को अन्तरतम अतिवैज्ञानिक प्रणाली है और जिसमें निदान डॉक्टर दबाइयाँ और रूप से उपलब्ध करना चाहता है। उसका सिद्धांत यह है कि बाहर अस्पताल प्रधान न होकर मरीज या कष्ट पीड़ित व्यक्ति प्रधान | जो विभिन्नता दीख पड़ती है उसे नष्ट करके उसके भीतर जो निगूढ़ होता है तथा उसका कष्ट जड़ से दूर करने का प्रयास किया जाता | संयोग दिखाई पड़ता है उसे प्राप्त करना चाहिए। है। इसमें रोग के वास्तविक कारण की खोज की जाती है और | उपर्युक्त कथन में शतप्रतिशत सत्यता विद्यमान है। आत्म कष्ट को दूर करने के लिए सबसे सरल, सबसे प्राकृतिक तथा | तत्त्व एक है, उसे जान लेने पर कुछ भी जानना शेष नहीं रह जाता सर्वाधिक वृद्धिसंगत उपाय किए जाते है। यह सिर्फ एक चिकित्सा है। प्राकृतिक चिकित्सा विज्ञान भी एक दर्शन है, जिसके पद्धति ही नहीं, वरन एक सम्पूर्ण जीवन दर्शन है, व स्वस्थ जीवन | सिद्धांतानुसार समस्त रोग वस्तुत: एक ही है तथा उनकी प्राकृतिक जीने की कला है, जिसमें प्रकृति के समीप रहना सिखाया जाता | चिकित्सा भी एक ही है। एक स्वर्ण जिस प्रकार विविध नाम व है। क्योंकि प्राकृतिक चिकित्सा प्रकृति से ही उद्भूत हुई है। | आभूषणों के रूप में प्रकट होता है, उसी प्रकार प्राकृतिक चिकित्सा प्रकृति के पंचमहाभूतों का सम्यक् प्रयोग करते हुए प्रकृति के | विज्ञान का यह अटल सिद्धांत है कि मानव शरीर में स्थित एक ही 16 दिसम्बर 2002 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524268
Book TitleJinabhashita 2002 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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