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________________ मधुर वचन अनमोल प्रस्तुति-सुशीला पाटनी फैले प्रेम परस्पर जग में मोह दूर ही रहा करे।। थोड़ा सा धन का लोभ दें, वह झूठी गवाही देने को तैयार हो अप्रिय कटुक कठोर शब्द नहीं कोई मुख से कहा करे॥ | जायेगा। थोड़ा सा लोभ दे दो, आदमी कुछ भी करने के लिए हमने सुना है कि महाभारत भी वचनों के कारण ही हुआ | तैयार हो जायेगा। था। द्रौपदी के ये वचन कि "अन्धों के अन्धे ही होते हैं। | तीसरा है भय, भय के कारण आदमी झूठ बोल देता है। दुर्योधन के हृदय में चुभ गये, परिणाम महाभारत हुआ। जिह्वा में | जब व्यक्ति पर कोई दबाव होता है तो आदमी को कहना कुछ अमृत भी है और जहर भी है। जिह्वा की मधुरता वाणी को होता है और कह कुछ देता है। भय बहुत अच्छी चीज़ नहीं है। आकर्षक बनाती है। ऐसे लोगों की वाणी में ऐसा आकर्षण उत्पन्न | चौथा कारण है मजाक- हँसी मजाक में आदमी न जाने होता है कि सभी पर अपना जादू सा असर छोड़ती है। एक ही क्या बोलता है। आप थोड़ा सा अपने मन को टटोलना कि सुबह आवाज में हर व्यक्ति भीतर तक प्रभावित हो जाता है। एक ही से शाम तक आपका जो समय जाता है, लोगों से बातचीत करते आवाज में लाखों लोग अपनी जान न्यौछावर करने को तैयार हो हैं, उसमें आप कितना झूठ बोलते हैं और जितना झूठ बोलते हैं जाते हैं। हर व्यक्ति उसका प्रशंसक, अनुगामी और हित चिन्तक उसका 80% मजाक का होगा। कहते हैं कि “रोग की जड़ बन जाता है। वाणी में ऐसी सामर्थ्य है कि वह पानी में आग लगा खाँसी और झगड़े की जड़ हाँसी" हँसी-हँसी में आदमी झगड़ा दे। वाणी एक ऐसा वशीकरण है जो लाखों को एक साथ जोड़ कर लेता है। देती है, तथा वाणी ही एक ऐसी शक्ति है जो लाखों को तोड़ भी पाँचवाँ हेतु है आदत-आदत एक ऐसी प्रवृत्ति है जो व्यक्ति देती है। एक आवाज पर लाखों का संहार हो जाता है तो एक | पर हावी हो जाती है Habit के संबंध में कहा जाता है कि आवाज पर लाखों के संहार को रोका भी जा सकता है । नीतिकारों | Habit कभी जाती नहीं। Habit में से H निकला दो abit रहेगा। ने कहा है abit में से "a" निकाल दो bit तो रहेगा और bit में से "b" जिह्वा में अमृत बसे, विष भी तिसके पास। निकाल दो तो it रहेगा, थोड़ा बहुत तो रहेगा, आदत जाती नहीं। इक बोले तो लाख ले, इकते लाख विनाश। आदत के कारण व्यक्ति अप्रिय शब्दों का प्रयोग कर देता है। जिह्वा से अमृत भी उड़ेला जा सकता है, तो जीभ से जहर, बन्धुओ, जिह्वा मिली है- ये जिह्वा तो प्रभु के गीत गाने के भी उगला जा सकता है। हमें अपनी वाणी पर सदैव अंकुश रखना | लिए मिली है। जिह्वा से प्रभु का गीत गाओ, गाली मत दो। जो चाहिए। संत कहते हैं- बोलो, पर बोलने से पूर्व विचार कर लो। | गाली बकते हैं वो अपनी वाणी का दुरुपयोग करते हैं, उनकी जो व्यक्ति बोलने से पूर्व विचार करता है उसे फिर कभी पुनर्विचार | वाणी एक दिन कुंठित हो जाती है। नहीं करना पड़ता। और जो व्यक्ति बिना विचारे बोल देता है उसे प्रियवाक्यप्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति जन्तवः । जीवन पर्यन्त विचार करने को बाध्य होना पड़ता है। वह पूरे तस्मात्तदैव वक्तव्यं वचने का दरिद्रता। जीवन पछताता रहता है। अरे भइया ! जब तुम्हारे मीठे बोलने से सब संतुष्ट होते हैं मधुर वचन हैं औषधि कटुक वचन हैं तीर। तो वही बोलो न, वचनों में क्या दरिद्रता करना? क्या तुम्हारे कर्णद्वारत संचरै,साले सकल शरीर॥ बोलने पर पैसा लगता है? क्या तुम्हारे पास शब्द संपदा की कमी एक वचन है जो औषधि का कार्य करता है और एक है? अरे शब्द का तो अपूर्व भण्डार है तुम्हारे अंदर, उस भंडार का वचन है जो तीर की तरह हृदय को चीर देता है। प्रयोग करो। अच्छे शब्दों का प्रयोग करो, बुरे शब्द अपने मुख से जब आदमी क्रोधाविष्ट होता है तो आपे से बाहर आ जाता कभी न निकालो। हमेश मधुर बोलो और इस भावना को हमेशा अपने सामने रखो - है, उसे कुछ भी होश नहीं रहता। तम-तमाया रहता है, न जाने फैले प्रेम परस्पर जग में मोह दूर ही रहा करे। क्या बोल देता है, पर शांत दिल से वह विचार करे तो खुद पछताये अप्रिय कटुक कठोर शब्द नहीं कोई मुख से कहा करे। कि वह क्या कह रहा है। इसलिए व्यक्ति को अपने क्रोध पर हमारे मुख से हे भगवन्! कभी भी अप्रिय शब्द न निकलें, नियंत्रण रखने की आवश्यकता है। हमारे मुख में मिठास भरे, हमारे मुख में मधुरता भरे और हमारे दूसरा है, लोभ! लोभ के सम्बन्ध में कहा जाता है कि सारे संबंध मधुर बनें- इस भावना से आज अपनी चर्चा को यहीं लोभ आदमी की जिह्वा छीन लेता है। लोभ के कारण व्यक्ति क्या पर विराम दे रहे हैं। नहीं बोलता। ये लोभ ही ऐसा कारण है जिससे अपने को पराया आर.के.मार्बल्स लि., और पराये को अपना कहने में भी व्यक्ति नहीं चूकता। आदमी को मदनगंज-किशनगढ़ -दिसम्बर 2002 जिनभाषित 15 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524268
Book TitleJinabhashita 2002 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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