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________________ जाता है। 'इण्डियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च' के कुछ प्रयोगों के अनुसार एक स्वस्थ भारतीय व्यक्ति को आहार में "प्रतिदिन घी, तेल इत्यादि के रूप में 20 से 25 ग्राम ही चरबी (चिकनाई) मिलनी चाहिये। इससे अधिक लेने से यह शरीर को हानि पहुँचाती है और हाई ब्लडप्रेशर, डायबिटीज, स्थूलता एवं हृदयरोग इत्यादि को आमन्त्रित करती है। अब यदि 50 ग्राम वजन के स्तरवाले बटर-बिस्किट या नानखटाई खाने से ही आवश्यक चरबी शरीर में पहुँच जाती है तो ऐसी स्थिति में नित्य प्रति रसोई में उपयोग में लिये जाने वाले घी और तेल इत्यादि आवश्यकता से ज्यादा ही हो जाते हैं ये मेद-वृद्धि से प्रारंभ करके धमनियों को कठिन और संकुचित बना देते और एथेरोस्क्लेरोसीसतक की अनेक तकलीफें शुरू कर देते हैं। 1 वनस्पति घीकी चरबी वनस्पति घी में कठिन की हुई चरबी होती है जो 'ट्रॉन्सफेटी एसिड' के नाम से विख्यात है। वनस्पति घी में प्रायः 30 से 50 प्रतिशत ट्रॉन्सफेटी एसिड होता है यह शरीर में बहुत ही हानि पहुँचाता है। 'न्यू इंग्लैण्ड जर्नल ऑफ मेडिसिन' में प्रसिद्ध हुए एक प्रयोग के अनुसार आहार में ट्रॉन्सफेटी एसिड लेने से रक्त में हानिकारक (एल.डी.एल.) कोलेस्ट्रॉल की मात्रा बहुत ही बढ़ जाती है। इसके अतिरिक्त यह हृदयरोग के लिये कारणभूत माने जानेवाले एल. बी. लाइपोप्रोटीन की मात्रा को भी बढ़ा देता है और शरीर के लिये लाभदायी एच.डी.एल. कोलेस्ट्रॉल की मात्रा कम हो जाती है। इस तरह वनस्पति घी में रहे हुए ट्रॉन्सफेटी एसिड से तीन प्रकार का नुकसान होता है। मैदे की मर्मभेदकता चरबी के अतिरिक्त बेकरी के उत्पादों में दूसरा हानिकारक पदार्थ है मैदा मैदा गेहूँ के आटे को रिफाइंड करने से अर्थात् गेहूँ तुष-भाग को निकालकर बनाया जाता है। मैदा बनाने की प्रक्रिया में गेहूँ में रहे हुए रेशे प्राय: निकाल दिये जाते हैं। रेशे मनुष्य को मलावरोध से बचाते हैं। आँतों के सामान्य कार्य के लिये आहार में रेशों का होना अत्यन्त जरूरी है, जो आँतों की गति और मल के स्वरूप को भी अच्छी तरह से निभाते हैं । रक्त के ग्लूकोज ओर कोलेस्ट्रॉल को नियन्त्रण में रखने के लिये भी रेशे आवश्यक हैं। I 'डायबिटीज और हृदयरोगी के रोगियों की बीमारी ज्यादा कोलेस्ट्रॉलयुक्त मैदे-जैसे रेशाहीन आहार से बहुत बढ़ जाती है। इसी तरह कब्ज के मरीजों के लिये भी मैदा बहुत हानि करता है और मलावरोध को बढ़ा देता है। मेरे एक मित्र ने मुझे लिखा था कि 'मैदा और काँच दोनों पाचन के लिये समान हैं।' तात्पर्य यह है कि जैसे काँच खाने में पेट में भारी हानि होती है वैसी ही हानि मैदे की चीजें खाने से भी होती है । स्वास्थ्य के लिये हानिकारक ये दो पदार्थ- वनस्पति और मैदा- जब एकत्रित हो जाते हैं तब स्वस्थ मनुष्य को भी रोगी बनाने का सामर्थ्य पा लेते हैं। नित्य सिर्फ 50 ग्राम बटरयुक्त बिस्किट खानेवाले मनुष्य के लिये हृदयरोग होने का भय उसको नहीं Jain Education International खानेवाले (तथा अन्य किसी स्वरूप में वनस्पति घी नहीं खानेवाले) आदमी की अपेक्षा चौगुना अधिक रहता है। मटनटेलो और फरसान! आज बड़े, चाव से और जाने-अनजाने में भी घर-घर मांसभक्षण हो रहा है। कुछ समय पहले एक अंग्रेजी अखबार में आये समाचार के अनुसार वसई के नजदीक एक फैक्ट्री में मुम्बई के मरे हुए प्राणियों का शव इकट्ठा करके उनकी चरबी को प्रोसेस करके उसमें से मटनटेलो बनाया जाता है। यह मटनटेलो 17 से 22 रुपयों में 1 किलोग्राम बिकता है जो तेल और घी में आसानी से मिश्रित हो सकता है। एक किलो तेल का मूल्य 40 से 50 रुपये है नित्य प्रति वहाँ हजारों किलोग्राम मटनटेलो की पहले से बुकिंग होती है। विनियोग-परिवार के अग्रणी कार्यकर्ताओं ने जब उस फैक्ट्री के मैनेजर से पूछा कि आपकी फैक्ट्री से यह सब और इतना ज्यादा माल नित्य कौन ले जाता है। तब उन्होंने सच्चे भाव से निर्दोष उत्तर दिया था कि 'हमारे पास से सब मटनटेलो मुम्बई के फरसानवाले और होटलवाले ले जाते हैं।' बड़े शहरों में वेफर, फराली चिवड़ा, हलवे, सोनपपड़ी, गाँठिये, भजिये इत्यादि चीजों का उपयोग करने में सावधान रहने की आवश्यकता है जिनमें तेल, वनस्पति घी आदि का उपयोग होता है। उपसंहार बारे में उपर्युक्त प्रमाणभूत विचार आप और आपके प्रिय बच्चे इससे (1) आइसक्रीम के और निरीक्षण को देखते हुए दूर रहें, यही हितकारी है। (2) आइसक्रीम पाचनतंत्र को बिगाड़ देता है। फिर भी यदि लेना ही है तो आप फ्रिज में दूध, मलाई, चीनी, बादाम, पिश्ता, केसर आदि मिलाकर रख दें। बाजार से आइसक्रीम बनाने का जिलेटिनयुक्त पाउडर इत्यादि कुछ भी न डालें। जब तैयार हो जाय तब मर्यादित मात्रा में ही लें। (3) डेरियों में अथवा अन्यत्र जहाँ आइसक्रीम बनाया जाता है और बेचा जाता है उसके बनानेवालों को भी शायद मालूम न होगा कि वे कौन-सी चीज मिश्रित करते हैं। अत: उन्हें भी सावधान रहना चाहिए की आइसक्रीम बनाने में वे जो तैयार पाउडर अथवा अन्य कुछ बाजार से लेकर मिश्रित करते हैं; उन बीजों में कोई चरबीजन्य पदार्थ अथवा ऐसा ही कोई प्रोसेस तैयार किया हुआ पदार्थ, रूपान्तरित जिलेटिन अथवा अण्डों के रस से बनाए गए अन्य स्वरूप में मिलते हुए पदार्थ जाने-अनजाने से भी उपयोग में न लें। ऐसे किसी भी पदार्थ का उपयोग न करनेवाले उत्पादक भी जनसुरक्षा को ध्यान में रखकर उपर्युक्त संकलन में निर्दिष्ट हानिकारक रसायनों का उपयोग न करें, यह आवश्यक है। (4) चॉकलेट, ब्रेड, बिस्किट आदि चीजों से अहिंसा और कल्याण की दृष्टि से भी दूर रहना हितकर हैं। (5) बाजार में मिलनेवाली तली हुई चीजों और फरसान की फराली चीजों को छोड़कर घर पर बनायीं गई शुद्ध चीजों का उपयोग करें और सम्बन्धियों, मित्रों आदि से भी करायें। 'कल्याण' से साभार -दिसम्बर 2002 जिनभाषित 21 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.524268
Book TitleJinabhashita 2002 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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