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जिनभाषित
अक्टूबर 2001
आचार्य श्री शिवसागर जी
वास्तुदेव विवाह एक धार्मिक अनुष्ठान
आश्विन, वि.सं. 2058
वीर निर्वाण सं. 2527
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वर्ष 1
सम्पादक रतनचन्द्र
प्रो.
जैन
कार्यालय
137, आराधना नगर, भोपाल-462003 म.प्र.
फोन 0755-776666
सहयोगी सम्पादक पं. मूलचन्द लुहाड़िया पं. रतनलाल बैनाडा
डॉ. शीतलचन्द्र जैन डॉ. श्रेयांस कुमार जैन प्रो. वृषभ प्रसाद जैन
शिरोमणि संरक्षक श्री रतनलाल कँवरीलाल पाटनी (मे. आर. के. मार्बल्स लि.)
किशनगढ़ (राज.) श्री गणेश राणा, जयपुर
द्रव्य - औदार्य
श्री अशोक पाटनी
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किशनगढ़ (राज.)
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सर्वोदय जैन विद्यापीठ 1/205 प्रोफेसर्स कॉलोनी,
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जिनभाषित
मासिक
लेख :
आपके पत्र,
धन्यवाद
सम्पादकीय विवाह एक धार्मिक अनुष्ठान
रक्षाबंधन और पर्युषण
दिगम्बरत्व का महत्त्व
• शुधा-परीषह
कर्मों का प्रेरक स्वरूप • वास्तुदेव
वनवासी और चैत्यवासी
रजि. नं. UP/HIN/29933/24/1/2001-TC
वालवार्ता बोधकथाएँ
अन्तस्तत्त्व
• जैन संस्कृति एवं साहित्य के विकास में
कर्नाटक का योगदान
समाचार
:
क्षुल्लक श्री गणेशप्रसाद जी व
: डॉ. ज्योति प्रसाद जैन
: पं. जगमोहन लाल जी शास्त्री
चिंतन की स्वच्छता स्वास्थ्य के
लिए अनिवार्य
शंका समाधान
व्यंग्य
काव्य समीक्षा : संवेदनाएँ और संस्मरण: अमरनाथ शुक्ल 4: प्रजातंत्र से मेरी रिश्तेदारी शिखरचन्द्र जैन देवस्तुति अहो जगत् गुरु : पं. भूधरदास जी कविताएँ / गीत
• साँसे संवारती हैं देह का मकान अशोक शर्मा
अक्टूबर
: प्रो. रतनचंद्र जैन
: पं. मिलापचन्द जी कटारिया : पं. नाथूराम जी प्रेमी
: प्रो. डॉ. राजाराम जैन
तू सूरज परभात का
: डॉ. विमला जैन 'विमल'
वह लाजवाब है
: नरेन्द्र प्रकाश जैन
नमोऽस्तु : प्रदर्शनी का गुलाब : प्रो. (डॉ.) सरोज कुमार
: पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
: पं. रतनलाल बैनाड़ा
:
2001
अङ्क 5
पृष्ठ
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8
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26
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13
15
30
आवरण पृष्ठ 3
9
7, 23, 28, 31, 32
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आपके पत्र, धन्यवाद : सुझाव शिरोधार्य
_ 'जिनभाषित' का सितम्बर-अंक मिला। सम्पादकीय | दिया है। मैं तो इसको सन्तशिरोमणि पूज्य आचार्य विद्यासागर जी आलेख पढ़कर आपकी कलम को चूम लेने का मन हुआ। मन्दिरों का ही चमत्कार मानता हूँ। उनके चरणों में शत-शत नमन। में फिल्मी संगीत का प्रवेश और फिल्मी धुनों के मनोविज्ञान पर
सतीशचन्द्र जैन नायक इतने सशक्त, तर्कपूर्ण और प्रभावक ढंग से प्रहार अभी तक किसी
छीपीटोला 30/46, ने नहीं किया, हार्दिक बधाई।
चुंगी स्कूल के सामने, आगरा-282001 युवा पीढ़ी को आकर्षित करने के नाम पर आज हम अपने
जिनभाषित पत्र 5-6 माह से लगातार समय पर आ रहा है। धर्मायतनों मंदिर, धर्म-सभा, धार्मिक अनुष्ठान आदि में क्लब
सभी लेख आगमसम्मत पठनीय प्रकाशित होते हैं। अभी सितम्बर संस्कृति को अपनाते जा रहे हैं, बिना यह सोचे-समझे कि इसके
के अंक में आपका सम्पादकीय 'वैराग्य जगाने के अवसरों का दूरगामी परिणाम अपनी वीतरागता-प्रधान संस्कृति के मूलोच्छेदन मनोरंजनीकरण' लेख पढ़ा। हम जैसे विधानाचार्यों, पूजा करनेवाले में ही सहायक सिद्ध होंगे। मनोरंजनीकरण का अन्धानुकरण अपने पूजार्थियों एवं पूजा के सुनने वाले श्रद्धालुओं के लिये बहुत ही उपयोगी पैरों पर स्वयं कुल्हाड़ी मारने जैसा है। आज तो हमारे कुछ पूज्य है। संगीतकारों द्वारा आज की फिल्मी तर्ज पर अश्लील शब्दों की साधुगण भी धर्मसभाओं में ऐसे-ऐसे अटपटे और चटपटे प्रश्न, ध्वनियों का प्रसारण वास्तव में सभी जनों के लिय अनुपयोगी होता जिनका धर्म से दूर-दूर तक कोई सम्बन्ध नहीं होता, पूछकर सस्ता है। प्राचीन राग-रागिनियाँ हितकर थीं। आज केवल मनोरंजन रह गया मनोरंजन परोस रहे हैं। इन टोटकों और चुटकुलों से सम्मोहित होकर है। प्रतिष्ठाचार्यों, विधानाचार्यों को चिंतन करना चाहिए, समाज के बड़ी भीड़ें जुटती हैं और उस भीड़ को हम प्रभावना मान लेते
कर्णधारों को भी ध्यान देना चाहिए। ये विधानादि सुसंस्कारों के लिये हैं। ऐसी धर्मसभाओं से लौटकर आनेवाले साधर्मी बन्धु इस प्रवृत्ति
और पुण्यवर्धन के लिये किये जाते हैं। पूजा में भक्तिसंगीत, नृत्यादि की आलोचना करते हुए तो देखे जाते हैं, किन्तु मजा लेने की
होना बुरा नहीं है, अच्छा है। लिखा है - 'धवल मंगलगानरवाकुले' आदत से लाचार होकर स्वयं उस भीड़ का हिस्सा भी बनते रहते
उसका पालन तो होना ही चाहिए! मन भी लगा रहे और शुभ कर्म हैं। संस्कृति की सुरक्षा यदि करनी है तो हमें ऐसे आदतबिगाडू
भी बँधते रहें। लेख के लिये आपको हार्दिक बधाई। कार्यक्रमों का बहिष्कार करना सीखना होगा।
प्रतिष्ठाचार्य पं. लाड़लीप्रसाद जैन _ 'जिनभाषित' अच्छा निकल रहा है। स्वच्छ मुद्रण, आकर्षक सज्जा एवं सुरुचिपूर्ण सामग्री- इन तीनों ही दृष्टियों से स्तरीय है।
पापड़ीवाल भवन, सवाई माधोपुर (राज.) स्व. मुख्तार सा. का आलेख पुराना होते हुए भी ताजा लगता आपकी सुन्दर पत्रिका का सितम्बर अंक देखकर प्रसन्नता हुई। है, आज भी वह उतना ही प्रासंगिक है, जितना तब था। श्री चित्र-चयन, छपाई-सफाई आकर्षक है। सामग्री भी उपयोगी है। शिखरचन्द्र जी का व्यंग्य भी विचारोत्तेजक और मखमली चोट इतिहास में भ्रांति पैदा करनेवाली कुछ गलतियाँ खटकती हैं, जिन करनेवाला है।
पर आपका ध्यान दिलाना चाहता हूँ। ठीक समझें तो अगले अंक आवरण पर जिनका चित्र दिया जाये, उनके बारे में एक में मेरा यह पत्र प्रकाशित करने की दया करें। परिचयात्मक आलेख भी अवश्य रहना चाहिए। शेष शुभ। सुष्टु डॉ. श्रीमती विद्यावती जी के लेख में गुल्लिकाज्जी की मूर्ति प्रकाशन के लिये साधुवाद!
का उल्लेख है। प्रसिद्ध इतिहास के अनुसार यह मूर्ति राजा चामुण्डराय नरेन्द्रप्रकाश जैन, द्वारा स्थापित नहीं है। यह तो उनके दौ सौ वर्ष बाद, 12वीं शताब्दी
सम्पादक- जैन गजट की कलाकृति है। चामुण्डराय के सामने तो मंदिर का कोट-दरवाजा 104, नई बस्ती, फीरोजाबाद (उ.प्र.)
कुछ भी नहीं बना था, सब बाद में बने हैं। इनके निर्माण का अधिकृत
इतिहास उपलब्ध है, उसे देखना चाहिए। 'जिनभाषित' (सितम्बर 2001) में आपका सम्पादकीय लेख
पूज्य ब्र, अमरचंदजी ने कुण्डलपुर के उदासीन आश्रम को 'वैराग्य जगाने के अवसरों का मनोरंजनीकरण' पढ़ने को मिला।
दिगम्बर जैन समाज का प्रथम उदासीन आश्रम लिखा है। उसी लेख अत्यंत प्रसन्नता हुई। आपने समयोचित साहसिक कदम उठाकर धर्म
में लिखा है कि इसके एक वर्ष पहले इंदौर का आश्रम उन्हीं ब्रह्मचारीजी के पाश्चात्यीकरण का मर्मभेदी चित्रण किया है। आज लगा कि जैनधर्म
की उपस्थिति में स्थापित हो चुका था। उनके लिखने में या तो तारीखों के स्वरूप को विकृति से बचाने की चिन्ता करने वाले पुरुष भी इस की भल है. या फिर कण्डलपर के आश्रम को दिगम्बर जैन समाज धरा पर मौजूद हैं।
का प्रथम आश्रम कहना गलत है। दोनों तो सही हो नहीं सकते, तब स्व. पं. जुगलकिशोर मुख्तार का आलेख 'भवाभिनन्दी मुनि पत्रिका की विश्वसनीयता पर आँच आती है, अतः इसका स्पष्टीकरण और मुनिनिन्दा' को पढ़ा तो रोंगटे खड़े हो गये। इस लेख ने पत्रिका | कराना चाहिए। की निर्भीकता प्रमाणित की है, बहके श्रावकों को मार्गदर्शन और साहस धन्यवाद और प्रणाम,
पंजक शाह -अक्टूबर 2001 जिनभाषित 1
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सम्पादकीय
विवाह एक धार्मिक अनुष्ठान
जिनागम में मोक्ष की साधना के लिये दो धर्म बतलाये गये | है और उसे स्वीकार करने का प्रयोजन है विषयों को धर्म के संस्कार हैं : मुनिधर्म और गृहस्थधर्म। इनमें मुनिधर्म उत्सर्ग मार्ग है और | से शोधित-परिष्कृत कर ओषधि के रूप में सेवन करते हुए विषयरोग गृहस्थधर्म अपवादमार्ग। अर्थात् मोक्षाभिलाषी पुरुष को मुनिधर्म ही | की तीव्रता को शान्त करना और ज्ञान, वैराग्य तथा संयम को दृढ़ अंगीकार करना चाहिए, गृहस्थधर्म नहीं। गृहस्थधर्म तभी ग्राह्य है जब करते हुए विषयों के सर्वथा परित्याग की शक्ति अर्जित करना। विवाह वह चारित्रमोह के तीव्र उदय से मुनिधर्म अंगीकार करने में असमर्थ वह धार्मिक संस्कार है, जिससे विषय शोधित और परिष्कृत होकर हो। और गृहस्थधर्म अंगीकार करने का उद्देश्य भी अपने को मुनिधर्म औषधि का रूप धारण कर लेते हैं। उदाहरणार्थ, इसके द्वारा की साधना के योग्य बनाना ही होता है। पुरुषार्थसिद्धयपाय में कहा परदारनिवृत्ति हो जाने से कामप्रवृत्ति मर्यादित हो जाती है और स्वस्त्रीगया है कि मोक्षाभिलाषी पुरुष को सर्वप्रथम मुनिधर्मग्रहण करने का स्वपुरुष भी केवल नर-मादा की आदिम भूमिका में नहीं रहते, अपितु ही उपदेश दिया जाना चाहिए। जब बार-बार उपदेश देने पर भी उसे सहधर्मी और सहधर्मिणी के पद पर प्रतिष्ठित हो जाते हैं। यह वह ग्रहण न कर सके, तभी पापों से देशविरतिरूप गृहस्थधर्म का उपदेश पद है जिसमें पति-पत्नी एक-दूसरे के लिये गौणरूप से विषयौषधि दिया जाए। जो गुरु पहले मुनिधर्म ग्रहण करने का उपदेश न देकर बनते हुए भी मुख्यरूप से पारस्परिक धर्मसाधना और धर्मवृद्धि में गृहस्थधर्म अंगीकार करने का उपदेश देता है, उसे आगम में दण्डनीय सहयोगी बनते हैं। इसीलिए विवाह एक धार्मिक संस्कार या धार्मिक बतलाया गया है, क्योंकि ऐसा करने से शिष्य मुनिधर्म के पालन में अनुष्ठान है। इसी कारण उसका सम्पादन विनायक यंत्र के समक्ष समर्थ होते हुए भी हीनस्तर के गृहस्थधर्म में सन्तुष्ट होकर अपनी णमोकारमंत्र, मंगलाष्टक एवं मंत्रों का उच्चारण करते हुए नवदेवों शक्ति के सदुपयोग से वंचित रह जाता है। इसका वर्णन निम्नलिखित (पंचपरमेष्ठी, जिनधर्म, जिनागम, जिनबिम्ब और जिनालय) के श्लोकों में किया गया है
पूजन-हवनपूर्वक किया जाता है। यह ध्यान रखा जाता है कि बहुशः समस्तविरतिं प्रदर्शितां यो न जातु गृहणाति। विवाहविधि में वैषयिकता की तनिक भी आँच न आने पावे। यद्यपि तस्यैकदेशविरतिः कथनीयानेन बीजेन।।17।।
विवाह का गौण लक्ष्य विषयेच्छा की संतुष्टि होता है, तथापि यो यतिधर्ममकथयन्नुपदिशति गृहस्थधर्ममल्पमतिः। विवाहविधि पूर्णतः धार्मिक और सात्त्विक होती है। वह वैषयिकता तस्य भगवत्प्रवचने प्रदर्शितं निग्रहस्थानम्।।18।। की हवा से अछूती रखी जाती है। उसमें शृंगाररसात्मक गीतादि के अक्रमकथनेन यतः प्रोत्सहमानोऽतिदूरमपि शिष्यः। लिये स्थान नहीं होता। शहनाई जैसे वाद्ययन्त्र भी मंगलध्वनि ही अपदेऽपि सम्प्रतृप्तः प्रतारितो भवति तेन दुर्मतिना।।19।। विकीर्ण करते हैं। यह इस बात का सूचक है कि विवाहोत्सव में यदि
सागारधर्मामृतकार पं. आशाधर जी कहते हैं कि जिनेन्द्रदेव के कोई नृत्यगीत होता है तो वह भी सात्त्विक भावों को ही उभारने वाला उपदेशानुसार विषयों को निरन्तर त्याज्य समझते हुए भी, जो पुरुष | होना चाहिए। चारित्रमोह के उदय से उनका त्याग करने में समर्थ नहीं होता उसे | धार्मिक अनुष्ठान का बीभत्सीकरण गृहस्थधर्म धारण करने की अनुमति दी गई है
किन्तु इस धार्मिक अनुष्ठान को आजकल अत्यंत बीभत्स बना त्याज्यानजस्रं विषयान्पश्यतोऽपि जिनाज्ञया।
दिया गया है। हमने इसे परम्परया मोक्ष की साधना का माध्यम नहीं मोहात्त्यक्तुमशक्तस्य गृहिधर्मोऽनुमन्यते।।2/11
रहने दिया, अपितु दहेज नामक दानवी प्रथा के खूनी शिकंजे में कसकर पण्डितजी ने यह भी बतलाया है कि मुनिधर्म धारण करने में
हराम के धन से कुबेर बनने का साधन बना लिया है। वर के चुनाव असमर्थ होते हुए भी जो उसमें (मुनिधर्म में) अनुराग रखता है, वही
में अब चरित्र पर ध्यान नहीं दिया जाता, अपितु उसकी धन कमाने गृहस्थधर्म की दीक्षा का पात्र होता है
की क्षमता देखी जाती है,भले ही वह न्याय पर आधारित हो या अन्याय अथ नत्वाऽर्हतोऽक्षूणचरणान् श्रमणानपि।
पर। और अब तो वधू में भी धन कमाने की योग्यता तलाशी जाने तद्धर्मरागिणां धर्मः सागाराणं प्रणेष्यते।।1/1||
लगी है, अन्य गुणों को गौण कर दिया जाता है। तात्पर्य यह कि विषयों से विरक्ति हो जाने पर भी यदि मुनिधर्म
___चूँकि विवाहसंस्कार अणुव्रत, गुणव्रत और शिक्षाव्रतधारी के आचरण की सामर्थ्य नहीं है, तो गुरु से गृहस्थधर्म की दीक्षा अवश्य
श्रावकों का संस्कार है इसलिये उसमें परिग्रहपरिमाण एवं भोगोपभोलेनी चाहिए। ऐसा न करने पर पूर्ण अविरति का दोष लगता रहता
गपरिमाण व्रतों की झलक दिखाई देनी चाहिए। किन्तु हमने इसे है, जिससे कर्मों का न देशसंवर होता है न देशनिर्जरा।
वैभवप्रदर्शन का निर्लज्ज साधन बना लिया है। इस प्रयोजन से बेहद इस प्रकार गृहस्थधर्म का महल वैराग्य की नींव पर खड़ा होता
कीमती, चमकदमकवाले, भारीभरकम निमंत्रण पत्र छपवाये जाते हैं।
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उनमें इतना खर्च किया जाता है कि एक निमंत्रण पत्र की कीमत सौ- | विवाहोत्सव में युवतियों के नृत्यगीत से हानि नहीं है। नृत्यगीत तो सौ, दो-दो सौ रुपयों तक पहुँच जाती है।
हर्षोल्लास की अभिव्यक्ति का मानवस्वभावोद्भूत सांस्कृतिक माध्यम विवाह का पंडाल इतना विशाल बनवाया जाता है और उसे | है। लोकसंस्कृति में तो विवाहोत्सवों में नृत्यगीतादि के प्रयोग की रेशमी परदों, ट्यूबलाइटों आदि से ऐसा सजाया जाता है कि लगता | प्राचीन परम्परा है। किन्तु लोकसंस्कृति में भी संस्कृति है। भारतीय है जैसे किसी राजदरबार या इन्द्रसभा का फिल्मी सेट हो। भोज | लोकसंस्कृति में इस बात का ख्याल रखा गया है कि किस श्रेणी के के लिय तरह-तरह के खाद्य, स्वाद्य, लेह्य और पेय व्यंजनों के | लोगों के द्वारा, किस अवसर पर, किस प्रकार के नृत्यगीत का प्रयोग अनगिनत स्टाल लगाये जाते हैं और शोभायात्रा के समय | किया जाना चाहिए। भारतीय लोकसंस्कृति में भी अश्लील नृत्यगीतादि आतिशबाजी में हजारों रुपये फेंक दिये जाते हैं। इस तरह विवाह के | के लिये स्थान है, पर वह केवल होली जैसे अवसरों पर या विशेष धार्मिक अनुष्ठान को परिग्रहपरिमाण और भोगोपभोगपरिमाण व्रतों की | प्रकार की रसिकमंडली के बीच। विवाहोत्सवों में जो बन्ना-बन्नी के धज्जियाँ उड़ाने वाला कृत्य बना दिया गया है।
गीत गाये जाते हैं, वे अश्लील नहीं होते, अपितु वर-वधू के विवाह संस्कार रात्रि में किया जाता है, जिससे रात्रि में ही पूजन- | दाम्पत्यभाव को सुरुचिपूर्ण भाषा में अभिव्यक्त करने वाले होते हैं हवन आदि धार्मिक क्रियाएँ सम्पन्न होती हैं। यह जिनागम के विरुद्ध | तथा स्त्रियाँ जो नृत्य करती हैं, वह घर के भीतर स्त्रियों के बीच में है। अहिंसाप्रधान जैनधर्म दिन में ही हवन-पूजन आदि धार्मिक क्रियाएँ ही किया जाता है। आजकल पुरुषों के बीच में भी किया जाने लगा करने की अनुमति देता है। रात्रि में विवाहविधि सम्पन्न करने से भोजन- | है, किन्तु वे परिवार के ही सगे-सम्बन्धी होते हैं तथा नृत्य की पान भी रात्रि में किया जाता है, जो श्रावकधर्म की जड़ पर भीषण | भावभंगिमाएँ अश्लील नहीं होती, सुरुचिपूर्ण होती हैं। किन्तु आजकल कुठाराघात है। इतना ही नहीं, विवाहों में मद्यपान और द्यूतक्रीड़ा जैसे | वर की शोभायात्रा में सड़कों पर युवक-युवतियों द्वारा किया जानेवाला व्यसनों का भी चलन हो गया है, जिसने विवाह के धार्मिक अनुष्ठान नृत्य फिल्मों की भद्दी स्टाइल में होता है, जिसे देखकर सुरुचिसम्पन्न को पापानुष्ठान में बदल दिया है।
लोगों को शर्म आती है। उसमें संस्कृति का नामोनिशाँ नहीं रहता, पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव से भोज के बुफे सिस्टम (खड़े- अपितु अपसंस्कृति का बोलबाला रहता है। खड़े भोजन करना) ने भी श्रावकधर्म को आघात पहुँचाया है। एक | इस प्रकार हम देखते हैं कि विवाह के धार्मिक अनुष्ठान को स्थान में बैठकर मौनपूर्वक शुद्ध भोजन करना श्रावकचर्या का | धनलोभ, वैभवप्रदर्शन, व्यसनपरकता, रात्रिविवाह-रात्रिभोज, बुफेमहत्त्वपूर्ण अंग है, किन्तु बुफे में खड़े-खड़े भोजन करना पड़ता है | भोजनपद्धति, और सड़कों पर बहूबेटियों के अशोभनीय नृत्य, इन
और बार-बार भोजन उठाने के लिये टेबिल के पास जाना पड़ता है। | विकृतियों ने अत्यंत बीभत्सरूप दे दिया है। इसका उपचार इस पद्धति में सब लोग अपने-अपने जूठे हाथों से भोजन उठाते हैं, . शीघ्रातिशीघ्र किया जाना चाहिए। अतः वह अशुद्ध हो जाता है। इसमें अजैन भी शामिल होते हैं। अनेक इस दिशा में परमपूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी के सुयोग्य लोगों के हाथ का स्पर्श लगने से भोजन में रोगाणुओं का भी संचार | शिष्य पूज्य मुनि श्री समतासागर जी एवं पूज्य मुनि श्री प्रमाणसागर हो जाता है।
जी अच्छा काम कर रहे हैं। ये दो प्रतिभाशाली, आगमचक्खू, विवाह संस्कार में एक नई विकृति जो पैदा हुई है, वह है वर | आत्मसाधना और धर्मप्रभावना में निरत युवा मुनि जहाँ भी जाते हैं, की शोभायात्रा में युवक-युवतियों का सड़कों पर फिल्मी स्टाइल में | अपने हृदयस्पर्शी उद्बोधन द्वारा रात्रिविवाह और रात्रिभोज की गर्हित नाचना। कुछ समय पूर्व तक केवल युवक ही नाचा करते थे, कोई | प्रथाओं पर कठोर प्रहार करते हैं और लोगों के मन में इन के प्रति भी जैन युवती सड़कों पर नाचती हुई दिखाई नहीं देती थी। किन्तु | घोर घृणा जगाकर इन्हें जड़ से उखाड़ फेंकते हैं। इनके उन्मूलन से अब जैनेतरों की देखा-सीखी जैनों में भी यह विकृति प्रवेश कर गई | इनके साथ जुड़ी अन्य बुराइयाँ अपने आप विलुप्त हो जाती हैं। है। अब हमारी बहू-बेटियाँ भी, जिन्हें विवाह जैसे धार्मिक अनुष्ठान फिर भी, सड़कों पर बहूबेटियों के नाचने की अशोभनीय प्रथा में सड़कों पर संयत-परिष्कृत, लज्जाशील आचरण-पद्धति का परिचय | चल रही है, क्योंकि इसके लिये उन्हें दिन के समय निकलनेवाली देना चाहिए, वे लाज-शरम छोड़कर बैंड बाजों की फिल्मी धुनों पर | शोभायात्राओं में भी अवसर मिल जाता है। अतः अब इस पर भी नाचती हुई दिखाई देती हैं। यह दृश्य बड़ा अशोभनीय लगता है। प्रहार करने की जरूरत है। इसके अतिरिक्त दहेज की माँग यह विवाहसंस्कार के बीभत्सीकरण की दिशा में उठाया गया नया | वैभवप्रदर्शन और व्यसनसेवन की दुष्प्रवृत्तियाँ भी जीवित हैं। इन सब कदम है।
पर बलपूर्वक कुठाराघात आवश्यक है, तभी विवाह एक संस्कार, विवाह एक धार्मिक अनुष्ठान है। उसे संयत, परिष्कृत और | एक धार्मिक अनुष्ठान का नाम सार्थक कर पायेगा। शोभनीय प्रवृत्तियों के परिवेश में ही सम्पन्न किया जाना चाहिए।
रतनचन्द्र जैन
इस विषय पर यदि पाठक अपने विचार भेजना चाहें तो स्वागत है।
- सम्पादक
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रक्षाबन्धन और पर्युषण
स्व. क्षुल्लक श्री गणेशप्रसादजी वर्णी
श्रावण शुक्ला पूर्णिमा सं. 2007 को | दूसरे के विषय में ही यह चिन्ता करता हो, | बचो। अनादिकाल से यही उपद्रव करते रहे, रक्षाबन्धन पर्व आया। यह पर्व सम्यग्दर्शन सो बात नहीं, अपने आपके प्रति भी यही | पर सन्तुष्ट नहीं हए। आत्मपरिणति को स्वच्छ के वात्सल्य अंङ्ग का महत्त्व दिखलाने वाला भाव रखता है। सम्यग्दर्शन के निःशङ्कित रखो, सो तो करता नहीं, संसार का ठेका लेता है। सम्यग्दृष्टि का स्नेह धर्म से होता है और आदि आठ अङ्ग जिस प्रकार पर के विषय है। जो मनुष्य आत्मकल्याण से वंचित हैं, वे धर्म के बिना धर्मी रह नहीं सकता, इसलिये में होते हैं, उसी प्रकार स्व के विषय में भी ही संसार के कल्याण में प्रयत्न करते हैं। संसार धर्मी के साथ उसका स्नेह होता है। जिस प्रकार होते हैं। रक्षाबन्धन रक्षा का पर्व है, पर की में यदि शांति चाहते हो, तो सबसे पहले पर गौ का बछड़े के साथ जो स्नेह होता है, उसमें रक्षा वही कर सकता है, जो स्वयं रक्षित हो। में निजत्व की कल्पना त्यागो, अनन्तर गौ को बछड़े की ओर से होने वाले प्रत्युपकार जो स्वयं आत्मा की रक्षा करने में असमर्थ अनादि काल से जो यह परिग्रह-पिशाच के की गन्ध भी नहीं होती, उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि है, वह क्या पर का कल्याण कर सकता है? आवेश में अनात्मीय पदार्थों से आत्महित का धर्मात्मा से स्नेह करता है, तो उसके बदले रक्षा से तात्पर्य आत्मा को पाप से पृथक् करो, संस्कार है, उसे त्यागो। हम आहारादि संज्ञाओं वह उससे किसी प्रत्युपकार की आकांक्षा नहीं पाप ही संसार की जड़ है। जिसने इसे दूर कर से आत्मा को तृप्त करने का प्रयत्न करते हैं, करता। कोई माता अपने शिशु से स्नेह दिया, उसके समान भाग्यशाली अन्य कौन यह सर्व मिथ्या धारण है, इसे त्यागो। संतोष इसलिये करती है कि यह वृद्धावस्था में हमारी
का कारण त्याग है, उस पर स्वत्व कल्पना रक्षा करेगा, पर गौ को ऐसी कोई इच्छा नहीं आज जैन समाज से वात्सल्य अङ्ग का करो। प्रतिदिन जल्पवाद से जगत् को रहती, क्योंकि बड़ा होने पर बछड़ा कहीं जाता महत्त्व कम होता जा रहा है, अपने स्वार्थ के सुलझाने की जो चेष्टा है, उसे त्यागो, और है, और गौ कहीं। फिर भी गौ बछड़े की रक्षा समक्ष आज का मनुष्य किसी के हानि-लाभ अपने आपको सुलझाने का प्रयत्न करो। के लिये अपने प्राणों की भी बाजी लगा देती | को नहीं देखता। हम और हमारे बच्चे आनन्द संसार में धर्म और अधर्म तथा खान और पान है। सम्यग्दृष्टि यदि किसी का उपकार करे और से रहें, परन्तु पड़ौसी की झोपड़ी में क्या हो यही तो परिग्रह है। लोक में जिसे पुण्यशब्द उसके बदले उससे कुछ इच्छा रखे, तो यह रहा है, इसका पता लोगों को नहीं। महल में | से व्यवहृत करते हैं, वह धर्म तुम्हारा स्वभाव एक प्रकार का विनिमय हो गया, इसमें धर्म रहने वालों को पास में बनी झोपड़ियों की भी | नहीं, संसार में ही रखने वाला है। का अंश कहाँ रहा? धर्म का अंश तो निरीह रक्षा करनी होती है, अन्यथा उनमें लगी आग धीरे-धीरे पर्युषण पर्व आ गया। चतुर्थी होकर सेवा करने का भाव है। विष्णुकुमार मुनि उनके महल को भी भस्मसात् कर देती है। के दिन श्री पंडित झम्मनलालजी आ गये। पं. ने सात सौ मुनियों की रक्षा करने के लिये एक समय तो वह था कि जब मनुष्य बड़े कमलकुमारजी यहाँ थे ही, इसलिये प्रवचन अपने आपको एकदम समर्पित कर दिया, | की शरण में रहना चाहते थे, उनका ख्याल का आनन्द रहा। वृद्धावस्था के कारण हमसे अपनी वर्षों की तपश्चर्या पर ध्यान नहीं दिया रहता था कि बड़ों के आश्रय में रहने से हमारी अधिक बोला नहीं जाता और न बोलने की और धर्मानुराग से प्रेरित हो, छल से वामन रक्षा रहेगी, पर आज का मनुष्य बड़ों के इच्छा ही होती है। उसका कारण यह है कि का रूप धर बलि का अभिमान चूर किया। आश्रय से दूर रहने की चेष्टा करता है, क्योंकि जो बात प्रवचन में कहता हूँ, तदनुरूप मेरी यद्यपि पीछे चलकर इन्होंने भी अपने गुरु के उसका ख्याल बन गया है कि जिस प्रकार एक चेष्टा नहीं। मैं दूसरों से तो कहता हूँ कि पास जाकर छेदोपस्थापना की, अर्थात् फिर बड़ा वृक्ष अपनी छाँह में दूसरे छोटे पौधे को | रागादिक दुःख के कारण है, अतः इनसे से नवीन दीक्षा धारण की, क्योंकि उन्होंने जो नहीं पनपने देता है, उसी प्रकार बड़ा आदमी बचो, पर स्वयं उनमें फँस जाता हूँ। दूसरों कार्य किया था, वह मुनि पद के योग्य कार्य समीपवर्ती - शरणागत अन्य मनुष्यों को नहीं | से कहता हूँ कि सर्व प्रकार से विकल्प त्यागो, नहीं था, तथापि सहधर्मी मुनियों की उन्होंने पनपने देता। अस्तु, रक्षाबन्धन पर्व हमें सदा | पर स्वयं न जाने कहाँ-कहाँ के विकल्पों में उपेक्षा नहीं की। किसी सहधर्मी भाई को यही शिक्षा देता है कि 'सर्वे भवन्तु सुखिनः' फँसा हुआ हूँ। भोजन, वस्त्रादि की कमी हो, तो उसकी पूर्ति अर्थात् सब सुखी रहें।
पर्युषण पर्व साल में तीन बार आता हो जाए, ऐसा प्रयत्न करना चाहिए। यह मैं कहने के लिये तो यह सब कह गया, | है- भाद्रपद, माघ और चैत्र में, परन्तु भाद्रपद लौकिक स्नेह है, सम्यग्दृष्टि का पारमार्थिक पर सामायिक के बाद अन्तरंग में जब विचार | के पर्युषण का प्रचार अधिक है। पर्व के समय स्नेह इससे भिन्न रहता है।
किया, तब यही ध्वनि निकली कि पर की | प्रत्येक मनुष्य अपने अभिप्राय को निर्मल सम्यग्दृष्टि मनुष्य हमेशा इस बात का समालोचना त्यागो, आत्मीय समालोचना | बनाने का प्रयास करता है, और यथार्थ में विचार रखता है कि यह हमारा सहधर्मी भाई करो। समालोचना में काल लगाना भी उचित | पूछा जाय तो अभिप्राय की निर्मलता ही धर्म सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र रूप जो आत्मा का नहीं, प्रस्तुत वह काल उत्तम विचार में | है। आत्मा की यह निर्मलता क्रोधादिक कषायों धर्म है, उससे कभी च्युत न हो जाय तथा लगाओ। आत्मा का स्वभाव ज्ञाता-द्रष्टा है, | के कारण तिरोहित हो रही है, इसलिये इन अनन्त संसार के भमण का पात्र न बन जाए। वही रहने दो, इसमें इष्ट-अनिष्ट कल्पना से | कषायों को दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए। 4 अक्टूबर 2001 जिनभाषित -
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क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषाय इच्छाओं के रहते परिणामों में स्थिरता स्वप्न | वार्तालाप में विषमता आ जाती है। यह हैं, इनमें क्रोध से क्षमा, मान से मार्दव, माया में भी नहीं आ सकती। जब इच्छाएँ घट | विषमता पाप का कारण है। वार्तालाप के से आर्जव और लोभ से शौचगुण तिरोहित जावेंगी, तब उसके फलस्वरूप त्याग स्वतः समय वक्ता या श्रोता किसी को यह भाव नहीं हैं। ये चार कषाय निकल जावें और उनके हो जावेगा। भोजन करते-करते जब भोजन होना चाहिए कि हमारी प्रतिष्ठा में बट्टा न लग बदले क्षमा आदि गुण आत्मा में प्रकट हो विषयक इच्छा दूर हो जाती है, तब भोजन जावे, समताभाव से सत्य बात को स्वीकार जावे तो आत्मा का उद्धार हो जावें, क्योंकि का त्याग करने में देर नहीं लगती। क्षुधित करना चाहिए और समता भाव से ही असत्य मुख्य में यह चार गुण ही धर्म हैं। आगे जो अवस्था में यह भाव होता था कि पात्र में बात का निराकरण करना चाहिए। यहाँ भाद्रपद सत्य आदि छः धर्म कहे हैं, वे इन्हीं के भोजन जल्दी आवे और क्षुधाविषयक इच्छा शुक्ल 10 के दिन पण्डितगणों में परस्पर कुछ विस्तार हैं- इन्हीं के अंग हैं। क्रोध को वही दूर हो जाने पर भाव होता है कि कोई बलात् वार्तालाप की विषमता हो गई। विषमता का जीत सकता है, जिसने मान पर विजय प्राप्त पात्र में भोजन न परोस दे। त्याग के बाद कारण ‘परमार्थ से हमारी प्रतिष्ठा में कुछ बट्टा कर ली हो। हम कहीं गये, किसी ने सत्कार आकिञ्चन्य दशा का होना स्वाभाविक है। जब न लगे' यह भाव था। तत्त्व से देखो तो नहीं किया, हमारी बात पूछी नहीं, हमें क्रोध पुरातन परिग्रह का त्याग कर दिया और इच्छा आत्मा निर्विकल्प है उसमें यशोलिप्सा ही
आ गया। हमने किसी से कोई बात कही, के अभाव में नूतन परिग्रह अंगीकृत नहीं व्यर्थ है। यश तो नामकर्म की प्रकृति है। यश उसने नहीं मानी, हमें क्रोध आ गया कि इसने | किया तब आकिञ्चन्य दशा स्वयमेव होने की से कुछ मिलता-जुलता नहीं है। जिस वक्ता हमारी बात नहीं मानी, इस प्रकार देखते हैं । है ही और जब अपने पास आत्मातिरिक्त ने शास्त्रप्रवचन में यश की लिप्सा रखी, कि हमारे जीवन में जो क्रोध उत्पन्न होता है, | किसी पदार्थ का अस्तित्त्व नहीं रहा- उसमें उसका 2 घंटे तक गले की नसें खींचना ही उसमें मान प्रायः कारण होता है। इसी प्रकार ममता परिणम नहीं रहा, तब आत्मा का हाथ रहा, स्वाध्याय के लाभ से वह दूर रहा, माया की उत्पत्ति लोभ से होती है। हमें आपसे उपयोग आत्मा में ही लीन होगा, यही ब्रह्मचर्य इसी प्रकार जिस श्रोता ने वक्ता की परीक्षा किसी वस्तु की आकांक्षा है, तो उसे पाने के है, इस प्रकार यह दश धर्मों का क्रम है। दश का भाव रखा या अपनी बात जमाने का लिये हम इच्छा न रहते हुए भी आपके प्रति | धर्मों का यह क्रम जीवन में उतर जावे तो अभिप्राय रखा, उसने अपना समय व्यर्थ ऐसी चेष्टा दिखलावेंगे कि जिससे आपके आत्मा का कल्याण हो जावे। विचार कीजिए, | खोया। वक्ता का भाव तो यह होना चाहिये हृदय में यह प्रत्यय हो जावे कि यह हमारे क्षमा, मार्दव आदि धर्म किसके हैं, और कहाँ कि हम अज्ञानी जीवों को वीतराग जिनेन्द्र की अनुकूल है। जब अनुकूलता का प्रत्यय आपके हैं? विचार करने पर ये आत्मा के हैं और वाणी सुनाकर सुमार्ग पर लगावें और श्रोता हृदय में दृढ़ हो जावेगा, तभी तो अपनी वस्तु आत्मा में ही हैं, परन्तु यह जीव अज्ञानवश का भाव यह होना चाहिए कि वक्ता के श्रीमुख देने का भाव होगा। इस तरह यह किसी का इतस्ततः भ्रमण करता-फिरता है। लाखों का से जिनवाणी के दो शब्द सुन अपने विषयकहना ठीक है कि 'मानात्क्रोधः प्रभवति माया धनी व्यक्ति जिस प्रकार अपनी निधि को भूल कषाय को दूर करें। लोभात्प्रवर्तते' अर्थात् मान से क्रोध उत्पन्न दर-दर का भिखारी हो भ्रमण करता है, ठीक पर्व के बाद आश्विन प्रतिपदा क्षमावाणी होता है। और लोभ से माया प्रवृत्त होती है। उसी प्रकार हम भी अपनी निधि को भूल का दिन था, परन्तु जैसा उसका स्वरूप है, जब आत्मा से क्रोध, लोभ भीरुत्व तथा | उसकी खोज में इतस्ततः भ्रमण कर रहे हैं। वैसा हुआ नहीं। केवल प्रभावना होकर हास्य की परिणति दूर हो जाती है, तो सत्य | परम धर्म को पाय कर सेवत विषय कषाय। समाप्ति हो गई। परमार्थ से, अन्तरङ्ग से, वचन में प्रवृत्ति अपने आप होने लगती है।। ज्यों गन्ना को पाय कर नीमहि ऊँट चबाय।। शान्तिभाव की प्राप्ति हो जाना यही क्षमा है, असत्य बोलने के कारण दो हैं - 1. अज्ञान जिस प्रकार ऊँट गन्ना को छोड़कर सो इस ओर तो लोगों की दृष्टि है नहीं, केवल और 2. कषाय। इनमें अज्ञानमूलक असत्य | नीम को चबाता है, उसी प्रकार संसार के प्राणी ऊपरी भाव से क्षमा माँगते हैं, एक-दूसरे के आत्मा का घातक नहीं, क्योंकि उसमें परिणाम | परमधर्म को छोड़कर विषय-कषाय का सेवन गले लगते हैं। इससे क्या होने वाला है? और मलिन नहीं रहते, परन्तु कषायमूलक असत्य | करते हैं। उनसे सुख मानते हैं। मोहोदय से खासकर जिससे बुराई होती है, उसके पास आत्मा का घातक है, क्योंकि उसमें परिणाम | इस जीव की दृष्टि स्वोन्मुख न हो, पर की भी नहीं जाते, उससे बोलते भी नहीं, इसके मलिन रहते हैं। जब आत्मा से क्रोधादि कषाय | ओर हो रही है।
विपरीत जिससे बुराई नहीं, उसके पास जाते निकल गई तब असत्य बोलने में प्रवृत्ति नहीं पर्व के समय प्रवचन होते हैं। वक्ता | हैं, उसके गले लगते हैं, उसे क्षमावाणी पत्र हो सकती। इंद्रियों के विषयों से निवृत्ति हो अपने क्षायोपशमिक ज्ञान के आधार पर पदार्थ लिखते हैं आदि। यह सब क्या क्षमावाणी गई है, यही संयम है। यह निवृत्ति तभी हो का निरूपण करता है। यहाँ वक्ता से यदि कुछ उत्सव का प्राणशून्य ढाँचा नहीं है? सकती है जब लोभ कषाय की निवृत्ति हो जाय विरुद्ध कथन भी होता है, तो अन्य समझदार
चाहत जो मन शान्ति-सुख, तजहु कल्पना-जाल। तथा यह प्रत्यय हो जाये कि आत्मा में सुख व्यक्ति को समताभाव से उसका सुधार करना
व्यर्थ भरम के भूत में, क्यों होते बेहाल।।1।। की उत्पत्ति विषयाभिमुखी प्रवृत्ति से नहीं, चाहिए, क्योंकि शास्त्रप्रवचन धर्मकथा है,
यह जगत की माया विकट, जो न तजोगे मित्र। किन्तु तन्निवृत्ति से है। मानसिक विषयों की | विजिगीषुकथा नहीं। धर्मकथा का सार यह है, निवृत्ति हो जाना - इच्छाओं पर नियंत्रण हो | कि दश आदमी एकत्र बैठकर पदार्थ का
तो चहुँगति के बीच में, पाओगे दुख चित्र।।2।। जाना, सो तप है। जब तक मन स्वाधीन नहीं | निर्णय कर रहे हैं, इसमें किसी के जय-पराजय
मेरी जीवन गाथा (द्वितीय भाग) होगा, तब तक उसमें इच्छाएँ उठा करेंगी और | का भाव नहीं है। जहाँ यह भाव है, वहाँ
से साभार -अक्टूबर 2001 जिनभाषित 5
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दिगम्बरत्व का महत्त्व
डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन
मोक्ष प्राप्ति के लिए साधक की चरम अवस्था में दिगम्बरत्व | श्वेताम्बर साधु जिनमूर्तियों में भी लंगोट का चिह्न बनवाने लगे एवं अनिवार्य है, किन्तु वह अन्तरंग एवं बाह्य, दोनों ही प्रकार का युगपत् | मुकुट, हार, कुंडल, चोली-आंगी, कृत्रिम नेत्र आदि का प्रचलन तो होना चाहिए, तभी उसकी सार्थकता है। यह मार्ग दुस्साध्य है। तथापि | इधर लगभग दो-अढ़ाई सौ वर्षों के भीतर ही हुआ हैं। इसमें संदेह नहीं है कि दिगम्बर मुनि अपनी अत्यंत कठोरचर्या, व्रत,
जैन-परम्परा में ही नहीं, अन्य धार्मिक परम्पराओं में भी श्रेष्ठतम नियम, संयम तथा शीत-उष्ण-दंश-मशक-नाग्न्य-लज्जा आदि बाईस
साधकों के लिये दिगम्बरत्व की प्रतिष्ठा की गयी प्राप्त होती है। परीषहों को जीतने एवं नाना प्रकार के उपसर्गों को सहन करने में सक्षम प्रागैतिहासिक एवं प्राग्वैदिक सिन्धु-घाटी सभ्यता के मोहन जोदड़ो होता है। उसका जीवन एक खुली पुस्तक होता है। ज्ञान की उसमें
से प्राप्त अवशेषों में कायोत्सर्ग दिगम्बर योगिमूर्ति का धड़ मिला कमी या अल्पाधिक्य हो सकता है। संस्कारों या परिस्थितिजन्य दोष | है। स्वयं ऋग्वेद में वातरशना (दिगम्बर) मुनियों का उल्लेख हुआ भी लक्ष्य किये जा सकते हैं, अथवा दिगम्बर मुनि के आदर्श की
है। कृष्णयजुर्वेदीय तैत्तिरीय आरण्यक में उक्त वातरशना मुनियों को कसौटी पर भी वह भले ही पूरा-पक्का न उतर पाये, तथापि अन्य।
| श्रमणधर्मा एवं ऊध्वरतस (ब्रह्मचर्य से युक्त) बताया है। परम्पराओं के साधुओं की अपेक्षा अपने नियम-संयम, तप एवं | श्रीमद्भागवत में भी वातरशना मुनियों के उल्लेख हैं तथा वहाँ अन्य कष्टसहिष्णुता में वह श्रेष्ठतर ही ठहरता है। फिर जो मुनि आदर्श को | अनेक ब्राह्मणीय पुराणों में नाभेय ऋषभ को, विष्णु का एक प्रारंभिक अपने जीवन में चरितार्थ करते हैं, उन मुनिराजों की बात ही क्या
अवतार सूचित करते हुए उन्हें ही दिगम्बर चित्रित किया गया है। ऐसे हैं, वे सच्चे साधु या सच्चे गुरु ही आचार्य-उपाध्याय-साधु के रूप
उल्लेखों पर से स्व. डॉ. मंगलदेव शास्त्री का अभिमत है कि में पंच-परमेष्ठी में परिगणित हैं, वे मोक्षमार्ग के पूजनीय एवं
'वातरशना-श्रमण' एक प्राग्वैदिक मुनि परम्परा थी और वैदिक धारा अनुकरणीय मार्गदर्शक होते हैं। वे तरणतारण होते हैं। उन्हीं के लिये पर उसका प्रभाव स्पष्ट है। कहा गया है -
कई उपनिषदों, पुराणों, स्मृतियों, रामायण, महाभारत आदि धन्यास्ते मानवा मन्ये ये लोके विषयाकुले।
अनेक ब्राह्मणीय धर्मग्रन्थों, वृहत्संहिता, भर्तृहरिशतक तथा क्लासिविचरन्ति गतग्रन्थाश्चतुरङ्गे निराकुलाः।।
कल संस्कृत साहित्य में भी दिगम्बर मुनियों के उल्लेख एवं इस दिगम्बर मार्ग के प्रवर्तक प्रथम तीर्थकर आदिदेव ऋषभ
दिगम्बरत्व की प्रतिष्ठा प्राप्त होती है। ब्राह्मण परम्परा में 6 प्रकार थे। जिनदीक्षा लेने के उपरान्त उन्होंने दिगम्बर मुनि के रूप में
के संन्यासियों का विधान है जिनमें तुरायातीत श्रेणी के संन्यासी तपश्चरण करके केवलज्ञान एवं तीर्थंकर पद प्राप्त किया था। उनके
दिगम्बर ही रहते थे। जड़-भरत, शुकदेव मुनि आदि कई दृष्टान्त भी भरत, बाहुबली आदि अनेक सुपुत्रों और अनगिनत अनुयायियों ने
उपलब्ध हैं। परमहंस श्रेणी के साधु भी प्रायः दिगम्बर रहते हैं। इसी दिगम्बर मार्ग का अवलम्बन लेकर आत्मकल्याण किया है।
मध्यकालीन साधु-अखाड़ों में भी एक अखाड़ा दिगम्बरी नाम से भगवान् ऋषभ के समय से लेकर अद्य पर्यन्त यह दिगम्बर मुनि
| प्रसिद्ध है। पिछली शती के वाराणसी निवासी महात्मा तैलंग स्वामी परम्परा अविच्छिन्न चली आयी है। बीच-बीच में मार्ग में काल-दोष
नामक सिद्ध योगी, जो रामकृष्ण परमहंस तथा स्वामी दयानन्द से विकार भी उत्पन्न हुए, चारित्रिक शैथिल्य भी आया, किन्तु
सरस्वती जैसे प्रबुद्ध संतों एवं सुधारकों द्वारा भी पूजित हुए, सर्वथा संशोधन-परिमार्जन भी होते रहे हैं।
दिगम्बर रहते थे। बौद्ध भिक्षुओं के लिए नग्नता का विधान नहीं हैं, जैन परम्परा का स्वयं वह श्वेताम्बर सम्प्रदाय भी, जो जैन
किन्तु स्वयं गौतमबुद्ध ने अपने साधनाकाल में कुछ समय तक साधुओं के लिये दिगम्बरत्व को अपरिहार्य नहीं मानता और साधुओं
दिगम्बर मुनि के रूप में तपस्या की थी। यहूदी, ईसाई और इस्लाम को सीमित-संख्यक, बिनसिले श्वेत वस्त्र धारण करने की अनुमति
धर्मों में भी सहज नग्नत्व को निर्दोषता का सूचक एवं श्लाघनीय देता है, इस तथ्य को मान्य करता है कि प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव ।
माना गया है। जलालुद्दीन रूमी, अलमन्सूर, सरमद जैसे सूफी संतों तथा अन्तिम तीर्थंकर वर्द्धमान महावीर अपने जीवन में अचेलक
ने दिगम्बरत्व की सराहना की है। सरमद तो सदा नंगे रहते थे। उनकी अथवा दिगम्बर ही रहे थे, अन्य अनेक पुरातन जैन मुनि दिगम्बर
दृष्टि में तो - रहे, तथा यह कि जिनमार्ग में जिनकल्पी साधुओं का श्रेष्ठ एवं
'तने उरियानी (दिगम्बरत्व) से बेहतर नहीं कोई लिबास, श्लाघनीय रूप अचेलक है। कला के क्षेत्र में भी 8वीं 9वीं शती ई. यह वह लिबास है जिसका न उल्टा है न सीधा।' से पूर्व की प्रायः सभी उपलब्ध तीर्थंकर या जिनप्रतिमाएँ दिगम्बर
सरमद का कौल था कि - ही हैं और वे उभयसम्प्रदायों के अनुयायियों द्वारा समान रूप से
'पोशानीद लबास हरकारा ऐबदीद, पूजनीय रहीं, आज भी हैं। कालान्तर में साम्प्रदायिक भेद के लिए
बे ऐबारा लबास अयानीदाद' 6 अक्टूबर 2001 जिनभाषित -
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पोशाक तो मनुष्य के ऐबों को छिपाने के लिए है, जो बेऐब, | ही कहा है, 'पुष्प नग्न रहते हैं। प्रकृति के साथ जिन्होंने एकता नहीं निष्पाप हैं, उनका परिधान तो नग्नत्व ही होता है। नन्द-मौर्य कालीन | खोयी है ऐसे बालक भी नग्न घूमते हैं। उनको इसकी शरम नहीं आती यूनानियों ने भारत के दिगम्बर मुनियों (जिम्नोसोफिस्ट) के वर्णन किए | है और उनकी निर्व्याजता के कारण हमें भी लज्जा जैसा कुछ प्रतीत हैं, युवान- च्वाँग आदि चीनी यात्रियों ने भी भारत के विभिन्न स्थानों | नहीं होता। लज्जा की बात जाने दें, इसमें किसी प्रकार का अश्लील, में विद्यमान दिगम्बर (लि-हि) साधुओं या निर्ग्रन्थों का उल्लेख किया | वीभत्स, जुगुप्सित, अरोचक हमें लगा हो, ऐसा किसी भी मनुष्य है। सुलेमान आदि अरब सौदागरों और मध्यकालीन यूरोपीय पर्यटकों | का अनुभव नहीं। कारण यही है कि नग्नता प्राकृतिक स्थिति के साथ में से कई ने उनका संकेत किया है। डॉ. जिम्मर जैसे मनीषियों का स्वभावशुदा है। मनुष्य ने विकृत ध्यान करके अपने विकारों को इतना मत है कि प्राचीन काल में जैन मुनि सर्वथा दिगम्बर ही रहते थे। | अधिक बढ़ाया है और उन्हें उल्टे रास्तों की ओर प्रवृत्त किया है कि
वास्तव में दिगम्बरत्व तो स्वाभाविकता और निर्दोषिता का स्वभाव-सुन्दर नग्नता सहन नहीं होती। दोष नग्नता का नहीं, अपने सूचक है। महाकवि मिल्टन ने अपने काव्य 'पैरेडाइज लॉस्ट' में कहा कृत्रिम जीवन का है।' है कि आदम और हौव्वा जब एक सरलतम एवं सर्वथा सहज निष्पाप वस्तुतः निर्विकार, दिगम्बर, सहज, वीतराग छवि का दर्शन थे, स्वर्ग के नन्दनकानन में सुखपूर्वक विचरते थे, किन्तु जैसे ही | करने से तो स्वयं दर्शक के मनोविकार शान्त हो जाते हैं - अब चाहे उनके मन विकारी हुए, उन्हें उस दिव्यलोक से निष्कासित कर दिया | वह छवि किसी सच्चे साधु की हो अथवा जिन-प्रतिमा की हो। आचार्य गया। विकारों को छिपाने के लिये ही उनमें लज्जा का उदय हआ और | सोमदेव कहते हैं कि समस्त प्राणियों के कल्याण में लीन ज्ञान-ध्यान परिधान (कपड़ों) की उन्हें आवश्यकता पड़ी। महात्मा गाँधी ने एक | तपःपूत मुनिजन यदि अमंगल हों तो लोक में फिर और क्या ऐसा बार कहा था, 'स्वयं मुझे नग्नावस्था प्रिय है, यदि निर्जन वन में | है जो अमंगल नहीं होगा। रहता होऊँ तो मैं नग्न अवस्था में रहूँ।' काका कालेलकर ने क्या ठीक
वात्सल्य रत्नाकर (तृतीय खण्ड) से साभार
फिरोजाबाद महिला-मिलन द्वारा महती धर्म प्रभावना
भगवान महावीर स्वामी के 2600वें जन्म कल्याणक | 130 से 120 तक द्वितीय तथा 100 तक प्राप्तांक वाले सभी महोत्सव वर्ष के उपलक्ष्य में भगवान महावीर के सन्देशों तथा जैन | प्रतियोगियों को पुरस्कृत किया गया। कलापोस्टर में 120 पोस्टर धर्म के सूत्रों, सिद्धान्तों के व्यापक प्रचार-प्रसार हेतु फिरोजाबाद आये जिन्हें प्राप्त करने वालों में वरिष्ठ वर्ग की प्रथम नेहा जैन तथा महिला जैन मिलन ने जैन-जैनेतर सभी बालवृद्ध युवाओं के लिये | कनिष्ठ में प्रथम स्वाती जैन रहीं। भाषण में प्रथम सौरभ जैन तथा विभिन्न प्रतियोगिताओं-लेख/ निबंध प्रतियोगिता, चित्रकला-पो- | द्वितीय विश्वदीप भारद्वाज थे। कनिष्ठ वर्ग में रितु जैन प्रथम थी। स्टर प्रतियोगिता, सूक्तियाँ लेखन (स्लोगन), भाषण/व्याख्यान | स्लोगन में 7 प्रतियोगी पुरस्कृत हुए। भाषण प्रतियोगिता तथा प्रतियोगिता, प्रश्नोत्तरी पुस्तिका प्रतियोगिता का वृदि आयोजन किया । पुरस्कार वितरण 30.9.2001 को श्री महावीर बाहुबली जिनालय गया है। यह कार्यक्रम मई में आयोजित धार्मिक शिक्षण शिविर के प्रांगण में अपार जन समूह के समक्ष हुआ। साथ ही आरम्भ हो गये थे। भगवान महावीर पर आधारित 150 | मुख्य वक्ता प्राचार्य नरेन्द्र प्रकाश (सम्पादक - जैन गजट) प्रश्नों की पुस्तिका प्रदान की गई थी जिसे 20 सितम्बर तक भरकर ने कहा 'भगवान महावीर सत्य, अहिंसा के सच्चे प्रवर्तक थे, सत्य देना था। पर्युषण पर्व के साथ ही निबन्ध तथा पोस्टर प्रतियोगिता में हित-मित प्रियवाणी सर्वोपरि है। श्री अनूप जैन एड. ने महिला की घोषणा कर दी गयी थी तथा इन्हें वरिष्ठ-कनिष्ठ वर्ग में 25 | जैन मिलन को साधुवाद देते हुए आयोजन को सकारात्मक कहा। सितम्बर तक जमा करना था, जिसमें भगवान महावीर के उपदेशों भा. जैन मिलन क्षेत्र सं. 17 के अध्यक्ष मंत्री, केन्द्रीय उपाध्यक्ष, की सार्थकता को भाषा तथा कला के द्वारा अभिव्यक्त करना था। | संयोजक फिरोजाबाद जैन मेले के संरक्षक रामबाबू जैन 'राजा' भाषण प्रतियोगिता, पुरस्कार वितरण के साथ 30 सितम्बर को रखी अध्यक्ष, मंत्री तथा डॉ. पाराशर, डॉ. अशोक तिवारी, डॉ. चन्द्रवीर गयी थी, जिसमें जैन-जनेतर सभी प्रतियोगी आमंत्रित थे। । जैन आदि के सान्निध्य में यह आयोजन हुआ। वयोवृद्ध समाज
प्रश्नोत्तर प्रतियोगिता में 400 से अधिक प्रतिभागी थे, सेविका बहिन चन्द्रकुमारी जैन, म. जैन मिलन की अध्यक्षा डॉ. सर्वाधिक प्राप्तांक लेकर श्रीमती चन्द्रप्रभा जैन ने भगवान महावीर | विमला जैन, डॉ. रश्मि जैन, श्यामा रानीवाला, ज्योत्सना, सत्या, का स्वर्णिम चित्र पुरस्कार स्वरूप प्राप्त किया। 130 अंक प्राप्तांक शशि, अरुणा, अंगूरी जैन आदि ने इस आयोजन को कार्यान्वित लाने वाले 25 प्रतियोगी थे जिन्हें प्रथम पुरस्कार तथा प्रमाण-पत्र किया। दिया गया।
डॉ. विमला जैन अध्यक्षा - महिला जैन मिलन,1344 सुहागनगर, फिरोजाबाद
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क्षुधा-परीषह
स्व. पं. जगन्मोहनलाल जी शास्त्री
मोक्षमार्ग के यात्री साधुजनों को अनेक विपत्तियाँ सहज ही आती ग्रीषम काल पित्त अति कोपै लोचन दीप फिरै गलबाहीं। है। तथापि मोक्षपथ का पथिक इन सभी बाधाओं पर विजय प्राप्त नीर न चहै सहै ऐसे मुनि जयवन्तो बरतो जगमाहीं। कर अपने गन्तव्य की ओर सहज प्रयाण करता है।
क्षुधा के सम्बन्ध में - ___ मोक्षमार्ग में आने वाली बाधाएँ अनेक प्रकार की हैं -
अनशन ऊनोदर तप पोषत पक्ष मास दिन बीत गए हैं, (1) कुछ बाधाएँ तो शरीर सम्बन्धी हैं जो स्वयं उत्पन्न होती जो नहिं बनी योग्य भिक्षा विधि सूख अंग सब शिथिल भए हैं। हैं, जैसे- रोग, व्याधियाँ, अस्वस्थता, जरा आदि की बाधाएँ।
ऐसी दुसह भूख की वेदन सहत साधु नहिं नेक नए हैं, (2) कुछ आगन्तुक बाधाएँ हैं जो ऋतुपरिवर्तन, क्षेत्र परिवर्तन तिनके चरण कमल की प्रतिदिन हाथ जोड़ हम पाँय परे हैं। तथा सहयोगियों की प्रतिकूलता से आती हैं।
उक्त वर्णन से साधु के क्षुधा-परीषह का पूर्ण दिग्दर्शन हो जाता (3) कुछ बाधाएँ अन्य जन्तु प्राणियों द्वारा आती हैं, जो | है। अध्यात्मनिष्ठ मुनिजन देह की उपेक्षा करते है, उसे अपनी साधना वनवासी साधुओं को सहज प्राप्त होती रहती हैं।
में सहायक तो बनाते हैं, पर उसके वश होकर देह-साधना नहीं करते। (4) कुछ बाधाएँ विपरीत बुद्धि वाले स्वार्थी लोगों द्वारा उत्पन्न | क्षुधा-परीषह सहन करने वाले व्यक्ति अन्त समय की सल्लेखना को की जाती है।
भी सुखपूर्वक साध सकते हैं। ___(5) कुछ बाधाएँ शत्रुभाव रखने वाले धर्मद्वेषी व्यक्तियों द्वारा सल्लेखना देहान्त के समय के लिये अमृततुल्य है। कहा है - आती है।
'अन्तःसमाधिमरणं तपः फलं सकलदर्शिनः स्तुवते'। अर्थात् जीवन ___ इन सम्पूर्ण बाधाओं को जिन दो भागों में आचार्या ने विभक्त के अन्त में सल्लेखना जीवन भर की तपस्या का फल है, ऐसा किया है वे हैं- परीषह और उपसर्ग। उपसर्ग परकृत बाधा है, पर परीषह सकलदर्शी भगवान् केवली ने कहा है। अथवा सम्पूर्ण दर्शन जो तो स्वयं आगत बाधा है। निर्विकार निरपराध मुनिजन जो स्वयं किसी आस्तिक हैं जीव का सद्भाव (अस्तित्व) मानते हैं, वे भी कहते हैं से बैर नहीं करते, तथापि मिथ्यादृष्टि जन अपने विविध विकारी कि जीवन भर की तपस्या का फल समाधिमरण ही है। परिणामों के कारण उन पर भी अनेक प्रकार के प्रहार करते हैं। साधुजन | भगवती आराधना में आचार्य शिवकोटि ने लिखा है कि समताभाव से उसे सहन कर अपने कर्म की निर्जरा करते हैं। समाधिसहित मरण करने वाला नियम से सात-आठ भव में मुक्ति
सब परीषहों में आदि परीषह क्षुधा-परीषह माना गया है। क्षुधा | गामी होता है। यह सहज संभाव्य है कि अन्तसमय क्षुधा तृषादि की अनादि कालीन शरीर की सहयोगिनी बाधा है जो एकेन्द्रिय से लेकर बाधाएँ नियम से उपस्थित होती हैं। शरीर क्षीण (बलहीन) होने से पंचेन्द्रिय पर्यन्त चारों गति के जीवों को प्राप्त है। उसका शमन करने बाधाएँ सहना कठिन प्रतीत होता है, तथापि जिसने पूर्वावस्था में क्षुधाका अपनी-अपनी परिस्थिति के अनुसार सभी प्रयत्न करते हैं, पर परीषह-जय को अपनी साधना का मुख्य अंग बनाया है वह देहान्त वे उसपर विजय प्राप्त नहीं कर पाते। सम्पूर्ण जीवन उस एक बाधा के समय उक्त बाधाओं से विचलित नहीं होता। थोड़ा-सा भी उपदेश को शमन करने में ही बीत जाता है, पर उसका शमन नहीं होता। उसकी कमजोरी में अवलम्ब बनकर साहस उत्पन्न कर देता है। अनन्तानन्त जन्म इस जीव के अनादि से हुए हैं और जब तक संसार- | आत्माराधना करने का इच्छुक अपनी दृष्टि बाहर से मोड़ता है दशा है तब तक यह बाधा नहीं जाएगी। वह शरीर धर्म बन गई है। जैसे अपने गृहकार्य में तत्परता से संलग्न व्यक्ति का ध्यान उस समय उस पर विजय प्राप्त करने का एक मात्र उपाय क्षुधा-परीषह का जीतना | पड़ौसी की गतिविधि पर, उसके सुख-दुख या हानि-लाभ पर नहीं है, वह अन्य उपायों से शमन नहीं की जा सकेगी। जैन साधुओं का जाता, इसी प्रकार आत्माराधक देह को पड़ौसी समझता है, उससे आहार इतने नियमों और नियंत्रणों से साध्य होता है कि जिससे वे राग-द्वेष-मोह नहीं करता, इसीलिए शरीर पर आने वाली बाधाएँ उसे क्षुधा के वशगत नहीं होते।
आत्माराधना से नहीं हटा पातीं। अनशन, ऊनोदर आदि तप उसी क्षुधा-परीषह को जीतने के भेदज्ञानी अर्थात् देहात्म भेद-विज्ञान का धनी ही आत्माराधना लिये ही करते हैं। अनेक प्रकार के व्रत-उपवास-वेला-तेला आदि तथा में समर्थ होता है, वह व्यग्र नहीं होता। मुनिजनों का आहार परघर पर्व विशेष अर्थात् दशलक्षण पर्व तथा षोडशकारणव्रत, रत्नत्रय, होता है। वे आरंभ-परिग्रह के सर्वथा त्यागी हैं, मन-वचन-काय से आष्टाह्निक आदि पर्वो पर स्वयं स्वेच्छा से उपवास करते हैं। वे आहार तथा कृत-कारित-अनुमोदना से (3x3=9 भंगों से) आरंभ के प्रति के वश में नहीं हैं, किन्तु आहार उनके वश में है। यद्यपि यह सहज मुनि किञ्चिन्मात्र भी संबंध नहीं रखते। ऐसी अवस्था में देह के लिये ही शारीरिक बाधा है, परन्तु उन पर हावी नहीं है।
अत्यावश्यक भोजन भी उनके लिए उपेक्षणीय बन जाता है। तृषा और क्षुधा-परीषह के संबंध में 'बाईस परीषह' नामक जैनागम की आज्ञाप्रमाण विधि से ही प्राप्त अन्न को वे ग्रहण काव्य में बहुत स्पष्ट उसका स्वरूप बताया है। लिखा गया है- करते हैं। उनका आहार केवल देह को संयमसाधना का माध्यम बनाने
पराधीन मुनिवर की भिक्षा परघर लेय कहैं कुछ नाहीं। के लिये है, शरीर-पोषण के लिये नहीं। यही कारण है कि भोजन दिन
प्रकृति विरुद्ध पारणा भुंजत बढ़त प्यास की त्रास तहाँ ही। | में केवल एक बार ही होता है, यथाप्राप्त ही लेते हैं, याचनारहित, 8 अक्टूबर 2001 जिनभाषित -
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रसरहित ही लेते हैं। रसवान भी आहार प्राप्त हो तो उसके स्वाद ग्रहण | बाधाएँ सही हैं, उनका स्मरण करते हैं, और इन आधारों पर उस वेदना में लालसा या लोलुपता नहीं होती।
को समतापूर्वक सहन करते हैं। वैसे तो सभी प्राणी भूख-प्यास की बड़ा कठिन है जैन मार्ग। स्वादिष्ट आहार जीभ के माध्यम से वेदना से पीड़ित हैं, जो उपाय कर सकते हैं वे कुछ क्षणिक उपायों ही पेट में जाता है, पर जीभ की नहीं सुनना, रूक्षाहार और स्निग्ध से कुछ समय को (कृत्रिम उपायों से) शमन करते हैं। कुछ योग्यआहार में भेद नहीं करना-एक से राग और अन्य से द्वेष नहीं करना। अयोग्य, भक्ष्य-अभक्ष्य का विचार न कर उन बाधाओं को शमन करने राग-द्वेष की उत्पत्ति तो तब ही होती है जब स्वाद इष्ट हो, और रूक्ष की चेष्टा करते हैं। कुछ प्राणी साधनों के अभाव में रोते-बिलखते दीन अनिष्ट हो। इष्ट-अनिष्ट की कल्पना राग द्वेष के आधार पर होती है। हुए उसे सहते हैं। सहना तो सभी को अनिवार्य है पर साधुजन उन वीतरागी साधु को वीतरागता के आधार पर ही न कोई पदार्थ इष्ट बाधाओं का समतापूर्वक मुकाबला करते हैं। उनका परिणाम विचलित होता है और न कोई अनिष्ट होता है।
नहीं होता। वे परमधैर्यरूपी जल से ही तृषा बुझाते हैं, शास्त्र के अमृत जिनोपदेश सदा उनके समक्ष रहता है। वे तत्त्वज्ञानी हैं अतः | रूप उपदेश के भोजन से ही क्षुधावेदना मेंटते हैं। प्रत्येक पदार्थ को तात्त्विक दृष्टि से ही देखते हैं। इसी से उनमें राग- धन्य है वे वीतरागी योगी, जो इन क्षुधा-तृषा वेदनाओं को द्वेष भाव न होकर वीतराग भावों की ही अभिवृद्धि होती रहती है। आहार समताभावपूर्वक दूरकर, आत्मनिष्ठ हो, परमार्थ का साधन करते हैं। की कांक्षा, तृषा की वेदना होने पर वे मुनि-परम्परा में होने वाले कठिन | ऐसे त्रिलोकवन्द्य योगीश्वरों के चरणों में बार-बार नमस्कार। तपस्वियो के चारित्र को ध्यान में रखकर धैर्य धारण करते हैं।
वात्सल्य रत्नाकर (तृतीय खण्ड) नरकों में, तिर्यग्गति में कैसी-कैसी भयंकर भूख-प्यास की
से साभार
बालवार्ता : बोधकथाएँ अनपढ़ बहू और शिक्षित सास । सरल प्रश्न का अजीब उत्तर एक परिवार में तीन ही सदस्य थे, पति-पत्नी और उन दोनों
घटना बादशाह अकबर के समय की है। बादशाह का दरबार का एक बेटा। जवान होने पर धूमधाम से बेटे का विवाह कर दिया
लगा हुआ था। बीरबल राजदरबार में बैठे हुए थे। एक व्यक्ति गया। बहू घर में आई। वह देखने में बहुत सुंदर थी। बोलती भी
| राजदरबार में आया। उसने बादशाह और मंत्री दोनों को एक जगह बहुत मीठा थी, पर अपढ़ थी। अपढ़ ही नहीं, नासमझ भी थी।
पाकर प्रसन्नता व्यक्त की। दोनों को उसने प्रणाम किया तथा दोनों एक दिन पड़ौस में किसी के यहाँ मौत हो गयी थी। सास
के समक्ष उसने प्रश्न किया राजदरबार में, कि- 'सत्ताईस में से दस किसी कार्य में व्यस्त थी। उसने बहू को भेजा, वहाँ सान्त्वना देने के लिये। बहू वहाँ गयी और शाब्दिक सान्त्वना देकर आ गई। उसने
निकाल दिये जायें तो कितने बचेंगे?' न दुख व्यक्त किया और न वह रोई। सास ने कहा/समझाया कि
सभी लोग सोच में पड़ गये कि सत्ताईस में से दस चले वहाँ रोना आवश्यक था बहू।
गये तो शेष सत्रह बचेंगे। यह तो बहुत आसान सी बात है। लेकिन योग की बात है अचानक दूसरे ही दिन पड़ोस के एक अन्य यदि इतना आसान गणित होता, तो राजदरबार में वह व्यक्ति क्यों घर में पुत्र का जन्म हुआ। सास ने फिर बहू को वहाँ भेजा। सास पूछता? सभी एक दूसरे की ओर देखने लगे। किसी के समझ में के बताये अनुसार वहाँ पहुँचते ही बहू ने रोना शुरू कर दिया। कुछ नहीं आया कि रहस्य क्या है? देर रोती रही, पश्चात् अपने घर लौट आई। घर लौटी, तो सास के बीरबल चुप थे। अकबर ने इशारा किया तो हाजिर जवाब पूछने पर उसने सास को बताया कि आपके कहे अनुसार मैंने वहाँ | बीरबल बोले- राजन! सत्ताईस में से दस निकल जाने पर कुछ नहीं जाते ही रोना शुरू कर दिया था।
बचेगा। बीरबल का उत्तर सुनकर सभी भौंचक्के रह गये। कुछ लोग सास ने बहू को फिर समझाया 'क्या करती हो बहू, वहाँ तो
हँसने लगे कि ये कौन से स्कूल में पढ़कर आये हैं? इनके गुरुजी तुझे प्रसन्न होकर गीत गाना चाहिए था, अब आगे ध्यान रखना।'
कौन हैं? इन्हें इतना भी ज्ञान नहीं। बहू ने सास की यह बात भी बड़े ध्यान से सुनी। फिर एक दिन
तब बीरबल ने समझाया कि बात सिर्फ गणित हल करने की बात है, वह बहू ऐसे घर में गयी जहाँ आग लग गई थी। उसने
की नहीं है। बात अनुभव की है। सत्ताईस नक्षत्र होते हैं। उनमें से सास के कहे अनुसार वहाँ गीत गाये और प्रसन्नता व्यक्त की। अनपढ़ बहू के समयोचित कार्य न करने से उसके कार्यों की
दस नक्षत्र ऐसे हैं जिनमें वर्षा होती है। यदि वे नक्षत्र निकाल दिये सभी ने निंदा की। वह सर्वत्र हँसी की पात्र बनी। आवश्यक कार्यों
जायें तो वर्षा के अभाव में फसल नहीं होगी। अकाल की स्थिति को समयोचित करने की लिये बुद्धिमत्ता आवश्यक है। विवेक और
हो जायेगी और सभी का जीवन समाप्त हो जायेगा। तब पृथ्वी पर बुद्धि के अभाव में ऐसी ही दशा हर अज्ञानी की है। आवश्यक कार्य
| कुछ भी शेष नहीं बचेगा। करना नहीं और वासना का दास बना रहता है। आवश्यक कार्य है | इसी प्रकार त्रस पर्याय मिलने के उपरान्त मनुष्यभव यूँ ही - मन और इन्द्रियों को समय पर (विषयों के आधीन होते समय) | रत्नत्रय की आराधना के बिना निकाल दो, तो फिर कल्याण करने वश में करना। जो ऐसा नहीं करते, महर्षि उनके क्रिया-कलाप देखकर | का अवसर कभी नहीं मिलेगा। हँसते हैं।
'विद्याकथाकुंज' से साभार 'विद्याकथाकुञ्ज' से साभार |
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कर्मों का प्रेरक स्वरूप
प्रो. रतनचन्द्र जैन
आगम में निमित्त दो प्रकार के
के लिये प्रभावित नहीं करते, अपितु कर्म प्रेरक हैं पर अपराजेय नहीं। वे आत्मा को बतलाये गये हैं - उदासीन और प्रेरक।
| जब वह स्वयं रागादिरूप परिणत जो किसी द्रव्य को अपनी ओर से अभिभूत करने की चेष्टा करते हैं, किन्तु जब उनका
होने की चेष्टा करता है तब वे उसमें किसी क्रिया में प्रवृत्त नहीं करते,
प्रभाव तीव्र नहीं होता, उस समय पौरुष करके सहायता कर देते हैं। 'सहायता कर अपितु स्वयं प्रवृत्त होने पर सहायता प्रतिरोध किया जाय, तो वे हावी नहीं हो पाते और | देते हैं' यह कहना भी उचित नहीं मात्र करते हैं, वे उदासीन निमित्त
| है। वे (पुद्गलकर्मरूप निमित्त) वहाँ कहलाते हैं। जैसे धर्मद्रव्य जीव और जा सकता है।
मात्र उपस्थित रहते हैं, यह कहना पुद्गल को अपनी ओर से चलने में
ही उचित है। प्रवृत्त नहीं करता (अर्थात् वह ऐसा प्रभाव उत्पन्न नहीं करता कि जीव | यह मत समीचीन नहीं है। आत्मा के साथ संयुक्त पुद्गलकर्म स्वयं चल पड़े), बल्कि स्वयं चलने में प्रवृत्त होने पर सहायता मात्र | धर्म, अधर्म, आकाश, काल तथा गुरु आदि निमित्तों से भिन्न हैं। करता है, अतः वह उदासीन निमित्त है। किन्तु जो निमित्त ऐसा प्रभाव । इनके समान वे जीव के स्वतः परिणमन में उदासीनरूप से सहायता उत्पन्न करते हैं कि द्रव्य-विशेष किसी कार्य में स्वयं तो प्रवृत्त न | मात्र नहीं करते, बल्कि उसे इस प्रकार प्रभावित करते हैं कि वह हो, किन्तु उनके प्रभाव से प्रवृत्त होने लगे वे प्रेरक निमित्त कहलाते स्वाभाविक क्रिया छोड़कर स्वभाव से विपरीत क्रिया करने लगता हैं। उदाहरणार्थ, जीव मोहरागादि रूप से परिणत होने की स्वयं चेष्टा है। कर्म इसलिये प्रेरक नहीं कहलाते कि उनकी ईरण (गति) क्रिया नहीं करता, न यह उसके स्वभाव के अनुकूल है, जैसा कि आचार्य की प्रकृष्टता जीव के रागादिरूप परिणमन व्यापार में सहायता मात्र अमृतचन्द्र ने कहा है - आत्मात्मना रागादीनामकारक एव करती है, बल्कि इसलिये कहलाते हैं कि वे अपनी ओर से ऐसा प्रभाव (आत्मा स्वयं रागादि का अकर्ता ही है) किन्तु पुद्गलकर्म उदय में आकर उत्पन्न करते हैं, जिससे जीव स्वभाव से विपरीत रागादिरूप परिणमन ऐसा प्रभाव उत्पन्न करते हैं कि जीव मोहरागादिरूप से परिणत हो करने लगता है। यद्यपि परिणमन शक्ति जीव में ही है, तथापि जाता है। अतः पुद्गलकर्म प्रेरक निमित्त हैं। उपासकाध्ययन में कहा | कर्मजनित प्रभाव के बिना जीव के परिणमन में रागादि विकार नहीं गया है -
आ सकता। वह कर्मोदय के प्रभाव से ही संभव है। प्रेर्यते कर्म जीवेन जीवः प्रेर्यत कर्मणा।
धर्मादि द्रव्य एवं गुरु आदि निमित्त उपादान के उसी गुण के एतयोः प्रेरको नान्यो नौनाविक समानयोः।।
परिणमन में सहायता करते हैं, जो उसमें स्वभावतः है। उसमें न कोई अर्थ - जीव कर्म को प्रेरित करता है, कर्म जीव को। दोनो का | बाधा पहुँचाते हैं, न किसी अस्वाभाविक दशा की उत्पत्ति में हेतु बनते सम्बन्ध नौका और नाविक के समान है। इनका कोई तीसरा प्रेरक नहीं हैं। किन्तु कर्म ठीक इसके विपरीत हैं। वे जीव के स्वभावभूत गुण
के परिणमन में सहायता नहीं करते, अपितु बाधा पहुंचाते हैं तथा पूज्यपाद स्वामी ने भी कहा है, 'संसारे परिभ्रमन् जीवः अस्वाभाविक दशा की उत्पत्ति में हेतु बनते हैं। इसीलिए उनके नाम कर्मयन्त्रप्रेरित: पिता भूत्वा भ्राता पुत्रः पौत्रश्च भवति।' अर्थात् ज्ञानावरण (ज्ञान को आवृत्त करने वाला), दर्शनावरण (दर्शन को संसार में भटकता हुआ जीव कर्मरूपी यंत्र से प्रेरित होकर कभी पिता आवृत्त करने वाला), मोहनीय (मोहित करने वाला), अन्तराय (विघ्न बनता है, तो कभी पिता बनकर भाई, पुत्र या पौत्र बनता है। उपस्थित करने वाला) आदि है।'
किन्तु कुछ विद्वान कर्मों को भी धर्मादि द्रव्यों के समान उदासीन | ज्ञानावरण कर्म आत्मा के ज्ञान गुण को आवृत ही करता है, ही मानते हैं, प्रेरक नहीं। उनके अनुसार जैसे धर्मादि द्रव्य जीव के तभी अज्ञान उत्पन्न होता है। ऐसा नहीं है कि आत्मा में स्वभाव गति आदि क्रिया में स्वयं प्रवृत्त होने पर सहायता मात्र करते हैं, वैसे से अज्ञान नामक गुण है और ज्ञानवरण कर्म उसी के परिणमन में ही जब जीव रागादिरूप से परिणत होने के लिये स्वयं प्रवृत्त होता सहायता करता है। इसी प्रकार मोहनीय कर्म आत्मा के श्रद्धा, ज्ञान है तब पुदगलकर्म उसमें सहायता मात्र करते हैं। आगम में और चारित्र गुणों के स्वाभाविक परिणमन में बाधा डालकर उनके पुद्गलकर्मों को प्रेरक कहा गया है उसकी वे दूसरी ही व्याख्या करते मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान एवं मिथ्याचारित्र के रूप में परिणत होने का हैं। वे कहते हैं पुद्गल कर्म, नोकर्म, मेघ, बिजली, वायु आदि जड़ कारण बनता है। ऐसा नहीं है कि मिथ्यादर्शनादि आत्मा के स्वभावभूत वस्तुएँ क्रियावान् (सक्रिय) हैं। उनकी ईरण (गति) क्रिया की प्रकृष्टता धर्म हैं और आत्मा जब इन धर्मों के रूप में स्वयं परिणत होने के अन्य द्रव्यों के क्रिया व्यापार के समय उनके बलाधान में निमित्त होती लिये उद्यत होता है तब मोहनीय कर्म उसमें सहायता मात्र कर देता है इस बात को ध्यान में रखकर ही उन्हें प्रेरक कहा गया है। बलाधान के विषय में भी उनका मत है कि कार्योत्पत्ति के समय बल का आधान धर्मादि द्रव्य जीव के स्वभाव का घात (आच्छादन एवं स्वयं उपादान करता है, किन्तु उसमें निमित्त अन्य द्रव्य होता है। | विपर्यय) नहीं करते, किन्तु पुद्गल कर्म जीव के स्वभाव का घात करते
तात्पर्य यही है कि पुद्गल कर्म जीव को रागादिरूप परिणत होने | हैं, इसीलिए ज्ञानावरणादि चार कर्मों को घाती कर्म कहा गया है -
है।
10 अक्टूबर 2001 जिनभाषित
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'केवलणाण-दसण-सम्मत्त-चारित्त- वीरियाणमणेयभेय- | स्थिति में मुक्तात्माओं में भी भाव क्रोधादि उत्पन्न होने लगेंगे। किन्तु भिण्णाणं जीवगुणाणं विरोहित्तणेण तेर्सि घादिववदेसादो।'11 यह आगम विरुद्ध होने से मान्य नहीं है। अतः सिद्ध है कि जीव में इसके अतिरिक्त जीव के निष्क्रिय रहने पर धर्मादि द्रव्य उसे गति | स्वभावभूत कथंचित्परिणामित्व शक्ति है। यहाँ आचार्यश्री ने जीव आदि क्रियाओं में प्रवर्तित नहीं करते, किन्तु कर्म जीव की निष्क्रिय को सर्वथा परिणामी न बतलाकर कथंचित् परिणामी बतलाया है अवस्था में ही उसे रागादिरूप परिणत होने के लिये उद्दीप्त करते हैं। जिसका फलितार्थ यह है कि वह कथंचित् अपरिणामी भी है और यहाँ तक कि कभी-कभी प्रतिरोध किये जाने पर भी जीव को रागादि कथंचित् अपरिणामी होने से (रागादि की शक्ति स्वयं में न होने से) के वशीभूत कर देते हैं, जिससे उच्चभूमिका में स्थित साधक को ही रागादिरूप परिणमन के लिये कर्मोदय रूप निमित्त की आवश्यकता भी समाधि से च्युत होकर भक्ति आदि शुभराग में लगना पड़ता है। इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि कर्मोदय रूप निमित्त कथंचित् है। और निम्न भूमिका में स्थित श्रावक यह जानते हुए भी कि विषय अपरिणामी को परिणमाता है अतः कर्म उद्दीपक निमित्त है। धर्मादिद्रव्य सुख हेय है, कर्मोदय के वशीभूत हो विषय-सेवन के लिये विवश कथंचित् अपरिणामी को नहीं परिणमाते, अपितु जो गत्यादि में स्वयं होते हैं। ये तथ्य प्रमाणित करते हैं कि कर्म धर्मादि द्रव्यों से भिन्न परिणत हो जाता है उसके ही गत्यादिपरिणाम में सहायता करते हैं। प्रकार के निमित्त हैं जिनका स्वभाव उदासीनरूप से सहायक होना इसलिये वे उदासीन हैं। नहीं है, बल्कि जीव के स्वभाव का घात करना तथा उसे परतन्त्र बनाने
| परिणाम विकार के हेतु का प्रयत्न करना है। इस अर्थ में ही उन्हें प्रेरक कहा गया है।
तात्पर्य यह कि कर्मों के मोहरागात्मक स्वभाव से प्रभावित आगम में जो यह कहा गया है कि जीव कर्मोदय के निमित्त
होकर मोहरागात्मक हो जाना ही जीव का कंथचित् परिणामी होना है। से स्वयं रागादिरूप परिणत होता है, कर्म उसे बलपूर्वक नहीं परिणमाते, यह जीव की कथंचित् परिणामित्व शक्ति को दर्शाने के
यह उसकी स्वभावभूत शक्ति है। यही स्वपरप्रत्ययपरिणमन है। लिये कहा गया है अर्थात् यह बतलाने के लिये कि जीव में कर्मों की
इससे इस तथ्य की विज्ञप्ति होती है कि आत्मा के परिणामों में जो
रागादि विकार आते हैं वे कर्मोद्दीपित ही हैं। आचार्य अमृतचन्द्र ने रागादि प्रकृति से प्रभावित होने की स्वाभाविक शक्ति है इसलिये वह उससे प्रभावित होकर रागादिरूप परिणत हो जाता है। यदि यह
साफ कहा है कि आत्मा के परिणाम में जो मिथ्यादर्शनादिरूप विकार
आता है वह परद्रव्य (कर्म) से ही उत्पन्न होता है - 'सः (त्रिविधः शक्ति न होती तो कर्म उसे बलपूर्वक प्रभावित न कर पाते। इसी
परिणामविकारः) तु तस्य स्फटिकस्वच्छताया इव परतोऽपि प्रभवन् स्वभावभूत परिणमन शक्ति को दृष्टि में रखकर जीव को रागादिभावों
दृष्टः ।'18 तथा 'तस्मिन्निमित्तं परसङ्ग एव।'19 का उपादानकर्ता तथा कर्मोदय को निमित्तमात्र कहा जाता है। 4
___ पूर्व में निर्देश किया गया है कि कर्मों का निमित्तस्वभाव विशेष स्वपरप्रत्ययपरिणमन
प्रकार का है, सामान्य प्रकार का नहीं। वे ऐसे निमित्त हैं जिनके कारण किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि रागादिभाव भी जीव के आत्मा स्वाभाविक परिणमन छोड़कर विपरीत परिणमन करने लगता स्वभाव से ही उद्भूत होते हैं और कर्म उनकी उत्पत्ति में धर्मादिद्रव्यों है। इसे आचार्य अमृतचन्द्र ने इस प्रकार समझाया है- 'जैसे नीले, के समान उदासीनरूप से सहायता मात्र करते हैं। यदि ऐसा हो तो हरे और पीले पदार्थों के सम्पर्क से स्फटिक पाषाण के स्वच्छ स्वरूप रागादिभाव जीव के स्वभाव सिद्ध होंगे और उनकी उत्पत्ति के लिये में नील, हरित और पीत विकार आ जाते हैं, वैसे ही मिथ्यादर्शनकर्मरूप निमित्त की आवश्यकता सिद्ध न होगी, क्योंकि गत्यादिरूप ज्ञान-चारित्र स्वभाववाले मोहकर्म के संयोग से आत्मा के निर्विकार परिणमन के लिये धर्मादिद्रव्य तथा अन्य स्वाभाविक परिणमन के लिये | परिणाम में मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्या चारित्र ये तीन विकार केवल कालद्रव्यरूप निमित्त आवश्यक है। आत्मा का रागादिभावरूप उत्पन्न हो जाते हैं। 20 परिणमन स्वपरप्रत्ययपरिणमन है जो कुछ स्वतः होता है, कुछ कर्मों | चूँकि कर्मों का सम्पर्क ही निर्विकार आत्मा में विकारोत्पत्ति का के निमित्त से होता है। इस दृष्टि से आत्मा और पुद्गल कथंचित् ही हेतु है, अन्यथा उसमें विकार उत्पन्न नहीं हो सकता, अतः सिद्ध परिणामी हैं, कथंचित् अपरिणामी हैं। इसे आचार्य जयसेन ने है कि कर्म उदासीन निमित्त नहीं हैं, उद्दीपक हैं। निम्नलिखित विवेचन में स्पष्ट किया है
शक्ति का घात होने पर ही जीव रागादिरूप परिणत होता है 'यदि यह कहा जाए कि पुद्गलकर्मरूप द्रव्यक्रोध उदय में यहाँ एक महत्त्वपूर्ण बात ध्यान में देने योग्य है। कर्मोदय होने आकर जीव को बलपूर्वक भावक्रोधरूप परिणमा देता है तो प्रश्न है | पर जीव स्वयं रागादिरूप परिणत होता है, इसका तात्पर्य यह नहीं कि वह अपरिणामी जीव को परिणमाता है या परिणामी को? अपरिणामी है कि वह बिना किसी प्रतिरोध के परिणत हो जाता है। स्फटिक के को तो परिणमा नहीं सकता, क्योंकि जो शक्ति वस्तु में स्वतः नहीं समान परिणामी होते हुए भी वह स्फटिकवत् जड़ नहीं है कि कर्मोदय है उसे कोई दूसरा उत्पन्न नहीं कर सकता। जपापुष्पादि पदार्थ जिस होने पर बिना किसी प्रतिरोध के तटस्थभाव से रागादिरूप परिणम प्रकार स्फटिक आदि में उपाधि उत्पन्न कर देते हैं वैसे लकड़ी-खम्भे जाय। रागादिरूप परिणत होने में स्वभाव से च्युत होना पड़ता है, आदि में नहीं कर सकते, क्योंकि वे स्वतः परिणामी नहीं हैं। इसके जैसा कि श्री अमृतचन्द्र सूरि ने कहा है- 'परद्रव्येणैव... विपरीत यदि कर्म एकान्ततः परिणामी जीव को परिणमाते हैं तो उदय रागादिनिमित्तभूतेन शुद्धस्वभावात्प्रच्यवमान एव रागादिभिः में आये हुए द्रव्यक्रोधरूप निमित्त के बिना भी वह भाव क्रोधरूप परणम्येत। 21 स्वभाव सुख का हेतु है, विभावभाव (रागादिभाव) परिणमित हो सकता है, क्योंकि वस्तु में जो शक्तियाँ हैं वे पर की दुख के कारण हैं। कोई भी जीव सुख को छोड़कर दुःख स्वीकार नहीं उपेक्षा नहीं करती अर्थात् यदि रागादिभाव जीव में ही शक्ति रूप | करना चाहता। हम देखते हैं कि प्रायः लोग अशान्ति से बचने के में विद्यमान हो तो कर्मरूप निमित्त की आवश्यकता नहीं होगी। इस | लिये क्रोधादि के अवसरों को टालने का ही प्रयत्न करते हैं। असमर्थ
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होने पर ही उनके वशीभूत होते हैं। अतः कर्मोदय होने पर जीव उनके | है। 27 रागादि प्रभाव का प्रतिरोध ही करता है। जब परास्त हो जाता है तभी | इस कथन से भी यही प्रकट होता है कि कर्म जीव को कभीस्वभाव को छोड़कर रागादिरूप परिणत होता है। इस प्रकार कर्मों की कभी इतना अशक्त बना देते हैं कि वह उनके चंगुल से छूटने का शक्ति आत्मशक्ति को अभिभूत करने वाली है, जैसा कि पौरुष भी नहीं कर पाता। जब उनकी शक्ति मन्द होती है तभी उन अमृतचन्द्राचार्य ने कहा है - 'आत्मा हि ज्ञान दर्शनसुखस्वभावः पर प्रहार सम्भव होता है। संसारावस्थायामनादिकर्मक्लेशसङ्कोचितात्मशक्तिः '22 अर्थात् आत्मा सार यह है कि यद्यपि जीव कर्मोदय के निमित्त से स्वयं ही ज्ञानदर्शनसुखस्वभाव है, किन्तु संसारावस्था में अनादि कर्मों के उदय रागादिरूप परिणत होता है, तथापि कर्मोदय के दुर्धर्ष प्रभाव से ने उसकी शक्ति को संकुचित कर दिया है। इसीलिए ज्ञानवरणादि चार पराजित होने के बाद ही परिणत होता है। अतः उसका स्वयं परिणत कर्मों को घाती (आत्मस्वभावघातक) कहा गया है। अज्ञानी ही नहीं, होना भी विवशता का ही परिणमन है। इससे स्पष्ट होता है कि कर्म ज्ञानी भी कर्मों की अभिभावक शक्ति से परास्त हो जाते हैं यह पूर्व उदासीन नहीं है, अपितु अत्यंत आक्रामक हैं। में बतलाया जा चुका है। पंडित टोडरमल जी कहते हैं - 'जब कर्मों कर्मों को शत्रु की उपमा दी गई है। शत्रु उदासीन नहीं होता, का तीव्र उदय होता है तब पुरुषार्थ नहीं हो सकता, साधक ऊपर आक्रामक होता है, सहायक नहीं होता, बाधक होता है। उससे युद्ध के गुणस्थानों से भी गिर जाता है।23 पंडित आशाधरजी का कथन होता है और उसे जीत लेने पर व्यक्ति विजेता या 'जिन' कहलाता
है। धर्मादि द्रव्यों को शत्रु की संज्ञा नहीं दी गई, क्योंकि वे उदासीन त्याज्यानजस्रं विषयान्पश्यतोऽपि जिनाज्ञया।
होते हैं, आक्रामक नहीं, मित्रवत् सहायक होते हैं, शत्रुवत् बाधक मोहत्त्यक्तुमशक्तस्य गृहिधर्मोऽनुमन्यते।।24
नहीं। इस प्रकार कर्मों के प्रेरक होने का अर्थ है उनका आक्रामक, अर्थात् जिनेंद्रदेव के उपदेश से विषयों को निरन्तर त्याज्य उद्दीपक, अभिभावक, प्रयोजक, बाधक या घातक होना। इसी अर्थ समझते हुए भी जो चारित्रमोह के उदय से उनका त्याग करने में में उन्हें आगम में प्रेरक कहा गया है, अन्य किसी अर्थ में नहीं। यह असमर्थ हैं, उन सम्यग्दृष्टि भव्य जीवों के लिये गृहस्थधर्म की अनुमति उपर्युक्त प्रमाणों एवं युक्तियों से सिद्ध है। व्युत्पत्ति के अनुसार भी दी गई है।
प्रेरक शब्द का यही अर्थ है। और उदासीन शब्द का प्रतिपक्षी होने यह कथन दर्शाता है कि कर्मोदय जीव की शक्ति का हरण के कारण भी उसका यही अर्थ फलित होता है। धर्मद्रव्य के स्वरूप कर उसे असमर्थ बना देता है, तभी वह विषय वासनाओं के वशीभूत | को स्पष्ट करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैंहोता है। कर्मों की अभिभावक शक्ति कितनी भीषण है यह आचार्य 'जैसे जल मछलियों के चलते समय न तो स्वयं चलता है अमृतचन्द्र जी के निम्न वक्तव्य से प्रकट हो जाता है
न उन्हें चलाता है, किन्तु उदासीनरूप से उनके चलने में सहायता ___ 'इह सकलस्यापि जीवलोकस्य संसारचक्रक्रोडाधिरोपि- | करता है वैसे ही धर्मद्रव्य भी जीव और पुद्गल के चलने पर न स्वयं तस्य एकच्छत्रीकृतविश्वतया महता मोहग्रहेण गोरिव चलता है, न उन्हें चलाता है, अपितु उदासीन रूप से उनके चलने वाह्यमानस्य...।' 25
में सहायता करता है।' 28 अर्थात् यह जीवलोक जो संसाररूपी चक्र के मध्य में स्थित | इससे ज्ञात होता है कि अन्य द्रव्यों को किसी क्रिया के लिये है, समस्त विश्व पर एक छत्र राज्य करने वाले मोहरूप बलवान् पिशाच | उत्तेजित न करना, अपितु जो क्रिया वे स्वयं करते हैं, उसी में सहायता के द्वारा इस प्रकार हाँका जाता है, जैसे लोग बैल को हाँकते हैं। करना निमित्त के उदासीन होने का लक्षण है। प्रेरक शब्द उदासीन का
इस कथन में "समस्त विश्व पर एकछत्र राज्य करने वाला' प्रतिपक्षी है। यह इस बात से स्पष्ट है कि आचार्य जयसेन ने 'उदासीन' 'बलवान् पिशाच' तथा 'जीवलोक को बैल के समान हाँकने वाला' | और 'अप्रेरक' शब्दों का प्रयोग एक ही अर्थ में किया है। अतः इन शब्दों से अच्छी तरह स्पष्ट हो जाता है कि कर्मों की शक्ति कितनी अन्य द्रव्य जो क्रिया स्वयं न करे (किन्तु उत्तेजित किये जाने पर कर दुर्धर्ष है।
सके) उसे करने के लिये उत्तेजित करना या जो स्वयं करता हो उसमें इस दुर्धर्ष एवं जीव स्वभावघातक प्रकृति के कारण ही कर्मों बाधा डालना 'प्रेरक' शब्द का अर्थ है। कर्म इसी प्रकार का कार्य करते को शत्रु की उपमा दी गई है और उनको जीत लेने के कारण ही आत्माएँ है अतः वे इसी अर्थ में प्रेरक हैं। 'जिन' कहलाती हैं- 'अनेकभवगहनविषय-व्यसनप्रापणहेतून् | कर्म अपराजेय नहीं कर्मारातीन् जयतीति जिनः। 26
कर्म प्रेरक हैं, किन्तु अपराजेय नहीं है। वे आत्मा को अभिभूत कर्मों की प्रचण्ड शक्ति का ज्ञान श्री ब्रह्मदेव सूरि के
करने की चेष्टा करते हैं, किन्तु जब उनका प्रभाव तीव्र नहीं होता, निम्नलिखित विवेचन से भी होता है -
उस समय पौरुष करके प्रतिरोध किया जाय तो वे हावी नहीं हो पाते ___ "शिष्य प्रश्न करता है - संसारियों को निरन्तर कर्मबन्ध होता
और इस प्रकार के निरन्तर पौरुष से उन्हें जड़ से उखाड़ा जा सकता है, इसी प्रकार उदय भी होता है, शुद्धोपयोग का अवसर नहीं है, |
है। यह श्री ब्रह्मदेवसूरि के पूर्वोदधृत वचनों से प्रमाणित है। तब मोक्ष कैसे सम्भव है? उत्तर-जैसे शत्रु की क्षीणावस्था देखकर
इस तरह आक्रामक, बाधक, उद्दीपक, घातक, अभिभावक मनुष्य पौरुष करके उसका विनाश कर देता है, वैसे ही कर्मों की भी
आदि रूप में ही कर्म प्रेरक हैं। वे धर्मादिद्रव्यों के समान अनाक्रामक, सदा एक जैसी अवस्था नहीं रहती। उसमें प्रबलता और मन्दता होती
अबाधक, अनुद्दीपक तथा जीव की स्वभावभूत क्रिया में सहायक नहीं रहती है। अतः जब मन्दावस्था आती है तब ज्ञानी जीव निर्मल भावना
है। अतः उनसे (धर्मादिद्रव्यों से) सर्वथा विपरीत हैं। उनके इस प्रकार रूप विशेष खड्ग से पौरुष करके कर्मशत्रुओं का हनन कर डालता
प्रेरक होने से मोक्ष के अभाव का प्रसंग उपस्थित नहीं होता। यदि
12 अक्टूबर 2001 जिनभाषित
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वे अपराजेय होते, तो ऐसा होता। संक्षेप में वे कथंचित् प्रेरक हैं, सर्वथा | चारित्रमोहोदयतलवरेण गृहीतः सन् तदनुभवति।' (समयसार/ नहीं।
तात्पर्यवृत्ति, 194) संदर्भ
14. 'तस्यां परिणामशक्तौ स्थितायां स जीवः कर्ता यं परिणाममा
त्मनः करोति तस्य स एवोपादानकर्ता, द्रव्यकर्मस्तु निमित्तमात्रम्।' 1. समयसार/आत्मख्याति, 283-285
(समयसार/तात्पर्यवृत्ति 121-125) 2. उपासकाध्ययन, 106 3. सर्वार्थासिद्धि 9/7
15. 'यदुक्तं पूर्वं पुण्यपापादिसप्तपदार्थजीवपुद्गलसंयोगपरिणामनिवृत्तास्ते जो क्रियावान निमित्त प्रेरक कहे जाते हैं वे भी उदासीन निमित्तों
च जीवपुद्गलयोः कथञ्चित्मरिणामत्वे सति घटन्ते।' (वही) के समान कार्योत्पत्ति के समय सहायक मात्र होते हैं।' (जैनतत्त्व
| 16. वही/तात्पर्यवृत्ति 121-125 मीमांसा/प्रथम संस्करण/पृ.83)'
17. 'परद्रव्येणैव स्वयं रागादिभावापन्नतया स्वस्य रागादिनि
मित्तभूतेन शुद्ध स्वभावात्प्रच्यवमान एव रागादिभिः परिणवही/पृष्ठ 53 6. वही/पृष्ठ 84, 90
म्येत इति तावद्वस्तुस्वभावः।' (समयसार/ आत्मख्याति, 7. वही/पृष्ठ 54
278-279) 8. 'परपरिणतिहेतोर्मोहनाम्नोऽनुभावादविरतमनुभाव्यव्याप्तिकल्मा
18. समयसार/आत्मख्याति, 89
19. समयसारकलश, 175 षितायाः।' (समयसार कलश 3) तत्र घातीनि चत्वारि कर्माण्यन्वर्थसंज्ञया।
20. समयसार/आत्मख्याति, 89 घातकत्वाद्गुणानां हि जीवस्यैवेति वाक्स्मृतिः।। (पंचाध्यायी
21. समयसार/आत्मख्याति 278-279
22. पंचास्तिकाय /त.प्र.29 2/1002)
23. मोक्षमार्ग प्रकाशक 9/314 10. का वि अउव्वा दीसादि पुग्गलदव्वस्य एरिसी सत्ती। केवलणाणसहावो विणासिदो जाइ जीवस्स॥ (कार्तिकेयानुप्रेक्षा,
24. सागारधर्मामृत 2/1
25. समयसार/आत्मख्याति, 4 211) 11. धवला 7/2, 1, 15
26. पंचास्तिकाय/तात्पर्यवृत्ति, 1 12. एषः प्रशस्तो रागः... उपरितनभूमिकायामलब्धास्पदस्यास्था
27. बृहद्रव्यसंग्रहटीका, गाथा 36 नरागनिषेधार्थतीव्ररागज्वरविनोदार्थं वा कदाचिज्ज्ञानिनोऽपि भवति।'
28. पंचास्तिकाय/त.प्र. 85 (पंचास्तिकाय/तत्त्वप्रदीपिकावृत्ति, 136)
29. तथा धर्मोऽपि .... गच्छतां जीवपुद्गलानामप्रेरकत्वेन बहि13. 'यथा कोऽपि तस्करो यद्यपि मरणं नेच्छति तथापि तलवरेण
- रङ्गनिमित्तं भवति।' वही/तात्पर्यवृत्ति, 88
137, आराधना नगर, गृहीतः सन् मरणमनुभवति तथा सम्यग्दृष्टिः यद्यप्यात्मोत्थ
भोपाल-462003 म.प्र. सुखमुपादेयं च जानाति विषयसुखं च हेयं जानाति तथापि गीत
साँसे सँवारती हैं देह का मकान
साँसें सँवारती हैं देह का मकान। मृत्यु मिटाती है मकान के निशान।
अशोक शर्मा लहरों में बहने तक ही लगता है ऐसा जर्जर सी नैया सहती सौ-सौ तूफान।।2।।
थोड़ी सी आग वाली यह छोटी देहरी ले थोड़ी मिट्टी, हवा, पानी, आकाश आयु भर करती जाने किसकी तलाश? सूरज के उगने तक ही लगता है ऐसा। सन्ध्या से रात जुड़ी, रात से विहान।।1।।
सागर में डूबी गागर की इतनी गाथा गागर में सागर होना, सागर में गागर मैली या उजली सबकी होनी है चादर प्रतिमा के जगने तक ही लगता है ऐसा काम नहीं आती कोई भोर की अजान।।3।।
फैलाकर पंख सुनहले मन पाँखी उड़ता नायूँ मैं अम्बर सारा ले इतनी पीड़ा पंखों के झरने तक ही चलती है क्रीड़ा
साँसे सँवारती हैं देह का मकान। मृत्यु मिटाती है मकान के निशान।।
अभ्युदय निवास, 36-बी, मैत्री विहार,
सुपेला, भिलाई (दुर्ग) छत्तीसगढ़ -अक्टूबर 2001 जिनभाषित 13
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वास्तुदेव
स्व. पं. मिलापचन्द्र जी कटारिया
श्री पं. आशाधरजी ने अपने बनाये प्रतिष्ठापाठ पत्र 43 में और | है। अभिषेक पाठ के श्लोक 44 में वास्तुदेव का उल्लेख निम्न शब्दों
___ जैसा कि नेमिचन्द्र प्रतिष्ठापाठ के परिशिष्ट में वास्तुबलि विधान में किया है
नामक एक प्रकरण छपा है, वह न मालूम नेमिचन्द्र कृत है या अन्य श्री वास्तुदेव वास्तूनामधिष्ठातृतयानिशम्।
कृत? उसमें वास्तुदेवों के नाम इस प्रकार लिखे हैकुर्वन्ननुग्रहं कस्य मान्यो नासीति मान्यसे।।44।।
'आर्य, विवस्वत्, मित्र, भूधर, सविंद्र, साविंद्र, इन्द्रराज, ओं ह्रीं वास्तुदेवाय इदमघु पाद्य..
रुद्र, रुद्रराज, आप, आपवत्स, पर्जन्य, जयंत, भास्कर, सत्यक, अर्थ - हे श्री वास्तुदेव (गृह देव) तुम गृहों के अधिष्ठातापने
भृशुदेव, अंतरिक्ष, पूषा, वितथ, राक्षस, गंधर्व, शृंगराज, मृषदेव, से निरन्तर उपकार करते हुए किसके मान्य नहीं हो? सभी के मान्य
दौवारिक, सुग्रीव, पुष्पदंत, असुर, शोष, रोग, नाग, मुख्य, हो इसीलिये मैं भी आपको मानता हूँ।
भल्लाट, मृग, आदिति, उदिति, विचारि, पूतना, पापराक्षसी और
चरकी ये 40 नाम हैं।' ऐसा कहकर वास्तुदेव के लिये अर्घ देवें।
वास्तुदेवों के इसी तरह के नाम जैनेतर ग्रन्थों में लिखे मिलते श्रुतसागर ने वास्तुदेव की व्याख्या ऐसी की है- 'वास्तुरेव देवो
हैं (देखो सर्वदेव प्रतिष्ठा प्रकाश व वास्तु विद्या के अजैन ग्रन्थ) वहीं वास्तुदेवः।' घर ही को देव मानना वास्तुदेव है। जैसे लौकिक में
से हमारे यहाँ आये हैं। वे भी आशाधर के बाद के क्रिया-कांडी ग्रन्थों अन्नदेव, जलदेव, अग्निदेव आदि माने जाते हैं। इससे मालूम होता
में पुन्याहवाचन पाठों में। यह बलि विधान इसी रूप में आशाधर पूजाहै कि श्रुतसागर की दृष्टि में वह कोई देवगति का देव नहीं है।
पाठ नाम की पुस्तक में भी छपा है। वहाँ दस दिग्पालों को भी करणानुयोगी-लोकानुयोगी ग्रन्थों में भी वास्तु नाम के किसी देव का
वास्तुदेवों में गिना है। जैनेतर ग्रन्थों में ऐसा नहीं है। उल्लेख पढ़ने में नहीं आया है। आशाधर ने इस देव का नाम क्या है यह भी नहीं लिखा है। यहाँ तक कि इसका स्वरूप भी नहीं लिखा
| एक संधि जिन संहिता में भी वास्तुदेव बलि विधान नामक 24वाँ परिच्छेद है जिसमें भी उक्त 40 नामों के साथ दस दिग्पालों
के नाम हैं। ऐसा मालूम होता है कि वास्तुदेवों को बलि देने के पहिले प्रतिष्ठातिलक के कर्ता नेमिचन्द्र के सामने भी आशाधर का
दिग्पालों का बलिविधान लिखा हो और लगते ही वास्तुदेवों को बलि उक्त श्लोक था, जिसके भाव को लेकर उन्होंने जो श्लोक रचा है
देने का कथन किया हो, इस तरह से भी वास्तुदेवों में दिग्पाल देव वह प्रतिष्ठातिलक के पृष्ठ 347 पर इस प्रकार है -
शामिल हो सकते हैं। अन्य मत में वास्तुदेवों को बलि देने की सामग्री सर्वेषु वास्तुषु सदा निवसंतमेनं,
में मधु-मांस आदि हैं। जैन मत में मांस को सामग्री में नहीं लिया श्रीवास्तुदेवमखिलस्य कृतोपकारं।
है, तथापि मधु को तो लिया ही है। प्रागेव वास्तुविधिकल्पितभागमी,
एक संधि संहिता के उक्त परिच्छेद के 17वें श्लोक में मजेदार शानकोणदिशि पूजनया धिनोमि।।
बात यह लिखी है - बलि देते वक्त बलि द्रव्यों को लिये हुए आभूषणों अर्थ - सब घरों में सदा निवास करने वाले और सबका जिसने |
से भूषित कोई कन्या या वेश्या अथवा कोई मदमाती स्त्री होनी चाहिए। उपकार किया है तथा पहिले से ही जिसका ईशान कोण की दिशा में
यथावास्तुविधि से यज्ञ भाग कल्पित है, ऐसे इन वास्तुदेव को पूजता
बलिप्रदानकाले तु योग्या स्याद् बलिधारणे।
भूषिता कन्यका वा स्याद् वेश्या वा मत्तकामिनी।।17।। अभिषेकपाठसंग्रह के अन्य पाठों में वास्तुदेव का उल्लेख नहीं ऐसा कथन नेमिचन्द्र प्रतिष्ठा पाठ में छपे इस प्रकरण के पृष्ठ है। हाँ, अगर जिनगृहदेव को वास्तुदेव मान लिया जाये तो कदाचित् | 4 के श्लोक 11 से भी प्रतिभासित होता है।
जैनधर्म से उसकी संगति बैठाई जा सकती है, क्योंकि जैनागम में | जिन शास्त्रों में साफ तौर पर अन्य मत के माने हुए देवों की जिनमंदिर की नवदेवों में गणना की है। पता नहीं आशाधर और
आराधना का कथन किया है और उनकी आराधना विधि में ऐसी नेमिचन्द्र का वास्तुदेव के विषय में यही अभिप्राय रहा है या और
वाहियात बातें वेश्या आदि की लिखी है, उन शास्त्रों को हम केवल कोई? फिर भी यह तो स्पष्ट ही है कि जैन कहे जाने वाले अन्य कितने
यह देखकर जिनवाणी मानते रहें कि वे संस्कृत प्राकृत में लिखे हैं ही क्रियाकांडी ग्रन्थों में वास्तुदेव को जिनगृहदेव के अर्थ में नहीं लिया
और किन्हीं जैन नामधारी बड़े विद्वान के रचे हुए हैं, जब तक हम
14 अक्टूबर 2001 जिनभाषित
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तू सूरज परभात का, ये सूरज है साँझ
डॉ. विमला जैन 'विमल'
शुचि शिक्षालय वृद्धजन, सतत देत हैं सीख, वृद्ध देख हसना नहीं, भावी रूप स्व दीख। देख वृद्ध की झुर्रियाँ, अनुभव अक्षर वाँच, तू सूरज परभात का, ये सूरज हैं साँझ।
सूर्य ढले, दीपक बुझे, जीवन के संग मृत्यु, पीत होत पत्ता गिरे, जग परिवर्तन मृत्यु। जगत परीक्षा भवन है, मिले हैं घन्टे तीन, बाल, युवा, अरु वृद्ध वय, कर्म पुस्तिका लीन।
ईश परीक्षक जगत का उत्तर कर्म सुवास, पाप-पुण्य पे अंक दे, फेल होय या पास। फेल हुये गति नीच है, सुर नर गति हो पास, . कर पुरुषारथ विमल मन, मुक्ति मिलन की आस।
में यह आगममूढ़ता बनी रहेगी तब तक हम जैन धर्म का उज्ज्वल रूप नहीं पा सकेंगे। इन मिथ्या देवों का ऐसा कुछ जाल छाया हुआ है कि पंडित लोग भी इनके दुर्मोह से ग्रसित हैं। शुद्धाम्नायी पं. शिवजीराम जी राँची वालों का लिखा एक प्रतिष्ठा ग्रन्थ प्रकाशित हुआ है, जिसमें इन सभी वास्तुदेवों की उपासना का वर्णन किया है। बलिहारी है उनके शुद्धाम्नाय की।
वास्तुदेवों के जो नाम जैन ग्रन्थों में लिखे मिलते हैं उनकी अन्यमत के नामों से कहीं-कहीं भिन्नता भी है। जैसे अन्य मत के नाम अर्यमा, सवितृ, सावित्र, शेष, दिति, विदारि हैं। इनके स्थान में जैनमत के नाम क्रम से ये हैं- आर्य, सविंद्र, साविंद्र, शोष, उदिति और विचारि। इन नामों में थोड़ा-सा ही अक्षर भेद है। यह भेद लिखने-पढ़ने की गलती से भी हो सकता है। कुछ नामभेद शायद इस कारण से भी किये हों कि उनमें स्पष्टतः अजैनत्व झलकता है। जैसे अर्यमा का आर्य, शेष का शोष, दिति का उदिति बनाया गया है, क्योंकि अन्यमत में अर्यमा का अर्थ पितरों का राजा, शेष का अर्थ शेष-नाग, दिति का अर्थ दैत्यों की माता होता है। सविंद्र और साविंद्र शब्दों का कुछ अर्थ समझ नहीं पड़ता है, जरूर ये शुद्ध शब्द सवितृ और सावित्र के बिगड़े रूप हैं। इसी तरह शुद्ध शब्द विदारि का गलती से विचार लिखा पढ़ा गया है।
वास्तुदेवों के नामों में रुद्र, जयंत (यह नाम इन्द्र के पुत्र का है) और अदिति (यह देवों की माता का नाम है) ये नाम दोनों ही मतों के नामों में है। परन्तु मूल में ये नाम साफ तौर पर ब्राह्मण मत के मालूम होते हैं। जैन मान्यता के अनुसार इन्द्र का पुत्र और देवों की माता का कथन बनता नहीं है। जैनमत में देवों के माता पिता होते ही नहीं है, न रुद्र ही कोई उपास्य देव माना गया है।
भगवान् महावीर ने ब्राह्मणमत की फैली हुई जिन मिथ्या रूढ़ियों का जबरदस्त भंडाफोड़ किया था, खेद है उनके शासन में ही आगे चलकर वे रूढ़ियाँ प्रवेश कर गई
धर्म में धन्धा घुस गया, धन्धे से गया धर्म, यही पतन का पन्थ है, समझ कर्म का मर्म। दान-पुण्य चुपचाप कर मती मचावे शोर, पुण्य छिपाये से बढ़े घट जाता सुन शोर।
धर्म और धन औषधि, जीवन व्याधि है मूल, धर्म पिलाने की दवा, धन मलहम सा शूल। पर उल्टा करता मनुज, धन को समझा सूप, धर्म दिखाते ऊपरी, होय व्याधि विद्रूप।
हाय! विचारा चल बसा, बोला अर्थी देख, कल तेरी भी गति यही, आज अभी सत वेख। पौ जन्मा, प्रातः शिशु, युवा दुपहरी होय, साँझ बुढ़ापा, मृत्यु निश, जीवन दिन सा होय।
शक्ति सम्पत्ति, बुद्धि का, करना उचित प्रयोग, कौरव, रावण पतन प्रिय, कृष्ण-राम सत योग। हर दिन होता जन्म है, हर निश होती मौत, 'विमल' शुभाशुभ कर्म का प्रतिदिन होता ब्यौत।
सम्पादक - जैन महिलादर्श रीडर व अध्यक्ष, ललित कला विभाग म.गा.बा.वि.पी.जी. कालेज, फिरोजाबाद
जैन निबन्ध रत्नावली (द्वितीय भाग)
से साभार
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वनवासी और चैत्यवासी
स्व. पं. नाथूरामजी प्रेमी
भगवान महावीर के निर्वाण के कुछ ही वर्षों बाद (अन्तिम रहते थे- उसे बाँधते तक न अनुबद्ध केवली जम्बूस्वामी के निर्वाण के अनन्तर ) उनका मूल निर्मन्थ संघ श्वेताम्बर और दिगम्बर इन दो शाखाओं में विभाजित हो गया। कालान्तर में इन दोनों सम्प्रदायों में शिथिलाचार ने इतना अधिक जोर पकड़ा कि दोनों में पुनः वनवासियों और चैत्यवासियों के रूप में दो-दो वर्ग बन गये। उनकी प्रवृत्तियाँ कैसी थीं और उन्होंने जिनशासन को किस प्रकार भ्रष्ट किया इसका ऐतिहासिक विवरण प्रस्तुत लेख में दिया गया है। इसे हम तीन किश्तों में प्रकाशित कर रहे हैं। पहली किश्त पेश है।
थे। बाहर जाने के समय ही वे कटिवस्त्र धारण करते थे । दिगम्बर श्वेताम्बर के सिवाय एक तीसरा सम्प्रदाय यापनीय नाम का था जो अब नामशेष हो चुका है। इसके साधु दिगम्बरों के ही समान नग्न रहते थे और पाणिपात्रभोजी थे पर इनमें भी वस्त्र को अपवाद रूप से ही ग्रहण करने की आज्ञा थी।
सत्य, अहिंसा, मैत्री और अनेकान्त जैसे समन्वयकारी सिद्धान्त के प्रचारक जैनधर्म में भी अब तक अनेक सम्प्रदायों और पन्थों की सृष्टि हो चुकी है जिनमें से बहुतों का तो अस्तित्व बना हुआ है और बहुत से काल के गाल में विलीन हो चुके हैं। जैन धर्म के अनुयायी मुख्यतः दिगम्बर और श्वेता म्बर सम्प्रदायों में बँटे हुए हैं। ये भेद शुरू में निर्वस्त्रता और
सवस्त्रता को लेकर हुए थे और इसी के कारण आगे चलकर इनमें स्त्रीमुक्ति, केवलिभक्ति आदि की मान्यताओं को लेकर और भी अनेक छोटी मोटी बातों में मतभिन्नता आ गई है, फिर भी मूल सिद्धान्तों में दोनों एक है।
इन दोनों में भी अनेक शाखा प्रशाखायें हुई हैं, परन्तु यहाँ उनकी चर्चा अभीष्ट नहीं है। इस लेख में केवल ऐसी दो शाखाओं की चर्चा की जाती है जो दोनों ही सम्प्रदायों में बहुत समय से चली आ रही हैं और जिन्हें हम वनवासी और चैत्यवासी कहते है चैत्यवासी ही मठवासी है।
श्वेताम्बरों में जो 'जती' या 'श्रीपूज्य' कहलाते है वे चैत्यवासी या मठवासी शाखा के अवशेष हैं और जो 'संवेगी' कहलाते हैं वे वनवासी शाखा के संवेगी अपने को सुविहित मार्ग या विधिमार्ग का अनुयायी कहते हैं । इसी तरह दिगम्बरों के भट्टारक मठवासी और नग्न मुनि वनवासी शाखा के अवशेष हैं।
भट्टारकों और जतियों का आचरण लगभग एक सा है । यद्यपि ये दोनों ही निर्ग्रन्थता और अपरिग्रहता का दावा करते हैं और अपने को वीतराग मार्ग का ही अनुयायी बतलाते हैं।
दिगम्बर श्वेताम्बर दोनों शाखाओं के साधु निर्मन्थ कहलाते हैं। और निर्ग्रन्थ का अर्थ है सब प्रकार के परिग्रहों से रहित । यद्यपि श्वेताम्बर सम्प्रदाय में साधुओं को लज्जानिवारण के लिये बहुत ही सादा वस्त्र रखने की छूट दी गई है। परन्तु जिन शर्तों के साथ दी गई है वह न देने के ही बराबर है। वास्तव में अशक्ति या लाचारी में ही वस्त्र का उपयोग करने की आज्ञा है ऐसा मालूम होता है कि विक्रम की छठी सातवीं शताब्दी तक तो श्वेताम्बर साधु भी कारण पड़ने पर ही वस्त्र धारण करते थे और सो भी कटिवस्त्र । यदि कटिवस्त्र भी निष्कारण धारण किया जाता था तो धारण करने वाले को कुसाधु समझा जाता था।
हरिभद्र ने संबोध प्रकरण' में अपने समय के कुसाधुओं का वर्णन करते हुए लिखा है कि वे केशलोच नहीं करते, प्रतिमावहन करते शरमाते हैं, शरीर पर का मैल उतारते हैं, पाटुकायें पहिनकर फिरते हैं और बिना कारण कटिवत्र बाँधते हैं।
लगभग 40-50 वर्ष पहले के श्वेताम्बर साधु जब अपने उपाश्रयों में बैठे होते थे तब शरीर के अधोभाग पर एक वस्त्रखंड डाले
16 अक्टूबर 2001 जिनभाषित
वस्त्र- पात्र के सिवाय दिगम्बर श्वेताम्बर साधुओं के आचार में और कोई विशेष अन्तर नहीं है। दोनों के आचार-ग्रन्थों में कहा है कि मुनियों को बस्ती से बाहर उद्यानों या शून्य गृहों में रहना चाहिए. अनुद्दिष्ट भोजन करना चाहिए, धर्मोपकरणों के अतिरिक्त अन्य सब प्रकार के परिग्रहों से दूर रहना चाहिए, जमीन पर सोना चाहिए, पैदल विहार करना चाहिए और शान्ति से ध्यानाध्ययन में अपना समय बिताना चाहिए।
यह कहना तो कठिन है कि किसी समय सबके सब साधु आगमोपदिष्ट आचारों का पूर्ण रूप से पालन करते होंगे, फिर भी शुरू में दोनों ही शाखाओं के साधुओं में आगमोक्त आचारों के पालन का अधिक से अधिक आग्रह रहा होगा। परन्तु ज्यों-ज्यों समय बीतता गया, साधुओं की संख्या बढ़ती गई और भिन्न-भिन्न आचार-विचार वाले विभिन्न देशों में फैलती गई, धनियों और राजाओं द्वारा पूजाप्रतिष्ठा पाती गई, श्रावकों में भक्ति और दोषों की उपेक्षा बढ़ती गई, त्यों-त्यों उसमें शिमिलता आती गई और दोनों ही सम्पदायों में शिथिलाचारी साधुओं की संख्या बढ़ती गई। मालूम होता है बहुत प्राचीन काल में ही इनकी जड़ें जम गई थीं।
शेताम्बर चैत्यवासी धर्मसागर अपनी पट्टावली में लिखते हैं कि वीरसंवत् 882 में चैत्यवास शुरू हआ - 'वीरात् 882 चैत्यस्थितिः परन्तु मुनि कल्याणविजय आदि विद्वानों का खयाल है कि इससे भी पहले इसकी जड़ जम गई थी और 882 वी. नि. तक तो इसकी सार्वत्रिक प्रवृत्ति हो गई थी।
दार्शनिक हरिभद्र (विक्रम की आठवीं शताब्दी) संबोधप्रक
रण
में लिखते हैं- 'ये कुसाधु चैत्यों और मठों में रहते हैं, पूजा करने का आरम्भ करते हैं, देव-द्रव्य का उपभोग करते हैं, जिनमन्दिर और शालायें चिनवाते हैं, रंग-बिरंगे सुगन्धित धूपवासित वस्त्र पहनते हैं, बिना नाथ के बैलों के सदृश स्त्रियों के आगे गाते हैं, आर्यिकाओं द्वारा लाये गये पदार्थ खाते हैं और तरह तरह के उपकरण रखते हैं। जल, फल, फूल आदि सचित्त द्रव्यों का उपभोग करते हैं, दो तीन बार भोजन करते और ताम्बूल लवंगादि भी खाते हैं।
'ये मुहूर्त निकालते हैं, निमित्त बतलाते हैं, भभूत भी देते हैं। ज्योनारों में मिष्ट आहार प्राप्त करते हैं, आहार के लिए खुशामद करते
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और पूछने पर भी सत्य धर्म नहीं बतलाते।'
सुविहित मार्ग का प्रचार-कार्य जारी रखा। जिनपति ने संघपट्टक पर एक _ 'स्वयं भ्रष्ट होते हुए भी दूसरों से आलोचना-प्रतिक्रमण कराते | हजार तीन श्लोक प्रमाण टीका लिखकर उसका खूब प्रचार किया और हैं। स्नान करते, तेल लगाते, शृंगार करते और इत्र फुलेल का उपयोग | उनके गृहस्थ शिष्य नेमिचन्द्र भंडारी ने षष्ठिशतक नामक प्राकृत करते हैं।'
ग्रन्थ रचकर चैत्यवासियों के शिथिलाचार का विरोध किया। इसी तरह अपने हीनाचारी मृतक गुरुओं की दाह-भूमि पर स्तूप बनवाते गुजरात में भी मुनिचन्द्र, मुनिसुन्दर आदि ने अपनी रचनाओं और हैं। स्त्रियों के समक्ष व्याख्यान देते हैं और स्त्रियाँ उनके गुणों के गीत | उपदेशों से चैत्यवासियों को हतप्रभ कर दिया। गाती है।'
दिगम्बर चैत्यवासी 'सारी रात सोते, क्रय-विक्रय करते और प्रवचन के बहाने
| दिगम्बर साहित्य में ऐसा कोई स्पष्ट उल्लेख तो नहीं मिलता विकथायें किया करते हैं।'
जिसमें चैत्यवास के प्रारंभ की कोई तिथि बतलाई गई हो और न 'चेला बनाने के लिये छोटे छोटे बच्चों को खरीदते, भोले लोगों
चैत्यवास नाम के किसी पृथक संगठन या सम्प्रदाय का ही कोई को ठगते और जिन प्रतिमाओं को भी बेचते खरीदते हैं।'
उल्लेख मिलता है, फिर भी यह निश्चित है कि वह था और बहुत पुराने 'उच्चाटण करते और वैद्यक, यंत्र, मंत्र, गंडा, ताबीज आदि
समय से था। हमारे भट्टारकों की गद्दियाँ उसी की प्रतिनिधि है।' में कुशल होते हैं।'
दिगम्बर चर्या इतनी उग्र और कठोर है कि हमारे खयाल में नग्न _ 'ये श्रावकों को सुविहित साधुओं के पास जाते हुए रोकते हैं,
साधुओं की संख्या हमेशा कम रही है और पिछले कई सौ वर्षों से तो शाप देने का भय दिखाते हैं, परस्पर विरोध रखते हैं और चेलों के लिये
वे क्वचित् ही दिखाई देते रहे हैं। शायद इसी कारण चैत्यवासियों के एक दूसरे से लड़ मरते हैं।'
समान उनका कोई स्वतंत्र संघटन नहीं हो सका और न एक पृथक् दल जो लोग इन भ्रष्ट-चरित्रों को भी मुनि मानते थे, उनको लक्ष्य के रूप में प्राचीन साहित्य में उनका स्पष्ट उल्लेख ही हुआ। कुन्दकुन्द करके हरिभद्र कहते हैं, 'कुछ नासमझ लोग कहते हैं कि यह तीर्थंकरों
के लिंग पाहुड़' से पता लगता है कि उस समय भी ऐसे जैन साधु का वेष है, इसे भी नमस्कार करना चाहिए। अहो, धिक्कार हो इन्हें। मैं
थे जो गृहस्थों के विवाह जुटाते थे, कृषिकर्म-वाणिज्यरूप हिंसा कर्म अपने सिर के शूल की पुकार किसके आगे जाकर करूँ?'4
करते थे- 'जो जोडेदि विवाहं किसिकम्मवणिज्ज-जीवघादं च' और जिनवल्लभकृत संघपट्टक की भूमिका में श्वेताम्बर चैत्यवास
जिनेन्द्र का लिंग धारण करके उसका उपहास कराते थे - 'लिंग घेत्तूण का इतिहास
जिणवरिंदाणं, उवहसइ लिंगिभावं।' 'वी. नि. 850 के लगभग कुछ मुनियों ने उग्र विहार छोड़कर
लिंगपाहुड़ की ही और दूसरी गाथाओं से ऐसा मालूम होता है मन्दिरों में रहना प्रारंभ कर दिया। धीरे - धीरे इनकी संख्या बढ़ती गई
कि ग्रन्थकर्ता के आसपास चैत्यवासी श्रमण बहुत थे और वे उनको और समयान्तर में ये बहुत प्रबल हो गये। इन्होंने 'निगम' नाम के कुछ
सत्पथ पर लाना चाहते थे। ऐसे साधुओं के विषय में उन्होंने स्पष्ट कहा ग्रन्थ रचे और उन्हें 'दृष्टिवाद' नामक बारहवें अंग का एक अंश
है कि वे पशु हैं, श्रमण नहीं - "तिरिक्खजोणी ण सो समणो।' बतलाया। उनमें यह प्रतिपादन किया गया कि वर्तमान काल के मुनियों
विक्रम की सत्रहवीं सदी में पं. बनारसीदास ने जिस शुद्धाम्नाय को चैत्यों में रहना उचित है और उन्हें पुस्तकादि के लिये यथायोग्य
का प्रचार किया और जो आगे चलकर तेरह पन्थ के नाम से विख्यात आवश्यक द्रव्य भी संग्रह करके रखना चाहिए साथ ही ये वनवासियों
हुआ, वह इन भट्टारकों या चैत्यवासियों के ही विरोध का एक रूप था की निन्दा करने लगे और अपना बल बढ़ाने लगे।'
और उसने दिगम्बर सम्प्रदाय में वही काम किया जो श्वेताम्बर सम्प्रदाय वि.सं. 802 में अणहिलपुर पट्टण के राजा वनराज चावड़ा से
में विधि-मार्ग ने किया था। तेरह पन्थ ने चैत्यवासी भट्टारकों की उनके गुरु शीलगुणसूरिने जो चैत्यवासी थे यह आज्ञा जारी करा दी कि
प्रतिष्ठा को जड़ से उखाड़ दिया। इस नगर में चैत्यवासी साधुओं को छोड़कर दूसरे वनवासी साधु न
हमारा अनुमान है कि इस तरह के प्रयत्न बनारसीदास से पहले आ सकेंगे।'
भी कई बार हुए होंगे, जिनके स्पष्ट उल्लेख तो नहीं मिलते परन्तु प्रयत्न 'इस अनुचित आज्ञा को रद्द कराने के लिये वि.सं. 1074 में
करके खोजे जा सकते हैं। जिनेश्वर और बुद्धिसागर नाम के दो विधिमार्गी विद्वानों ने राजा
संदर्भ सूची दुर्लभदेव की सभा में चैत्यवासियों के साथ शास्त्रार्थ करके उन्हें पराजित किया और तब कहीं पाटण में विधिमार्गियों का प्रवेश हो
1. आचारांग प्र.श्रु., अध्ययन 6, उद्देश्य 3 और द्वि. श्रुतस्कन्ध अध्ययन
14 उद्देश्य 1-21 सका।'
2. कीवो न कुणइ लोयं लज्जइ पडिमाइ जल्लमुवणेई।। 'मारवाड़ में भी चैत्यवासियों का बहुत प्राबल्य था। उसके
सोबाहणो य हिंडइ, बंधइ कटिपट्टयमकज्जे॥14 विरुद्ध सबसे अधिक प्रयत्न पूर्वोक्त जिनेश्वर के शिष्य जिनवल्लभ ने
अहमदाबाद की जैन-ग्रन्थ-प्रकाशक-सभाद्वारा वि.स. 1972 में किये। अपने संघपट्टक में उन्होंने चैत्यवासियों के शिथिलाचार का और प्रकाशित। सूत्र-विरुद्ध प्रवृत्ति का अच्छा खाका खींचा है।'
4. बाला वंयति एवं वेसो तित्थंकराण एसो वि।
णमणिज्जो धिद्धी अहो सिरसलं कस्स पुक्करिमो176।। ___ 'चितौड के श्रावकों ने महावीर भगवान का एक मंदिर बनाकर | शिवकोटि के नाम से प्रसिद्ध की गई 'रत्नमाला' में भी लिखा है - उसके गर्भ गृह के द्वार के एक स्तम्भ पर उक्त संघपट्टक के चालीसों कलौ काले वने वासो वय॑ते मुनिसत्तमैः। पद्य खुदवा दिये हैं जो आज तक उनकी कीर्ति को प्रकट कर रहे हैं। स्थीयते च जिनागारे ग्रामादिषु विशेषतः 1122।। जिनवल्लभ का यह प्रयत्न चैत्यवासियों को असह्य हुआ। कहा जाता 6. जैनहितेषी भाग 11, अंक 121 है कि वे पाँच सौ लठैतों के साथ उक्त मन्दिर पर चढ़ आये, परन्तु |
7. श्री अगरचन्द्र नाहटा का लेख 'यतिसमाज' (अनेकान्त वर्ष 3, अंक तत्कालीन महाराणा ने उन्हें इस अपकृत्य से रोक दिया।'
8-9) में श्वेताम्बर चैत्यवासियों पर विस्तृत प्रकाश डाला है। 'जिनवल्लभ के बाद जिनदत्त और जिनपति ने भी अपने
जैन साहित्य और इतिहास (संशोधित संस्करण) से साभार
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विक्रम
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शंका-समाधान
पं. रतनलाल बैनाडा
शंकाकार - श्री एस.पी. वैद्य, मलकापुर
समाधान- जो आभियोग्य जाति के देव विमानों को ढोते हैं, शंका - द्रव्यस्त्री को क्षायिक सम्यक्त्व हो सकता है या नहीं? | उनका मूल शरीर तो विमानों में ही रहता है। यह तो उनकी विक्रिया जबकि जीवकाण्ड की केशववर्णी टीका में, स्त्रियों के क्षायिक सम्यक्त्व है। ज्योतिषी देवों में इन्द्र सामानिक आदि दस भेदों में, त्रायस्त्रिंस कहा गया है।
व लोकपाल को छोड़कर शेष आठ भेद पाये जाते हैं। उनमें आभियोग्य समाधान - श्रीकेशववर्णी का उपर्युक्त मत किसी भी अन्य जाति के ज्योतिषी देव, सूर्य, चन्द्र आदि के विमानों को ढोने का आचार्य को स्वीकृत नहीं है। तत्त्वार्थसूत्र की राजवार्तिक टीका अध्याय कार्य करते हैं। विमानों को ढोने में इन देवों को शारीरिक कष्ट तो कम 9 सूत्र 7 ज्ञानपीठ प्रकाशन पृ. 606 में इस प्रकार लिखा है। | होता है, पर पराधीनतारूप मानसिक कष्ट बहुत होता है।
'मनुष्यस्य क्षपणामारब्धवतः पुरुषलिंगे नेवेवृत्तेः।' अर्थ- । वैमानिक देवों के मूल विमान तो स्थिर ही रहते हैं। पर जब क्षपणा का आरम्भ करने वाला पुरुषलिंगी मनुष्य ही होता है। कभी वैमानिक देवों को जाना होता है, तब उनकी आज्ञा से आभियोग्य
सर्वार्थसिद्धि में आचार्य पूज्यपाद अ.1 सूत्र-7 की टीका मेंइस | जाति के देवों को पक्षी आदि का रूप धरकर, विमान रूप बनकर, प्रकार लिखते हैं कि - द्रव्यवेदस्त्रीणां तासां क्षायिकासंभवात्। अर्थ- वहन करने का काम करना ही पड़ता है। ऐसा कष्ट भवनवासी और द्रव्यस्त्रियों के क्षायिक सम्यक्त्व संभव नहीं।
व्यंतर देवों में भी पाया जाता है। यथार्थ में आभियोग्य जाति के देवों सत्कर्म पंजिका पृ. 79 पर आचार्य ने इस प्रकार लिखा है | का कर्म विपाक इसी प्रकार फलरूप होता है। कि - 'तं खवडं सत्ती एदेसि संहडणाणं उदयसहित जीवाणं णत्थि त्ति शंका - जिस प्रकार मोक्ष प्राप्ति के लिये प्रथम संहनन अभिप्यादो।' अर्थ- 'वज्रनाराच आदि पाँच संहननों से सहित जीवों आवश्यक है, क्या उसी प्रकार प्रथम समचतुरस्र संस्थान भी के दर्शनमोह क्षपण करने की शक्ति नहीं है।'
आवश्यक है? इससे स्पष्ट है कि केवल प्रथम संहनन वाले जीव के ही समाधान - तेरहवें गुणस्थान में प्रथम वज्रवृषभनाराच संहनन दर्शनमोह के क्षपण करने की शक्ति है। द्रव्यस्त्री के अंतिम तीन संहनन | तो होना ही चाहिए, अन्यथा मोक्ष प्राप्ति की योग्यता नहीं बनती, होते हैं, अतः उनके दर्शनमोह के क्षपण करने की शक्ति नहीं होती | लेकिन तेरहवें गुणस्थान में छहों संस्थान का उदय पाया जाता है।
(देखें - कर्मकाण्ड-टीका आर्यिका आदिमतिमाताजी पृ. 237) उपर्युक्त प्रमाणों से यह स्पष्ट है कि द्रव्यस्त्री के क्षायिक __ अर्थात् छहों संस्थानों में से किसी भी एक संस्थान के उदय सम्यक्त्व नहीं होता।
वाले जीव के तेरहवाँ गुणस्थान संभव है। शंका- क्या द्रव्यलिंगी साधु के मात्र पहला ही गुणस्थान माना _शंकाकार- राजेन्द्र कुमार जैन, अजमेर जावें या अन्य भी?
यदि ऐसा विकल्प किया जाए कि हुण्डक संस्थान वालों को समाधान- छठेगुणस्थानवर्ती या इससे ऊपर वाले मुनिराजों | दीक्षा कैसे मिलती होगी, तो इसका उत्तर है कि जिन पुरुषों के हुण्डक को ही भावलिगी साधु माना जाता है। त्रिलोकसार गाथा 545 में इस | संस्थान का उदय अति मंद अनुभाग वाला हो और जो हुण्डक संस्थान प्रकार कहा है
शरीर दखने में स्पष्ट नहीं झलकता हो उनको दीक्षा मिलने में क्या णरतिरय देसअयदा उक्कस्सेणच्चुदोत्ति णिग्गंथा। आपत्ति हो सकती है। अर्थात् कुछ नहीं। ण य अदय देसमिच्छा गेवेज्जतोत्ति गच्छंति।।545।।
शंका - यदि कोई शिथिलाचारी मुनि, जिनका आचरण आगम टीका.... द्रव्यनिम्रन्था नरा भावेनासंयता देशसंयताः मिथ्या- के विपरीत स्पष्ट दिख रहा हो, अपने शहर में आ जावे तो श्रावकों दृष्टयो वा उपरिमौवेयकपर्यन्तं गच्छन्ति। अर्थ- 'द्रव्य से निर्ग्रन्थ और | को कैसा व्यवहार करना चाहिए? भाव से असंयत, देशसंयत, तथा मिथ्यादृष्टि मुनि अंतिम अवेयक समाधान - इसी प्रकार का प्रश्न चारित्र च. ग्रन्थ के तीर्थाटन पर्यन्त जाते हैं। अर्थात् जो द्रव्यलिंगी साधु हैं, अर्थात् जिन साधुओं | अ. में पृ. 126 पर चा.च आ. शान्तिसागर जी महाराज से किया के संज्वलन के अलावा अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण या | गया था वह यह है - प्रत्याख्यानावरणकषाय का उदय विद्यमान है, जिसके कारण उनके 'शिथिलाचरण वाले साधु के प्रति समाज को या समझदार पहले से पाँचवें तक कोई भी गुणस्थान है, वे मुनि अंतिम ग्रैवेयक व्यक्ति को कैसा व्यवहार रखना चाहिए? महाराज ने कहा कि ऐसे पर्यन्त जाते हैं। अनुदिश और अनुत्तर में भावलिंगी साधु का ही जन्म साधु को एकान्त में समझाना चाहिए। उसका स्थितिकरण करना होता है।
चाहिए। पुनः प्रश्न-समझाने पर भी यदि उस मुनि की प्रवृत्ति न बदले शंकाकार - सतेन्द्रकुमार जैन, रेवाड़ी।
तब क्या कर्तव्य है? क्या समाचार पत्रों में उसके संबंध में समाचार शंका- आभियोग्य जाति के देव सूर्य चंद्रमा आदि विमानों ] छपाना चाहिए या नहीं? महाराज का उत्तर-समझाने से भी काम न को ढोते हैं, क्या उनको कष्ट या दुःख नहीं होता? क्या वैमानिक | चले तो उसकी उपेक्षा करो, उपगृहन अंग का पालन करो। पत्रों में देवों के विमानों को अन्य देव वहन करते हैं। स्पष्ट करें। चर्चा चलने से धर्म की हसी होने के साथ-साथ अन्य मार्गस्थ साधुओं
18 अक्टूबर 2001 जिनभाषित
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के लिये भी अज्ञानी लोगों द्वारा बाधा उपस्थित की जाती है। निगोद जाते हैं।
उपर्युक्त प्रश्नोत्तर में उपेक्षा शब्द अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। समस्त जे पावमोहियमई लिंगंत्तण जिणवरिदाणं। साधर्मी भाइयों को इस उपेक्षा शब्द को ध्यान में रखकर व्यवहार पावं कुणंति पावा ते चत्ता मोक्खमग्गम्मि मोक्षपाहुड़।78।। करना उपयुक्त है।
गाथार्थ - जो पाप से मोहित बुद्धि मनुष्य, जिनेन्द्रदेव का लिंग और भी कहते हैं
धारण कर पाप करते हैं वे पापी मोक्षमार्ग से पतित हैं। जहजायरूवसरिसो तिलतुसमित्तं ण गिहदि हत्थेसु।
उपर्युक्त आगम प्रमाणों को व अष्टपाहुड़ आदि ग्रन्थों के द्वारा जड़ लेइ अप्पबहुयं तत्तो पुण जाइ णिग्गोदं सूत्रपाहुड़॥18॥ | शिथिलाचारी साधुओं की वंदना, नमस्कार आदि से होने वाले दोषों
गाथार्थ - नग्न मुद्रा के धारक मुनि तिलतुष मात्र भी परिग्रह | को समझकर आगम के अनुसार प्रवृत्ति करना योग्य है। अपने हाथों में ग्रहण नहीं करते। यदि थोड़ा बहुत ग्रहण करते हैं तो
1205, प्रोफेसर्स कालोनी,
आगरा-282002, उ.प्र.
अ.भा. श्री दिगम्बर जैन ज्ञानोदय तीर्थक्षेत्र
ज्ञानोदय नगर, नारेली, अजमेर (राज.) अजमेर, 30 सितम्बर 2001। श्री दिगम्बर जैन ज्ञानोदय तीर्थ | महतिया, संजय स्टील्स परिवार की ओर से आयोजित थी। जिसमें क्षेत्र नारेली, अजमेर के आदिनाथ जिनालय के विशाल ज्ञानोदय | सैकड़ों महिलाओं व पुरुषों ने भाग लेकर अपना जीवन सार्थक किया। सभागार में आज वार्षिक जिनाभिषेक का भव्य कार्यक्रम बड़े उत्साह क्षेत्र के अध्यक्ष श्री भागचन्द गदिया ने सभी आगन्तुकों का एवं हर्षोल्लास के साथ आठ हजार से अधिक धर्मप्रेमी बन्धुओं के | सम्मान करते हुए क्षेत्र के विषय में विस्तृत जानकारी प्रदान की, सभा बीच पूरे भक्ति भाव के साथ सम्पन्न हुआ। दर्शनार्थियों के विशाल का संचालन करते हुए डॉ. ओ.पी. जैन ने बतलाया कि क्षेत्र पर स्थित जनसमूह के कारण आज यह विशाल सभागार भी छोटा पड़ गया। | गौशाला में चार सौ पच्चीस गायें हैं जिनके भोजन, पानी की केसरगंज, अजमेर के सर्वश्री ताराचन्द दिलीपकुमार पाण्डया, श्री सुव्यवस्था यहाँ की गई हैं। त्रिकाल चौबीसी के चार मंदिर, सन्तशाला, रमेशचन्द्र सुरेश चन्द्र पाण्डया, श्री विमलचन्द्र अजितकुमार जैन तथा एक धर्मशाला, सहस्त्रकूट जिनालय पूर्ण हो चुके हैं। सोलह त्रिकाल सीकर के श्री धर्मचन्द्र विद्याकुमार दीवान ने क्रमशः श्री शान्तिनाथ चौबीसी जिनालय, त्रिमूर्ति जिनालय, आर्यिका वसतिका, दूसरी भगवान के कलश करने का सौभाग्य अर्जित किया।
धर्मशाला शीघ्र ही पूर्ण होने वाली है। शेष जिनालय, हॉस्पीटल, स्कूल इस समारोह में भाग लेने के लिये अजमेर नगर के अलावा आदि भी निर्माणाधीन हैं। आदिनाथ जिनालय में जैन विश्व की सबसे नसीराबाद, जैठाना, मांगलियावास, छोटा लाम्बा, वीर, भवानीखेड़ा, | बड़ी पद्मासन प्रतिमा 21 फुट की है जो यहाँ विराजित हो चुकी है मदनगंज-किशनगढ़ एवं अन्य समीपस्थ ग्रामों के चार हजार से अधिक | | एवं इस मंदिर का कार्य पूर्णतया की ओर अग्रसर हो रहा है। आगे आबालवृत पुरुष, महिला पदयात्रा करते हुए एवं मार्ग में जय-जयकार | उन्होंने बतलाया कि सहस्त्र कूट जिनालय की 1008 प्रतिमाओं में करते हुए क्षेत्र पर पधारे। पुरुषगण सफेद वस्त्रों में एवं महिलाएँ केसरिया | से 840 प्रतिमाएँ जयपुर में बनवाई जा रही हैं तथा शेष के लिये वस्त्रों में सुसज्जित थे। इसी श्रृंखला में अजमेर नगर के करीब दो हजार | दातारों को अपनी चंचला राशि के सदुपयोग का अवसर उपलब्ध पदयात्री जुलूस रूप में बैंड बाजे के साथ चल रहे थे और जीप में | है। मुनि श्री सुधासागर जी महाराज का भव्य चित्र सुशोभित था। जुलूस | क्षेत्र की ओर से आर.के. मार्बल्स लि. किशनगढ़ वालों ने का शुभारंभ सोनी जी की नसियां से प्रातः साढ़े पाँच बजे सर्वश्री | विभिन्न अंचलों से पधारे हुए पदयात्री संघों के अध्यक्षों एवं संयोजकों त्रिलोकचन्द, संजयकुमार, राजेश कुमार सोनी परिवार द्वारा हरी झण्डी | आदि का तिलक लगाकर, माल्यार्पण कर, शॉल एवं प्रतीक चिन्ह दिखाकर किया गया, जो नगर के विभिन्न मार्गों से होते हुए क्षेत्र के | भेंट कर सम्मान किया गया। सिंहद्वार पर पहुँचे। मार्ग में नया बाजार, गोल प्याऊ, मदार गेट, | इसी श्रृंखला में पदयात्रियों के लिये मार्ग में नाश्ता, अल्पाहार पार्श्वनाथ मंदिर केसरगंज, पाल बिचला, गांधी नगर, पार्श्वनाथ मंदिर | आदि के व्यवस्थापकों एवं आज के वात्सल्य भोज प्रदाता मेसर्स नाका मदार, नेहरूनगर आदि स्थानों पर इनका दूध, अल्पाहार, फल | आर.के. मार्बल के 102 वर्षीय बाबा रतनलाल पाटनी जो, इस आयु फ्रूट, माल्यार्पण द्वारा सम्मान किया गया। क्षेत्र के सिंहद्वार पर सभी | में भी किसी जवान से कम नहीं, का भावभीना सम्मान समिति के स्थानों से पधारे हुए पदयात्रियों एवं दर्शनार्थियों का तिलक लगाकर | अध्यक्ष भागचंद गदिया द्वारा किया गया तथा ज्ञानोदय नवयुवक सम्मान किया गया। सभी के लिए क्षेत्र पर नाश्ते की सुन्दर व्यवस्था मंडल के अध्यक्ष श्री धनराज पाटोदी, अनिल गदिया एवं केसरगंज की गई। इसके बाद वार्षिक कलशाभिषेक के बाद सुन्दर वात्सल्य | के श्री कपिल दनगसिया का भी सम्मान क्षेत्र की ओर से किया गया। भोज की व्यवस्था मै. आर.के. मार्बल लि. मदनगंज की तरफ से | इस अवसर पर मुख्य अतिथि के रूप में पधारे अजमेर जिले के सांसद की गई थी।
| प्रो. रासासिंह रावत ने भी दो शब्द धन्यवाद के अर्पित किये जिनका प्रातः 8.00 बजे 'श्री कल्याण मंदिर विधान पूजन' का | भी शाल, प्रतीक चिन्ह व माल्यार्पण कर स्वागत किया गया। आयोजन श्रीमती मनोरमा देवी मातुश्री संजयकुमार विजयकुमार |
हीराचन्द जैन, प्रचार प्रसार संयोजक
-अक्टूबर 2001 जिनभाषित 19
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काव्यसमीक्षा
संवेदनाएँ और संस्मरण
अमरनाथ शुक्ल
मुझे अपने एक कविमित्र का
'अभी मुझे और धीमे कदम अचानक एक पत्र मिला - जैन मुनि 73 वर्षीय श्री अमरनाथ शुक्ल जाने-माने
रखना है/अभी तो चलने की आवाज श्री क्षमासागरजी की एक कविता पत्रकार, उपन्यासकार, कोशकार और प्रकाशक हैं।
आती है। पुस्तक प्रकाशित करना है, आप देख अब तक आपकी पच्चीस से अधिक पुस्तकें प्रकाशित कैसे विनम्र, निरभिमान हैं। लें। हो चुकी हैं। इनमें से एक उपन्यास 'अन्नदा' हिन्दी
आज तो थोड़ी ही उपलब्धि में लोग एक दिन पाण्डुलिपि मिली। अकादमी दिल्ली द्वारा पुरस्कृत किया गया है। आपने
न जाने कितना इतराने लगते हैं। उलट पुलट कर देखने लगा। मैं जैन
आत्म साक्षात्कार में मुनिजी मारीशस में सम्पन्न विश्व हिन्दी सम्मेलन में भारत का मतावलम्बी नहीं, मुनिश्री जी के नाम
कहते हैं - से पूर्व-परिचित नहीं था, पर कवि
प्रतिनिधित्व किया था। छह वर्ष पूर्व आप मुनि श्री 'सारे आवरण टूट कर गिर गए क्षमासागर का परिचय मुझे उनकी
क्षमासागर जी के सम्पर्क में आये और उनके काव्य हैं/अंतस के तमाम अवगुंठन खुल कविताओं से मिला। साहित्यिक रुचि एवं व्यक्तित्व से अत्यन्त प्रभावित हुए। प्रस्तुत लेख गए हैं/सचाई जो भी हो/मैंने तो सिर्फ और वृत्ति के कारण मैं कविताएँ में उन्होंने अपनी अनुभूतियों और संस्मरणों को
| अपने को निकट से देखना चाहा है। पढ़ता ही चला गया। गंभीर होकर
पर अपने को जानना, पाना | अभिव्यक्ति दी है। लेखनी हृदय को छू लेती है। सोचने लगा, एक वीतरागी मुनि के
कितना कठिन है, आगे कहते हैं - मन में संवेदनाओं तथा भावों का का अवसर नहीं होता, क्षणभर में निर्णय और
'अपने को अपने में देखना/अपनी कितना कोमल अनराग है। राम झरोखे बेठ | क्रियान्वयन होता है। सागर में जन्में वीरेन्द्र
सीमाएँ खुद तय करना/ अपने को चुपचाप के जीव जगत के क्रिया-कलापों, अनुभवों कुमार सिंघई नामक युवक एक दिन ऐसे ही
सहना/कितना मुश्किल है/इस तरह नितांत तथा अनुभूतियों का कितनी सूक्ष्मता से मुजरा
अपने माता-पिता. भाई-बहिन के स्नेहिल | अपना होना। लिया है? इस संत ने जो सूक्तियाँ लिखी हैं परिवार के मोह-माया के बंधन तथा एम.टेक.
हम जीवन भर बाहरी भौतिकताओं को सतसैया के दोहों की तरह, जो देखन में छोटे की उच्च शिक्षा के बावजूद समस्त भौतिक
पाने के लिये छटपटाते रहते हैं, भागते रहते लगे घाव करें (भाव भरें) गंभीर। इन सहज उपलब्धियों एवं भावी महत्त्वाकांक्षाओं को
हैं। कभी भी अपने को पाने, जानने का प्रयास कविताओं में कैसा ऊँचा अध्यात्म भाव है, एक झटके में ही नकार कर दिगम्बरी राह पर
नहीं करते। यदि ऐसा कर सकें तो देखिए कवि पढ़ते ही बनता है। मुझे एक प्रसंग याद आया। चल पड़ा। तकनीकी विज्ञानी होते हुए भी
क्या कहता है - सूरदास तथा तुलसीदास समकालीन संत कितना आंतरिक ज्ञानी है, सब को देखने
मेरे देवता/जब मैंने अपने भीतर कवि थे। एक दिन किसी ने सूरदास से कहा- परखने की कैसी सूक्ष्म दृष्टि है, कितना
झाँका/अपने को देखना चाहा/पहिली बार 'बाबा! तुलसीदास बहुत अच्छी कविता मानवीय संवेदनाओं से लबरेज है? वह
तुम्हें देखा/तुम्हें पाया। लिखते हैं। उनकी कविताओं की लोगों में बड़ी मनुष्यों की ही नहीं, चिड़ियों की भी भाषा
जो दिव्य ज्योति हमारे अन्दर विराज चर्चा है।' समझता है, उनके क्रिया कलापों से उनके
रही है उसे बाहरी अंधेरे में क्यों ढूँढ रहे हैं। सूरदास ने टोकते हुए कहा - 'तुम्हें भ्रम मनोविज्ञान को जानता है। यह मैं उनकी काव्य
आत्म प्रकाश में ही परमात्मा के दर्शन होते है। मैं जानता हूँ, तुलसीदास को तो कविता अभिव्यक्ति में ही नहीं, बल्कि कई वर्षों से लिखनी आती ही नहीं, वह कविता क्या उनके सहज जीवन में भी निरंतर देखता आ
ज्ञानी और दानी होने की लौकैषणा बड़ी लिखेंगे? कविता तो मैं लिखता हूँ, पढ़ कर रहा हूँ।
प्रबल होती है। यह एषणा सिर पर चढ़ जाती देखो। तुलसी कविता नहीं मंत्र लिखते हैं, जो अध्यात्म की जिस डगर पर वे चल
है। गर्वोन्मत्त कर देती है। लेबनान के एक पढ़ते ही मन में उतर जाता है, जो जपा, गुना रहे हैं, जैसा तपोनिष्ठ जीवन जी रहे हैं वैसी
मनीषी खलील जिब्रान ने एक जगह लिखा और गुनगुनाया जाता है। ही अभिव्यक्ति। लिखते हैं -
है- 'वही दान सार्थक होता है जिसमें दाता कवि क्षमासागर जी की कविताओं को
यात्रा पर निकला हूँ/ लोग बार-बार
यह न देख/जान पाए कि वह किसे दान दे पढ़कर मुझे लगा कि कविता के दौर में, पूछते हैं। कितना चलोगे । कहाँ तक जाना
रहा है, तथा याचक यह न देख/जान पाए कवियों की भीड़ से अलग इस संत कवि ने है/ मैं मुस्करा कर आगे बढ़ जाता हूँ। किससे
कि उसे किसने दान दिया। इससे न तो दाता मंत्र जैसा मनन करने योग्य लिखा है। कहूँ/ कहीं नहीं/ मुझे तो अपने तक आना है।
के मन में यह अहंकार पैदा होगा कि उसने पूर्व जीवन की पृष्ठभूमि से थोड़ा पर विनत भाव से महसूस करते हैं,
अमुक याचक की दीनता पर तरस खाकर परिचित हुआ तो और चमत्कृत हुआ। अक्सर अपने तक पहुँचने के लिये साधना अभी
दान दिया और न याचक इस हीन भावना का यह देखा गया है कि जीवन में बहुत बड़े अधूरी है। अपने 'मैं' को मिटाना है, अहं को
शिकार होगा कि उसके दैन्य पर तरस खाकर निर्णय के लिये सोच-विचार और ऊहा-पोह गलाना है, इसीलिये आगे कहते हैं -
अमुक ने उसे दान दिया। 20 अक्टूबर 2001 जिनभाषित -
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कवि क्षमासागरजी भी किसी के ज्ञानी और दानी होने के अहंकारी भ्रम को तोड़ने के लिये कहते हैं
'कभी ऐसा हो कि देने का मन हो और लेने वाला कोई करीब न हो / कभी हम कुछ कहना चाहें और सुनने वाला कोई करीब न हो / तब एहसास होता है / देने और सुनाने वाले से/ लेने और सुनने वाला ज्यादा कीमती होता है बहुत कुछ है, यह तो मात्र एक बानगी है। उनकी कविताओं को पढ़ कर मैंने कवि क्षमासागर को जाना, पर मुनि क्षमासागरजी को पाया उन्हीं की कविता विश्वास के माध्यम से
जिसे पाकर / हम अपना सब / खो देने को / राजी हो जाते हैं और यह भी नहीं पूछते / कि अपने को देखकर हम क्या पायेंगे / मानिए यह विश्वास है / और एकदम सच्चा है।
मैंने मुनिजी में यह विश्वास ही पाया है। कवि क्षमासागर से परिचय के बाद मुनि क्षमासागरजी का प्रथम दर्शन मुझे उनके इंदौर प्रवास में मुनि क्षमासागर की कविताएँ के लोकार्पण के अवसर पर हुआ। देखते ही अन्तज्ञांन ने कहा, यहाँ परखने की गुंजाइश नहीं- यह कोमलता, यह सहजता, यह बाल सुलभता, यह अहं शून्यता इस संत का बाहर और अन्दर का सब कुछ है - एकदम निर्मल स्वच्छ, स्फटिक सा पारदर्शी । सिर झुक गया, हाथ जुड़ गए। एक वीतरागी, अपरिग्रही, संत से यह अनुरागी, परिग्रही गृहस्थ जुड़ गया। तब से अब तक मुनिश्री के प्रत्येक चातुर्मास में उनके दर्शन तथा सान्निध्य का सौभाग्य मुझे निरंतर मिलता आ रहा है।
इन अवसरों पर मुनिजी के साथ अपने एकाध अविस्मरणीय संस्मरणों को आत्म सुख के लिये व्यक्त कर रहा हूँ। बीना में वर्षांयोग के समय जब मैं उनसे मिलने गया तो एक दिन मुनि श्री ने कहा - निकट ही सागर में आचार्य श्री विद्यासागर जी का चातुर्मास है, दर्शन करना चाहें तो सागर हो आयें।
मुनि जी की लिखी पुस्तक 'आत्मान्वेषी' मैं पढ़ चुका था। यह पुस्तक आचार्यश्री के शिष्य ने नहीं लिखी। शिष्य तो निमित्त जैसा है। मुनि जी को तो जैसे परकाया प्रवेश की सिद्धि है। विद्याधर से आचार्य विद्यासागर तक की यात्रा में मुनि जी ने अपने को आचार्य श्री की माता की भावभूमि में प्रविष्ट कर दिया है मातृभाव से लिखा है। जिन्हें पढ़ा था उन्हें प्रत्यक्ष देखना और मिलना सौभाग्य की बात थी। मैंने कहा 'महाराज ! बड़ी भीड़ होगी,
कोई संकेत मिल जाये तो सहज हो।"
मुनि जी ने सहज कहा 'हम लोगों को तीन-तीन, चार-चार साल तक दर्शन नहीं हो पाते। जाओ, जैसा अवसर मिले करना । "
गया, आचार्यश्री आहार लेने के बाद आसन पर विराजमान थे। बड़ी भीड़ थी। स्वयंसेवक को आने का प्रयोजन बताया। उसने प्रवचन के बाद मिलने को कहा। बाद में गया तो स्वयंसेवक ने बताया कि अभी आचार्यश्री कुछ विशिष्ट लोगों से विचार विमर्श कर रहे हैं। दूर से ही दर्शन कर लो. मिलना संभव नहीं ।
जाने कैसे मेरे मन में यह भाव आया और मैंने छूटते ही कहा- 'मैं अति विशिष्ट हूँ। मुझे उनके दृष्टि- पथ तक जाने दो।' स्वयंसेवक सहमा । मैं आगे बढ़ा, दूर 'नमोऽस्तु' की मुद्रा में खड़ा हो गया। कुछ देर बाद आचार्यश्री ने आँखे उठाईं, मुझे देखा, आशीर्वाद की मुद्रा में हाथ उठाया और मैं आगे बढ़ कर उनके चरणों तक पहुँच गया। परिचय दिया। आचार्यश्री ने कुशल क्षेम जानकर और भी बहुत कुछ पूछा ।
मैं कृतार्थ होकर आ गया। मुनिश्री ने पूछा दर्शन हुए? मैने कहा 'दर्शन के साथ स्पर्शन भी हुआ मुनि जी मुस्कुराए"भाग्यशाली हो।'
मैं भी हँसा आपका आशीर्वाद पाया हुआ कोई अभागा रह ही नहीं सकता।
एक निजी प्रसंग। मेरी पुत्र वधू कैंसर ग्रस्त थी । मुनिजी को पता था। मिलने पर हर बार स्वयं उसका हाल पूछते थे। एक बार मैंने अपने दुख से विचलित होकर कहा- 'महाराज जी! आप स्थितप्रज्ञ वीतरागी है। सुख-दुख. राग-द्वेष से निर्विकार । मेरी वेदना से आप जुड़ जाते हैं, मैं अन्तर तक भीग जाता हूँ।'
मुनि जी की बात कभी नहीं भूलता। कितनी संवेदना, कितनी परदुखकातरता, कितना निजत्व ! कहा- हम मुनि और संत बाद में है, पहले मनुष्य हैं। इस शरीर में जो मन है, बुद्धि है, परम चैतन्य आत्मा है, वह कैसे पत्थर जैसा संवेदनहीन हो जायेगा ? मानवीय संवेदना सर्वोपरि है। हममें अगर वही न रह पायी तो संत होकर क्या करेंगे?
पर सब संत ऐसा कहाँ सोच पाते हैं, कर पाते हैं। आत्मरति या आत्ममुक्ति के ही बंधन में बंधे रहते हैं।
गुरु के प्रति मुनि जी की कैसी आस्था है, कैसी भक्ति है, कैसा विश्वास है, उनके प्रति कितने भावुक हैं, यह एक प्रसंग में मैंने सुना। मुनि जी सुना रहे थे एक बार सागर
में आचार्य श्री विद्यासागर जी का चातुर्मास पड़ा, पर संयोग ऐसा कि वर्षा न होने से पानी का संकट । एक सज्जन हाथ जोड़कर बुन्देलखण्डी में बोले - 'महाराज जी ! चातुर्मास तो इते हो गव पै पानी तो हैई नइयाँ' आचार्यश्री कुछ बोले नहीं धीरे से मुस्कुराए और आगे बढ़ गए। दोपहर बाद जो बादल घिरे तो ऐसे बरसे, ऐसे बरसे कि सब ताल तलैयाँ उमड़ पड़ीं।
दूसरे दिन सबेरे फिर वे सज्जन आये । हाथ जोड़कर अभिभूत होकर बोले- 'महाराज जी! पानी तो चाने तो पै इत्तो नई।
आचार्यश्री की वही सदाबहार मुस्कुराहट । बोले कुछ नहीं । बादल छूट चुके थे, आकाश निर्मल हो चुका था।
मुनि जी यह प्रसंग सुनाते हुए आचार्य श्री के प्रति इतने भावुक हो गए कि उनका गला भर आया। कहने लगे- यह कौन सा विज्ञान था, मैं नहीं जानता ।
सुनकर मैं भी भाव-विभोर हो गया। मेरे अन्तर्मन ने कहा यह विज्ञान तर्क का नहीं, श्रद्धा का है, विश्वास का है। यह आत्म विज्ञान है। उस परम चैतन्य को, अनन्त सत्ता को किसी ने नहीं देखा है, पर वह है, भक्ति भावना ने जगती को मूर्तिमान भगवान दे दिये । उसका होना हमारे विश्वास और श्रद्धा का फल है। आपने भी तो लिखा है ईश्वर मेरे/ मेरी श्रद्धा मुझे तुम्हारे होने का अहसास कराती है / सचमुच अब तुम्हारा होना / मेरी श्रद्धा के लिये कितना जरूरी है। कई बार मुनि जी को प्रवचन करते मैंने देखा है, सुना है। देखने में भले ही लगता है कि वे श्रोताओं से अलग उच्चासन पर बैठकर प्रवचन कर रहे हैं, पर सुनते हुए ऐसा लगता है कि वे श्रोताओं के बीच उन्हीं में से एक अपने विचार प्रकट कर रहे हैं, उपदेश आदेश न देकर वार्ता कर रहे हैं। सब को अपने साथ लेकर चल रहे हैं, सबके साथ चल रहे हैं। उनके प्रवचनों के केन्द्र में मानव जीवन का विकास तथा कल्याण रहता है। मुझे मुनि जी के प्रवचन में यही केन्द्र ध्वनि सुनाई देती हैसर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयः । सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःख भाग् भवेत् ॥
सब सुखी हों, सब नीरोग हों, सब की दृष्टि मंगलमय हो, कोई दुखी न हो ।
मैं बड़भागी हूँ जो एक सुविचारक सहृदय, निःस्पृह, मानवीय संवेदनाओं से सराबोर संत का सान्निष्य तथा उनसे निजता का अनुभव करता हूँ।
पी-10, नवीन शाहदरा, दिल्ली-11032 'अक्टूबर 2001 जिनभाषित 21
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व्यंग्य
य
प्रजातंत्र से मेरी रिश्तेदारी
शिखरचन्द्र जैन प्रजातंत्र में आंदोलनों का मन्थरगति से चलने वाले ये जुलूस अथवा बारातें
'वो ऐसा है कि मुझे दिल्ली वही स्थान है जो समुद्र में लहरों ट्रैफिक को कितनी देर जाम करके रखेंगी, यह कोई नहीं
जरूर ही पहुँचना है .' उन्होंने का। जिस तरह मंद-मंद बयार के
कहा। 'अब रेलगाड़ी चलेगी तो साथ उठती-गिरती लहरें समुद्र में बतला सकता। न ही इस मामले में कोई किसी की कुछ
| पहुँच ही जाओगे -' मैं बोला। सर्वदा विद्यमान रहती हैं, उसी मदद कर सकता है। आखिर हैं तो सभी एक स्वतंत्र देश
वही तो', उन्होंने जरा तरह नाना प्रकार के जन-समूहों में के स्वतंत्र नागरिक, जिन्होंने बाकायदा शासन की
| मुस्कराते हुए कहा, 'किसी बात उत्तरोत्तर बलवती होती विभिन्न | प्रजातांत्रिक प्रणाली अपना रखी है, जिसके अंतर्गत वे | का भरोसा तो है नहीं. प्रजातंत्र जो लालसाओं से प्रेरित आंदोलन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मूल अधिकार रखते हैं। ठहरा। इसलिये थोड़ा समय हाथ प्रजातंत्र में निरंतर चलते रहते हैं।
में रख कर चलना चाहिए।' जिस तरह वातावरण में निम्न दाब के क्षेत्र |
___ 'तो आठ बजे चले जाना। अभी तो बनते रहने से समुद्र में अक्सर तूफान उठ
फैले!
| दो घंटे हैं।' आते हैं, उसी तरह प्रजातंत्र में कई प्रकार के
लेकिन लगता है कि मेरी कामनाओं में,
'इन दो घंटों में तो मेरे दिमाग की नसें दबावों के वशीभूत हो आंदोलन बहुधा उग्रता चाहतों में, दुआओं में कहीं कोई भारी कमी
फूल जायेंगी। आटो-रिक्शा यदि अभी आ धारण कर लिया करते हैं और जिस तरह रही है क्योंकि मैंने बहुतेरे लोगों को प्रजातंत्र
जाता तो इतना संतोष हो जाता कि आटो मौसम विभाग आने वाले तूफान की तीव्रता
के प्रति सर्वथा अनुदार रवैया अपनाते हुए
| वाले हड़ताल पर नहीं हैं।' का अंदाज लगाते हुए, मछुवारों को समुद्र में देखा है। यहाँ तक कि कुछ लोग तो प्रजातंत्र
'नहीं हैं भैया, आटो-वाले हड़ताल पर न जाने की सलाह देते रहते हैं, उसी तरह की तीखी आलोचना करते हुए पाए गए हैं।
नहीं हैं।' मैंने उन्हें आश्वस्त करते हुए कहा, आन्दोलन-कर्ता, शांतिपूर्ण आंदोलन का उनके विचार में, प्रजातंत्र ने देश की सारी
'और पेट्रोल पम्प वाले भी हड़ताल पर नहीं रुख, सरकारी हस्तक्षेप के कारण, कभी भी
व्यवस्था को चौपट कर रखा है। वोटों की उग्रता की ओर मुड़ जाने की आशंका बतलाते राजनीति ने देश की लुटिया डुबो दी है। कोई
‘पर इस बात की क्या गारंटी है कि हुए, लोगों को घर से बाहर न निकलने की किसी के नियंत्रण में नहीं है, जिसकी जो मर्जी
रास्ता खुला ही मिलेगा? हो सकता है कि उस सलाह दे दिया करते हैं। इससे सिद्ध होता है हो, सो करता है। आम आदमी का जीना दूभर
समय कोई जुलूस निकल रहा हो या कोई कि प्रजातंत्र में आन्दोलन, समुद्र में लहरों की हो गया है। योजनाबद्ध तरीके से कोई भी काम
शोभा यात्रा चल रही हो अथवा किसी की तरह ही नैसर्गिक एवं अवश्यंभावी होते हैं। कर पाना संभव नहीं रहा है। प्रशासन नाम
बारात निकल रही हों,' मेहमान ने कहा- 'पता यहाँ, लगे हाथ, मैं यह बतलाता चलूँ की कोई चीज नहीं रह गई है। देश रसातल
है! ये जुलूस वाले भले दस-बीस ही हों, पर कि हमारे देश में प्रजातंत्र का जन्म, मेरे जन्म की ओर प्रस्थान कर चुका है। गोया, प्रजातंत्र
मेन रोड पर इस कदर फैल कर चलते हैं कि के बाद हुआ था। इस हिसाब से मैं प्रजातंत्र को कोसने-गरयाने के लिये जितने जुमले
एक साइकिल भी उन्हें भेद कर आगे न निकल को अपना छोटा भाई मानता हूँ। मुझे यह सोचे जा सकते हैं, सभी इस्तेमाल किये जा
सके और बारात वालों का तो कहना ही क्या? अच्छी तरह से याद है कि उन दिनों मैं सागर चुके हैं।
मदमस्त होकर नाचते हुए लोग, आसमान में के पड़ाव स्कूल में पहली कक्षा का विद्यार्थी
जिन्हें प्रजातंत्र के साथ मेरी रिश्तेदारी
छेद कर देने पर उतारू फटाके और कानों के था जब प्रजातंत्र के जन्म के उपलक्ष्य में हमारे की जानकारी है उन्हें इस संदर्भ में जान
पर्दे फाड़ देने की सामर्थ्य रखने वाले बाजों स्कूल में लड्डू बँटे थे। शुद्ध देशी घी में बने बूझकर मुझसे बात करने में जरा ज्यादा ही
के बीच से कोई महावीर ही बारात को पारकर मोतीचूर के लड्ड का स्वाद जिह्वा पर चढ़ते आनंद आता है। मसलन, एक रोज, मेरे एक
आगे निकलने का कौशल दिखला सकता है। ही प्रजातंत्र मुझे बहुत अच्छा लगा था, बहुत मेहमान, जिन्हें रात नौ बजे की गाड़ी से
और मंथर गति से चलने वाले ये जुलूस ही प्यारा। इसलिये मैंने उसी दिन प्रजातंत्र से दिल्ली जाना था, शाम छह बजे से ही रेलवे
अथवा बारातें, ट्रैफिक को कितनी देर जाम इक तरफा रिश्ता कायम कर लिया था और स्टेशन जाने हेतु व्याकुल नजर आए। कहने
करके रखेंगी, यह कोई नहीं बतला सकता तब से अब तक मैं, प्रजातंत्र के सकुशल बने लगे- 'आटो बुलवा दो, मैं स्टेशन चल देता
है। न ही इस मामले में कोई किसी की कुछ रहने की कामना, निरंतर करता रहा हूँ तथा
मदद कर सकता है। आखिर हैं तो सभी एक चाहता रहा हूँ कि प्रजातंत्र अपने उद्देश्य में
'अजीब आदमी हो', मैंने कहा - 'यहाँ
स्वतंत्र देश के स्वतंत्र नागरिक, जिन्होंने सदा सफल रहे तथा उसकी कीर्ति चहुँओर से स्टेशन पहुंचने में मुश्किल से पन्द्रह मिनिट
बाकायदा शासन की प्रजातांत्रिक प्रणाली लगेंगे। बाकी समय वहाँ क्या आलू छीलोगे?' | 22 अक्टूबर 2001 जिनभाषित -
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अपना रखी है, जिसके अंतर्गत वे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मूल अधिकार रखते
मुझे लगा कि मैं यदि प्रजातंत्र के बचाव में दलीलें देना प्रारंभ करूंगा तो फिर जरूर मेरे मेहमान की ट्रेन छूट जाएगी। इसलिए मैंने तत्काल आटो बुलवाया और उन्हें विदा किया।
उपर्युक्त वार्तालाप से मैं कई दिनों तक व्यथित रहा। मेरे लिये यह जानकारी निश्चय ही पीड़ादायक थी कि प्रजातंत्र से लोगों का मोहभंग होने लगा है। हालांकि, क्यों होने लगा है ? यह कोई नहीं बतला पाता ।
अब संसद में किसी एक पार्टी को बहुमत नहीं मिला तो मिली-जुली सरकार बनाना पड़ी, जो कि कोई कठोर निर्णय नहीं ले पाती, क्योंकि अगर लेती है तो एकाध घटक खिसकने पर उतारू हो जाता है, जिससे सरकार के अल्पमत में आ जाने का अंदेशा हो जाता है, जबकि अन्य पार्टियों में एका न होने से वैकल्पिक सरकार की गुंजाइश नहीं बन पाती और सबके सिर पर मध्यावधि चुनाव की तलवार लटकने लगती है, तो इसमें प्रजातंत्र का क्या दोष है ?
किसी प्रदेश का मुख्यमंत्री कौन बने इसका निर्णय यदि संबंधित राजनीतिक दल, उसके विधायकों के बहुमत से करने की कोशिश करे तो निश्चय ही विधायक-गण उतने धड़ों में बँट जायेंगे, जितने कि विधायक होंगे, जिसके फलस्वरूप विधायकों की संख्या के बराबर ही मुख्यमंत्री पद के दावेदार उठ खड़े होंगे। इस हालत में पार्टी को टूटने से बचाने हेतु एवं अपने ही दल की सरकार सुनिश्चित करने के लिये यदि मुख्यमंत्री का चुनाव हाईकमान पर छोड़ दिया जाता है, तो इसमें प्रजातंत्र क्या करे ?
सांसदों की संख्या अल्प होने के बावजूद, यदि किसी राजनीतिक दल की मर्जी किसी विशेष विधेयक को संसद में पेश न होने देने की होती है और इस हेतु उस दल के सांसद सदन में नान स्टॉप हंगामा मचाए रखते हैं, ताकि सदन की कार्यवाही चल ही न पाए और इस प्रक्रिया में अन्य विरोधी दल, सरकार की फजीहत होते देख मन ही मन आनंदित होते हुए मूक दर्शक बने रहते हैं,
,
तो इस परिदृश्य में प्रजातंत्र कहाँ दृष्टिगोचर होता है ?
यह सब और ऐसे ही अनेक उदाहरण हैं, जिन्हें मुद्दा बनाकर प्रजातंत्र को बदनाम करने की कोशिश की जाती है। मुझे लगता है कि दान की बछिया को लेकर जो भ्रम चार ठगों ने पण्डित के मन में पैदा किया था, प्रजातंत्र के मामले में वही हथकंडा दोहराया जा रहा है।
·
,
पर मेरे कई मित्र मेरी इस बात से इत्तफाक नहीं रखते! उनका कहना है कि समय के साथ, हमारे प्रजातंत्र में निश्चय ही कुछ गंभीर किस्म की विकृतियाँ विकसित हुई हैं, जिनका कुप्रभाव अब सार्वजनिक रूप से परिलक्षित होने लगा है। किसी विभाग के उद्योग के दफ्तर के कर्मचारियों की हड़ताल तो फिर भी कुछ हद तक समझने वाली बात होती है, पर विभिन्न राजनीतिक दलों के द्वारा आए दिन किए जाने वाले नाना प्रकार के आन्दोलन, बघा रास्ता रोको, रेल रोको, पानी रोको, बिजली रोको, खनिज रोको, गेहूँ रोको, चावल रोको, ग्राम बंद, नगर बंद, शहर बंद, प्रांत बंद, देश बंद, घेराव, हल्लाबोल, आत्मदाह आदि पता नहीं किस विधान के अंतर्गत उचित माने जाते हैं? इनसे न जाने किनका क्या भला होता है? और यह भी पता नहीं कि यदि लोग यह सब केवल अपनी शक्ति के प्रदर्शन हेतु ही नहीं करते हैं, तो फिर प्रजातंत्र में उन्हें यह सब करने के लिये बाध्य क्यों होना पड़ता है ?
यहाँ विनम्रता पूर्वक में यह कहना चाहूँगा कि दरअसल यही तो प्रजातंत्र की खूबी है कि लोगों को अपनी पीड़ा, अपना दर्द, अपना आक्रोश, अपने विचार, कभी भी, कहीं भी किसी भी शांतिपूर्ण तरीके से प्रकट करने का अवसर उपलब्ध है। इसे प्रजातंत्र का गुण माना जाना चाहिए, अवगुण नहीं और फिर आन्दोलन तो जीवन्त होने की निशानी है जो जीवित होते हैं वही तो हलचल कर पाते हैं वही तो आन्दोलित होने की क्षमता रखते हैं। प्रजातंत्र में आन्दोलन तो स्वाभाविक हैं, समुद्र में लहरों की तरह स्वाभाविक ।
7/56 ए, मोतीलाल नेहरू नगर (पश्चिम) भिलाई (दुर्ग) छ.ग. 490020
समाचार
श्री दिगम्बर जैन ज्ञानोदय तीर्थ क्षेत्र, ज्ञानोदय नगर अजमेर में वार्षिक कलशाभिषेक एवं पदयात्रा समारोह
दिनांक 30.9.2001 रविवार, को अ. भा. श्री दिगम्बर जैन ज्ञानोदय तीर्थ क्षेत्र, अजमेर में वार्षिक जिनाभिषेक का विशाल स्तर पर भव्य कार्यक्रम आयोजित हुआ।
कलशाभिषेक महामहोत्सव में भाग लेने हेतु अनेक नगरों, ग्रामों से पदयात्रा करके अदम्य उत्साह एवं हर्षोल्लास के साथ परम पावन अतिशयकारी तीर्थ पर हजारों की संख्या में नर नारी, बालअबाल पधारे।
अजमेर नगर से लगभग 2500 साधर्मीजनों ने पैदल चलकर कलशाभिबेक कार्यक्रमों में अपनी सहभागिता दी।
इस प्रकार लगभग 30 कि.मी. किशनगढ़ से पदयात्रा प्रारंभ करके प्रातः 10.00 बजे क्षेत्र पर पदार्पण किया।
ब्यावर, नसीराबाद, जेठाना, मांगलियावास, छोटा लाम्ब भवानीखेड़ा, केकड़ी, सरवाड़ आदि-आदि स्थानों से सहस्राधिक धर्मानुरागी समाज ने भाग लिया।
दिगम्बर जैन समिति (राज.) की | ओर से क्षेत्र पर पैदल आने वाले बन्धुओं का सम्मान किया गया।
विश्व विख्यात नाम आर. के. मार्बल्स लि. किशनगढ़ की ओर से क्षेत्र पर पधारे सकल साधर्मी बन्धुओं के लिये सामूहिक भोज दिया गया।
श्रेष्ठि श्री संजय कुमार जी, विजय कुमार जी महतिया की ओर से "कल्याण मंदिर विधान" पूजन का भव्य आयोजन किया गया।
इस प्रकार लगभग आठ हजार
साधर्मी बन्धुओं ने इस महामहोत्सव कार्यक्रम में भाग लिया।
भीकमचन्द्र पाटनी स. मंत्री
'अक्टूबर 2001 जिनभाषित 23
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जैन संस्कृति और साहित्य के विकास
में कर्नाटक का योगदान
प्रो. (डॉ.) राजाराम जैन आदिपम्प सम्भवतः ऐसा
मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की है। ऐसे प्रथम कन्नड़ जैन कवि था, जिसने माननीय लेखक ने पूर्वांक में कर्नाटक की भूमि को
दर्शनार्थियों में सुप्रसिद्ध पुराविद् कन्नड के 'आदिपराण' नामक ] अपने जन्म और साहित्यिक-सांस्कृतिक सर्जना से विभ
जेम्स फर्ग्युसन, बर्जेस, स्मिथ महाकाव्य में लिखा है कि - 'भरत | षित करने वाले जैनाचार्यों और कवियों की लम्बी सूची आदि प्रमुख हैं। जर्मनी के दार्शने अयोध्या में सम्राट पद ग्रहण प्रस्तुत की थी। प्रस्तुत लेख में उनके साहित्यिक और |निक विद्वान् डॉ. हेनरिच जिम्मर ने किया। हिमवत-पर्वत से लवण- सांस्कृतिक अवदान पर प्रकाश डाला जा रहा है। तो यहाँ तक लिखा है कि . सागर पर्यन्त षटखण्ड भूमण्डल
'आकृति एवं अंग-प्रत्यंगों की उसका शासन मानता था। उसके
संरचना की दृष्टि से यद्यपि यह धर्म-प्रेम की कीर्ति दिग्दिगन्त में व्याप्त थी। प्रजा भी राजा की भाँति | मूर्ति मानवीय है, तथापि अधर में लटकती हिमशिला की भाँति वह धर्म में अनुरक्त थी। ऋषभपुत्र भरत इस देश का प्रथम चक्रवर्ती सम्राट | अमानवीय-मानवोत्तर है और इस प्रकार जन्म मरण रूप संसार से हुआ इसीलिए उसके नाम पर आज भी यह देश 'भारत' कहलाता दैहिक चिन्ताओं से वैयक्तिक नियति, इच्छाओं, पीड़ाओं और
घटनाओं से असंपृक्त और पूर्णतया अन्तर्मुखी चेतना की वह सफल हम लोग तो यहाँ इतिहास सुनाने के लिये नहीं, बल्कि इस | अभिव्यक्ति है।' कर्नाटक की तपोभूमि की रज-वन्दन करने आये हैं और उसके स्वर्णिम | कर्नाटक ही नहीं, भारत के गौरव को उज्ज्वल करने वाली उस अतीत का स्मरण कर अपनी साहित्यिक ऊर्जा को प्रदीप्त करने के महान ऐतिहासिक मूर्ति ने निस्सन्देह ही श्रवणबेलगोला को भारत के लिये उत्तरापथ के कोने-कोने से चलकर यहाँ पहुँचे हैं। आज हमें स्मरण | पूर्वांचल स्थित तीर्थों के समान ही दक्षिणांचल को भी महान तीर्थ
आ रहा है, चरणपूज्य उस अरिहनेमि जैसे महामहिम शिल्पकार का, | बना दिया है। जिसने अपनी भरी जवानी में भी न केवल अपने परिवार की उपेक्षा हम उन राज-कुलों, जिनवाणीभक्त एवं साहित्य-रसिक गंग, की, अपितु अपनी भूख, प्यास एवं निद्रा को भी भूलकर सतत राष्ट्रकूट, चालुक्य एवं होयसल-नरेशों को भी सादर प्रणाम करते हैं, श्रद्धाभक्ति एवं समर्पित, निष्काम-भावना से विश्व को आश्चर्यचकित जिन्होंने सम्राट खारवेल के समान ही न केवल जैनधर्म के उत्तरोत्तर कर देने वाली उत्तुंग भव्य एवं एक-शिलाश्रित गोम्मटेश की मूर्ति को अभ्युदय के लिये अनेक द्वार खोले, अपितु जैनाचार्य-लेखकों, स्वामी घड़ा, जिसकी सुघड़ता और सौम्यता की प्रशंसा के लिये बोप्पण जैसे वीरसेन, जिनसेन आदि के लेखन-कार्य हेतु वाटनगर तथा तलकाट यशस्वी महाकवि के पास भी समर्थ शब्दों का अभाव हो गया था। | में सुविधा सम्पन्न विद्यापीठों एवं ग्रन्थागारों की स्थापना भी की, अतः उसे अपने तद्विषयक चरित-काव्य में भी लिखना पड़ा था कि जिनमें 5वीं सदी से 11वीं सदी तक विविध भाषा-शैलियों में विविध 'मेरे पास तो केवल टूटे-फूटे असमर्थ अथवा विकलांग शब्द मात्र | विषयक ग्रन्थों का लेखन-कार्य सम्पन्न किया गया। यदि महामन्त्री ही हैं, फिर भी मैं यह कहने के लिये बाध्य हूँ कि -
भरत एवं नन्न ने अक्खड़ एवं फक्कड़ महास्वाभिमानी अभिमानमेरु अतितुंगाकृतियादोडागदद रोल्सौन्दर्य मौन्नत्यमुं, पुष्पदन्त को अपने राजभवन में अत्यंत विनम्र भाव से आश्रय स्थान नुतसौन्दर्यनुभागे मत्ततिशयंतानागदौन्नत्यमुं।
न दिया होता, तो निश्चय ही अपभ्रंश का आद्य महापुराण एवं चरितनुतसौन्दर्यमुमूर्जिताशियमुं तन्नल्लि निन्दिर्युवें, साहित्य लिखा ही न गया होता। क्षितिसम्पूज्यमो गोम्मटेश्वरजिनश्री रूपमात्मोपम।।
प्रचण्ड पराक्रमी राष्ट्रकूट नरेश अमोघवर्ष तो आचार्य वीरसेन अर्थात् कोई भी मूर्ति आकार में जब बहुत ऊँची एवं विशाल | एवं जिनसेन से इतना प्रभावित था कि उसने अपना राज्यपाट ही होती है, तब उसमें प्रायः सौन्दर्य का अभाव रहता है। यदि वह विशाल | छोड़कर आचार्य जिनसेन से दीक्षा ले ली थी और उनके सान्निध्य भी हुई और उसमें सौन्दर्य-बोध भी हो, तो भी उसमें दैवी-चमत्कार में ही रहकर वह स्वयं कवि बन गया था। अपनी प्रश्नोत्तररत्नमालिका का उत्पन्न करना कठिन है लेकिन गोम्मटेश की इस मूर्ति में उक्त | के अन्त में उसने स्वयं लिखा हैतीनों के समुच्चय से उसकी छटा अलौकिक, अभूतपूर्व एवं विवेकात्त्यक्तराज्येन राज्ञेयं रत्नमालिका। वर्णनातीत हो गई है।
रचितामोघवर्षेण सुधियां सदलंकृतिः।।29।। देशवासियों को तो इस मूर्ति ने मोहित किया ही, भौतिकता अर्थात् हेय एवं उपादेय तत्त्वों का विवेक प्राप्त कर अपने के रंग में रंगे हुए पाश्चात्य-दर्शनार्थियों ने भी उसकी चारुता देखकर | साम्राज्य का त्यागकर मुझ अमोघवर्ष (भूतपूर्व राष्ट्रकूट- सम्राट तथा
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इस समय के राजर्षि) ने सुधीजनों को अलंकृत करने वाली इस उत्तर - कृपणता अर्थात् वैभव-सम्पत्ति का न तो स्वयं उपभोग 'प्रश्नोत्तररत्नमालिका' की रचना की है।
करना, और न ही उसे सुपात्रों को दान में देना। अमोघवर्ष के दो ग्रन्थ अत्यंत प्रसिद्ध हैं - छन्द एवं अलंकार प्रश्न - वैभव के होने पर प्रशंसनीय विषय क्या है? शास्त्र से संबंधित 'कविराजमार्ग' तथा नीतिशास्त्र से संबंधित उक्त उत्तर - उदारता, जिससे स्व-पर को सुख-सन्तोष मिलता है। 'प्रश्नोत्तररत्नमालिका'। प्रश्नोत्तररत्नमालिका का महत्त्व इसी से जाना प्रश्न - धन-विहीन पुरुष की प्रशंसनीय बात कौन-सी मानी जाने जा सकता है कि उसकी पाण्डुलिपि काल-प्रभाव से भारतवर्ष में तो | योग्य है? दुर्भाग्य से अनुपलब्ध रही, किन्तु 'कातन्त्र-व्याकरण' के परमभक्त उत्तर - उदारता, मानवता एवं ऋजुता। तिब्बत के भारतीय-विद्या के रसिक श्रद्धालुओं ने उसे तिब्बत के एक प्रश्न - शक्ति-सम्पन्न पुरुषों का सराहनीय गुण कौन-सा है? शास्त्रभण्डार में सुरक्षित ही नहीं रखा, अपितु उसका तिब्बती अनुवाद उत्तर - सहिष्णुता, क्षमाशीलता एवं न्यायप्रियता। कराकर उसका अपने यहाँ प्रचार भी किया। संयोग से उसकी 'कविराजमार्ग' भले ही लाक्षणिक ग्रन्थ हो किन्तु अमोघवर्ष का पाण्डुलिपि आचार्य श्री विद्यानन्द जी को सन् 1971-72 के आसपास कवि-हृदय इतना भावुक था तथा कर्नाटक के प्रति उसके मन में इतना प्राप्त हुई थी। उनकी प्रेरणा से उसका नागरी संस्करण तथा हिन्दी एवं | अधिक उदार भाव था कि उसने काव्यारम्भ में अपनी मातृभूमि की अंग्रेजी-अनुवाद भ. महावीर के 2500वें परिनिर्वाण समारोह (सन् रज-वन्दन कर आह्लादित भाव से उसकी प्रशंसा में इस प्रकार चित्रण 1974-75) के आसपास प्रकाशित कराया गया और उसे सर्वसुलभ | किया हैकराया गया, यद्यपि यह एक अत्यंत लघुकृति है। उसमें संस्कृत के 'समस्त भूमण्डल में, ऐसा सुन्दरतम भूखण्ड आपको कहीं आर्या-छन्द के केवल 29 श्लोक मन्त्र हैं किन्तु उनमें निश्चय, व्यवहार, | भी दिखाई नहीं देगा, जहाँ लोक-मानस द्वारा सहज स्वाभाविक रूप आध्यात्मिक एवं आचार के साथ-साथ कवि के अपने जीवन के | में निःसृत-समृद्ध कन्नड़ के मधुर-संगीत के समकक्ष, हृदयावर्जक अनुभवों का, प्रियदर्शी मौर्य सम्राट अशोक के सदृश ही प्रश्नोत्तरी- | संगीत सुनाई देता हो।' शैली में एक साथ ऐसा सामंजस्य बैठाया गया है कि उसके पाण्डित्य, | 'उस कर्नाटक-भूमि के मूल निवासी जन, स्वर एवं लयबद्ध काव्य-कौशल तथा भाषाधिकार पर आश्चर्य होता है। कहाँ तो वह | संगीतात्मक ध्वनियों में ऐसे जन्मजात प्रतिभा सम्पन्न होते हैं कि वे शस्त्रकला का पारगामी रणधोरी सैनिक सम्राट और कहाँ उसकी किसी के भी, संगीत की अन्तरंग भाव-भूमि को तत्काल ही आत्मसात् शास्त्रगामिता एवं लेखनी की प्रौढ़ता? धन-वैभव के विषय में उसकी कर लेने में सक्षम हैं और स्वयं भी वे बड़े संवेदनशील रहते हैं।' विचारणा का एक मार्मिक उदाहरण देखिए - 'प्रश्नोत्तरी-शैली' में वह । 'उस कर्नाटक के केवल विद्यार्थीगण ही नहीं, अपितु सर्वथा स्वयं से ही प्रश्न करता है और स्वयं ही उसका उत्तर भी देता है- | अशिक्षित ग्राम्यजन भी, जिसने कि विद्यालयों में कभी भी विधिवत्
'किं शोच्यं कार्पण्यं सति विभवे किं प्रशस्यमौदार्यम्। | शिक्षा ग्रहण नहीं की, वह भी अपनी सहज स्वाभाविक प्रतिभा के तनुरवित्तस्य तथा प्रभविष्णोर्यत्सहिष्णुत्वम्।।25।' । बल पर काव्य-विद्या के परम्परागत नियमों को समझते हैं तथा अपने प्रश्न - वैभव-सम्पत्ति के होते हए भी शोचनीय विषय क्या है? लोक-संगीत में स्वयं उनका प्रयोग भी कड़ाई पूर्वक किया करते हैं।'
महाजन टोली नं. 1, आरा-802301 (बिहार)
किं शोच्यं कार्पण्यं सति विभवे किं प्रशस्यमौदार्यम् तनुतरवित्तस्य तथा प्रभविष्णोर्यत्सहिष्णुत्वम्।।
धन होने पर निन्दनीय क्या है? कृपणता। निर्धन होने पर प्रशंसनीय क्या है? उदारता। शक्तिशाली होने पर सराहनीय क्या है? सहिष्णुता।
को देवो निखिलज्ञो, निर्दोषः किं श्रुतं तदुद्दिष्टम्। को गुरुरविषयवृत्तिर्निर्ग्रन्थः स्वस्वरूपस्थः।।
देव कौन है? सर्वज्ञ। निर्दोष श्रुत क्या है? सर्वज्ञ का उपदेश। गुरु कौन है? जो विषयों से निवृत्त है, निर्ग्रन्थ है और आत्मस्वरूप में लीन रहता है।
दानं प्रियवाक्सहितं ज्ञानभगर्वं क्षमान्वितं शौर्यम्। त्यागसहितं च वित्तं दुर्लभमेतच्चतुर्भद्रम्॥
लोक में चार (गुण दुर्लभ) हैं। प्रय बोलते हुए दान करना, ज्ञान रहते हुए अभिमान न करना, शौर्य होते हुए भी क्षमाशील होना और धन होने पर त्याग करना।
किं दुर्लभं नृजन्म, प्राप्येदं भवति किं च कर्त्तव्यम्। आत्महितमहितसङ्गत्यागो रागश्च गुरुवचने।।
दुर्लभ क्या है? मनुष्य जन्म। इसे प्राप्त करके क्या करना चाहिए? आत्मा का हित, अहितकर लोगों की संगति का त्याग और गुरु के उपदेश में अनुराग।
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चिन्तन की स्वच्छता स्वास्थ्य के
लिए अनिवार्य
पं. श्रीराम शर्मा आचार्य पिछली भूलों का परि
चूल्हे पर पकती है। लगने को मार्जन, वर्तमान का परिष्कृत अनुकूलताएँ और प्रतिकूलताएँ धूप-छाँव की तरह आती- 1
यह भी लगता है कि विचार निर्धारण एवं उज्ज्वल भविष्य | जाती र जाती रहती हैं। उनमें से एक भी चिरस्थायी नहीं होती। सामने आने |
बिना बुलाये आते हैं और का निर्माण यदि सचमुच ही | वाली परिस्थिति का समाधान ढूँढने के लिये और भी अधिक सूझ- अनचाहे ही चढ़ दौड़ते हैं पर अभीष्ट हो, तो इसके लिये बूझ की, साहस एवं पुरुषार्थ की आवश्यकता पड़ती है। उन्हें जुटाने | वास्तविकता ऐसी नहीं है। हम विचार संस्थान पर दृष्टि के लिये मनोबल तगड़ा रहना चाहिए, अन्यथा निराशा, चिन्ता, कोई दिशा-धारा निर्धारित करते जमानी चाहिए। इस मान्यता भय जैसी कुकल्पनाएँ घिर जाने पर तो हाथ-पैर फूल जाते हैं, कुछ
हैं और उस सरिता में तदनुरूप को सुस्थिर करना चाहिए कि करते-धरते नहीं बन पड़ता है। फलतः अपने ही बुने जाल में मकड़ी |
लहरें उठने लगती हैं। समस्त समस्याओं का उद्गम
भीतरी हेर-फेर का बाहा भी यहीं है और समाधान भी की तरह फँसकर अकारण कष्ट सहना पड़ता है। जो इनसे बचता
क्रिया-कलापों और परिस्थिइसी क्षेत्र में सन्निहित है। यह | है, वह अक्षुण्ण स्वास्थ्य का श्रेयाधिकारी बनता है।
तियों में परिवर्तन होना सुनिसोचना सही नहीं है कि धन
श्चित है। मनःस्थिति के अनुवैभव के बाहुल्य से मनुष्य सुखी एवं | सम्पन्न ही सब कुछ बन गये होते, तब | रूप परिस्थिति के बदल जाने की बात को समुन्नत बनता है। इसलिये सब कुछ छोड़कर महामानवों की कहीं कोई पूछ न होती, न सभी विज्ञजन एक स्वर से स्वीकार करते हैं। उसी का अधिकाधिक अर्जन जैसे भी संभव आदर्शों का स्वरूप कहीं दृष्टिगोचर होता और अस्तु, परिस्थितियों को बदलने के निमित्त हो, करना चाहिए, इस भ्रान्ति से जितनी न मानवी गरिमा का प्रतिनिधित्व करने वाले मनःस्थिति को बदलना प्राथमिक उपचार की जल्दी छुटकारा पाया जा सके, उतना ही उत्तम महामानवों की कहीं आवश्यकता-उपयोगिता तरह माना गया है। विचारों में मूढ़ता भरी रहने समझी जाती।
पर, भ्रांतियों और विकृतियों के अम्बार लगे शरीर की बलिष्ठता और चेहरे की समझा जाना चाहिए कि व्यक्ति या रहने पर यह सम्भव नहीं कि किसी को गईसुन्दरता का अपना महत्त्व है। धन की भी व्यक्तित्व का सार-तत्त्व उसके मनःसंस्थान गुजरी स्थिति में पड़े रहने से छुटकारा मिल उपयोगिता है और उसके सहारे शरीर यात्रा में केन्द्रीभूत है। अन्तःकरण, अन्तरात्मा सके। जिसका भाग्य बदलता है, उसके के साधन जुटाने में सुविधा रहती है। इतने आदि नामों से इसी क्षेत्र का वर्णन-विवेचन विचार बदलते हैं। विचार बदलने से मतलब पर भी यह तथ्य भुला नहीं दिया जाना चाहिए किया जाता है। शास्त्रकारों ने 'मन एवं है - अवांछनीयताओं की खोज-कुरेद और जो कि व्यक्तित्व का स्तर और स्वरूप, चिन्तन मनुष्याणां कारणं बंध मोक्षयोः' 'आत्मेव भी अनुपयुक्त है, उसे बुहार फैंकने का साहस क्षेत्र के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हआ आत्मनः बन्धु आत्मैव रिपुरात्मनः' 'उद्द- | भरा निश्चित। है। व्यक्तित्व का स्तर ही वस्तुतः किसी के रेदात्मनात्मानम् नात्मानम् अवसादयेत्' आदि यहाँ एक तथ्य और भी स्मरण रखने उत्थान-पतन का आधारभूत कारण होता है। अभिवचनों में एक ही अंगुलि-निर्देश किया योग्य है कि मात्र कुविचारों का समापन ही उसी के अनुरूप भूतकाल बीता है, वर्तमान है कि मन के महत्त्व को समझा जाये और सब कुछ नहीं है। एक कदम उठाने, दूसरा बना है और भविष्य का निर्धारण होने जा रहा उसके निग्रह के, परिशोधन-परिष्कार के बढ़ाने के उपक्रम के साथ ही यात्रा आरम्भ है। उसकी उपेक्षा करने पर भारी घाटे में रहना निमित्त संकल्पपूर्वक साधनारत रहा जाये। मन होती है। छोड़ने पर खाली होने वाले स्थान पड़ता है। स्वास्थ्य का, शिक्षा का, प्रतिभा को जानने की उपमा विश्व-विज्ञान से दी गई | को रिक्त नहीं रखा जा सकता। उस स्थान का, सम्पदा का, पद अधिकार का, कितना है, जो अपने ऊपर शासन कर सकता है, वह पर नई स्थापना भी तो होनी चाहिए। ही महत्त्व क्यों न हो, पर उनका लाभ मात्र सबके ऊपर शासन करेगा, इस कथन में अनौचित्य के अनुकूलन के साथ ही औचित्य सुविधा संवर्धन तक सीमित है। यह सम्पदा बहुत कुछ तथ्य है।
का संस्थापन भी आवश्यक है। आपरेशन से अपने लिये और दूसरों के लिये मात्र निर्वाह मन का, आत्मा का, जो निरूपण मवाद निकालने के उपरान्त घाव भरने के सामग्री ही जुटा सकती है, पर इतने भर से | किया जाता है उसे एक शब्द में विचारणा का लिये तत्काल मरहम-पट्टी भी तो करनी पड़ती बात बनती नहीं, आखिर शरीर ही तो | स्तर ही कहना चाहिए। मान्यताएँ, भावनाएँ, | है। कुविचारों की विकृत आदतों का निराकरण व्यक्तित्व नहीं है, आखिर सुविधाएँ मिल भर आस्थाएँ इसी क्षेत्र की गहरी परतें हैं। कल्पना, तब हो सकता है, जब उस स्थान पर जाने से ही तो सब कुछ सध नहीं जाता, कुछ विवेचना, धारणा इसी क्षेत्र में काम करती हैं। सत्प्रवृत्तियों को प्रतिष्ठित कर दिया जाए, इससे आगे भी है। यदि न होता तो साधन सम्मान, आदत, स्वभाव की खिचड़ी इसी | अन्यथा घोंसला खाली पड़ा रहने पर
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चमगादड़ न सही, अबाबील रहने लगेगा दुष्प्रवृत्तियाँ, अवांछनीय आदतें, कुविचारणाएँ बहुत समय तक अभ्यास में सन्निहित रहने पर स्वाभाविक प्रतीत होने लगती है, निर्दोष लगती है और कभी-कभी तो उचित एवं आवश्यक दिखने लगती हैं। उनके प्रति पक्षपात बनता है और मोह जुड़ता देखा गया है। ऐसी दशा में उसे ढूँढ निकालना और यह समझ सकना तक कठिन पड़ता है कि उनसे कुछ हानियाँ भी हैं या नहीं। इसका निश्चय श्रेष्ठ, सज्जनों और दुष्ट दुर्जनों की सद्गति एवं दुर्गति का पर्यवेक्षण करते हुए किया जा सकता है। जो दुष्प्रवृत्तियों को अपनाते रहे हेय जनों जैसी मनःस्थिति में संतुष्ट रहे, अचिन्त्य चिन्तन में निरत रहे, उन्हें ठोकरें खाते और ठोकरें मारते हुए ही दिन काटने पड़े हैं, जिनने प्रगति की बात सोची और वरिष्ठता के लिये आकांक्षा जगाई, उन्हें साथ ही वह निर्णय भी करना पड़ता है कि व्यक्तित्व का स्तर उठाने वाली विचार प्रक्रिया को अपनाने, स्वभाव का अंग बनाने में कोई कसर न रहने दी जायेगी।
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इस संदर्भ में सर्वप्रथम उन आदतों से जूझना चाहिए जो एक प्रकार से अपंग स्थिति में डाले रखने के लिये उत्तरदायी हैं। पक्षाघात पीड़ितों, अपंगों, अशक्तों की तरह हीनता के विचार भी ऐसे हैं, जिनके रहते किसी का भी पिछड़ेपन से पिंड छूटना असम्भव है। 'लो ब्लड प्रेशर के मरीज ऐसे पड़े रहते हैं, जैसे लंघन करने वाले ने चारपाई पकड़ ली हो और करवट बदलना तक कठिन हो रहा हो। आलसियों की अकर्मण्यों की गणना ऐसे ही लोगों में होती है। वे समर्थ होते हुए भी असमर्थ बनते है, निरोग होते हुए भी रोगियों की चारपाई में जा लेटते हैं। आरामतलबी, काहिली, कामचोरी हरामखोरी ऐसी ही मानसिक व्यथा है, जिसके कारण बहुत कुछ कर सकने में समर्थ व्यक्ति भी अपंगअसमर्थों की तरह दिन गुजारता है ढेरों समय खाली होने पर भी महिलाओं की तरह उसे जैसे-तैसे काटता है, जबकि उन क्षणों का किन्हीं उपयोगी कामों में नियोजन करने के उपरान्त कुछ ही समय में अतिरिक्त योग्यता का धनी बना जा सकता है, सक्षमों, सुयोग्य प्रतिभावानों और सुसम्पन्नों की पंक्ति में खड़ा हुआ जा सकता है।
'आलस्य' शरीर को स्वेच्छापूर्वक
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अपंग बनाकर रख देने की प्रक्रिया है। इसी प्रकार प्रमाद मन को जकड़ देने वाली रीतिनीति है। प्रमादी सोचने का कष्ट सहन करना नहीं चाहता है, जो चल रहा है, उसी से समझौता कर लेता है। नया कुछ सोच न सकने पर, नया साहस न जुटा सकने पर, प्रगति की सुखद कल्पनाएँ करते रहना, शेखचिल्ली की तरह उपहासास्पद बनना है। आलसी उन कामों को नहीं करते, जो बिना कठिनाई के तत्काल किये जा सकते थे। इसी प्रकार प्रमादी उतार-चढ़ावों के सम्बन्ध में कुछ भी सोचने का कष्ट नहीं उठाते। मात्र जिस तिस पर दोषारोपण करते हुए दुर्भाग्य का रोना रोते हुए मन हल्का करते रहते हैं, जबकि दोष उनका अपना होता है। परिस्थितियों को बदलने सुधारने के लिये जिस सूझबूझ, धैर्य संतुलन, साहस एवं प्रयास की आवश्यकता पड़ती है, उसे जुटा न पाने का प्रतिफल यह होता है कि अनीति जड़ जमा लेती है। पिछड़ापन ऐसा सहचर बनकर बैठ जाता है, जिसे हटाने या बदलने जैसी कोई बात बनती ही नहीं । अस्तव्यस्त विचारों को यदि वर्तमान को सुधारने वाले उपाय ढूँढने में लगाया जा सके और वर्तमान परिस्थितियों से तालमेल बिठाते हुए अगला कदम क्या हो सकता है, यदि इस पर व्यावहारिक दृष्टि से चिन्तन किया जा सके तो प्रगति पथ पर बढ़ चलने का कोई मार्ग अवश्य मिलेगा, पर जिसने पत्थर जैसी जड़ता अपना ली है, उसे रचनात्मक प्रयासों में लग पड़ने के लिए न आलस्य छूट देता है न विचारों की असंगत उड़ानों से विरत करके कुछ व्यावहारिक उपाय सोचने की सुविधा, प्रमाद की खुमारी रहते सोचने की सुविधा, प्रमाद की खुमारी रहते बन पड़ती है। वस्तुतः प्रगतिशीलता के यही दो अवरोध चट्टान की तरह उड़ते हैं। इन्हें हटाये बिना कोई गति नहीं, कोई प्रगति नहीं । को हीन बनाने वाले मनोविकारों में उदासी और निराशा प्रमुख हैं। पेट भरने के बाद नदी की बालू में लोट-पोट करने वाले मगर और उदरपूर्ति के उपरान्त कीचड़ में मस्त होकर पड़े रहने वाले वराह को फिर दीनदुनिया की कोई सुध नहीं रहती। जब वासी पच जाता है और झोले में खालीपन प्रतीत होता है, तभी वे उठने और कुछ करने की होता है, तभी वे उठने और कुछ करने की बात सोचते हैं। 'पंछी करें न चाकरी, अजगर करे न काम', का उदाहरण बनकर जो समस्त कामनाओं से रहित परमहंसों की तरह दिन
मनुष्य
गुजारते हैं और 'राम भरोसे जो रहे पर्वत पै हरियाय' के भाग्य भरोसे जो समय काटते हैं, उन्हें 'ना काहू सों दोस्ती ना काहू सो बैर' वाली स्थिति रहती है। वे न कल की सोचते हैं न परसों की । उस उदासीन सम्प्रदाय का दर्शन अपनाने वालों के लिये प्रगति और अवगति से कुछ लेना-देना नहीं होता, मुट्ठी बाँधकर आते और हाथ पसारकर चले जाते हैं, न शुभ की आकांक्षा, न अशुभ की उपेक्षाऐसी उदासीनता पिछड़े और गये गुजरे स्तर का प्रतीक है।
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निराशा इससे बुरी है वह सोचती भी है और चाहती भी किन्तु साथ ही अपनी असमर्थता, भाग्य की मार, परिस्थितियों की प्रतिकूलता, साथी की बेरुखी जैसी निषेधात्मक संभावनाओं पर ध्यान केन्द्रित करती है और कदम उठाने से पहले ही असफल रहने का दृश्य देखती और हार मान लेती है। ऐसे लोग उदास रहने वालों की अपेक्षा अधिक दीन-हीन स्थिति में होते हैं और संतोष भी हाथ से गँवा बैठते हैं।
अशुभ की आशंका जिन्हें डराती रहती है, वे चिन्तातुर पाये जाते हैं। कुछ चाहते तो हैं किन्तु सूझबूझ और पुरुषार्थ के अभाव परिस्थितिजन्य गतिरोध मान बैठते हैं अपने को ऐसे चक्रव्यूह में फँसा पाते हैं, जिसमें से बच निकलने का रास्ता अवरुद्ध पाते हैं, इस स्तर के व्यक्ति चिन्तातुर देखे जाते हैं, घबराहट में सिर धुनते हैं, हड़बड़ी में कुछ का कुछ कहते, कुछ करते और सोचते हैं. वह सब बेतुका होता है अपनी परेशानी साथियों के सामने इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं, मानो आकाश टूटकर उन्हीं पर गिरा हो । यों इस कथन में उनका प्रयोजन सहायता न सही, सहानुभूति पाने का तो होता ही है पर वे यह भूल जाते हैं कि हारते का सभी साथ छोड़ देते हैं। मित्र भी कन्नी काटने लगते हैं। इस दुनिया में सफल, साहसी और समर्थ को ही साथियों का सहारा मिलता है। डूबते को देखकर लोग दूर रहते हैं, ताकि चपेट में आकर कहीं उन्हें भी न डूबना पड़े। उदारपरोपकारी तो जहाँ-तहाँ उँगलियों पर गिनने जितनी संख्या में ही पाये जाते हैं। ऐसी दशा में चिन्तातुर, निराश, भयभीत, संत्रस्त, कायर, दुर्बल होने की दुहाई देने के नाम पर यदि सहानुभूति अर्जित करना चाहता हो तो भी उसे नहीं के बराबर सफलता मिलेगी। जो
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मिलेगी, वह भी उथली एवं व्यंग्य-तिरस्कार | उक्ति चरितार्थ करता है। कुकल्पनाओं के नहीं होते। जितने संकट अनगढ़ मस्तिष्क द्वारा से भरी हुई होगी। सहायता तो कहीं से अँधेरे में झाड़ी की आकृति भूत जैसी बन सोचे जाते हैं, देखा गया है, उनमें से आधेकदाचित् ही मिल सके। यह भी हो सकता जाती है। साहस और विवेक की मात्रा घट चौथाई भी सामने नहीं आते। काली घटाएँ है जिनसे सामान्य स्थिति में थोड़ी-बहुत जाने पर ऐसे अनगढ़ विचार उठने लगते हैं, सदा बरसने वाली ही नहीं होती। सहायता की आशा थी, उससे भी हाथ धोना जिनसे विपत्ति का आक्रमण और उसके कारण अनुकूलताएँ और प्रतिकूलताएँ धूपपड़े।
विनाश का भयावह दिवास्वप्न आँखों के छाँव की तरह आती-जाती रहती हैं। उनमें से अपने आपको कमजोर करने और सामने तैरने लगता है।
एक भी चिरस्थायी नहीं होती। सामने आने गिराने का यह अवसाद-उपक्रम जिसने भी जब कल्पना-जगत में बेपर की उड़ानें वाली परिस्थितियों का समाधान ढूँढने के लिये अपनाया है, वे घाटे में रहे हैं। मनोबल को ही उड़नी हैं तो फिर उन्हें विधेयात्मक स्तर और भी अधिक सूझबूझ की, साहस एवं गिराना भी धीमी आत्महत्या है, जो रोग- की क्यों न गढ़ा जाय? असफलता के स्थान पुरुषार्थ की आवश्यकता पड़ती है। उन्हें निवारण, अर्थ-उपार्जन, सौभाग्य-संवर्धन, पर सफलता का स्वप्न देखने में क्या हर्ज है? जुटाने के लिये मनोबल तगड़ा रहना चाहिए संकट-निवारण जैसे अगठित महत्त्वपूर्ण संकट के न आने और उसके स्थान पर सुखद अन्यथा निराशा, चिन्ता, भय जैसी कुकल्पकार्यों में अजस्र सहयोग प्रदान करता है। संभावनाओं के आगमन की बात सोचने में नाएँ घिर जाने पर तो हाथ-पैर फूल जाते हैं, गिराने, थकाने और खोखला बनाने वाले भी कोई अड़चन नहीं होनी चाहिए। यथार्थता कुछ करते-धरते नहीं बन पड़ता है, फलतः उपर्युक्त मनोविकारों में चिन्तन का निषेधा- तो समय पर ही सामने आती है। आशंका तो अपने ही बुने जाल में मकड़ी की तरह फँसकर त्मक प्रवाह ही आधारभूत कारण होता है। कल्पना पर आधारित हो सकती है, सो भी अकारण कष्ट सहना पड़ता है। जो इनसे जैसा सोचा होता है, उसमें वास्तविकता का मनगढन्त। जब गढ़ना ही रहा तो भूत क्यों बचता है, वह अक्षुण्य स्वास्थ्य का श्रेयाधिनगण्य-सा ही अंश रहता है। कुकल्पनाओं का गढ़ा जाय, देवता की संरचना करने में भी कारी बनता है। घटाटोप ही, 'शंका डाक मनसामते' की | तो उतनी ही शक्ति लगेगी। डर वास्तविक | नीरोग जीवन के महत्त्वपूर्ण सूत्र' से साभार
आतंकवाद और आणविक शक्तियों को पराजित करने
का एकमात्र उपाय : अहिंसा
गोटेगाँव (श्रीधाम)। सामाजिक एवं सांस्कृतिक विकास तथा । अध्यक्ष श्री अनिल कुमार सिंघई ने प्रस्तुत किया। उत्थान के लिये अग्रगण्य सेवाभावी न्यास श्री सिंघई फकीरचंद विशिष्ट अतिथि डॉ. राजेन्द्र त्रिवेदी ने अहिंसक संस्कृति का गुणवती देवी जैन चेरिटेबिल ट्रस्ट द्वारा दिनांक 5.10.2001 को महत्त्व निरुपित कर उसकी अपरिहार्य उपदेयता पर प्रकाश डाला। न्यास के वार्षिक समारोह के अवसर पर प्रादेशिक अहिंसा सम्मेलन मुख्य अतिथि मध्यप्रदेश शासन संस्कृत अकादमी, भोपाल सम्पन्न हुआ। सिंघई छतारे लाल जैन मंदिर के सुसज्जित विशाल के पूर्व सचिव डॉ. 'भागेन्दु' जैन अपने प्रभावक प्रेरक उद्बोधन में सभा भवन में आयोजित इस गरिमामय सम्मेलन की अध्यक्षता हिंसा के प्रकार, भेद और विविध रूपों के माध्यम से उनकी दानवी प्रशासनिक संस्थान, जबलपुर के संचालक प्रसिद्ध समाज सेवी श्री | लीला का पर्दाफाश कर अहिंसा का स्वरूप समझाया। अहिंसा को नरेश गढ़वाल ने की। भगवान महावीर स्वामी के 2600वें जन्म | धर्म, श्रेष्ठ कर्म और सर्वोदय की उदात्त योजना से संश्लिष्ट महाशक्ति जयंती वर्ष एवं गाँधी जयंति सप्ताह में आयोजित इस समारोह के पुंज, संरक्षक अस्त्र निरूपित किया। उन्होंने आतंकवाद और आणविक मुख्य अतिथि राष्ट्रीय शोध संस्थान, श्रवण वेलगोला (कर्नाटक) के महाविनाश से विश्व की सुरक्षा का अमोघ अस्त्र अहिंसा को पूर्व डायरेक्टर जैन जगत् के मूर्धन्य मनीषी डॉ. भागचन्द जैन विस्तारपूर्वक सोदाहरण समझाकर इस महनीय सम्मेलन के आयोजन 'भागेन्दु' दमोह, तथा विशिष्ट अतिथि रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय, के लिये ट्रस्ट की भूरि-भूरि सराहना की। ट्रस्ट के समीचीन विकास जबलुपर के हेड ऑफ द डिपार्टमेंट डॉ. हीरालाल जैन, संस्कृत- पालि- के लिये अपनी मंगलकामनाएँ अर्पित कर अनेक उपयोगी सुझाव भी प्राकृत विभाग के प्रोफेसर डॉ. राजेन्द्र त्रिवेदी और गोटेगाँव के नगर दिये। श्री नरेश गढ़वाल ने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में सिंघई पंचायत के अध्यक्ष श्री राजकुमार जैन थे।
फकीरचंद जी के अनेक प्रेरक संस्मरण और लोकोपकारी विराट जबलपुर से सभागत भजन गायिका श्रीमती संगीता जैन के | व्यक्तित्व की विवेचना कर ट्रस्ट को अपनी मंगलकामनाएं दी। मंगलाचरण से प्रारंभ इस कार्यक्रम के प्रथमचरण में अहिंसा संस्कृति कार्यक्रम के बीच-बीच में अहिंसा प्रेमी भगवान महावीर एवं के सम्वर्द्धक जैन धर्म के अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर के चित्र राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी जी से संबंधित अनेक गीतों-भजनों की सरस के समक्ष अहिंसा-ज्ञान दीप का दीपन मुख्य अतिथि एवं अध्यक्ष के और प्रभावक प्रस्तुति द्वारा श्री अवधेश बेंटिया तथा सौ. संगीता जैन द्वारा किये जाने के उपरान्त मंचासीन सभी अतिथियों तथा सभागत ने अर्धरात्रि पर्यन्त श्रोताओं को भावविभोर किया। विशिष्ट महानुभावों के द्वारा राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी और जिनकी पुण्य प्रारंभ से आभार प्रदर्शन तक कार्यक्रम का कुशल संयोजन स्मृति में न्यास संस्थापित है उन सिं. फकीरचंद गुणवती देवी के चित्रों अनेक संस्थाओं से सम्बंधित, इस ट्रस्ट के न्यासी और दमोह जैन पर पुष्यमाल्य/पुष्पाजंलि समर्पित की गयी। न्यास का परिचय पंचायत के अध्यक्ष श्री वीरेन्द्र कुमार इटोरया ने की। इस प्रतिष्ठापूर्ण गोटेगाँव समाज के गौरव श्री चौधरी सुरेश चन्द्र जी ने प्रस्तुत किया। कार्यक्रम का सफल संचालन श्री अजित कुमार एडवोकेट, जबलपुर न्यास की गतिविधियों एवं प्रवृत्तियों का लेखाजोखा न्यास के युवा | ने किया।
अनिल जैन 28 अक्टूबर 2001 जिनभाषित
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देवस्तुति
अहो जगत् गुरु
सुनो।
| लूट में अंतर कर
ल दोय, पायायो दुःख
पंडित भूधरदास जी अहो जगत गुरु देव, सुनिये अरज हमारी।
शब्दार्थ- अनाथ = अकेला, घनेरे-समूह, बेहाल बुरा हाल, तुम प्रभु दीन दयाल, मैं दुखिया संसारी।।
साहिब= प्रभु। शब्दार्थ- अरज= विनती, दीनदयाल = दीनों पर दया करने | अर्थ - हे प्रभु! मैं तो एक अकेला हूँ, और ये कर्म बहुत एकत्र वाले।
हो गये हैं, इन्होंने मेरा बुरा हाल कर दिया है। हे भगवन्! मेरी विनती अर्थ - हे तीनों लोगों के गुरु भगवन, आप तो दीनों पर दया | सुना
सुनो। करने वाले हैं। मैं संसार का दुखी प्राणी हूँ। आप हमारी विनती को
ज्ञान महानिधि लूटि, रंक निबलकरि डार्यो।
इनकी तुम मुझ माहिं, हे जिन, अंतर पार्यो। इस भव वन के माहि, काल अनादि गमायो। .
शब्दार्थ- पार्यो - डाल दिया है। भ्रम्यो चहूँगति माहि, सुख नहिं, दुख बहु पायो।।
अर्थ - हे प्रभु! इन कर्मो ने हमारे ज्ञानरूपी उत्कृष्ट खजाने को शब्दार्थ - भव= संसार, भ्रम्यो = घूमता हूँ।
लूट कर मुझे कमजोर बना दिया है, और इन कर्मों ने ही हममें और अर्थ - इस संसार रूपी वन में अनादि काल से मैं घूम रहा | हूँ और चारों गति में सुख नहीं, दुःख बहुत पाया है।
पाप-पुण्य मिल दोय, पायनि बेड़ी डारी। कर्म महारिपु जोर, एक न कान करें जी।
तन कारागृह माहिं, मोहि दियो दुःख भारी।। मन माने दुख देहि, काहूँसों नाहिं डरै जी।।
शब्दार्थ- पायनि= पैरों में, बेड़ी= जंजीर, डारी=डाल रखी है। शब्दार्थ- महारिपु = बलवान शत्रु, कान= सुनना, मनमाने=
अर्थ - हे प्रभु! पाप और पुण्य इन दोनों ने मेरे पैरों में जंजीर अनेक प्रकार के।
डाल रखी हैं एवं शरीररूपी जेल में रोककर मुझे बहुत दुःख दिया ___ अर्थ - हे प्रभु!ये कर्म मेरे बहुत बलवान शत्रु हैं, एक भी बात 'नहीं सुनते हैं। ये कर्म अनेक प्रकार से दुखों को देते हैं। और ये किसी
इनको नेक बिगार, मैं कछु नाहिं कियो जी। से भी डरते नहीं हैं।
विन कारन जगवंद्य! बहुविधि बैर लियो जी।। कबहूँ इतर निगोद, कबहूँ नर्क दिखावै।
शब्दार्थ- नेक = रंच मात्र भी। सुर-नर-पशुगति माहि, बहुविधि नाच नचावै।।
अर्थ - हे प्रभु! इन कर्मों का मैंने रंच मात्र भी बुरा नहीं किया शब्दार्थ- नाच नचावै= भटकाते हैं।
है। हे जगत् पूज्य भगवन्! बिना कारण के ही ये कर्म अनेक प्रकार अर्थ - (ये कर्म) कभी इतर निगोद में, कभी नरक में, कभी | से हमारे शत्रु बने हुए हैं। देव, तिर्यच और मनुष्य पर्याय में अनेक प्रकार से भटका रहे हैं।
अब आयो तुम पास, सुनकर सुजस तिहारो। प्रभु इनको परसंग, भव भव माहिं बुरो जी। .
नीतिनिपुण महाराज, कीजै न्याय हमारो।। जे दुःख देखे देव! तुमसों नाहिं दुरो जी।।
शब्दार्थ- सुजस = ख्याति, तिहारो = आपकी। शब्दार्थ- परसंग= पराधीनता, बुरो= कष्ट सहन, दुरो= छिपा।
अर्थ - हे प्रभु! आपकी ख्याति सुनकर मैं यहाँ आपके पास अर्थ - हे प्रभ! इन कर्मों की पराधीनता के कारण ही संसार | आया हूँ। हे नीति-न्याय करने वाले प्रभ हमारा न्याय कीजिए। में कष्ट सहन कर रहा हूँ। हे प्रभु! मैंने जो दुःख सहे हैं वे आपसे
दुष्टन देहु निकार, साधुन को रख लीजै। छिपे नहीं हैं। आप सब जानते हैं।
विनवै 'भूधरदास' हे प्रभु! ढील न कीजै।। एक जन्म की बात, कहि न सको सुनि स्वामी।
शब्दार्थ - ढील = देरी, देहु = दीजिए। .. तुम अनन्त पर जाय, जानत अन्तरयामी।।
अर्थ - हे प्रभु! दुष्ट कर्मरूपी शत्रुओं को हमारे अंदर से निकाल अर्थ - हे अन्तर्यामी! मैं तो अपने एक पर्याय के दुखों को भी |
| कर, अच्छे गुण रूपी साधुओं को मुझमें रहने दें। मैं (भूधरदास) आप नहीं कह सकता, लेकिन आप तो त्रिकालवर्ती अनंत पर्यायों को जानते |
से विनती करता हूँ कि हे प्रभु! इस कार्य में बिलकुल देरी न कीजिए। मैं तो एक अनाथ, ये मिल दुष्ट घनेरे।
ब्र. महेश कियो बहुत बेहाल, सुनियो साहिब मेरे।।
श्रमण संस्कृति संस्थान, सांगानेर (जयपुर)
- अक्टूबर 2001 जिनभाषित 29
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कविता
वह लाजवाब है (आचार्य श्री विद्यासागर का एक शब्दचित्र)
नरेन्द्रप्रकाश जैन सम्पादक- जैन गजट
वह मुनिगण-मुकुट है उसका कोई जवाब नहीं वह लाजवाब है
साम्प्रदायिकता से वह परे है संकीर्णता के घेरों से मुक्त है
वह सैकड़ों में अकेला है अलबेला है उसका कोई जोड़ नहीं वह तो बस, वह ही है
वह भला है भोला है भद्र भावों से भरा है खरा है वदन का इकहरा है छरहरा है उम्र से (अब भी) जवान है साधक महान है भूखा है ज्ञान का शत्रु है अभिमान का भुलावों से दूर है तपश्चरण में शूर है
वह आत्मजयी है आत्मकेन्द्रित है नासादृष्टि है निजानन्द-रसलीन है मोह-माया-मत्सर विहीन है उसे लुभाती नहीं है बाहरी दुनिया की चमक उसके स्वभाव में है एक स्वाभिमानी की ठसक उसके सबसे बड़े गुण हैं - अनासक्ति और निःस्पृहता क्षमाशीलता और समता निर्ममता और निर्भयता
उसका चिन्तन मौलिक है उसकी वार्ता अलौकिक है विचारों में उदारता है प्रामाणिकता है शालीनता है सर्वजनहितैषिता है
वह आलोक - पुंज है ज्ञान - दीप है ज्योति - पुरुष है विराजी रहती है प्रतिक्षण उसके चेहरे पर एक निर्मल-निश्छल मुस्कान उसकी हर छवि है अम्लान उसका नहीं है जवाब वह है लाजवाब
'तीर्थकर' नव.दिस. 1978 से साभार 104, नईबस्ती, फिरोजाबाद (उ.प्र.)
30 अक्टूबर 2001 जिनभाषित
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पू. विदुषी आर्यिका विशुद्धमती माताजी सल्लेखना की ओर
राजस्थान प्रांत के श्री तीर्थक्षेत्र नंदनवन धरियावद में विराजमान विदुषी आर्यिका श्रीविशुद्धमती माताजी ने 1990 में 12 वर्ष की अवधि का सल्लेखना व्रत समाधिस्थ आचार्य श्री अजितसागर जी महाराज से ग्रहण किया था। पूज्य माताजी अभी तीसरे दिन आहार को उठती हैं और केवल रस ग्रहण करती है माताजी की चेतना एवं उपयोग शक्ति ठीक चल रही है। अपने धर्म ध्यान में आरूढ़ होकर दर्शनार्थियों को समय-समय पर आशीर्वाद देती है निर्यापकाचार्य श्री वर्द्धमानसागर जी महाराज धरियावद गाँव में ससंघ विराजमान हैं। उनके आशीर्वाद से संघस्थ मुनि श्री पुण्यसागर जी मुनि श्री सौम्यसागर जी एवं चार माताजी नंदनवन में है। आचार्यश्री भी समयसमय पर नंदन वन पहुँचकर पूज्य माताजी को आशीर्वचनों से संबोधित करते हैं।
"
मुझे तीन दिन पूज्य माताजी के चरण सानिध्य में रहकर धर्म ध्यान का अवसर प्राप्त हुआ। श्री तीर्थक्षेत्र नंदन वन के लिए उदयपुर, प्रतापगढ़, बांसवाड़ा से हर समय बस सेवा उपलब्ध है एवं यात्रियों के आवास एवं भोजन की व्यवस्था प्रतिष्ठाचार्य श्री हंसमुख जी ने सुलभ करा रखी है।
सुरेश जैन मारौरा, शिवपुरी जीवन-सदन, सरकिट हाऊस के पास, शिवपुरी " शासन की सहभागिता इतिहास बनायेगी, कार्यों को मूर्त रूप समाज को देना होगा" गणिनी ज्ञानमतीजी
6 अप्रैल को 'भगवान महावीर 2600वाँ जन्मकल्याणक महोत्सव वर्ष' के राष्ट्रीय उद्घाटन के पश्चात् महोत्सव की दिगम्बर जैन राष्ट्रीय समिति का प्रथम अधिवेशन पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी (ससंघ) के मंगल सान्निध्य में 7 अक्टूबर 2001 को श्री खण्डेलवाल दिगम्बर जैन मंदिर, राजा बाजार, कनॉट प्लेस, दिल्ली में सफलता पूर्वक सम्पन्न हुआ।
इस अवसर पर पूज्य माताजी ने रचनात्मक एवं दूरगामी प्रेरणाएँ समाज को प्रदान कीं, जिनका करतल ध्वनि से स्वागत किया गया। पूज्य माता जी ने कहा कि शासन की आर्थिक सहभागिता तो इतिहास का निर्माण करने हेतु है ताकि आगामी पीढ़ी को यह संदेश प्राप्त होता रहे कि 2600वाँ जन्म कल्याणक वर्ष सरकारी स्तर पर भी मनाया गया था, मुख्य भूमिका तो अपने कार्यों के माध्यम से समाज को ही निभानी है। इस अवसर पर पूज्य माताजी ने भगवान महावीर की जन्मभूमि के रूप में कुण्डलपुर के विकास का आह्वान करते हुए वैशाली को स्मारक के रूप में विकसित करने की भावना प्रस्तुत की। राजधानी दिल्ली में दिगम्बर जैन समाज के एक 'राष्ट्रीय सूचना केन्द्र' की स्थापना, स्थान-स्थान पर कीर्तिस्तम्भों, भगवान महावीर द्वार, भगवान महावीर जन्मकल्याणक सम्बन्धी बोर्ड लगाने
की प्रेरणा प्रदान करते हुए पूज्य माताजी ने कहा कि अस्थायी धर्मप्रभावना के आयोजनों के माध्यम से ही स्थायी योजनाओं की नींव पड़ती है। पूज्य माताजी ने कहा कि इस आयोजन की सफलता इसी में है कि समस्त दिगम्बर जैन समाज संगठित हो ।
प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चन्दनामती माताजी ने कहा कि इस महोत्सव वर्ष में अब तक दिगम्बर जैन परम्परा के साधु-साध्वियों ने अपने-अपने स्तर पर महत्त्वपूर्ण कार्य किये हैं, उन सभी की गणना होनी चाहिए। पूज्य माताजी ने सर्व जैन-सम्प्रदायों को निर्विवाद रूप से मान्य भगवान महावीर के जन्मकल्याणक सम्बन्धी एक झाँकी 26 जनवरी की परेड में सरकारी रूप से निकलवाने हेतु महत्त्वपूर्ण सुझाव प्रस्तुत किया, जिसका सभी ने करतल ध्वनि से स्वागत किया।
आज की सभाध्यक्ष साहू इन्दु जैन ने युवाओं को आगे बढ़ने के लिये प्रोत्साहन प्रदान करते हुए महावीर केन्द्र द्वारा 'युवा फैडरेशन' के निर्माण का प्रस्ताव रखा। सभा के प्रारंभ में दीप प्रज्वलन के पश्चात् श्रीमती कुसुमलता जैन ध.प. श्री महावीर प्रसाद जैन ( संघपति), बंगाली स्वीट सेन्टर, दिल्ली द्वारा माल्यार्पण करके साहू इन्दु जी का
सम्मान किया गया।
आज के अधिवेशन में 6 अप्रैल के उद्घाटन समारोह के पश्चात् पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा से प्रथम राष्ट्रीय आयोजन 'विश्वशांति महावीर विधान' के 21 से 28 अक्टूबर तक राजधानी दिल्ली में सम्पन्न होने की जानकारी विशेष रूप से सभा को प्रदान की गयी। कर्मयोगी ब्र. रवीन्द्रकुमार जी जैन ने सभी को इसमें भाग लेने हेतु प्रेरित किया।
डॉ. अनुपम जैन, इन्दौर ने जैन एवं प्राकृत विद्याओं के अध्ययन में राष्ट्रीय स्तर पर कार्यरत प्रमुख संस्थाओं की चर्चा करते हुए कहा कि दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान, जम्बूद्वीप- हस्तिनापुर 250 से अधिक ग्रन्थों का प्रकाशन कर चुका है और अनेक राष्ट्रीय स्तर के राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय सेमीनारों-संगोष्ठियों इत्यादि का सफल आयोजन कर इसने अपनी विशिष्ट छबि निर्मित की है। डॉ. जैन ने इस अवसर पर कुंदकुंद ज्ञानपीठ, इंदौर एवं दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान - जम्बूद्वीप द्वारा शीघ्र प्रस्तुत की जाने वाली 5 विशिष्ट शोध-परियोजनाओं के विषय में अवगत कराया।
सभा का मंगलाचरण क्षुल्लक श्री मोतीसागर जी द्वारा किया गया। डॉ. धन्य कुमार जैन (संचालक) ने राष्ट्रीय समिति द्वारा पारित विविध कार्ययोजनाओं से समाज को अवगत कराया। साहू रमेशचन्द्र जैन, श्री कैलाश चन्द्र जैन सर्राफ (लखनऊ), श्री स्वदेश भूषण जैन आदि महानुभावों ने अपने विचार प्रस्तुत किये। इस अवसर पर पूज्य चन्दनामती माताजी द्वारा लिखित भजनों पर बनी कैसेट 'भगवान महावीर जन्मकल्याणक एवं तीन पुस्तकों (महारानी त्रिशला के अनोखे सपने, भगवान महावीर व्रत एवं महावीर पूजा भगवान महावीर प्रश्नोत्तरमालिका) का विमोचन भी किया गया। देश भर से पधारे गणमान्य कार्यकर्ताओं में डॉ. हुकुमचन्द भारिल्ल, श्री वसंत दोषी आदि विद्वानों ने भी सभा में भाग लिया।
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ब्र.कु. स्वाति जैन (संघस्थ) अक्टूबर 2001 जिनभाषित 31
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शिवपुरी के सपूतों का आत्मीय । बैनाड़ा, आगरा के द्वारा किया गया। तत्पश्चात् पंडित श्री रतनचंद्र जी,
श्री निरंजन लाल जी बैनाड़ा, ब्रह्मचारी श्री संजीव भैया सांगानेर, मिलन समारोह सम्पन्न
ब्रह्मचारी श्री मोतीलाल जी कुम्हेर, ब्रह्मचारी भैया श्री विजय जी, पूज्य मुनि श्री क्षमासागर जी एवं पूज्य मुनि श्री भव्यसागर जी | ब्रह्मचारी भैया अरुण जी, ब्रह्म. भैया मनीष जी, ब्रह्म. बहिन उषा महाराज के सान्निध्य में शिवपुरी जिले के 15 गौरवशाली युवक/ | दीदी भरतपुर, ब्रह्म. बहिन मैना दीदी, शिवपुरी एवं श्री सुनील शास्त्री, युवतियों का सम्मान जैन समाज, शिवपुरी एवं श्री नेमि दिगम्बर जैन | आगरा ने सर्वप्रथम पूज्य मुनि द्वय को शिविर की सफलता हेतु श्रीफल ट्रस्ट, महावीर जिनालय द्वारा शॉल, श्रीफल, प्रशस्ति पत्र एवं स्मृति | भेंट किये। फिर जैन समाज की ओर से आमंत्रित विद्वान एवं ब्रह्मचारी चिन्ह देकर किया गया। मंगलाचरण श्री डॉ. एच.पी. जैन द्वारा किया | भैया-बहिनों को तिलक लगाकर प्रशस्ति चिन्ह भेंट किये गये। गया। सम्मानित अतिथियों ने मुनिद्वय को श्रीफल भेंट किये। | सर्वोदय शिक्षण शिविर के बारे में आदरणीय श्री बैनाड़ा जी
सम्माननीय अतिथियों में न्यायमूर्ति श्री निर्मल जैन इंदौर म.प्र. | ने अपना मार्मिक उद्बोधन दिया, 'जिनभाषित' पत्रिका के संपादक उच्च न्यायालय, श्री चन्द्रप्रकाश जैन बम्बई, चेयरमेन एन.टी.पी.सी. | पं. रतनचंद्र जी, भोपाल ने मुनि वंदना, कर अपने उद्बोधन में वर्षायोग नई दिल्ली, श्री निर्मल जैन वाइस चेयरमेन जिंदल आयरन, श्री विजय शिक्षण शिविर एवं 'जिनभाषित' के बारे में विचार व्यक्त किये और जैन प्रोफेसर आई.आई.टी. कानपुर, श्री श्रवण कुमार जैन जिला एवं कहा कि मुनि श्री क्षमासागर जी के पास समयानुशासन, सत्र न्यायाधीश देवास, श्री पदमचन्द्र जैन वाइस प्रेसीडेंट केमीकल आत्मानुशासन, वचनानुशासन सभी प्रकार के अनुशासन मिलते हैं। एवं फर्टिलाइजर लिमिटेड बैंगलोर, श्री प्रदीप रावत आई.एफ.एस. उनका व्यक्तित्व सादगी से भरा है। उन्हें किसी प्रकार की आकांक्षा प्रथम सचिव भारतीय दूतावास मौरीशस, श्री कपिल रावत रीजनल नहीं है, केवल समाज को समीचीन दिशा निर्देश देने की आकांक्षा जनरल मैनेजर कन्टेनर कार्पोरेशन आफ इंडिया लिमि., श्री अशोक है। वे प्रतिभासम्मान, गौशाला केन्द्र और पर्यावरण केन्द्र की स्थापना जैन ए.डी.जे. रायसेन, श्री दिनेश जैन जनरल मैनेजर स्टेट बैंक आफ | में अभिरुचि रखते हैं। मुनिश्री का सादगी से परिपूर्ण व्यक्तित्व सभी इंडिया भोपाल, श्री ओंकारलाल जैन आयकर अधिकारी ग्वालियर, | को आकृष्ट करता है। डॉ. कोकिला जैन गायनिकालोजिस्ट इटारसी, डॉ. उमा जैन | मुनिश्री क्षमासागर जी ने अपने मंगल आशीष में अभीक्ष्ण गायनिकॉलोजिस्ट शिवपुरी, डॉ. ओमप्रकाश अग्रवाल इन्टेक ज्ञानोपयोग का वर्णन करते हुए कहा कि यह तीर्थंकर प्रकृति का बंध डायरेक्टर जनरल लखनऊ, श्री सुरेश जैन आई.ए.एस. भोपाल थे। | कराने में सहयोगी है। ज्ञान. श्रद्धा और चारित्र दोनों को सम्हालने वाला
सर्वप्रथम न्यायमूर्ति श्री निर्मल जैन इंदौर ने राष्ट्रीय स्तर का | है। जब हम ज्ञान के बारे में बात करें तो आत्म ज्ञान ही सर्वश्रेष्ठ है। महाविद्यालय शिवपुरी में खोलने हेतु सर्वसम्मति से विचार रखा। | जितनी ललक बच्चों में भौतिक ज्ञान प्राप्त करने के लिये होती है इसके लिये श्री निर्मल जैन मुम्बई ने कहा कि 50 लाख रुपये तक उतनी ही ललक आत्म ज्ञान प्राप्त करने के लिये होनी चाहिए। धवला की राशि मैं मुम्बई से एकत्रित करूँगा, इतनी ही राशि आप स्थानीय जी में लिखा है कि जो आज सम्यग्ज्ञान संसार में तैरने की, संसार तौर पर एकत्रित करें। तभी श्री चिंतामणि जी एडवोकेट कोलरस ने पार करने की कला है। तत्काल 1 लाख रुपये की घोषणा की। सम्मान समारोह का संचालन | सर्वोदय शिक्षण शिविर में विभिन्न कक्षाओं में बालबोध श्री सुरेश जैन आई.ए.एस. भोपाल एवं संजीव बाझल ने किया। | (पूर्वाद्ध व उत्तरार्द्ध), रत्नकरण्ड श्रावकाचार, द्रव्यसंग्रह, इष्टोपदेश,
आत्मीय मिलन समारोह के बाद पूज्य मुनिद्वय के आशीर्वचन | छहढाला एवं तत्त्वार्थसूत्र का अध्ययन कराया जा रहा है जिसमें 550 हुए। जिसमें मुनि श्री क्षमासागर जी ने कहा कि परस्परता की भावना आबाल वृद्ध शिक्षार्थियों ने भाग लिया है। शिविर का समय प्रातः सारे देश में हो तो जीने का मजा ही और है। यदि हमारे भीतर सबके 6.00 से 9.00 तथा 9.00 से 10.00 तक मुनिद्वय के प्रवचन, लिये जगह हो तो हम सबका जीवन श्रेष्ठ बन सकता है। हम प्राणीमात्र | दोप. 2.30 से 3.30 एवं सायं को 6.00 से 8.00 तथा रात्रि के लिये अपने हृदय में जगह बनायें।
में 8.00 से 9.00 आमंत्रित विद्वान अतिथियों के प्रवचन होते हैं। 28 अक्टूबर को राष्ट्रीय स्तर का जैन युवा प्रतिभा सम्मान
सुरेश जैन मारौरा, शिवपुरी समारोह भी शिवपुरी में पूज्य मुनिद्वय के सान्निध्य में आयोजित किया
पारस जनकल्याण संस्थान का मैत्री गया है। इसके लिये कक्षा 12 से 75% से अधिक अंक प्राप्त करने वाले छात्र/छात्राएँ अपनी अंकसूची श्री सुरेश जैन आई.ए.एस. 30,
दिवस सम्पन्न निशात कालोनी भोपाल या महावीर जैन मंदिर शिवपुरी को भेज दें। पारमार्थिक शैक्षणिक एवं लोक कल्याण कार्य के लिये समर्पित
सुरेश जैन मारौरा, शिवपुरी पारस जन कल्याण संस्थान, भोपाल मध्यप्रदेश द्वारा वार्षिक विश्व
मैत्री दिवस पर आयोजित प्रतिभा सम्मान समारोह प्रदेश के प्रथम सर्वोदय शिक्षण शिविर प्रारम्भ
नागरिक महामहिम राज्यपाल डॉ. भाई महावीर जी के मुख्य आतिथ्य परमपूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के आशीर्वाद | में दिनांक 30.9.2001 को स्थानीय शासकीय कमला नेहरू कन्या एवं मुनि श्री क्षमासागर जी एवं मुनि श्री भव्यसागर जी की प्रेरणा | उ.मा.विद्यालय तात्या टोपे नगर के विशाल सभागार में आयोजित एवं सान्निध्य में सर्वोदय शिक्षण शिविर का उद्घाटन आज संपन्न किया गया। कार्यक्रम में विशेष अतिथि के रूप में नगर के प्रथम हुआ। शिविर के लिये दीप प्रज्वलन विद्वान अतिथि पंडित श्री रतनचंद्र
नागरिक महापौर भोपाल श्रीमती विभा पटेल एवं क्षेत्रीय पार्षद तथा जी, भोपाल एवं श्रावक श्रेष्ठी शिविर के कुलपति श्री निरंजनलाल जी |
नेता प्रतिपक्ष नगर निगम भोपाल श्री रामेश्वर शर्मा जी उपस्थित थे। 32 अक्टूबर 2001 जिनभाषित -
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नमोऽस्तु
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प्रो. (डॉ.) सरोजकुमार वर्तमान युग के सुप्रसिद्ध मूर्धन्य कवियों में अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। उनका 'अंदाज-ए-बयाँ' गालिब की तरह कुछ और ही है। उनकी कविताएँ ध्वनिकाव्य के उत्कृष्ट नमूने हैं और उनमें व्यंग्य की तीखी चोट होती है। सरोजकुमार जी में शब्दों के व्यंजनात्मक प्रयोग की अद्भुत क्षमता है। वे लाक्षणिक-व्यंजक शब्दों, प्रतीकों और बिम्बों के माध्यम से अपनी बात इस तरह कहते हैं कि पाठक की हृदयतन्त्री झनझना उठती है। मंचों पर वे छाये रहते
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दैनिक 'नई दुनिया में हर सप्ताह 'स्वान्तः दु:खाय' स्तम्भ के अंतर्गत उनकी व्यंग्यात्मक कविता प्रकाशित होती है। उनके दो काव्यसंग्रह निकल चुके हैं : “लौटती है नदी' और 'काव्यमित्र।' काव्यपाठ हेतु उन्हें विदेशों में कई बार आमंत्रित किया गया है। अभी जुलाई 2001 में शिकागो में 'जैना' संगठन ने उनके काव्यपाठ का आयोजन किया था। उसके लिये उन्होंने जैनानुशासन की भावभूमि पर कुछ कविताएँ रची थीं, जिनका संग्रह 'नमोऽस्तु' शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। मैंने आग्रह करके उसमें की कविताएँ 'जिनभाषित' में क्रमशः प्रकाशित करने की अनुमति ले ली है। एतदर्थ में उनका आभारी हूँ।
कविता
प्रदर्शनी का गुलाब
प्रो. (डॉ.) सरोज कुमार हमको ही टहनियों में काट-छाँट लाएँगे, सुन्दर होने की सजा देंगे, फिर सजाएँगे।
श्वेत, लाल, पीले, नीलाभ गुलाब ही गुलाब ही गुलाब! घुघराली, दल पर दल पंखुरियाँ! काँटों की सीढ़ियाँ, हरी-हरी पत्तियाँ! एक-एक पौधे से एक-एक डाली कटी-छंटी सज-धज नखराली! रंगों की रति का मनचीता त्योहार नयनाभिराम मोहक अलौकी संभार!
मैंने प्रदर्शनी के गुलाबों से पूछाकैसा लग रहा है? कोई टिप्पणी? बोले- यहाँ क्या निहारते हो बंद-बंद हॉल में, पंडाल में? वहाँ आओ, जहाँ हम चहकते हैं महकते हैं, क्यारियों के थाल में! पर आप वहाँ क्यों आएँगे
अब हम हैं भी क्या? आपके सौन्दर्यबोध की सेवा में आपके अवलोकनार्थ अपने ताजा शव हैं! आप हमें निहारकर अपने घर जाएँगे पर हम तो अब अपने घर नहीं लौट पाएँगे! अपनी जड़ों से कटने के बाद कोई कहीं का नहीं रहता! देखना दिखाना कुछ घंटों का फिर आप ही हमें घूरे पर पटक आएँगे!
'मनोरम'37 पत्रकार कालोनी,
इंदौर-452001 म.प्र.
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________________ आचार्य श्री विद्यासागर के सुभाषित सरोवर के बीच बैठा हुआ व्यक्ति जिस तरह दावानल से घिरे रहने पर भी उसकी दाह से बच जाता है ठीक उसी तरह भगवान् के मंदिर में पहुँचने पर भक्त पुरुष बाहरी विषय कषायों के दावानल से भली भाँति बच जाता है। इधर-उधर की पंचायत में मत रमो किन्तु पंच परमेष्ठी की भक्ति में लीन हो जाओ, वह भक्ति तुम्हारी मुक्ति का कारण बनेगी। स्तुति करने का प्रयोजन मात्र रागात्मक क्षणों की प्राप्ति नहीं है बल्कि चित्त में शांति वैराग्य और संयम में वृद्धि भी होनी चाहिए। भक्ति या गुणानुवाद आन्तरिक भावों के साथ होना चाहिए, वह मात्र दिखावा या प्रदर्शन नहीं हो। हे रसना! तुने आज तक राग भरे गीत-संगीत में ही रस लिया है अब उसमें रस ना ले। अध्यात्मभरी भक्ति वीतराग विज्ञान में रस ले। * भक्ति, मुक्ति के लिये कारण है और भुक्ति संसार के लिये। पहले दासोऽहं फिर उदासोऽहं बाद में सोऽहं और अन्त में अहं, भक्त से भगवान् बनने का क्रम यही है। * भक्ति कभी भी हेय बुद्धि से नहीं होती बल्कि उसे तो उपादेय बुद्धि से गद्गद् होकर करनी चाहिए। भक्ति तो ठीक है किन्तु अन्धभक्ति ठीक नहीं। बंधुओ! भक्ति को विवेक की डोर से बाँधे रखना। सच्चे दिगम्बर गुरुओं की हमें मुक्त कण्ठ से प्रशंसा करनी चाहिए, साथ ही इस जिव्हा को यह शिक्षा देनी चाहिए कि हे! रसना जब तक तुझमें शक्ति है तब तक गुरु की महिमा गाती रह तेरे लिये ये सौभाग्य के क्षण हैं। * पंच परमेष्ठी की भक्ति एवं ध्यान से विशुद्धि बढ़ेगी, संक्लेश घटेगा, वात्सल्य बढ़ेगा। ‘सागर बूंद समाय' से उद्धृत आर.के. मार्बल्स लि. किशनगढ़ (राजस्थान) के सौजन्य से स्वामी, प्रकाशक एवं मुद्रक : रतनलाल बैनाड़ा द्वारा एकलव्य ऑफसेट सहकारी मुद्रणालय संस्था मर्यादित, जोन-1, महाराणा प्रताप नगर, भोपाल (म.प्र.) से मुद्रित एवं सर्वोदय जैन विद्यापीठ 1/205, प्रोफेसर्स कालोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) से प्रकाशित।