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वनवासी और चैत्यवासी
स्व. पं. नाथूरामजी प्रेमी
भगवान महावीर के निर्वाण के कुछ ही वर्षों बाद (अन्तिम रहते थे- उसे बाँधते तक न अनुबद्ध केवली जम्बूस्वामी के निर्वाण के अनन्तर ) उनका मूल निर्मन्थ संघ श्वेताम्बर और दिगम्बर इन दो शाखाओं में विभाजित हो गया। कालान्तर में इन दोनों सम्प्रदायों में शिथिलाचार ने इतना अधिक जोर पकड़ा कि दोनों में पुनः वनवासियों और चैत्यवासियों के रूप में दो-दो वर्ग बन गये। उनकी प्रवृत्तियाँ कैसी थीं और उन्होंने जिनशासन को किस प्रकार भ्रष्ट किया इसका ऐतिहासिक विवरण प्रस्तुत लेख में दिया गया है। इसे हम तीन किश्तों में प्रकाशित कर रहे हैं। पहली किश्त पेश है।
थे। बाहर जाने के समय ही वे कटिवस्त्र धारण करते थे । दिगम्बर श्वेताम्बर के सिवाय एक तीसरा सम्प्रदाय यापनीय नाम का था जो अब नामशेष हो चुका है। इसके साधु दिगम्बरों के ही समान नग्न रहते थे और पाणिपात्रभोजी थे पर इनमें भी वस्त्र को अपवाद रूप से ही ग्रहण करने की आज्ञा थी।
सत्य, अहिंसा, मैत्री और अनेकान्त जैसे समन्वयकारी सिद्धान्त के प्रचारक जैनधर्म में भी अब तक अनेक सम्प्रदायों और पन्थों की सृष्टि हो चुकी है जिनमें से बहुतों का तो अस्तित्व बना हुआ है और बहुत से काल के गाल में विलीन हो चुके हैं। जैन धर्म के अनुयायी मुख्यतः दिगम्बर और श्वेता म्बर सम्प्रदायों में बँटे हुए हैं। ये भेद शुरू में निर्वस्त्रता और
सवस्त्रता को लेकर हुए थे और इसी के कारण आगे चलकर इनमें स्त्रीमुक्ति, केवलिभक्ति आदि की मान्यताओं को लेकर और भी अनेक छोटी मोटी बातों में मतभिन्नता आ गई है, फिर भी मूल सिद्धान्तों में दोनों एक है।
इन दोनों में भी अनेक शाखा प्रशाखायें हुई हैं, परन्तु यहाँ उनकी चर्चा अभीष्ट नहीं है। इस लेख में केवल ऐसी दो शाखाओं की चर्चा की जाती है जो दोनों ही सम्प्रदायों में बहुत समय से चली आ रही हैं और जिन्हें हम वनवासी और चैत्यवासी कहते है चैत्यवासी ही मठवासी है।
श्वेताम्बरों में जो 'जती' या 'श्रीपूज्य' कहलाते है वे चैत्यवासी या मठवासी शाखा के अवशेष हैं और जो 'संवेगी' कहलाते हैं वे वनवासी शाखा के संवेगी अपने को सुविहित मार्ग या विधिमार्ग का अनुयायी कहते हैं । इसी तरह दिगम्बरों के भट्टारक मठवासी और नग्न मुनि वनवासी शाखा के अवशेष हैं।
भट्टारकों और जतियों का आचरण लगभग एक सा है । यद्यपि ये दोनों ही निर्ग्रन्थता और अपरिग्रहता का दावा करते हैं और अपने को वीतराग मार्ग का ही अनुयायी बतलाते हैं।
दिगम्बर श्वेताम्बर दोनों शाखाओं के साधु निर्मन्थ कहलाते हैं। और निर्ग्रन्थ का अर्थ है सब प्रकार के परिग्रहों से रहित । यद्यपि श्वेताम्बर सम्प्रदाय में साधुओं को लज्जानिवारण के लिये बहुत ही सादा वस्त्र रखने की छूट दी गई है। परन्तु जिन शर्तों के साथ दी गई है वह न देने के ही बराबर है। वास्तव में अशक्ति या लाचारी में ही वस्त्र का उपयोग करने की आज्ञा है ऐसा मालूम होता है कि विक्रम की छठी सातवीं शताब्दी तक तो श्वेताम्बर साधु भी कारण पड़ने पर ही वस्त्र धारण करते थे और सो भी कटिवस्त्र । यदि कटिवस्त्र भी निष्कारण धारण किया जाता था तो धारण करने वाले को कुसाधु समझा जाता था।
हरिभद्र ने संबोध प्रकरण' में अपने समय के कुसाधुओं का वर्णन करते हुए लिखा है कि वे केशलोच नहीं करते, प्रतिमावहन करते शरमाते हैं, शरीर पर का मैल उतारते हैं, पाटुकायें पहिनकर फिरते हैं और बिना कारण कटिवत्र बाँधते हैं।
लगभग 40-50 वर्ष पहले के श्वेताम्बर साधु जब अपने उपाश्रयों में बैठे होते थे तब शरीर के अधोभाग पर एक वस्त्रखंड डाले
16 अक्टूबर 2001 जिनभाषित
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वस्त्र- पात्र के सिवाय दिगम्बर श्वेताम्बर साधुओं के आचार में और कोई विशेष अन्तर नहीं है। दोनों के आचार-ग्रन्थों में कहा है कि मुनियों को बस्ती से बाहर उद्यानों या शून्य गृहों में रहना चाहिए. अनुद्दिष्ट भोजन करना चाहिए, धर्मोपकरणों के अतिरिक्त अन्य सब प्रकार के परिग्रहों से दूर रहना चाहिए, जमीन पर सोना चाहिए, पैदल विहार करना चाहिए और शान्ति से ध्यानाध्ययन में अपना समय बिताना चाहिए।
यह कहना तो कठिन है कि किसी समय सबके सब साधु आगमोपदिष्ट आचारों का पूर्ण रूप से पालन करते होंगे, फिर भी शुरू में दोनों ही शाखाओं के साधुओं में आगमोक्त आचारों के पालन का अधिक से अधिक आग्रह रहा होगा। परन्तु ज्यों-ज्यों समय बीतता गया, साधुओं की संख्या बढ़ती गई और भिन्न-भिन्न आचार-विचार वाले विभिन्न देशों में फैलती गई, धनियों और राजाओं द्वारा पूजाप्रतिष्ठा पाती गई, श्रावकों में भक्ति और दोषों की उपेक्षा बढ़ती गई, त्यों-त्यों उसमें शिमिलता आती गई और दोनों ही सम्पदायों में शिथिलाचारी साधुओं की संख्या बढ़ती गई। मालूम होता है बहुत प्राचीन काल में ही इनकी जड़ें जम गई थीं।
शेताम्बर चैत्यवासी धर्मसागर अपनी पट्टावली में लिखते हैं कि वीरसंवत् 882 में चैत्यवास शुरू हआ - 'वीरात् 882 चैत्यस्थितिः परन्तु मुनि कल्याणविजय आदि विद्वानों का खयाल है कि इससे भी पहले इसकी जड़ जम गई थी और 882 वी. नि. तक तो इसकी सार्वत्रिक प्रवृत्ति हो गई थी।
दार्शनिक हरिभद्र (विक्रम की आठवीं शताब्दी) संबोधप्रक
रण
में लिखते हैं- 'ये कुसाधु चैत्यों और मठों में रहते हैं, पूजा करने का आरम्भ करते हैं, देव-द्रव्य का उपभोग करते हैं, जिनमन्दिर और शालायें चिनवाते हैं, रंग-बिरंगे सुगन्धित धूपवासित वस्त्र पहनते हैं, बिना नाथ के बैलों के सदृश स्त्रियों के आगे गाते हैं, आर्यिकाओं द्वारा लाये गये पदार्थ खाते हैं और तरह तरह के उपकरण रखते हैं। जल, फल, फूल आदि सचित्त द्रव्यों का उपभोग करते हैं, दो तीन बार भोजन करते और ताम्बूल लवंगादि भी खाते हैं।
'ये मुहूर्त निकालते हैं, निमित्त बतलाते हैं, भभूत भी देते हैं। ज्योनारों में मिष्ट आहार प्राप्त करते हैं, आहार के लिए खुशामद करते
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