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और पूछने पर भी सत्य धर्म नहीं बतलाते।'
सुविहित मार्ग का प्रचार-कार्य जारी रखा। जिनपति ने संघपट्टक पर एक _ 'स्वयं भ्रष्ट होते हुए भी दूसरों से आलोचना-प्रतिक्रमण कराते | हजार तीन श्लोक प्रमाण टीका लिखकर उसका खूब प्रचार किया और हैं। स्नान करते, तेल लगाते, शृंगार करते और इत्र फुलेल का उपयोग | उनके गृहस्थ शिष्य नेमिचन्द्र भंडारी ने षष्ठिशतक नामक प्राकृत करते हैं।'
ग्रन्थ रचकर चैत्यवासियों के शिथिलाचार का विरोध किया। इसी तरह अपने हीनाचारी मृतक गुरुओं की दाह-भूमि पर स्तूप बनवाते गुजरात में भी मुनिचन्द्र, मुनिसुन्दर आदि ने अपनी रचनाओं और हैं। स्त्रियों के समक्ष व्याख्यान देते हैं और स्त्रियाँ उनके गुणों के गीत | उपदेशों से चैत्यवासियों को हतप्रभ कर दिया। गाती है।'
दिगम्बर चैत्यवासी 'सारी रात सोते, क्रय-विक्रय करते और प्रवचन के बहाने
| दिगम्बर साहित्य में ऐसा कोई स्पष्ट उल्लेख तो नहीं मिलता विकथायें किया करते हैं।'
जिसमें चैत्यवास के प्रारंभ की कोई तिथि बतलाई गई हो और न 'चेला बनाने के लिये छोटे छोटे बच्चों को खरीदते, भोले लोगों
चैत्यवास नाम के किसी पृथक संगठन या सम्प्रदाय का ही कोई को ठगते और जिन प्रतिमाओं को भी बेचते खरीदते हैं।'
उल्लेख मिलता है, फिर भी यह निश्चित है कि वह था और बहुत पुराने 'उच्चाटण करते और वैद्यक, यंत्र, मंत्र, गंडा, ताबीज आदि
समय से था। हमारे भट्टारकों की गद्दियाँ उसी की प्रतिनिधि है।' में कुशल होते हैं।'
दिगम्बर चर्या इतनी उग्र और कठोर है कि हमारे खयाल में नग्न _ 'ये श्रावकों को सुविहित साधुओं के पास जाते हुए रोकते हैं,
साधुओं की संख्या हमेशा कम रही है और पिछले कई सौ वर्षों से तो शाप देने का भय दिखाते हैं, परस्पर विरोध रखते हैं और चेलों के लिये
वे क्वचित् ही दिखाई देते रहे हैं। शायद इसी कारण चैत्यवासियों के एक दूसरे से लड़ मरते हैं।'
समान उनका कोई स्वतंत्र संघटन नहीं हो सका और न एक पृथक् दल जो लोग इन भ्रष्ट-चरित्रों को भी मुनि मानते थे, उनको लक्ष्य के रूप में प्राचीन साहित्य में उनका स्पष्ट उल्लेख ही हुआ। कुन्दकुन्द करके हरिभद्र कहते हैं, 'कुछ नासमझ लोग कहते हैं कि यह तीर्थंकरों
के लिंग पाहुड़' से पता लगता है कि उस समय भी ऐसे जैन साधु का वेष है, इसे भी नमस्कार करना चाहिए। अहो, धिक्कार हो इन्हें। मैं
थे जो गृहस्थों के विवाह जुटाते थे, कृषिकर्म-वाणिज्यरूप हिंसा कर्म अपने सिर के शूल की पुकार किसके आगे जाकर करूँ?'4
करते थे- 'जो जोडेदि विवाहं किसिकम्मवणिज्ज-जीवघादं च' और जिनवल्लभकृत संघपट्टक की भूमिका में श्वेताम्बर चैत्यवास
जिनेन्द्र का लिंग धारण करके उसका उपहास कराते थे - 'लिंग घेत्तूण का इतिहास
जिणवरिंदाणं, उवहसइ लिंगिभावं।' 'वी. नि. 850 के लगभग कुछ मुनियों ने उग्र विहार छोड़कर
लिंगपाहुड़ की ही और दूसरी गाथाओं से ऐसा मालूम होता है मन्दिरों में रहना प्रारंभ कर दिया। धीरे - धीरे इनकी संख्या बढ़ती गई
कि ग्रन्थकर्ता के आसपास चैत्यवासी श्रमण बहुत थे और वे उनको और समयान्तर में ये बहुत प्रबल हो गये। इन्होंने 'निगम' नाम के कुछ
सत्पथ पर लाना चाहते थे। ऐसे साधुओं के विषय में उन्होंने स्पष्ट कहा ग्रन्थ रचे और उन्हें 'दृष्टिवाद' नामक बारहवें अंग का एक अंश
है कि वे पशु हैं, श्रमण नहीं - "तिरिक्खजोणी ण सो समणो।' बतलाया। उनमें यह प्रतिपादन किया गया कि वर्तमान काल के मुनियों
विक्रम की सत्रहवीं सदी में पं. बनारसीदास ने जिस शुद्धाम्नाय को चैत्यों में रहना उचित है और उन्हें पुस्तकादि के लिये यथायोग्य
का प्रचार किया और जो आगे चलकर तेरह पन्थ के नाम से विख्यात आवश्यक द्रव्य भी संग्रह करके रखना चाहिए साथ ही ये वनवासियों
हुआ, वह इन भट्टारकों या चैत्यवासियों के ही विरोध का एक रूप था की निन्दा करने लगे और अपना बल बढ़ाने लगे।'
और उसने दिगम्बर सम्प्रदाय में वही काम किया जो श्वेताम्बर सम्प्रदाय वि.सं. 802 में अणहिलपुर पट्टण के राजा वनराज चावड़ा से
में विधि-मार्ग ने किया था। तेरह पन्थ ने चैत्यवासी भट्टारकों की उनके गुरु शीलगुणसूरिने जो चैत्यवासी थे यह आज्ञा जारी करा दी कि
प्रतिष्ठा को जड़ से उखाड़ दिया। इस नगर में चैत्यवासी साधुओं को छोड़कर दूसरे वनवासी साधु न
हमारा अनुमान है कि इस तरह के प्रयत्न बनारसीदास से पहले आ सकेंगे।'
भी कई बार हुए होंगे, जिनके स्पष्ट उल्लेख तो नहीं मिलते परन्तु प्रयत्न 'इस अनुचित आज्ञा को रद्द कराने के लिये वि.सं. 1074 में
करके खोजे जा सकते हैं। जिनेश्वर और बुद्धिसागर नाम के दो विधिमार्गी विद्वानों ने राजा
संदर्भ सूची दुर्लभदेव की सभा में चैत्यवासियों के साथ शास्त्रार्थ करके उन्हें पराजित किया और तब कहीं पाटण में विधिमार्गियों का प्रवेश हो
1. आचारांग प्र.श्रु., अध्ययन 6, उद्देश्य 3 और द्वि. श्रुतस्कन्ध अध्ययन
14 उद्देश्य 1-21 सका।'
2. कीवो न कुणइ लोयं लज्जइ पडिमाइ जल्लमुवणेई।। 'मारवाड़ में भी चैत्यवासियों का बहुत प्राबल्य था। उसके
सोबाहणो य हिंडइ, बंधइ कटिपट्टयमकज्जे॥14 विरुद्ध सबसे अधिक प्रयत्न पूर्वोक्त जिनेश्वर के शिष्य जिनवल्लभ ने
अहमदाबाद की जैन-ग्रन्थ-प्रकाशक-सभाद्वारा वि.स. 1972 में किये। अपने संघपट्टक में उन्होंने चैत्यवासियों के शिथिलाचार का और प्रकाशित। सूत्र-विरुद्ध प्रवृत्ति का अच्छा खाका खींचा है।'
4. बाला वंयति एवं वेसो तित्थंकराण एसो वि।
णमणिज्जो धिद्धी अहो सिरसलं कस्स पुक्करिमो176।। ___ 'चितौड के श्रावकों ने महावीर भगवान का एक मंदिर बनाकर | शिवकोटि के नाम से प्रसिद्ध की गई 'रत्नमाला' में भी लिखा है - उसके गर्भ गृह के द्वार के एक स्तम्भ पर उक्त संघपट्टक के चालीसों कलौ काले वने वासो वय॑ते मुनिसत्तमैः। पद्य खुदवा दिये हैं जो आज तक उनकी कीर्ति को प्रकट कर रहे हैं। स्थीयते च जिनागारे ग्रामादिषु विशेषतः 1122।। जिनवल्लभ का यह प्रयत्न चैत्यवासियों को असह्य हुआ। कहा जाता 6. जैनहितेषी भाग 11, अंक 121 है कि वे पाँच सौ लठैतों के साथ उक्त मन्दिर पर चढ़ आये, परन्तु |
7. श्री अगरचन्द्र नाहटा का लेख 'यतिसमाज' (अनेकान्त वर्ष 3, अंक तत्कालीन महाराणा ने उन्हें इस अपकृत्य से रोक दिया।'
8-9) में श्वेताम्बर चैत्यवासियों पर विस्तृत प्रकाश डाला है। 'जिनवल्लभ के बाद जिनदत्त और जिनपति ने भी अपने
जैन साहित्य और इतिहास (संशोधित संस्करण) से साभार
- अक्टूबर 2001 जिनभाषित 17
विक्रम
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