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________________ शंका-समाधान पं. रतनलाल बैनाडा शंकाकार - श्री एस.पी. वैद्य, मलकापुर समाधान- जो आभियोग्य जाति के देव विमानों को ढोते हैं, शंका - द्रव्यस्त्री को क्षायिक सम्यक्त्व हो सकता है या नहीं? | उनका मूल शरीर तो विमानों में ही रहता है। यह तो उनकी विक्रिया जबकि जीवकाण्ड की केशववर्णी टीका में, स्त्रियों के क्षायिक सम्यक्त्व है। ज्योतिषी देवों में इन्द्र सामानिक आदि दस भेदों में, त्रायस्त्रिंस कहा गया है। व लोकपाल को छोड़कर शेष आठ भेद पाये जाते हैं। उनमें आभियोग्य समाधान - श्रीकेशववर्णी का उपर्युक्त मत किसी भी अन्य जाति के ज्योतिषी देव, सूर्य, चन्द्र आदि के विमानों को ढोने का आचार्य को स्वीकृत नहीं है। तत्त्वार्थसूत्र की राजवार्तिक टीका अध्याय कार्य करते हैं। विमानों को ढोने में इन देवों को शारीरिक कष्ट तो कम 9 सूत्र 7 ज्ञानपीठ प्रकाशन पृ. 606 में इस प्रकार लिखा है। | होता है, पर पराधीनतारूप मानसिक कष्ट बहुत होता है। 'मनुष्यस्य क्षपणामारब्धवतः पुरुषलिंगे नेवेवृत्तेः।' अर्थ- । वैमानिक देवों के मूल विमान तो स्थिर ही रहते हैं। पर जब क्षपणा का आरम्भ करने वाला पुरुषलिंगी मनुष्य ही होता है। कभी वैमानिक देवों को जाना होता है, तब उनकी आज्ञा से आभियोग्य सर्वार्थसिद्धि में आचार्य पूज्यपाद अ.1 सूत्र-7 की टीका मेंइस | जाति के देवों को पक्षी आदि का रूप धरकर, विमान रूप बनकर, प्रकार लिखते हैं कि - द्रव्यवेदस्त्रीणां तासां क्षायिकासंभवात्। अर्थ- वहन करने का काम करना ही पड़ता है। ऐसा कष्ट भवनवासी और द्रव्यस्त्रियों के क्षायिक सम्यक्त्व संभव नहीं। व्यंतर देवों में भी पाया जाता है। यथार्थ में आभियोग्य जाति के देवों सत्कर्म पंजिका पृ. 79 पर आचार्य ने इस प्रकार लिखा है | का कर्म विपाक इसी प्रकार फलरूप होता है। कि - 'तं खवडं सत्ती एदेसि संहडणाणं उदयसहित जीवाणं णत्थि त्ति शंका - जिस प्रकार मोक्ष प्राप्ति के लिये प्रथम संहनन अभिप्यादो।' अर्थ- 'वज्रनाराच आदि पाँच संहननों से सहित जीवों आवश्यक है, क्या उसी प्रकार प्रथम समचतुरस्र संस्थान भी के दर्शनमोह क्षपण करने की शक्ति नहीं है।' आवश्यक है? इससे स्पष्ट है कि केवल प्रथम संहनन वाले जीव के ही समाधान - तेरहवें गुणस्थान में प्रथम वज्रवृषभनाराच संहनन दर्शनमोह के क्षपण करने की शक्ति है। द्रव्यस्त्री के अंतिम तीन संहनन | तो होना ही चाहिए, अन्यथा मोक्ष प्राप्ति की योग्यता नहीं बनती, होते हैं, अतः उनके दर्शनमोह के क्षपण करने की शक्ति नहीं होती | लेकिन तेरहवें गुणस्थान में छहों संस्थान का उदय पाया जाता है। (देखें - कर्मकाण्ड-टीका आर्यिका आदिमतिमाताजी पृ. 237) उपर्युक्त प्रमाणों से यह स्पष्ट है कि द्रव्यस्त्री के क्षायिक __ अर्थात् छहों संस्थानों में से किसी भी एक संस्थान के उदय सम्यक्त्व नहीं होता। वाले जीव के तेरहवाँ गुणस्थान संभव है। शंका- क्या द्रव्यलिंगी साधु के मात्र पहला ही गुणस्थान माना _शंकाकार- राजेन्द्र कुमार जैन, अजमेर जावें या अन्य भी? यदि ऐसा विकल्प किया जाए कि हुण्डक संस्थान वालों को समाधान- छठेगुणस्थानवर्ती या इससे ऊपर वाले मुनिराजों | दीक्षा कैसे मिलती होगी, तो इसका उत्तर है कि जिन पुरुषों के हुण्डक को ही भावलिगी साधु माना जाता है। त्रिलोकसार गाथा 545 में इस | संस्थान का उदय अति मंद अनुभाग वाला हो और जो हुण्डक संस्थान प्रकार कहा है शरीर दखने में स्पष्ट नहीं झलकता हो उनको दीक्षा मिलने में क्या णरतिरय देसअयदा उक्कस्सेणच्चुदोत्ति णिग्गंथा। आपत्ति हो सकती है। अर्थात् कुछ नहीं। ण य अदय देसमिच्छा गेवेज्जतोत्ति गच्छंति।।545।। शंका - यदि कोई शिथिलाचारी मुनि, जिनका आचरण आगम टीका.... द्रव्यनिम्रन्था नरा भावेनासंयता देशसंयताः मिथ्या- के विपरीत स्पष्ट दिख रहा हो, अपने शहर में आ जावे तो श्रावकों दृष्टयो वा उपरिमौवेयकपर्यन्तं गच्छन्ति। अर्थ- 'द्रव्य से निर्ग्रन्थ और | को कैसा व्यवहार करना चाहिए? भाव से असंयत, देशसंयत, तथा मिथ्यादृष्टि मुनि अंतिम अवेयक समाधान - इसी प्रकार का प्रश्न चारित्र च. ग्रन्थ के तीर्थाटन पर्यन्त जाते हैं। अर्थात् जो द्रव्यलिंगी साधु हैं, अर्थात् जिन साधुओं | अ. में पृ. 126 पर चा.च आ. शान्तिसागर जी महाराज से किया के संज्वलन के अलावा अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण या | गया था वह यह है - प्रत्याख्यानावरणकषाय का उदय विद्यमान है, जिसके कारण उनके 'शिथिलाचरण वाले साधु के प्रति समाज को या समझदार पहले से पाँचवें तक कोई भी गुणस्थान है, वे मुनि अंतिम ग्रैवेयक व्यक्ति को कैसा व्यवहार रखना चाहिए? महाराज ने कहा कि ऐसे पर्यन्त जाते हैं। अनुदिश और अनुत्तर में भावलिंगी साधु का ही जन्म साधु को एकान्त में समझाना चाहिए। उसका स्थितिकरण करना होता है। चाहिए। पुनः प्रश्न-समझाने पर भी यदि उस मुनि की प्रवृत्ति न बदले शंकाकार - सतेन्द्रकुमार जैन, रेवाड़ी। तब क्या कर्तव्य है? क्या समाचार पत्रों में उसके संबंध में समाचार शंका- आभियोग्य जाति के देव सूर्य चंद्रमा आदि विमानों ] छपाना चाहिए या नहीं? महाराज का उत्तर-समझाने से भी काम न को ढोते हैं, क्या उनको कष्ट या दुःख नहीं होता? क्या वैमानिक | चले तो उसकी उपेक्षा करो, उपगृहन अंग का पालन करो। पत्रों में देवों के विमानों को अन्य देव वहन करते हैं। स्पष्ट करें। चर्चा चलने से धर्म की हसी होने के साथ-साथ अन्य मार्गस्थ साधुओं 18 अक्टूबर 2001 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524256
Book TitleJinabhashita 2001 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2001
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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